गुस्सा करना बुरी बात है || पंचतंत्र पर (2018)

Acharya Prashant

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गुस्सा करना बुरी बात है || पंचतंत्र पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे शक आता है या जलन उठती है तो हम घुटने टेक देते हैं, इन सब पर तो हमारा वश ही नहीं होता। घुटने टेकने की हमारी बहुत गंदी आदत है, तो उसे कैसे रोका जाए?

आचार्य: नहीं, घुटने टेकने तक भी ठीक है, उसके आगे के जो काम हैं, वो मत करो।

अब कामवासना उठी, तुमने घुटने टेक दिए; अभी कुछ नहीं बिगड़ा। घुटने टेकने के बाद और भी चीज़ें होती हैं न—कपड़े उतरने होते हैं, झुकना होता है—वो सब मत करो।

प्र: जलन आती है तो बुरा लगता-ही-लगता है।

आचार्य: तो बुरा ही तो लगा है। कोई तो बिंदु आएगा जिस पर जाकर तुम कहोगे कि “अब मैं मजबूर नहीं,” या इस पूरी प्रक्रिया में आदि से लेकर अंत तक तुम विवश ही हो?

भीतर से वृत्तियाँ उठती हैं, ठीक? उनके पास ताक़त है, वो तुमको अपने साथ बहा ले गईं, ठीक? उनके पास ताक़त है। कोई तो जगह आती है जब उस बहाव का ज़ोर कम होता है? कोई तो जगह आती है जहाँ तुम पाँव टिकाकर खड़े हो सकते हो? तुम तो कहीं पर भी नहीं रुकते!

समुद्र की लहर आती है। तुम तट पर खड़े हो, समुद्र की लहर आई समुद्र की तरफ़ से, वो तुम्हें धक्का देती है। तुम क्या पचास किलोमीटर दूर जाकर गिरते हो? तुम कुछ फ़ीट पीछे हो जाते हो न? कहीं पर तो जाकर अपने पाँव जमा दो, या यही कहते रहोगे कि “कामवासना उठी इसीलिए पिछले बीस साल से हम कामान्ध ही हैं, क्रोध उठा है तो अब हम सम्पूर्ण धरती के जितने वासी हैं, सबको मारकर ही मानेंगे”?

कहीं तो रुक जाओ, कभी तो रुक जाओ। जहाँ भी रुकोगे, वहाँ तुम्हारा तुम्हारी शक्ति से, तुम्हारे सत्य से परिचय होगा। तुम्हें सबूत मिलेगा कि रुकना सम्भव है; तुम्हें सबूत मिलेगा कि वृत्ति के अलावा भी तुम कुछ हो, क्योंकि वृत्ति मात्र होते तो बहे चले जाते। जो रुका, वो वृत्ति नहीं हो सकता।

एक बार तुम्हें पता चल गया कि रुक सकते हो, तो फिर अभ्यास करो। जहाँ रुके थे, अगली बार उससे थोड़ा पहले रुकना, फिर थोड़ा और पहले रुकना, फिर थोड़ा और पहले रुकना।

सिर्फ़ मजबूरी की कहानी मत सुनाया करो कि “गुस्सा आता है तो हम मजबूर हो जाते हैं गुस्से के सामने।” ये भी तो बताओ कि एक बिंदु आता है जब तुम गुस्से के दृष्टा हो जाते हो, जब गुस्सा तुम पर अपनी पकड़ छोड़ देता है। वो बिंदु भी आता है, कि नहीं आता है? उसी बिंदु को ज़रा पहले ले करके आओ। वो बिंदु तुम्हारी ताक़त का प्रमाण है, उसकी बात करो न। ज़्यादा बात उसी की करो।

मजबूरी की जितनी बात करोगे, मजबूरी उतनी फैलेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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