ज्ञान और भोग साथ नहीं चलते || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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ज्ञान और भोग साथ नहीं चलते || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः। अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावाज्ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक ८)

अनुवाद: नश्वर जगत और अनश्वर चेतना के संयोग से निर्मित यह सम्पूर्ण व्यक्त और अव्यक्त विश्व का पोषण वह परमात्मा करता है। जीवात्मा संसार के विषयों का भोक्ता होने के कारण उसमें फँसता है, परन्तु परब्रह्म का ज्ञान होने पर सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है।

आचार्य प्रशांत: ज्ञान और भोग, ये दोनों साथ-साथ चलते नहीं हैं। जीवात्मा की पहचान ही यही है कि उसे संसार का ज्ञान नहीं है पर उसे संसार के भोग की बड़ी लालसा है। अज्ञान, भोग, इन्हीं से तीसरा शब्द जोड़ लो - बंधन। तुम जिस चीज़ को जानोगे नहीं उसे ही भोगना चाहोगे, और जिस चीज़ को तुमने भोगा, वो चीज़ ही तुम्हारा बंधन बन जाएगी।

और इन तीन से पहले भी अगर कुछ रखना चाहो तो वो भी बताए देते हैं। इन तीन से पहले आता है - अपने विषय में अज्ञान। चूँकि अपने विषय में अज्ञान है इसीलिए जो तुम्हें भोग्य वस्तु लग रही है उसके विषय में अज्ञान है, उस अज्ञान से है फिर भोग की लालसा, और वहाँ से है बंधन। तुम चूँकि स्वयं को नहीं जानते इसीलिए जो भोग्य वस्तु है वो तुमको बड़ी आकर्षक लगती है। मूल लालसा तो यही है न, कि उससे कुछ मिल जाएगा? वो लालसा ही तुम्हें इसलिए है क्योंकि तुम्हें ख़ुद अपना कुछ पता नहीं है।

जैसे कोई व्यक्ति बहुत बीमार हो, लेकिन वो अपने शरीर को ही नहीं जानता, ज़रा भी; वो दवाई की जगह मिठाई खरीद रहा हो। जो ख़ुद को नहीं जानता वो ये भी नहीं जानेगा न कि भोग्य वस्तु उसके काम आएगी कि नहीं आएगी। बीमार आदमी अगर अपने शरीर को नहीं जानता तो फिर वो ये भी नहीं जानता न कि किस चीज़ का भोग करूँ। तो वो दवाई की जगह मिठाई का भोग करने पहुँच जाता है।

मिठाई मीठी तो होती ही है, और जब शरीर में कई तरह के कष्ट हों, बीमारी हो, उस समय पर अगर ज़रा स्वाद मिल रहा हो, मिठास मिल रही हो, राहत, तो वो और भाती है। दर्द बढ़ता जा रहा है, दर्द बढ़ता जा रहा है, पर दर्द का उपाय पता नहीं; तो दर्द जितना बढ़ रहा है उसी अनुपात में मिठाई का भोग बढ़ रहा है, और मिठाई का भोग जितना बढ़ रहा है, दर्द और ज़्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि उस भोग से दर्द कम तो होने का नहीं।

समझ में आ रही है बात?

भोग ही बंधन है, क्योंकि भोग काम नहीं आता। हम सोचेंगे जो चीज़ हमें लाभ देती है वो हमारा बंधन बन जाती है, ना। भोग हमारा बंधन बनता ही इसीलिए है क्योंकि वो लाभ नहीं देता।

भोग के बारे में केंद्रीय बात समझिएगा; भोग की सम्भावना अपरिमित होती है, आप कितना भी भोग सकते हैं न? आपने मिठाई भोगी लेकिन आपका दर्द बढ़ गया, साथ-ही-साथ मिठाई में स्वाद बहुत आया था, साथ-ही-साथ ये भी पता है कि अभी बहुत सारी मिठाई शेष है, सामने पूरी हलवाई की दुकान है मिठाई की। ये सारी बातें मिलाओ - मिठाई में स्वाद आया, इधर दर्द बढ़ गया, उधर अभी भोग की सम्भावना बहुत बची हुई है। तो आप अपने-आपको क्या तर्क बताओगे? आप तर्क ये बताओगे कि, "दर्द मेरा इसलिए बढ़ गया है क्योंकि मैंने मिठाई अभी कम भोगी है।"

देखो, तुम्हारे सारे उद्देश्यों की पूर्ति इस तर्क ने एक झटके में कर दी; तुम्हें स्वाद आ रहा था मिठाई में, इस तर्क के कारण तुम्हें मिठाई खाने का मौका मिलेगा। तुमने अपने-आपको क्या बोला है? कि, "दर्द मेरा बढ़ रहा है क्योंकि मिठाई का भोग अभी मैंने कुछ कम करा है।" तो लो, और मिठाई खाने की सहूलियत हो गई; दर्द बढ़ रहा था, ये तर्क देकर तुमने अपने-आपको समझा लिया कि, “अब दर्द कम हो जाएगा, क्योंकि अभी तक दर्द इसलिए शेष है क्योंकि मैंने मिठाई कम खाई थी, अब ज़्यादा खाऊँगा तो दर्द कम हो जाएगा।“

तीसरी बात, ये तर्क सुविधाजनक भी है, क्योंकि सामने तो मिठाई का ढेर लगा हुआ है, हाथ बढ़ाना है, मिठाई खानी है। संसार का तो मतलब ही है - भोग्य वस्तुएँ चारों तरफ़; इसलिए भोग बंधन है, क्योंकि भोग लाभ नहीं देता। कितनी अजीब बात है; कोई चीज़ लाभ देती हो, बंधन बन जाए, तो फिर भी समझ आता है। भोग बिलकुल फिज़ूल है इसलिए बंधन बनता है; फिज़ूल है लेकिन इन्द्रियों को सुहाता है, सुस्वादु होता है।

“नश्वर जगत और अनश्वर चेतना के संयोग से निर्मित यह सम्पूर्ण व्यक्त और अव्यक्त विश्व का पोषण परमात्मा करता है।” नश्वर जगत और अनश्वर चेतना का संयोग। आगे भी श्लोकों में कहा है कि प्रकृति विनाशी है और पुरुष अविनाशी है, वही बात यहाँ कही है, “नश्वर जगत, अनश्वर चेतना।“ प्रकृति विनाशी इसलिए है क्योंकि उसमें जो कुछ है वो आता-जाता रहता है। जिस अर्थ में यहाँ चेतना का प्रयोग हुआ है, उसको अहं जानिए। वो वृत्ति तो लगातार बनी रहती है, वो मर नहीं सकती, क्योंकि वो कोई वस्तु नहीं है जो मरेगी, वो तो एक वृत्ति है, एक टेन्डेन्सी (प्रवृत्ति) है; वो लगातार बनी रहती है इसलिए उसको अविनाशी कहा गया है।

बात समझ रहे हो?

ऐसे समझो - देहें मरेंगीं, लेकिन जगत में लगातार बनी रहेगी ये वृत्ति, कि जीव अपने-आपको देह मानता है। बात समझ में आ रही है? इतने लोग यहाँ बैठे हैं, सब मर गए; सब मर गए, लेकिन कहीं कोई जीव तो बचा होगा न, अन्यथा यहाँ बात करने वाला कोई ना होता। जो भी जीव बचा हुआ है, उसमें कौन-सी वृत्ति बची हुई है? स्वयं को देह मानने की।

तो प्रकृति विनाशी है, लेकिन जीवात्मा को अविनाशी कहते हैं; क्योंकि अहं-भाव तो बचा ही रहता है, चाहे इसमें, चाहे उसमें। किसी में भी बचा हो, वो तो बचा रह गया न? जिसमें बचा था, वो मर जाए भले ही, पर भाव बचा रहेगा। “मैं कुछ हूँ”, में ये जो 'कुछ' है ये जीता-मरता रहता है, आता-जाता रहता है, पर “मैं हूँ”, ये भावना तो शाश्वत रहती है न, इसलिए इसको कहा गया है अविनाशी, अनश्वर।

विनाशी शरीर और अविनाशी चेतना, इनके संयोग से निर्मित इस विश्व का पोषण परमात्मा करता है। ठीक है? इस जगत में यही दो हैं - जिसको जड़ कहते हो, जिसको चेतन कहते हो; जिसको अभी हमने परा और अपरा-प्रकृति कहा था, जिसमें दोनों एक दूसरे पर परस्पर रूप से निर्भर हैं। तो परमात्मा फिर क्या? जो इन दोनों ही के नीचे है, जो इन दोनों का ही कारण-भूत आधार है, उसका नाम परमात्मा दिया गया है। ये प्रश्न महत्वपूर्ण क्यों है? ये प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आदमी को पता होना चाहिए कि जीवन में मूल्यवान क्या है। समझ रहे हो बात को? जो केंद्रीय चीज़ हो उसी को मूल्य दोगे न?

तुम्हें किसी से प्रेम है तो तुम उसके कपड़े बचाना चाहते हो, उसके बाल बचाना चाहते हो, उसका चश्मा बचाना चाहते हो, या उसके प्राण बचाना चाहते हो? जबकि सिर के बाल हैं, आँखों का चश्मा है, शरीर के कपड़े हैं, ये सब भी तुम्हारे प्रियवर के अंग हैं न? पर बाल तुम कई बार कटवा देते हो, चश्मा दूसरा ले लेते हो, कपड़े बदल देते हो; ये आते-जाते रहें तो चलेगा, इनके पीछे जो आधारभूत है तुम उसका मूल्य करते हो न? कि नहीं? तो इसलिए ये जानना ज़रूरी है कि कारणभूत क्या है।

उपनिषद् लगातार इसी जिज्ञासा में है कि, “असली चीज़ क्या है, बताओ केंद्र में क्या है, ताकि हम उस पर अपना ध्यान, अपनी ऊर्जा, अपना जीवन एकाग्र कर सकें।“ बात समझ रहे हो?

तुम्हारे पास एक लिफ़ाफ़ा आता है, उसके भीतर एक पत्र है। तुम किसको बचाते हो, लिफ़ाफ़े को या पत्र को? एक डब्बा आता है जिसमें हीरा है, किसका मूल्य करते हो? और मूल्य किसी-न-किसी चीज़ का तो करना ही है, क्योंकि ध्यान है तो कहीं-न-कहीं केंद्रित होगा, कहीं-न-कहीं लक्ष्य बनाएगा। किसपर केंद्रित होना है ये पता होना ज़रूरी है न? तुम्हारे सारे जीवन का निर्धारण इसी बात से हो जाता है कि तुम मूल्य किसको दे रहे हो। मूल्य तुम लिफ़ाफ़े को भी दे सकते हो, पत्र को भी दे सकते हो; मूल्य तुम वस्त्र को भी दे सकते हो, और प्राण को भी दे सकते हो।

इसलिए ऋषि बार-बार ये जिज्ञासा कर रहे हैं कि, “बताओ, बताओ, केंद्रीय क्या है? बुनियादी क्या है? ताकि हम उसको मूल्य दे सकें, ताकि जीवन व्यर्थ न जाए।“

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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