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ग्रन्थ बेहतर, या ध्यान?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: एक सवाल था। बेवकूफ़ी वाला है।

आचार्य प्रशांत: बड़ा वाला सवाल है! गम्भीरता देख रहे हो? पहले ही बता देंगे कि बेवकूफ़ी वाला सवाल है।

प्र: आचार्य जी, मैंने किताबें कुछ ज़्यादा पढ़ी नहीं हैं। कहीं से कुछ मिल जाता है तो, कभी कुछ चीजें ध्यान करते हुए अपने आप पता चल गई, कुछ किताबों से पता चलीं। अब अनुभूतियाँ मुझे ग्रंथ पढ़ूँ तो ज़्यादा पता चलेंगी या ध्यान में ज़्यादा समय लगाऊँ तो ज्यादा पता चलेंगी? जैसे आप, अनुभव करते हैं चीज़ों को तो आपको दिख जाती हैं। तो वो पढ़ कर ज्यादा समझ आएगा या फिर ध्यान से अनुभूति का स्तर बढ़ाने से चेतना का स्तर बढ़ेगा?

आचार्य: बेटा जो तुम्हारे बस में हो वो करो। सब करो। मैं तो दोनों ही को करने की राय देता हूँ। इनको (ग्रंथों को) पढ़ो भी और पढ़ने मात्र से काम होगा भी नहीं। जीवन को लेकर भी सदा सचेत रहो। आज ही देख लो, सुबह तुमने त्रिपुरा रहस्य पढ़ी और अभी मैंने तुमसे कहा कि पिछले छः घंटों में जो था उसपर गौर करो। तो यही दोनों काम हैं: गुरुओं की बातें सुनो और अपने जीवन पर गौर करो।

प्र: अब जैसे कि आप राय दीजिए।

आचार्य: अब दी तो है राय। वो पढ़ लिया?

प्र: हाँ।

आचार्य: पूरा?

प्र: पूरा नहीं।

आचार्य: हाँ! वो पूरा नहीं हुआ पर राय और दे दीजिए! राय पढ़ेंगे। जो दिया है पढ़ने को वो थोड़ी पढ़ेंगे। राय साहब हैं। त्रिपुरा रहस्य अपने आप में छोटा ग्रन्थ नहीं है। तुम्हारे सामने भी जो आ रहे हैं ये कुछ चन्द संकलित पद हैं। पूरा पढ़ो, मौज आ जाएगी।

प्र: आचार्य जी, जब मन में ये बात आती है कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में अंदर से तर्क आता है कि “मुझे क्यों नहीं आउट ऑफ़ कंट्रोल हो जाना चाहिए क्योंकि मेरे साथ अन्याय हुआ है।" तो ये बड़ा खतरनाक शब्द लगता है, पता नहीं क्यों?

आचार्य: बिलकुल हुआ है अन्याय। इसमें कोई शक ही नहीं है। तुम्हें लगता क्यों है कि अन्याय नहीं होना चाहिए था? पहला अन्याय तो यही था कि तुम पैदा हो गई। हम सबके साथ पहला अन्याय क्या हुआ है? हमें पैदा कर दिया गया। तो उसके बाद अन्याय तो होना ही है न, एक के बाद एक? न्याय की तुम्हारी परिभाषा क्या है?

जो हो रहा है वो होना है क्योंकि तुम खरगोश हो। खरगोश माने घास, खरगोश माने गाजर। तो वो होना-ही-होना है। तुम्हें क्यों लग रहा है कि कुछ और होना चाहिए था? मृत्युलोक है ये। तुम इसे क्या मान रही हो, स्वर्गलोक? कि यहाँ सब देवता डोल रहे होंगे?

यहाँ तो अन्याय-ही-अन्याय है। अहंकार का लोक है भाई। अहंकार के चलते हम पैदा हुए। अहंकार प्रेरित हम जीवन बिताते हैं। जहाँ अहंकार है वहाँ अन्याय है। ऐसी ही है ये दुनिया। इसमें तुमको अब अजूबा क्या है? तुम्हारे साथ हुआ भी है और तुम कर भी रही हो। ये जग की रीत है।

बस इसके साथ इतना और याद रखना है कि भीतर कोई है जो न्याय-अन्याय से परे है। जगत में अन्याय होता है तभी तो जगत में न्यायालय है। “अन्याय होता है भाई तो चलो, न्यायालय चलो। वहाँ पर कुछ क्या पता विपरीत हो जाए।" हमारे जो जगत का न्याय है, वो अन्याय का विपरीत ही तो होता है।

तुम कहीं जाओ और बोलो, “मेरे पाँच हज़ार चोरी हो गए। मेरे पाँच हज़ार फ़लाने ने चुरा लिए।" तो न्याय क्या किया जाएगा? कि इसको इसके पाँच हज़ार लौटा दो। तो हमारा जो न्याय है, वो अन्याय का विपरीत है।

भीतर तुम्हारे कोई है जिसे न्याय-अन्याय दोनों से ही कुछ लेना-देना नहीं। जो दोनों से ही अस्पर्शित है। वो अन्याय में मुरझा नहीं जाता और न्याय में पुष्पित नहीं हो जाता।

ये चलेगा, ऐसा ही है। इसमें तुम अपनी अपेक्षाओं से चोट खा रहे हो। तुम दुनिया से वो अपेक्षा कर रहे हो जो तुम्हें परमात्मा से रखनी चाहिए। फिर इसीलिए चोट लग जाती है तुमको। तुम अपने आपसे वो अपेक्षा कर रहे हो जो तुम्हें सिर्फ आत्मा से रखनी चाहिए। और तुम हो कौन? तुम पूरे तरीके से अहंकारमयी हो। लेकिन उम्मीद अपने-आपसे वो है जो सिर्फ आत्मा से की जा सकती है। वो उम्मीद पूरी होती नहीं। तो फिर तुम उलझे-उलझे, थके, जले-भुने घूमते हो।

प्र: साधु ऐसे हुए हैं जो निर्विकार, अपना तपस्या ही करते रहते हैं। दुनिया से कोई मतलब नहीं। कई ऐसे होते हैं जिनके साथ क्रांति होती है उसके बाद वो दुनिया बदलने के लिए निकलते हैं और फिर कर्म करते हैं। कई ऐसे लोग भी हैं जिन्हें ये सब अध्यात्म का शौक नहीं है लेकिन वो परोपकार के लिए कर्म में जीवन खपा देते हैं। तो क्या निर्विकार श्रेयस्कर है या कर्म श्रेयस्कर है या सब भिन्न हैं?

आचार्य: किसके लिए? नितीश के लिए जो पीछे बैठा है, दीवार के लिए, ख़रगोश के लिए, चींटी के लिए, इस सोमनाथ के लिए? किसके लिए ये सवाल पूछ रहे हो?

प्र: जैसे मैं जब कॉलेज में था।

आचार्य: अभी भी नहीं बता रहा है।

प्र: मैं, मेरे लिए बता रहा हूँ।

आचार्य: तो बस ये बोलो न। तो तुम्हारे लिए वो श्रेयस्कर है जो तुम्हे तुम्हारे बंधन से मुक्ति दे। तुम्हें तपस्या से अपने बंधनों से आज़ादी मिलती है तो तपस्या करो। तुम्हें योग से मिलती है तो तुम योग करो। तुम्हें ध्यान से मिलती है, तुम ध्यान करो। तुम्हें भजन से मिलती है, तुम भजन करो भाई। आध्यात्मिकता में किसकी मुक्ति चाह रहे हो, वो पुराने साधुओं की या अपनी?

प्र: मुक्ति भी नहीं, मैं तो कुछ चाह ही नहीं रहा।

आचार्य: ये तो कुछ चाह ही नहीं रहे। पड़ोसी चाह रहा है सब कुछ। इस सवाल का उत्तर भी पड़ोसी चाह रहा है। ये इन्होंने थोड़े ही पूछा है सवाल।

प्र: आकर्षण है आचार्य जी उन लोगों का (ऋषियों का) इसलिए पूछा है।

आचार्य: भाई, बहुत व्यावहारिक जीवन जीयो। किताबी बातें नहीं करनी हैं। आध्यात्मिकता इसलिए है, ताकि जिन प्रपंचों में तुम फँसे हुए हो, उन प्रपंचों से आज़ाद हो जाओ। दुःख अनुभव करते हो इसलिए आध्यात्मिकता है। दुःख में जी रहे हो इसलिए आध्यात्मिकता है। दुःख से निवृत्ति ही आध्यात्मिकता का ध्येय है। और तो कुछ है नहीं। यही परम पद है। इसी की प्राप्ति होती है। परम पद माने और कुछ नहीं। आनन्द माने और कुछ नहीं। यही है।

दुःख मिट जाए, यही आनन्द है। तो अपना दुःख देखो। दुःख के कारक देखो। और उनसे दूर हो जाओ, बात ख़त्म। या कोई गुत्थी है गहरी?

“ये मेरे दुःख हैं, यहाँ से दुःख आते हैं, और ये है मेरे भीतर जो उन दुःखों को पकड़े रहता है। नहीं चलेगा।" बात ख़त्म। कह दिया कि “नहीं चलेगा भाई, ऐसे नहीं चलेगा।" बात खत्म।

सब कुछ ठीक है। भूल होगी, भूल से दुःख उपजेगा, दुःख स्वभाव नहीं है इसीलिए दुःख का निवारण किया जाएगा, सब ठीक हो जाएगा।

सब ठीक हो जाएगा, खेल पुनः शुरू होगा। फिर भूल होगी, भूल होगी तो दुःख उपजेगा, दुःख स्वभाव नहीं है इसीलिए स्वभाव दुःख को दूर करेगा। फिर ठीक हो जाएगा। सब ठीक तो है, तुम क्या परेशान हो? तुम इस प्रक्रिया में बाधा बनो ही नहीं न। इस प्रक्रिया के जितने पक्ष हैं, तुम उनको सहजता से काम करने दो।

इस प्रक्रिया में अहंकार भी है, आत्मा भी है। अहंकार का क्या काम है? इस पूरी प्रक्रिया में अहंकार का क्या काम है? भूल करना, दुःख खाना। और आत्मा का क्या काम है? कि जब अहंकार उसकी शरण में आए तो दुःख को दूर कर दो, बस हो गया। ये अपने-आप चल तो रहा है सब कुछ। तुम क्यों माथा फोड़ रहे हो?

प्र: पूर्णता एक चाह होती है कि बस सच्चे हों।

आचार्य: पूर्णता तुम्हें अपूर्णता के मार्ग से ही मिलेगी। अपूर्णता तुम्हारी व्यवहारिक सच्चाई है। अपूर्ण जीवन जीओ, उसमें दुःख पाओगे। जब दुःख पाओगे तो अपने-आप दिख जाएगा गड़बड़ हुई है, ठीक करोगे। इस पूरे खेल में बाधा बनता है तुम्हारा झूठ, तुम्हरी उम्मीदें और तुम्हारा अस्वीकार।

गलती करी, दुःख पाया, दुःख ठीक नहीं लगा, दुःख मिटाया। इसमें क्या बाधा बनेगा? जब तुम कह दो कि “मुझे तो दुःख है ही नहीं" या तुम ये कह दो कि “मैं तो गलती कर ही नहीं सकता।" अब जब ये सब बोल दोगे तो फिर ये प्रक्रिया बाधित हो जाती है। नहीं तो प्रक्रिया अपने-आप चलती है।

अहंकार भूल करेगा, दुःख पाएगा। दुःख पाएगा, दुःख स्वभाव नहीं है, आत्मा की शरण में जाएगा, दुःख दूर हो जाएगा। ठीक? बात खत्म। पर वो माने ही नहीं कि भूल करी है, फँसेगा। दुःख उठे और वो दुःख को दबा दे, फँसेगा।

मैं कहता हूँ, सहजता से मानो कि भूल हुई और दुःख की आग उठे तो उसमें जलो।

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