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ज्ञान और भक्ति में क्या श्रेष्ठ? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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निर्पंथी को भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान। निर्द्वंद्व को मुक्ति है, निर्लोभी निर्वाण।। ~ कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: चार हिस्से हैं इसके, चारों को अलग-अलग बोलिए। एक आदमी पहले एक ही बोले, फिर अगला दूसरा।

"निर्पंथी को भक्ति है" — क्या अर्थ हुआ?

प्रश्नकर्ता१: सर, यहाँ निर्पंथी से अर्थ होता है किसी धर्मविशेष पर विश्वास न रखने वाला, स्वधर्म पर चलने वाला। जो अपनी समझ से अपने धर्म को चुनता है, वही भक्ति कर पाएगा।

आचार्य: पंथ में क्या दिक्क़त होती है?

प्र१: सर, पंथ दूसरों का दिया हुआ होता है। बाहर से आता है, वो सभी के लिए एक जैसा नहीं हो सकता।

आचार्य: हम जिनको आमतौर पर इज़्म बोलते हैं, वो क्या है? आपने अपने विद्यार्थियों को इज़्म पर कोई जवाब दिया था अभी, वो क्या था? वो धर्म था कि पंथ था?

प्र१: पंथ की तरह ले लिया जाता है। उसकी जगह समझदारी है तब तो कुछ हो सकता है। नहीं है तो फिर वो पंथ बन जाता है।

आचार्य: “निर्पंथी को भक्ति है” — भक्ति में पंथ बाधा कैसे बनेगा?

प्र१: सर, वो एक निश्चित रास्ते पर चला जाएगा, उसमें सरेंडर (समर्पण) होगा ही नहीं।

आचार्य: क्यों? पंथ ही सरेंडर कर दिया। बुद्ध ने जो बताया था, मैंने कर दिया सरेंडर , अब क्या दिक्क़त है?

मतलब पंथ होते हुए भक्ति हो सकती है न।

प्र१: बुद्ध जैसे कहते हैं कि जो भी मैं कहता हूँ उस पर ऐसे ही विश्वास मत कर लेना, अपनी समझ का पूरा प्रयोग करना।

आचार्य: ठीक है! अपनी समझ से मैंने समझा और अपनी समझ से समझ कर मैंने बुद्ध को ही अस्वीकार कर दिया। क्यों? बुद्ध ने कहा, “अपनी समझ से करो”, और अपनी समझ से समझ कर मुझे बुद्ध ही पसन्द नहीं आये।

प्र२: सर, भक्ति में एक चीज़ है *सरेंडर*। जैसे पंथ में आप भक्ति कर सकते हैं लेकिन उसमें आपको पता है कि बुद्ध ने पा लिया और आप अगर बुद्ध का अनुकरण करें तो आपको भी मिल जाएगा। तो उसमें एक छोटी सी निश्चितता है, आशा है पा लेने की। भक्ति में अनिश्चितता होती है। जैसे अभी बात हो रही थी योग की कि उसमें सबकुछ छिन जाता है लेकिन यहाँ आप जैसे चल रहे हो किसी चीज़ के पीछे और आपको नहीं पता कि क्या है, तो वो होता है भक्ति में। लेकिन अगर आप किसी स्पेसिफ़ाइड (सुनिश्चित) रास्ते पर चलोगे तब आपको गोल (लक्ष्य) भी पता है और आपको ये भी पता है कि एक बन्दा पहुँच चुका है तो आप भी पहुँच जाओगे, तो इसमें भक्ति नहीं है।

प्र३: पंथ में एक क़िस्म का समाज हो गया जहाँ पर एक आप हो और एक समाज है जिसका आपको अनुसरण करना है। तो दोनों में ही अहंकार है। और जैसे कबीर साहब कहते हैं कि "प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाए।" तो प्रेम तो नाम ही है अहंकार के डिसोल्यूशन (विलयन) का और परम से एक होने का। भक्ति वहीं है जहाँ प्रेम, प्रेम ही भक्ति है। और जो पंथ हो गया, वो समाज हो गया, वो पूरा अहंकार हो गया, इसलिए वहाँ भक्ति हो नहीं सकती।

प्र४: जो निर्पंथी है यहाँ पर वो ख़ुद को खो जाने के लिए कहा जा रहा है। जो ख़ुद को खो सकता है वही भक्ति पर चल सकेगा। पंथ को अगर वो पकड़कर चलता है, चाहे कोई भी पंथ हो, लेकिन कुछ पकड़ रखा है — 'ये पकड़ लूँगा तो ये मिलेगा।' तो वो भक्ति हो ही नहीं सकती है। भक्ति तो तभी हो सकती है जब तुमने ख़ुद का 'मैं' खो दिया और उसको (पंथ को) भी। भक्ति तो तभी हो सकती है जब सबकुछ खो दिया; तभी वो पाया जा सकता है।

जैसे थोड़ी देर पहले हमने डिस्कस (चर्चा) किया कि क़ायदे से तो मन्दिर के ऊपर कोई स्ट्रक्चर (संरचना) होना ही नहीं चाहिए क्योंकि हम फिर उसको भी अलग कर दे रहे हैं सबसे। तो क़ायदे से बोला जाए तो वो चार दीवार भी नहीं होनी चाहिए, गुम्बद भी नहीं होना चाहिए।

आचार्य: जब नारद भक्ति सूत्र किया था तो कितने लोग थे वहाँ पर? भक्ति क्या है? फंडामेंटल्स (बुनियादी बातें) पर जाइए। परिभाषा क्या है भक्ति की?

प्र१: भक्ति में पहले ही मान लिया जाता है या समर्पण कर दिया जाता है।

आचार्य: क्यों समर्पण पहले कर दिया जाता है?

प्र१: क्योंकि भक्त मानता है कि संसार में कोई सार नहीं है, कुछ नहीं है।

आचार्य: ये तो ज्ञान हो गया।

प्र१: भक्त को लगता है कि सेपरेशन है, हम हैं और कोई है जिसके प्रति भक्ति है।

आचार्य: ठीक है। विभाजन, भजना, विभक्ति, दो का होना। भजना, उसी से विभाजन भी निकला है। विभक्ति माने भी बँटना। दो हैं: एक वो जो सत्य है, दूसरा वो जो मैं हूँ। एक वो जिसमें दुनिया की समस्त वर्च्यु (सद्गुण) समायी हुई है और दूसरा मैं हूँ। मैं कौन हूँ? "मो सम कौन कुटिल खलकामी।"

दुनिया का सारा कलुष मुझमें समाया हुआ है और जो दूसरा है, द अदर, वो सत्य है, वो असली है; मुझे उसको पाना है। वो मेरा इष्ट भगवान है। ये भक्ति का फंडामेंटल (बुनियादी बात) है। दो हैं — 'मैं' और 'तू'। ज्ञान में 'तू' जैसा कुछ नहीं होता।

ये बात हम कितनी बार कर चुके हैं। पता नहीं क्यों याद नहीं रहती। ज्ञानी कभी 'तू' की बात नहीं करेगा। आप पूरी अष्टावक्र गीता पढ़ लीजिए, उसमें आपको कहीं 'तू' दिखायी पड़ जाए तो। 'मैं' दिखायी पड़ेगा। अष्टावक्र गीता में आपको लगातार अहम् दिखायी पड़ेगा, अहम् का प्रयोग।

भक्तों की भाषा में आपको लगातार 'तू' शब्द दिखायी देगा। दो हैं और उस दो में एक क्या है? असली। और अपने को क्या माना गया है? नकली। और भक्ति का उद्देश्य क्या है? नकली का असली में जाकर के विलय। उसी को कहा गया है योग या मिलन।

अब बताओ कि पंथ के साथ भक्ति क्यों नहीं हो सकती?

प्र१: पंथ तो पर्सनालिटी (व्यक्तित्व) देता है न।

प्र२: क्योंकि पंथ पर 'मैं' चलता हूँ।

आचार्य: पंथ अगर है, तो पंथी भी हुआ और भक्ति का तो फंडामेंटल (बुनियादी बात) ही यही है कि जो पंथी है वो घृणित है, वो व्यर्थ ही है। सारा जो कचरा है, वो मैं हूँ। और पंथ अगर चुना तो फिर तुमने अपनी बुद्धि को मान्यता दे दी। तुमने कहा कि मैं कम-से-कम इस क़ाबिल तो हूँ कि मैं पंथ चुन सकूँ। भक्ति कहती है मुझमें कोई क़ाबिलियत नहीं, मेरे पास तो सिर्फ़ पुकार है। मेरे पास कोई क़ाबिल योग्यता नहीं है। मेरे पास तो सिर्फ़ मेरा समर्पण है। मैं तो सिर्फ़ चिल्ला सकता हूँ कि आओ और तार दो।

एक बार तुमसे पूछा था कि बिल्ली के बच्चे और बन्दर के बच्चे में क्या अन्तर है। बिल्ली का बच्चा भक्ति का प्रतीक है, वो सिर्फ़ पुकारता है, 'म्याऊँ-म्याऊँ’, और माँ आती है उसको उठा लेती है अपने मुँह में। बन्दर का बच्चा ज्ञानी का प्रतीक है। वो ख़ुद पकड़ता है।

बिल्ली का बच्चा कभी ख़ुद नहीं पकड़ता, वो सिर्फ़ पुकारता है। वो पुकारता है, उसका काम हो जाता है; बिल्ली आती है उसे अपने मुँह में उठाती है, चल देती है, अगर ज़रूरत है। और अगर ज़रूरत नहीं है तो वो फिर आएगी भी नहीं। ये पुकारता रहे, बिल्ली नहीं आएगी।

समर्पण है कि हम तो बस पुकार सकते हैं, हम और कुछ नहीं कर सकते। हम पड़े हैं, पुकार रहे हैं, अगर उचित होगा तो तुम हमारी मदद कर दोगे, उचित नहीं होगा तो तुम मदद नहीं करोगे। दोनों ही स्थितियाँ हमें स्वीकार हैं। मदद करो तो भी ठीक, मदद न करो तो भी ठीक। बन्दर के बच्चे में भाव है।

इसको ये मत समझ लेना कि कोई आख़िरी बात है, इसमें कुतर्क मत करने लगना। सिर्फ़ प्रतीक है, वहीं तक उदाहरण को सीमित रखो।

बिल्ली का बच्चा निर्पंथी हुआ क्योंकि वो क्या पंथ चलाएगा। बिल्ली उसे कहाँ ले जा रही है और क्या कर रही है, वो नहीं जानता। बिल्ली उसे उठाएगी भी कि नहीं, ये भी वो नहीं जानता। उठाएगी तो कब तक उठा रखा है, ये सब वो नहीं जानता। बन्दर के बच्चे को ख़ुद पकड़ना है, थकेगा, बिलकुल थकेगा, गिर भी सकता है। ख़ुद पकड़ना है, गिर सकता है।

"निर्मोही को ज्ञान" — मोह और ज्ञान क्यों नहीं एक साथ चल सकते?

प्र१: सर, ज्ञानी जो होता है वो नेति-नेति करता है और उसमें अपनेआप को भी खो देता है। वो अपनेआप से मोह रखेगा तो फिर जो उसके बन्धन हैं उसे काट नहीं पाएगा।

आचार्य: बहुत बढ़िया। उसमें समझने की बात ये है कि आपको लगता तो ये है कि आप मोह किसी बाहरी विषय से कर रहे हैं लेकिन समस्त मोह आपका अपने प्रति ही होता है, अपने अहंकार के प्रति। कोई ये दावा न करे कि मेरा मेरे बच्चे से मोह है; आपका बच्चे से नहीं मोह है, आपका माँ से मोह है। समझिएगा बात को, आप अगर माँ न होते तो आपको उस बच्चे से मोह होता?

नहीं समझ रहे हैं?

बच्चा बिलकुल वही रहे पर आप उसकी माँ नहीं हैं, आपको मोह रहेगा उससे? आपको मोह वास्तव में किससे है, बच्चे से या माँ से? माँ से मोह है और माँ में आपकी सारी अंहता छुपी हुई है। कोई न कहे कि मुझे पति से मोह है; पति से नहीं मोह है, पत्नी से मोह है। पति नहीं रहेगा तो पत्नी बचेगी नहीं न। आप पत्नी को बचा रहे हो।

कोई न कहे कि इसलिए रो रहा हूँ कि मेरा कोई सगा मर गया। तुम्हें उससे मोह नहीं था जो मर गया, तुम्हें उससे मोह था जो उसके साथ मर गया — तुम्हारा हिस्सा। तुम्हारे व्यक्तित्व का, तुम्हारी सारी पहचानों का एक बड़ा हिस्सा मरने वाले के साथ जुड़ा हुआ था, उसके मरने के साथ वो भी मर गया, तुम उसके लिए रोते हो। तुम कभी मरने वाले के लिए नहीं रोते, तुम अपने लिए रोते हो। और जब तक अभी अपने को बचाने की भावना बची हुई है, जब तुम अभी अपने लिए रो रहे हो, अभी तुम्हें अपने से मोह है — और हमने कहा है कि सारा मोह अपने से ही होता है।

जब तुम्हें अपने से मोह है तो बिलकुल ठीक बात है, नेति-नेति करोगे कैसे? क्योंकि नेति-नेति किसी और की नहीं की जाती, अपनी ही की जाती है। अपने को ही काटना है और अपने को ही काटने से मोह है तो कहाँ से नेति-नेति होगी और कहाँ से आएगा ज्ञान!

"निर्द्वंद्व को मुक्ति है" — क्या आशय है?

प्र१: सारा जो द्वंद्व है वो चुनाव के कारण होता है। जब तक दो ऑप्शंस (विकल्प) होंगी कि ये या वो, तो वहाँ तो बन्धन ही है कि किसको चुनें। वहाँ 'मैं' भी आ जाएगा, चुनना भी आ जाएगा, सब्जेक्ट (विषयी), ऑब्जेक्ट (विषय), पूरा खेल शुरू हो जाएगा।

आचार्य: आपका जो फ्रीडम फ्रॉम चॉइस (चुनाव से मुक्ति) है, ये वही है — "निर्द्वंद्व को मुक्ति है।" और ये बहुत बड़ी मुक्ति होती है कि अब चुनना नहीं पड़ता। चुनना पड़ता ही नहीं। ये मुक्तियों में मुक्ति है — चुनना नहीं पड़ता।

प्र१: इसके लिए बहुत गहरी श्रद्धा चाहिए।

आचार्य: बहुत गहरी श्रद्धा चाहिए, समभाव चाहिए। ऐसी हो कि वैसी हो स्थिति, कम-से-कम आंतरिक स्थिति एक बनी रहती है। बाहर बदल जाएगी। धूप में खड़े हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि शरीर तप जाएगा। शरीर की स्थिति बदल जाएगी पर आंतरिक स्थिति, अन्दर एक बिन्दु ऐसा है जो नहीं बदलता, धूप हो चाहे छाँव हो।

"निर्द्वंद्व को मुक्ति है।" द्वंद्व समझते हो? दो ऐसे पक्षों का होना जो आपस में टकराते हों। यही द्वंद्व है। तो द्वैत ही द्वंद्व है। डुएलिटि इज़ कॉन्फ्लिक्ट (द्वैत संघर्ष है)। कोई ये न सोचे कि द्वैत रहेगा लेकिन सहजता और शान्ति क़ायम रहेंगे। जहाँ द्वैत है वहीं टकराव है, वहीं उलझन है।

प्र१: अभी थोड़ी देर पहले जो हमने भक्ति पर बात की कि भक्ति में तो पहले से ही ये है कि मैं हूँ जो नकली है और वो है जो असली है। हमें असली में जाकर मिलना है। ये भी तो द्वैत है।

आचार्य: ये एक द्वैत है, बिलकुल, आख़िरी द्वैत है। ये भक्ति का आख़िरी द्वैत है। इसीलिए भक्ति का अन्त इस द्वैत का अन्त होता है। जब तक ये द्वैत है, तो याद करो कि भक्त को क्या अनुभव होता है लगातार?

प्र१: सेपरेशन (अलगाव)।

आचार्य: और उसको क्या कहा जाता है?

प्र१: विरह।

आचार्य: विरह। भक्त से ज़्यादा कोई रोता नहीं। क्योंकि ये द्वैत है न, इसीलिए तो भक्त रोता है, लगातार रोता है। लेकिन उसका ये रोना शुभ है क्योंकि भक्ति के द्वैत का अन्त अद्वैत में होता है, मिलन में होता है कि जाकर के मिल गये, फ़ना हो गये।

प्र१: तो इसको फिर कॉन्फ्लिक्ट तो बोलेंगे ही, *डुएलिटी इज़ कॉन्फ्लिक्ट*।

आचार्य: हाँ बिलकुल, वो तो बोलेंगे ही, कॉन्फ्लिक्ट तो है ही। भक्त रो रहा है, लगातार रो रहा है। और ज्ञानी जब भक्त को देखेगा तो यही कहेगा कि पागल है! किसके लिए रो रहा है? अरे तू जिसको ख़ोज रहा है, वो तेरे भीतर ही बैठा है।'

तो भक्त से ज़्यादा दुख में कोई रहता नहीं। लेकिन उसका दुख शुभ है क्योंकि उसके दुख की गति केन्द्र की ओर है। भक्त का जो दुख है वो ऐसा है जो उसको उसके केन्द्र की ओर खींचेगा।

वो दूसरी वाली आशा है। तुम देखोगे तो भक्ति के सन्तों ने दो ही तरह के गीत गाये हैं — या तो विरह के या मिलन के। कभी तो कबीर कहते हैं कि “भए कबीर उदास” और कभी कहते हैं, “आनन्द मंगल गाओ मोरी सजनी”। तुम पूछते नहीं कि ये क्या बात है? कभी तो कहते हैं कि “दिया कबीरा रोय” और कभी कह रहे हैं “आनन्द मंगल गाओ”। एक तरफ़ तो रो रहे हैं और एक तरफ़ आनन्द मंगल गा रहे हैं, ये क्या है? ये भक्त का चित्त है जो द्वैत-अद्वैत के बीच में झूल रहा है।

जब मिल जाता है तो गीत ही गीत है, “आनन्द मंगल गाओ”। जब नहीं मिला है तो बिरह, बिरह, बिरह, “पिया मिलन की आस”। तुम कह रहे थे न आशा, वही “पिया मिलन की आस”। आशा है कि कभी मिलन होगा।

प्र१: तो ये इन-आउट (अन्दर-बाहर) चलता रहता है।

आचार्य: चलता नहीं रहता है। यात्रा है ये।

प्र१: सर, ऐसा डिस्कस कर रहे थे कि डुएलिटी (द्वैत) में पूरी तरह रहो पर एक रिमेम्बरेंस (याद) रहनी चाहिए।

आचार्य: नहीं-नहीं-नहीं, डुएलिटी को पूरी तरह जीना पहले नहीं आता है। पहले स्रोत आता है न। पहले बीज आता है न, फिर पेड़ आता है। ये तो बहाना बन जाएगा कि डुएलिटी को जियो, पर याद रखो। अब जीना तो है, याद रखा कि नहीं, इसका क्या जाँच है?

भई, आप कहोगे कि सर आपने ही कहा था कि ढोल-नगाड़े बज रहे हों और कूद-फाँद चल रही हो तो उसमें ख़ूब कूदो-फाँदों, बस मन लगातार राम में स्थित रहे। अच्छा ठीक है। ढोल-नगाड़े बज रहे थे, उत्तेजनाओं का झोंका था। तुम्हें वहाँ जो करना था तुमने सब करा और तुम्हारा दावा है कि नहीं, ये सब कर रहे थे पर मन तो राम नाम में था। सब कर रहे थे, वो तो तथ्य है, कर ही रहे थे, मन राम नाम में था या नहीं इसकी कोई जाँच है? ये तो बहाना बनेगा, बहुत बुरा बहाना बनेगा और सारे गृहस्थों को यही बहाना चाहिए।

सारे गृहस्थों को यही बहाना चाहिए कि तुम अपनी दिनचर्या बिलकुल क़ायम रखो लेकिन मन केन्द्र पर स्थित रहे। अब दिनचर्या क़ायम है ये तो तथ्य है, वही उठना, बैठना, रोटी, भाजी, नून, लकड़ी, बिस्तर रसोई वो तो चल रहा है। वो तो तथ्य है। मन आत्मा में स्थित है ये कैसे पता?

तो ये तो बहुत घटिया बहाना बनेगा। तुम अपनेआप को सांत्वना दे दोगे कि नहीं-नहीं-नहीं, हम चाहे सफ़ाई कर रहे हैं, चाहे चूल्हा कर रहे हैं, चाहे बिस्तर पर हैं, हमारा मन तो राम के साथ है। ऐसा नहीं है। मन पहले राम में होता है उसके बाद ये निर्धारित होता है कि अब क्या कृत्य होगा। तुम कृत्य पहले से तय नहीं कर सकते। तुमने राम से पूछा, ‘चौका-चूल्हा करूँ, बिस्तर करूँ कि न करूँ’?

बात समझो। तुम उल्टी गंगा बहा रहे हो, बीज पहले आता है, स्रोत पहले आता है। तुम बात समझ नहीं रहे हो। तुम कह रहे हो, 'हमने ये तो तय ही कर रखा है कि हम अपना चूल्हा-चौका, झाड़ू-बिस्तर, ये क़ायम रखेंगे। ये हमने तय कर रखा है और इसके साथ में हम राम नाम लेते रहेंगे।'

नहीं, भक्त ऐसा नहीं होता। भक्त कहता है, हम राम नाम लेंगे, अब राम बताएँगे कि हमें चूल्हा-चौका करना है कि नहीं करना है। राम कहेंगे तो करेंगे, नहीं कहेंगे तो नहीं भी करेंगे। वो तय करके नहीं बैठा है कि घर तो सर्वोपरि है। उसने पहले ही फ़ैसला नहीं कर लिया है। पर गृहस्थों को और दुकानदारों को ये तर्क ठीक नहीं लगता। वो कहते हैं, हमें दुकान तो चलानी ही है। हाँ, दुकान चलाएँगे और साथ में उसमें एक बाबा नानक की फ़ोटो भी लगा देंगे।

देखा होगा, दुकानें चल रही हैं, उसमें बाबा नानक की फ़ोटो लगी हुई है। तुमने पूछा नानक से कि दुकान चलाएँ कि न चलाएँ? वो तो नानक कुछ भी बोलें, दुकान चलनी चाहिए। वहाँ नानक पीछे हो जाते हैं।

तुम देख रहे हो इसमें बेईमानी कितनी बड़ी है? और इसके पीछे तर्क यही दिया जाता है कि देखो हम रहते तो संसार में हैं पर मन हमारा गुरु के पास है।

हैं भाई! गुरु से पूछा तुमने कि दुकान चलाएँ कि न चलाएँ? तुमने तो दुकान बना ली और उसमें जाकर गुरु को टाँग दिया। और वो टँगे हुए हैं बेचारे, क्या करेंगे? ऊपर से देख रहे हैं तुम दूध में पानी मिला रहे हो, क्या करें? वहाँ फ़ोटो से उतर कर आयें, थप्पड़ मारें? वहाँ ऊपर टँगे हुए हैं गुरु और नीचे तुम गाली-गलौज कर रहे हो। रोज़ सुबह दो रुपये का गुलाब वहाँ चढ़ा देते हो — वो भी ख़ुद नहीं चढ़ाते, नौकर को बोल रखा है कि लाकर के चढ़ा दिया करो। इतनी तुमने हैसियत रखी है नानक की।

ऐसे नहीं होता।

संसार और सत्य एकसाथ चलते हैं पर दोनों में पहले कौन आता है? पहले सत्य आएगा न। पहले हृदय सत्य में अवस्थित होना चाहिए, उसके बाद सत्य जो कहेगा वैसा हमारा संसार होगा। संसार और सत्य एकसाथ चलने हैं, लेकिन बीज पहले आएगा न, स्रोत पहले आएगा न?

सत्य से पूछो कि संसार कैसा हो, पहले ही तय करके मत रखो कि मैं तो दुकानदार हूँ, कि मैं तो माँ हूँ, तो मुझे तो अपना संसार ऐसे ही चलाना है। ये तय करके मत रखो।

बात समझ में आ रही है? बहाने मत बनाना।

प्र१: ये तय करने में तो मैं ही बड़ी हो गयी कि मैंने तय किया।

आचार्य: सबकुछ मेरा ही है, सबसे बड़ी मैं ही हूँ, और दुनियाभर में यही झूठ चल रहा है, यही प्रपंच चल रहा है कि हमारी दुनिया, हमारे ढर्रे, हमारे तौर-तरीक़े, हमारा घर, हमारी दुकान क़ायम रहे — हाँ, उसके साथ में एक फ़ोटो; जय भगवान जी की! ये जो फ़ोटो है न, इसी के कारण दुनियाभर के सारे कुकर्म हैं। ये फ़ोटो हटनी चाहिए।

प्र१: सर, घर में भी तो यही है।

आचार्य: और कहाँ है? घर ही तो पाप के अड्डे हैं; और कहाँ है? घरों से ये फ़ोटो हटनी चाहिए। दारू की दुकान पर तुम देवियों की फ़ोटो लगाते हो क्या? और लगी हो तो तुम कहोगे कि ग़लत है, हटाओ। ठीक उसी तरीक़े से घरों में पूजागृह नहीं होना चाहिए। घर तो कुकर्म के, वासना के, लालच के, मोह के अड्डे हैं, इनमें पूजागृह का क्या काम?

घर तो शोषण के केन्द्र हैं। यहाँ पर पूजाघर बनाकर के तुम अपने घरों को मान्यता दे देते हो, तुम्हें एक बहाना मिल जाता है कि मेरा घर एक पवित्र जगह है। और वो पवित्र जगह है नहीं।

अगर कोई जगह है जहाँ भगवत्ता हो ही नहीं सकती तो वो घर की चारदीवारी है, कभी नहीं हो सकती वहाँ। और तुमने वहाँ भी फ़ोटो एक लटका दी है — 'जय भगवान जी की!' दाल की छोंक के साथ ‘जय भगवान जी की’! फ़्लश की आवाज़ के साथ ‘जय भगवान जी की’! मियां-बीवी की कचर-पचर, सास-बहू की टैं-टैं के साथ जय भगवान जी की! रात में बिस्तर की चौं-चौं के साथ ‘जय भगवान जी की’! बज रहा है अनहद लगातार। जैसे कोई जेल में मुक्ति की देवी की प्रतिमा खड़ी करे। छोटे-छोटे बच्चे — जय भगवान जी की!

अगर दुनिया कभी थोड़ी चैतन्य हुई, तो वो जानेगी कि इससे बड़ी कुप्रथा नहीं हो सकती थी — घरों में पूजाघर बनाना।

जैसे आज कहते हो न कि जाति प्रथा कुप्रथा थी, सती प्रथा कुप्रथा थी, उसी तरह से ये भी एक कुप्रथा देखी जाएगी। अहंकार को भी, देखो, टिकने के लिए जगह चाहिए। झूठ क्या ये कहकर क़ायम रह सकता है कि मैं झूठ हूँ?

बात को समझो। झूठ क्या ये कहकर बचा रह सकता है कि मैं झूठ हूँ? बोलो। झूठ को अगर बचा रहना है तो उसे किसके कपड़े पहनने होंगे?

प्र१: सच के।

आचार्य: ठीक यही काम हम करते हैं। घरों में चल रहे पतित कर्मों को अगर बचा रहना है तो उन्हें ये कहना ही पड़ेगा कि हम पुण्य हैं। पाप क़ायम ही इसीलिए है क्योंकि उसने पुण्य के कपड़े पहन रखे हैं।

समझो, पाप क़ायम ही इसलिए है क्योंकि उसने पुण्य के कपड़े पहन रखे हैं। पाप अगर ज़रा हिम्मत दिखाये और अपने असली कपड़ों में सामने आ जाए तो क्या होगा? मारा जाएगा। इसमें पाप का कमीनापन भी है और पाप की मजबूरी भी कि उसे पुण्य के कपड़े पहनने ही पड़ेंगे।

एक पुरानी कहानी है कि एक बार सौन्दर्य की देवी और कुरूपता की देवी दोनों धरती पर उतरीं। धरती पर उतरीं तो एक जगह देखा तो वहाँ नहाने चली गईं। दोनों ने अपने कपड़े उतारे, तालाब था उसके किनारे और अपना नहाने घुस गयीँ। और नहाकर बाहर निकलीं तो उनके कपड़े बदल गये और तब से ये धरती ऐसी है — कुरूपता सौन्दर्य के कपड़े पहनकर घूम रही है।

कुरूपता सौन्दर्य के कपड़े पहनकर घूम रही है। अहंकार भक्त बनकर घूम रहा है। घरों में पूजाघर घूम रहे हैं।

अगर ये स्पष्ट ही हो जाए कि हम कितने गिरे हुए हैं तो हमें उठना पड़ेगा। अगर ये स्पष्ट ही हो जाए कि हम कितने सोये हुए हैं तो हमें जगना पड़ेगा। पाप क़ायम ही इसीलिए है क्योंकि वो अपनेआप को पुण्य कहकर बेचता है। हिंसा क़ायम ही इसीलिए है क्योंकि वो प्रेम के कपड़े पहनकर आती है। हिंसा को अगर तुम हिंसा कह सको तो उसे ख़त्म होना पड़ेगा।

तुम्हें ईर्ष्या है ख़ूब, तुम्हें अपनी ईर्ष्या को बचाना है तो तुम उसे प्रेम से जोड़ोगे। तुम कहोगे, 'आई एम सो पोज़ेसिव बिकॉज़ आइ लव यू' (मैं तुम पर इतना अधिकार इसलिए जमाता हूँ क्योंकि मैं तुमसे प्यार करता हूँ)। ठीक?

तुमको अगर ये कहना पड़े कि आइ एम पोज़ेसिव बिकॉज़ आइ एम क्रूअल, विकेड एंड वायलेंट (मैं अधिकार जमाता हूँ क्योंकि मैं क्रूर, दुष्ट और हिंसक हूँ), तो तुम्हें आफ़त हो जाएगी। आइ एम पोज़ेसिव बिकॉज़ आइ एम क्रूअल, विकेड एंड इग्नोरेंट (मैं स्वामित्व में हूँ क्योंकि मैं क्रूर, दुष्ट और अज्ञानी हूँ), तुम्हें आफ़त हो जाएगी। तुम कहोगे, ‘आइ एम पोज़ेसिव बिकॉज़ आइ लव यू।'

कुरूपता सौन्दर्य के कपड़े पहनकर घूम रही है। ऐसी-ऐसी जगहों पर मन्दिर हैं और ऐसे-ऐसे लोगों ने मन्दिर बनवाये हैं कि कुछ मेल नहीं बैठता।

अभी हम दो-तीन दिन पहले एक कैम्पस (परिसर) में थे। वहाँ हम शाम को बैठकर के — पाँच-दस स्टूडेंट्स (विद्यार्थी) थे, बैठकर के हम भजन सुन रहे थे, बातें कर रहे थे। और ज़ोर-ज़ोर से आरती-पूजा, घंटा-घड़ियाल की आवाज़, मैंने पूछा, कहाँ? बोले, ‘ कैम्पस में मन्दिर है।’

पहली बात, उस कैम्पस में मन्दिर होने का कोई औचित्य नहीं। दूसरी बात, वो जो कुछ हो रहा था उससे असली भजन में बाधा पड़ रही थी। ये कौनसा मन्दिर है जो भजन में बाधा डालता है? हमने तो ये जाना था कि मन्दिर वो जहाँ मन भजन को उत्सुक हो जाए और इस मन्दिर से हमारा भजन बाधित हो रहा था।

पर ज़रूरी है न वहाँ मन्दिर का होना ताकि तुम ये दावा कर सको कि पापी नहीं हो, ताकि तुम्हें मुँह छुपाने को जगह मिल सके। और यही अहंकार की मजबूरी है, वो अपना नाम लेकर तो चल भी नहीं सकता।

अगर वास्तव में तुम्हें अपने अहंकार पर इतना फ़क्र है तो बोलो न कि अहंकारी हो। अगर वास्तव में तुम्हें अपने पापों पर इतना नाज़ है तो बोलो न कि पापी हूँ। तब ये क्यों बोलते हो कि मैं तो पुण्यात्मा हूँ? तुम्हें वास्तव में मज़ा मिलता है हिंसा में, कलह में, क्षुद्रता में, तो बोलो न कि मैं नीच हूँ। तब तो बोला नहीं जाता। ये अहंकार की मजबूरी है, वो अपना नाम तक नहीं ले सकता।

सोचो, कितनी बड़ी मजबूरी है! वो किसी को नहीं बताएगा कि मेरा असली नाम क्या है, वो पुण्य का ही नाम लेगा। वो किसी को नहीं बताएगा कि मेरा असली नाम क्या है, वो कोई नकली नाम लेगा। क्यों जी रहे हो इतनी बड़ी मजबूरी के साथ? बोलकर दिखाओ कि मुझे न तेरा शरीर पसन्द है, हवस का पुजारी हूँ! तब तो क्या बोलोगे? क्या बोलोगे? ‘प्रेम है।’

नाम लेकर दिखाओ, द एक्ज़ैक्ट वर्ड — हवस। ये बेचारी हवस की मजबूरी है। वो तो बोल भी नहीं सकती कि मैं हवस हूँ, उसे कहना पड़ता है ‘मैं प्रेम हूँ’। दम है हवस में तो अपने नाम पर जी कर दिखाये न! अपने नाम पर तो जिया नहीं जाता, उधारी का नाम लेना पड़ता है, झूठा नाम चुराना पड़ता है। इतनी बार कहा है — थोड़ा मन में प्रयोग कर लो, उसी से समझ जाओगे तुम्हारे प्रेम की हक़ीक़त क्या है।

करो कल्पना कि जो तुम्हारे प्रेम का विषय है उसका मुँह जल गया है एसिड से और हो गया है चुड़ैल जैसा, देखो अभी तुम्हारा प्रेम कैसे उठता है। और जो वीभत्स से भी वीभत्स चेहरा होता है, उसके शरीर पर करो आरोपित और फिर देखो कि तुम्हारा प्रेम कैसे उड़ता है; बचेगा नहीं। पर तुम हवस को प्रेम का नाम दिये जा रहे हो, दिये जा रहे हो।

या करो कल्पना कि तुम्हारे जो प्रेम का विषय है उसके तुमने कपड़े उतारे और अन्दर देखा तो छिपकली और गिरगिट और कीड़े रेंग रहे थे और शरीर में छेद ही छेद हैं, उनमें कीड़े बिलबिला रहे हैं। करो कल्पना। सारा नशा उतर जाएगा प्रेम का, कुछ नहीं बचेगा। पर हवस की मजबूरी है।

निर्लोभी निर्वाण; लोभ का निर्वाण से क्या सम्बन्ध?

प्र१: निर्वाण में कोई ऑब्जेक्ट नहीं है। लोभ के लिए कोई ऑब्जेक्ट चाहिए।

आचार्य: अच्छा हुआ कि ये शब्द 'लोभ' सामने आ गया। जानते हैं, लोभ और लव , दोनों शब्दों का मूल एक है। भाषा में लोभ और लव दोनों एक ही जगह से निकले हैं। लव का अर्थ ही लोभ है। वो तो सन्तों ने बाद में छूकर के इस शब्द को पवित्र कर दिया। ये जो शब्द है 'लव' , ये सन्तों के स्पर्श से थोड़ा पवित्र हो गया है, नहीं तो लव का अर्थ ही लोभ है — एल-ओ-वी-इ — लोव। ये वही है।

प्र२: हिन्दी में लव का क्या मतलब है?

आचार्य: हिन्दी का नहीं है। प्रेम और लव अलग हैं। लोभ है *लव*। प्रेम तो सन्तों ने दिया तुम्हें, वो अलग चीज़ है। तो ठीक ही कहते हो एक तरीक़े से, आइ लोभ यू , और सिर्फ़ बंगालियों ने बात पकड़ी है।‌

"निर्लोभी निर्वाण।"

प्र१: सर निर्वाण का अर्थ होता है बुझ जाना और निर्लोभी का मतलब? लोभ का मतलब है डिज़ायर (इच्छा)।

आचार्य: लोभ नहीं लोभी। निर्वाण का अर्थ लोभ का हटना नहीं है; निर्वाण का अर्थ है लोभी का ही हट जाना। लोभ नहीं लोभी, तुम जो हो।

प्र१: जो डिज़ायर करता है।

आचार्य: हाँ, उसका ही हट जाना, दैट ‘आइ’ (वो ‘मैं’)।

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