गॉसिप ही ज्ञान है || (2021)

Acharya Prashant

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गॉसिप ही ज्ञान है || (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपकी किताब 'कर्म' खरीदने मैं नोएडा के एक बुकस्टोर गया, तो वहाँ के मैनेजर से बात होने लगी। तो बातचीत में एक-दो चीज़ें निकल कर आई। पहली, पिछले पाँच-सात सालों में किताबों की कुछ कैटेगिरी (श्रेणी) ही गायब हो गई है बुकस्टोर से, फिलोसॉफी (दर्शनशास्त्र) और स्प्रिचुएलिटी सेक्शन (आध्यात्मिक खण्ड) एकदम पतला हो गया है। और दूसरी चीज़ ये निकल कर आई कि ज़्यादा जो आजकल किताबें बिक रही हैं, वो लाइट वेट (हल्की-फुल्की) हैं, मनोरंजन, एंटरटेनमेंट की दुनिया से हैं। मैं लम्बे समय से किताबें पढ़ता हूँ, और आज से तीस-चालीस साल पहले ऐसा नहीं होता था। बुकस्टोर मंदिर जैसा होता था और बुकस्टोर में जाओ तो वहाँ पर अध्यात्म की, दर्शन की, तमाम तरह के अच्छे साहित्य की पुस्तकें रहती थीं, अभी वो सब नहीं हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ, बात बिलकुल ठीक है। अभी आप अगर किताबों की दुनिया में देखेंगे तो वहाँ हालत ये है कि वहाँ लेखक को नहीं पढ़ा जाता। वहाँ पहले आपको एक सेलिब्रिटी होना चाहिए, वो भी अधिकांशतः मनोरंजन की ही दुनिया से, जिसमें खेल और सिनेमा वगैरह आ गए, और फ़िर आपकी किताब छपेगी तो वो किताब पहुँच जाती है बुकस्टोर पर।

और आप बुकस्टोर पर जाएँगे तो वहाँ पर आपको तस्वीरें दिखाई देंगी उन लोगों की जिनकी किताबें आजकल बिक रही हैं, वहाँ तस्वीरें आपको लेखकों की नहीं दिखाई देंगी। आज के अच्छे लेखक कौन हैं, इसका तो बहुत कम लोगों को नाम भी पता हो। बहुत कम लोगों को पता होगा। अगर पूछा जाए कि आज भारत में या विश्व में आप शीर्ष पाँच-दस अच्छे लेखकों के नाम बता दीजिए, जो विशुद्ध लेखक मात्र हैं, आप नहीं बता पाएँगे। तो बुकस्टोर पर आप तस्वीरें भी किसकी लगी हुई देखते हैं? वहाँ आप देखेंगे कि सिने एक्ट्रेसेस (फ़िल्मी तारिकाएँ) हैं जो बता रही हैं कि प्रेगनेंसी (गर्भावस्था) कैसे हैंडल करनी चाहिए। कोई बता रही है कि उसने किस तरीके से दो-चार शादियाँ करी या बिना शादी करे ही क्या करा।

वैसी किताबें बाहर बिलकुल डिस्प्ले में लगी हुई होंगी कि आपको बाहर से देखने पर लगेगा ही नहीं कि ये किताबों की दुकान है। वो आपको लगेगा कि ये बॉलीवुड का कोई शो रैक है, जिसमें बॉलीवुड वाले नहीं तो क्रिकेटर होंगे, नहीं तो राजनेता, राजनेता नहीं होंगे तो उनकी बीवियाँ होंगी या पूर्व-पत्नियाँ होंगी। ऐसे लोग होंगे जिनके नाम आप पहले से जानते हैं। जिनका लेखन से, साहित्य से कोई ताल्लुक़ नहीं है। वो किसी और वजह से उनके नाम आप जानते हैं, तो फिर वो किताबें लिख रहे हैं जिनको आप पढ़ने पहुँच जाते हो। जैसे कि अगर कोई बहुत अच्छी आइटम गर्ल थी तो अब वह एक बहुत गहरी लेखिका बन जाएगी। जैसे कि कोई एक पुराना क्रिकेटर है, वह किताब लिखे और आप कहें, “वाह! इसमें से तो हीरे-मोती निकलेंगे बिलकुल अंदर से एकदम।”

आप जाइए बुकस्टोर्स पर तो आपको बड़ा मुश्किल होगा कि रमण महर्षि और कृष्णमूर्ति की किताबें मिल जाएँ। बहुत मुश्किल होगा। मैं अभी फिलोसॉफी में पूछने लग जाऊँ कि डेरिडा और शोपेनहौर, तो वो तो बहुत दूर की बात है। मैं फिर भी थोड़े जाने-पहचाने नामों की बात कर रहा हूँ, ये भी नहीं मिलेंगे अब बुकस्टोर्स में। पोएट्री सेक्शन (कविता खण्ड) ही ख़त्म हो गया। कवि अब जैसे कि होते ही नहीं। नहीं, वो जो टीवी पर आते हैं, उन्हें कवि नहीं कहते, वो भांड हैं। वो जो तुकबंदी करते हैं राजनेताओं के इर्दगिर्द, वो कवि नहीं कहलाते हैं, वो भले ही अपने आपको बोल दें कि हम कवि हैं। आज कहाँ कोई निराला, कोई अज्ञेय, कोई धूमिल? आज कहाँ है कोई पंत, कोई महादेवी? मुक्तिबोध के आसपास फटकने लायक भी है आज का कोई युवा कवि? और इसमें कवियों को क्या दोष दें? वो कविता करेंगे, पढ़ेगा कौन? वजह समझिए।

आपने कहा आज से तीस-चालीस साल पहले ऐसा नहीं होता था। ऐसा इसलिए नहीं होता था क्योंकि तब जो फिल्में बनती थीं, उनमें जो कैरेक्टर्स (चरित्र) होते थे वो फिर भी ज़मीन से थोड़े जुड़े हुए कैरेक्टर्स होते थे, हमारे आसपास के होते थे। जैसे ऋषिकेश मुखर्जी की आप फिल्में ले लीजिए, बिलकुल आपको ऐसा लगेगा कि जो पड़ोस के घर में रामू रहता है, उसी को लेकर के पिक्चर बना दी गई है, बढ़िया पिक्चर। आज जो फिल्मों में करैक्टर आते हैं, आपने देखा है पंचानवे में आई थी दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे, उसके बाद से अधिकांश पिक्चरों में, अधिकांश नहीं तो भी एक बड़ी तादात में जो मूवी है, उसमें जो लीड कैरेक्टर्स होते हैं वो एनआरआई होते हैं। सब बैनर्स (फ़िल्म कम्पनियाँ) ने ऐसा करा है, ख़ास तौर पर यशराज ने।

तो आपको ये एक्टर्स भी नहीं पसंद हैं, आपको वो कैरेक्टर्स पसंद हैं जो ये करैक्टर प्ले कर रहा है, और वो करैक्टर क्या है? वो करैक्टर है जो कैनडा में बसा हुआ है, अमरिका में बसा हुआ है और पैसे से खेल रहा है। "न जाने मेरे दिल को क्या हो गया, अभी था यही, अभी खो गया", वो स्विट्जरलैंड में अपनी लाल गाड़ी से ऐसे लेकर चला जा रहा है। आपको वो लाल गाड़ी चाहिए, आपको उस लाल गाड़ी का लालच दिया गया है और आपको लगता है आप उस एक्टर जैसे हो जाएँगे तो आपको भी वो लाल गाड़ी मिल जाएगी।

यह बात हमें समझ में नहीं आती क्योंकि ये बात हमारे अंदर-अंदर चल रही होती है और हमारा आत्मवलोकन इतना गहरा होता नहीं कि हम समझ पाएँ कि हमारे मन को वो एक्टर क्यों अच्छा लग रहा है। आपके भीतर लालच को प्रोत्साहित किया गया है। और ये सब लोग जो अभी बुकस्टोर से लेकर घरों के ड्राइंग , बेडरूम तक छा गए हैं, ये सब बहुत गिरे हुए वैल्यू सिस्टम के प्रतिनिधि हैं। क्या वैल्यू सिस्टम ? जिसमें मन का उथलापन है, जिसमें अध्यात्म के लिए कोई जगह नहीं है, जिसमें पैसे का नंगा नाच है, जिसमें आदमी ऐसा होता है जो लुच्चा सेक्सुअलिटी के आगे घुटने टेक दे।

आपने कहा कि फिलोसॉफी , स्प्रिचुअलिटी सेक्शन बुकस्टोर से गायब हो रहे हैं। वो तो होंगे न, क्योंकि अगर आपमें धर्म या दर्शन की समझ आ गई तो आपके लिए कंज़म्पशन (भोग) मुश्किल हो जाता है। और अगर कंज़म्पशन ही आपका आदर्श बन गया है, तो आप बिलकुल नहीं देखना चाहेंगे किसी प्लेटो की ओर, किसी निसर्गदत्त की ओर। आप क्यों देखना चाहेंगे इनकी ओर? क्योंकि ये तो आपको आपकी हक़ीक़त से रूबरू कराते हैं। तो इनकी किताबें फिर बुकस्टोर से गायब हो रही हैं। कोई बिलकुल आपको ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि आज का कोई घटिया सा इंफ्लुएंसर , दो कौड़ी का कोई यूट्यूबर कल बेस्ट सेलिंग ऑथर हो जाए। यही होने वाले हैं कल के बेस्ट सेलिंग ऑथर क्योंकि दर्जनों मिलियंस में इनके फॉलोवर्स हैं, आज अगर ये किताब लिख दें तो वो किताब एक झटके में बेस्ट सेलर हो जाएगी।

दूसरा तरीका ये है कि कोई फिल्मी एक्टर किताब लिख दे और उसके बारे में बस इतना बता दे कि मैंने इस किताब में अपने अंतरंग संबंधों का खुलासा कर दिया है, मैंने इस किताब में बता दिया है कि मैं किसके-किसके साथ सोया, ख़ासतौर पर किस-किस की बीवी के साथ, वो किताब ऐसी बिकेगी कि पूछिए मत। क्योंकि हमको चेतना के इतने निचले तल पर लाकर खड़ा कर दिया गया है कि हमको बस अब यही चीज़ें पसंद आ रही हैं।

लेखक होना अब आज के समय में संभव नहीं रहा। साहित्यकार होना अब संभव नहीं रहा, आप भूखे मरोगे। कवि होने की तो आप बात ही छोड़ दीजिए।

प्र२: आचार्य जी, जब संस्था की किताब आई थी 'कर्म', तो हम भी गए थे आस-पास के बुकस्टोर्स पर। एक चीज़ देखने को मिली कि हिंदी का जो सेक्शन (खंड) है, वो पूरे बुकस्टोर्स के एक प्रतिशत से भी कम है, और ऐसा एक-दो में नहीं, सब में था कि आपको वहाँ पर हिंदी किताबें तो मिलेंगी ही नहीं। तो अब हालत ये है कि दर्शन, अध्यात्म के साथ-साथ अब हिंदी किताबें भी आपको नहीं मिलेगी, इंग्लिश-इंग्लिश ही मिलेगी।

आचार्य: कुछ बात है ऐसी कि घटिया साहित्य विशेषकर अंग्रेजी में ही रचा जाता है। और आपको घटिया नशे की लत लग गई है तो आपको हिंदी में मिलना मुश्किल होता है। घटिया नशा किसी भी भारतीय भाषा में मिलना थोड़ा मुश्किल पड़ेगा। दूसरी बात, जो लोग ये घटिया नशा सप्लाई करते हैं किताबों के माध्यम से, वो भी एक घटिया नशा है, वो कहने को किताब है पर वो सस्ता नशा है, कुछ उनका भी तो स्टैंडर्ड होता है, वो गरीबों की भाषा हिंदी में कैसे लिख देंगे! इतनी बड़ी अदाकारा हैं, तुम कल्पना ही नहीं कर सकते कि वो हिन्दी में लिखेंगी। भले ही उनकी एक-एक रोटी हिंदी की पिक्चरों से ही आती है। पर किताब उनकी अंग्रेज़ी में आएगी।

पढ़ने वाले भी अंग्रेजी की किताबें पढ़ रहे हैं। नीलसन की लिस्ट निकलती है, नीलसन बुक स्कैन , जिसमें देश में सबसे ज़्यादा बिकने वाली पाँच सौ किताबों की सूची होती है। उन पाँच सौ किताबों में साढ़े तीन सौ किताबें अंग्रेज़ी की होती हैं। कहने को हम कहते हैं कि देश में मुश्किल से पाँच प्रतिशत लोग हैं जो अंग्रेजी पढ़ सकते हैं और बोल सकते हैं, लेकिन बिकने वाली शीर्ष पाँच सौ किताबों में से साढ़े तीन सौ किताबें अंग्रेज़ी की हैं।

हिंदी में किताबें छप भी जाएँ तो उन्हें पढ़ कौन रहा है? अभी हमारी ‘कर्म’ किताब अंग्रेज़ी में आई तो लोगों ने उस पर हल्ला मचाया कि, "अरे, हिंदी में नहीं आई, हिंदी में नहीं आई!"

नालायकों, हिंदी में तीस किताबें पहले से ही हैं, वो पढ़ीं तुमने? ‘कर्म’ भी हिंदी में आ रही है, अभी आने वाले महीनों में बहुत आएँगी। पर बात वो नहीं है, बात यह है कि पहले से जो तीस किताबें हिंदी में हैं, वो तुमने पढ़ीं क्या? वो तुमने नहीं पढ़ीं। क्योंकि हिंदी की दुर्दशा ये है कि हिंदी में किताब उपलब्ध हो भी तो नहीं पढ़ोगे। तो बुकस्टोर वाले भी कहते हैं कि, "जब हिंदी पढ़ने वाले लोग ही नहीं हैं तो हम हिंदी का सेक्शन रखे ही क्यों?" तो उन्होंने हिंदी का सेक्शन उड़ा दिया। हिंदी पढ़ना माने गँवार कहलाना।

मैं इस देश के भविष्य को लेकर के बड़ा आशंकित रहता हूँ—जो देश अपनी भाषा, अपनी संस्कृति त्याग चुका हो, जिस देश में हीनभावना ज़बरदस्त तरीके से हो, जिस देश की जवान पीढ़ी एकदम कमज़ोर हो गई हो, वह देश पता नहीं कितनी देर तक बचेगा!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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