गुस्सा क्यों आता है?

Acharya Prashant

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गुस्सा क्यों आता है?
अधूरी कामना क्रोध बनकर सामने आती है। दुनिया से कामना रखोगे, और जब वह तुम्हारी कामनाएँ पूरी नहीं कर पाएगी, तो गुस्सा आएगा ही। एक दूसरी कामना भी होती है, जो स्वार्थवश नहीं, प्रेमवश होती है। उसमें अपने लिए नहीं माँगा जाता। तब अगर नहीं मिलता है, तो विनम्रता आती है, क्रोध नहीं। परम लक्ष्य बनाइए; छोटे-छोटे लक्ष्यों की कामना अपने आप छूटेगी, और कामना से उठने वाला क्रोध भी छूट जाएगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: समटाइम्स आई स्पीक लाईक शॉर्ट टेंपर्ड (कभी-कभी मैं चिड़चिड़ा सा बोलती हूँ)। तो बीच में कई बार गुस्सा भी आता है,तो उस चीज़ को हम कैसे ओवरकम (काबू पाना) कर सकते है? है टेंपरेरी, (अस्थाई) ये कुछ समय बाद नॉर्मल (सामान्य) हो जाता है वापस, पर जितना टाईम वो गुस्सा या इरीटेशन (चिड़चिड़ापन) है वो कुछ चीज़ें मिंगल कर (उलझा) देती है। उस चीज़ से हम कैसे ओवरकम कर सकते है?

आचार्य प्रशांत: जीवन में कुछ ऐसा है जिसके कारण बीच-बीच में पटाखे बजते रहते हैं। रसोई में कुकर की सीटी क्या लगातार बजती है? बीच-बीच में ही बजती है। पर दबाव तो उसके भीतर बहुत देर से बढ़ रहा होता है न। तो क्रोध का प्रदर्शन ऐसा ही है कि कुकर की सीटी बज गई। कुकर की सीटी बज गई इसका क्या ये अर्थ है कि ठीक उसी समय कुछ हुआ है कुकर के भीतर? नहीं। अगर सीटी बजी है तो इसका मतलब पीछे काफ़ी देर से आग लगी हुई थी। कुछ उबल रहा था। दबाव, तनाव बढ़ रहा था। फिर अकस्मात सीटी बज जाती है।

तो जीवन में कुछ ऐसा मौजूद है जिसके कारण किन्हीं-किन्हीं मौकों पर क्रोध आ जाता है। और जब तक वो मूल कारण मौजूद रहेंगे, क्रोध आता रहेगा।क्रोध जानती हैं न क्या है।

अपूरित कामना क्रोध बनकर सामने आती है। कुछ चाह रहे हैं जो हो नहीं रहा, तो क्रोध। कामना न हो तो क्रोध हो नहीं सकता। दुनिया के साथ कामना रखोगे,दुनिया तुम्हारी कामनाएँ पूरी नहीं कर पाएगी। गुस्सा आएगा-ही-आएगा। क्योंकि दुनिया से जब तुम कामना रखते हो, तो उसमें स्वार्थ होता है, प्रेम नहीं।

जब दुनिया से कुछ पाना चाहते हो तो अपने लिए पाना चाहते हो न। अपने लिए कुछ पाना चाहते थे, मिला नहीं तो क्रोध आएगा। जिसकी कामना कर रहे थे उसी पर क्रोध आ जाएगा। जिससे चाह रहे थे, उस पर देखा है कितना क्रोध आता है। सबसे ज़्यादा तो उसी पर आता है जिससे चाहा। और एक दूसरी कामना भी होती है, जो स्वार्थवश नहीं होती,प्रेमवश होती है। उसमें अपने लिए नहीं माँगा जाता। तब अगर नहीं मिलता है तो साधना और गहराती है, क्रोध नहीं आता।

असफलता तुम्हें मिल सकती है जब तुम संसार से कुछ माँगो। और असफलता तुम्हें तब भी मिल सकती है जब तुम परमात्मा को माँगो। लेकिन संसार से माँगोगे और नहीं पाओगे तो क्रोध आएगा। और परमात्मा को माँगोगे और नहीं पाओगे तो विनम्रता आएगी, क्योंकि वहाँ प्रेम है न। जिससे प्रेम है उसपर क्रोध कैसे कर लोगे? फिर परमात्मा को माँगने के लिए ईमानदारी चाहिए। और जिसमें ईमानदारी है, उसे तो ये भी साफ़-साफ़ दिख जाएगा कि अगर हमें मिला नहीं तो गलती हमारी है। जब गलती तुम्हारी है, तो उस पर क्रोध कैसे कर लोगे।

दुनिया से कुछ माँगने के लिए बेईमानी चाहिए। और जब बेईमानी होगी, तो तुम्हें ये दावा ठोकते भी देर नहीं लगेगी कि अगर मुझे मिला नहीं है तो सारी गलती दुनिया की है। तुम अगर गौर से देखो तो संसारी की तो कई कामनाएँ फिर भी जल्दी-जल्दी पूरी हो जाती हैं। हो जाती हैं कि नहीं हो जाती हैं? भले ही तात्कालिक तौर पर होती हो, भले ही आंशिक तौर पर होती हो, पर हो तो जाती ही हैं पूरी।

तुम्हें नए कपड़े चाहिए, कामना पूरी हो जाएगी। कोई विशेष अड़चन नहीं, कि है? तुम्हें इज़्ज़त चाहिए, तुम कुछ यत्न करके अपनी कामना पूरी कर सकते हो। तुम्हें कुछ खाना है, कामना पूरी हो जाएगी। आदमी चाहिए, औरत चाहिए, तुम ये कामना भी पूरी कर ही लेते हो। आसान मामला। उनकी सोचो जो उसकी कामना रखते हैं। साधक की कामना तो बड़ी मुश्किल से पूरी होती है। साधक की कामना तो साधक के मिटने के साथ पूरी हो जाती है, तो ऐसे में तो साधक को क्रोध और चिड़चिड़ाहट से भरा हुआ होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं पाया जाता।

भई, गृहस्थ की कम-से-कम सतही इच्छाएँ तो पूरी हो जाती हैं न! साधक की तो कोई सतही इच्छा होती ही नहीं। उसकी तो एक ही इच्छा है, और वो पूरी होने का नाम नहीं लेती। तो उसमें तो क्रोध का उबाल आना चाहिए था। वहाँ तो रोज़ बम फटने चाहिए थे। पाँव पटक रहा है, मुँह से झाग निकल रहा है, आसमान की ओर घूंसे चल रहा है। इतना चाहा तुम मिलते ही नहीं हो, जान दे दी तुम्हारे लिए, हासिल ही नहीं होते हो। ऐसा तो देखने में नहीं आता।

ये बात रोचक होती जा रही है। संसारी को छोटी-छोटी चीज़ें भी जब नहीं मिलती हैं तो वो चिड़चिड़ा जाता है। और साधक ने बहुत बड़ी चीज़ माँगी है, और उसे नहीं मिल रही है तब भी उसमें धीरज है। संसारी की सफलता से कहीं ज़्यादा बड़ी है साधक की असफलता। संसारी सफल है, फिर भी चिड़चिड़ा रहा है। साधक असफल है, तब भी मौन है, शांत है, विनीत है। बोलिए क्या चुनना है? सस्ती सफलता या परम असफलता।

प्रश्नकर्ता: परम असफलता।

आचार्य प्रशांत: अध्यात्म तो है ही परम असफलता का खेल। जो पूरे तरीके से असफल होने को तैयार हो गए हों, जो बिल्कुल तैयार हो गए हों कि मिलने तो वाला नहीं, लेकिन फिर भी हम जुटे रहेंगे। उन्हीं के लिए है अध्यात्म। जिन्हें चाहत हो कि जल्दी से ही मिल जाए, आज कल में उपलब्ध हो जाए, उनके लिए दरवाज़ा है। चलो भागो!

जिनका प्रेम इतना गहरा हो कि कह रहे हों कि पक्का है कि मिलेगा नहीं, लेकिन फिर भी हम मजबूर है। इश्क ने मजबूर कर दिया है। मिलेगा नहीं लेकिन आरजू कायम रहेगी। मिलेगा नहीं,लेकिन यत्न जारी रहेंगे। उनके लिए है अध्यात्म। और अगर आपमें धैर्य न हो, प्रेम न हो, तो फिर छोटी-छोटी चीज़ें माँगी हो, मिल भी जाती हैं आसानी से।

चश्मा देना! कोई गुस्सा नहीं, कोई क्रोध नहीं, कोई चिड़चिड़ाहट नहीं, कोई साधना नहीं। मिल गया। कितनी आसानी से मिल गया। अब दिक्कत बस छोटी-सी एक है, दस बार इससे माँगूंगा तो दसवीं बार इंकार कर देगा। फिर फटूंगा। कितनी सस्ती चीज़, लेकिन ये भी संसार मुझे मेरी इच्छानुसार दे नहीं पाएगा। तुम छोटी-से-छोटी चीज़ भी संसार से मांगो,एक मुकाम आएगा जब संसार मुकर जाएगा। और फिर तुम फटोगे,क्योंकि तुम्हें उम्मीद ही थी सफलता की।

साधक वो जिसने सफलता की उम्मीद छोड़ दी। वो कह रहा है मिलने तो वाला कुछ है नहीं। ये खेल ही जीतने वाला नहीं है। यहाँ तो खेल शुरू होता है हमारी हार से।

नतीजा पहले घोषित होता है, खेल बाद में शुरू होता है। नतीजे में बता दिया जाता है आप हार चुके हैं, अब आप खेले। तो जो ऐसा खेलने को तैयार हो, वो उतरे। अब उन्हें गुस्सा आएगा ही नहीं, क्यों? क्योंकि गुस्सा तो हार पर आता है, ये तो पहले ही हारा हुआ है।

हरिजन तो हारा भला जीतन दे संसार। जीतन वाले बही गए, जो हारा सो पार।।

क्रोध तो तभी आएगा जब संसार में कुछ जीतना चाहते हो। कबीर साहब कह रहे हैं तुम हारो। संसार को जीतने दो। ये ललक ही छोड़ दो कि हमें विजेता होना है।

हरिजन तो हारा भला जीतन दे संसार। जीतन वाले बही गए, जो हारा सो पार।।

अब गुस्सा आ रहा है?

प्रश्नकर्ता: नहीं आ रहा।

आचार्य प्रशांत: हार पर गुस्सा आता है न, आप पहले ही हार जाइए। परम लक्ष्य बनाइए, छोटे-छोटे लक्ष्यों की कामना अपने आप छूटेगी। छोटी चीज़ों की कामना छूटी नहीं कि फिर कामनाजनित क्रोध भी छूट गया। और अगर आप पूछे कि फिर जो बड़ा लक्ष्य है वो न मिला तो क्रोध नहीं आएगा? तो उसकी बात हम कर चुके है न। वो बड़ा लक्ष्य जब बनाए तो प्रेमवश बनाए, स्वार्थवश नहीं।

और प्रेम कहता है भले ही हार चुके हों, लेकिन छोड़ तो नहीं सकते न! क्यों नहीं छोड़ सकते? प्रेम है।"है इसी में प्यार की आबरू वो जफ़ा करें, हम वफ़ा करें।" प्यार की आबरू ही इसी में है, कि अगर बेवफ़ा से भी प्यार हो गया हो तो तुम अपनी ओर से वफ़ा निभाते रहो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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