गोपियाँ या गीता? || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

9 min
363 reads
गोपियाँ या गीता? || आचार्य प्रशांत

प्रश्नकर्ता: जैसे कि हम पूजा करते हैं, जैसे जो साकार कृष्ण हैं उनसे हम निराकार कृष्ण तक कैसे जा सकते हैं? मुझे ये जानना है।

आचार्य प्रशांत: साकार कृष्ण ऐसे हैं जैसे भगवद्गीता की ‘प्रती’, निराकार कृष्ण ऐसे हैं जैसे भगवद्गीता का ‘ज्ञान’। भगवद्गीता की प्रती न रखी हो आपके सामने, तो ज्ञान लेना मुश्किल हो जाएगा न। भगवद्गीता की वो जो प्रती है, वो साकार है, सगुण है। है न? और जो उसका मर्म है, उसके भीतर जो बोध है वो निराकार है, निर्गुण है। लेकिन बड़ा मुश्किल होगा, अगर आपके सामने कागज़ की वो प्रती न रखी हो। ठीक उसी तरीक़े से जैसे कागज़ की प्रती की महत्ता है, उसी तरह से पत्थर की मूर्ति की महत्ता है। प्रती की जो महत्ता है वही प्रतिमा की है। लेकिन अगर कोई कागज़ पर ही अटक कर रह जाए, जैसा बहुत लोग करते हैं; उनके घर में कागज़ की गीता होती है, लेकिन गीता का ज्ञान उन्होंने बिलकुल भी गहा नहीं होता। होता है न? घर में गीता रखी है, कभी पढ़ी नहीं, पढ़ी भी तो गुणी नहीं। उसी तरीक़े से अगर प्रतिमा आपको अप्रतिम तक नहीं ले जा पायी, मूर्ति आपको अमूर्त तक नहीं ले जा पायी, तो व्यर्थ हो जाएगी।

जैसे गीता रखना काफ़ी नहीं है, गीता के मर्म को ग्रहण करना आवश्यक है। वैसे ही साकार कृष्ण की प्रतिमा को पूजना काफ़ी नहीं है; कृष्णत्व के मर्म को ग्रहण करना आवश्यक है। मूर्ति पूजा में यही दोष रह जाता है, मूर्ति को अमूर्त तक पहुँचने का माध्यम होना चाहिए। लेकिन बहुत लोग सोचते हैं कि मूर्तिपूजा पर्याप्त है; वो बेकार की बात है।

प्र: जैसे कि मम्मी जी बोलती हैं कि पूजा करो बेटा, सुबह भोग लगाओ ठाकुर जी को; तो वो सब करने से मन को शांति तो मिलती है, लेकिन सुकून नहीं मिलता। जैसे कि अब प्रभु जी थे उनकी मैं प्रवचन सुन रही थी। तो उनकी एक बात मुझे याद है, उन्होंने बोला था कि जब आप कृष्णा को जान जाओगे तो वो आपको इतने क्लियर (साफ़) दिखाई देंगे जैसे कोई वस्तु आपको दिखाई दे रही है। मतलब वो इतने क्लियर हैं कि……।

आचार्य: सब दिखाई देना बंद हो जाता है। ये सब जो हमने करा है ये गीता के साथ, कृष्ण के साथ, सबके साथ हमने अन्याय करा है। 'वो दिखाई देने लग जाएँगे।' वो वो हैं जिन तक आँख क्या, कोई भी इंद्रिय नहीं पहुँच सकती। वो आपको वस्तु की तरह कहाँ से दिखाई देने लग जाएँगे भाई। हर वस्तु सीमित होती है, वो आपको दिखने कहाँ से लग जाएँगे! ये सब जो हमने रूमानी कथा-वाचन करा है कृष्ण के नाम पर; ये बड़ा ख़तरनाक रहा है। इसने हमसे गीता को छीन लिया। कृष्ण की हमने जो अलौकिक छवि बना दी, उस छवि के कारण गीता हमसे छीन गई। हमें समझ में ही नहीं आता। कृष्ण को भी हमने एक पर्सनालिटी (व्यक्तित्व) बना दिया “व्यक्तित्व”। अब क्या बचा? सब बरबाद कर दिया न।

देखो, सगुण की पूजा करने का जो आग्रह रहा है न, यही सनातन धर्म की ताक़त भी रहा है और बड़े से बड़ा दोष भी। ताक़त इसलिए रहा है क्योंकि इसने सनातनियों को बड़ा उदार बना दिया। सगुण की पूजा माने प्रकृति की पूजा, माने जो कुछ भी गुणयुक्त है चारों तरफ़, उसकी पूजा करनी है; नदी, पत्थर, पहाड़। तो हिंदू मन बड़ा उदार हो गया, सहिष्णु हो गया। वो ले लेता है, कहता है सब कुछ वही तो है, तो क्या विरोध करें। तो बहुत न विरोध करता है न क्रांति करता है, जैसा चल रहा है चलने देता है। तो इस मामले में तो जो सगुण की पूजा है वो ताक़त रही है।

लेकिन वही कमज़ोरी भी रही है क्योंकि उसके कारण जो सनातनी मन है, वो कभी असली चीज़ की ओर आसानी से नहीं जा पाया। असली चीज़ तो 'निर्गुण' ही है न। यही वजह है कि फिर जो सनातन-धारा है, उससे पहले जैन-धारा को, फिर बौद्ध-धारा को, फिर सिख-धारा को उभरना पड़ा। और इन तीनों में ही ख़ास बात ये थी कि इन्होंने सगुण से वास्ता नहीं रखा। क्योंकि सगुण को पकड़-पकड़कर आप निर्गुण से ही दूर हुए जा रहे हो, तो ऐसे सगुण का क्या लाभ! और सगुण का बहुत लाभ है अगर सगुण ही आपको निर्गुण तक ले जा सके। मूर्ति बहुत अच्छी है, अगर मूर्ति के माध्यम से आप ब्रह्म तक जा सको। और मूर्तिपूजा का उद्देश्य भी यही था कि मूर्ति आपको कुछ आगे का याद दिला दे। लेकिन माया ऐसी है न, हमारा मन ऐसा मूर्ख होता है न कि हम उद्देश्य भूल गये।

मन तो ऐसा मूर्ख होता है कि बौद्ध धर्म निकला और फिर बौद्धों ने बुद्ध की ही मूर्तियाँ बना डालीं। और बौद्ध धर्म निकला तो सनातन धारा से ताकि जितने दोष थे सनातनियों के, उन दोषों को हटाकर के एक साफ़, नयी धारा की रचना की जा सके। वहाँ साफ़ नयी धारा क्या होगी, वहाँ भी तमाम तरह के दोष आ गये। सिख धारा निकली, गुरुओं ने कभी जात-पात, ऊँच-नीच की बात नहीं करी, पर वहाँ भी जात-पात, ऊँच-नीच आ गयी। मन बड़ा कपटी होता है; शास्त्र कुछ सिखाए, गुरु कुछ सिखाए, मन सब मटियामेट कर देता है।

लेकिन, इन सब चीज़ों से तो बहुत बचकर रहो। देखो, तीन हैं हमारे पास नाम; जो सनातन धर्म के स्तंभ हैं — राम, कृष्ण और शिव। ठीक? राम के साथ योगवासिष्ठ जुड़ा हुआ है, कृष्ण के साथ श्रीमद्भगवद्गीता और शिव के साथ अनेकानेक ग्रंथ हैं जो बहुत प्रचलित नहीं हैं; अवधूत गीता है जैसे, शिव गीता है। इन सब में सबसे जो प्रचलित है वो कृष्ण की गीता है। ठीक है न। अब अगर आपने कृष्ण की गीता को खो दिया, तो आपने बहुत कुछ खो दिया। सनातन धर्म के जो तीन स्तंभ हैं, उनमें से जो आपको ज्ञान देता है वास्तव में, जिसका ज्ञान प्रचलित है जानमानस में वो एक ही है। कौन सा? कृष्ण का स्तंभ।

क्योंकि योगवासिष्ठ जनमानस में प्रचलित नहीं हैं। उसी तरीक़े से शिव से सम्बन्धित ज़्यादातर जो अद्वैत मूलक ग्रंथ हैं वो भी जनमानस में प्रचलित नहीं हैं। पर गीता प्रचलित है। गीताकार को लेकर के कहानियाँ मत चलाइए।

और गीतकार को लेकर हमने, कृष्ण को लेकर हमने जितनी कहानियाँ बना दी हैं, वो बहुत ख़तरनाक है। उनके कारण हम गीता से हाथ धोते जा रहे हैं। लोगों को बहुत रस आ गया है बस कृष्ण के नाम पर नाचने में। और ये व्याधि ख़ासतौर पर ये जो पूरा क्षेत्र है मथुरा, वृन्दावन, यहाँ बहुत फैली हुई है। वहाँ से पूरे देश में। वहाँ गीता का कम महत्व है, और कृष्ण को लेकर के बाक़ी सब जितने किस्से हैं वो ज़्यादा चलते हैं। समझ रहे हो?

'फिर प्रभु ने ऐसा कहा, फिर प्रभु ने फ़लाने गोपी के चरणों को ऐसे स्पर्श करा, फिर प्रभु राधारानी के साथ फ़लाने झूले पर बैठ गये। फ़लाने बाग में आते हैं रात में; अभी भी कोई वहाँ देखेगा तो अंधा हो जाएगा।' ये क्या कर रहे हो! ये अध्यात्म है? क्या है ये? और इसको भक्ति बोलते हो! फिर इसीलिए तो 'भक्त' शब्द अब एक मज़ाक बनकर रह गया न।

अब एक समस्या है बड़ी। समस्या ये है कि राम के चरित्र के साथ हमारे पास मोटा-मोटा जो ग्रंथ उपलब्ध है, वो बहुत रसीला नहीं है, वो त्रासद है। उसमें गंभीरता का भाव है। मैं रामचरितमानस की बात कर रहा हूँ। आप वहाँ रस बहुत नहीं पाओगे। वहाँ पर वियोग है, कष्ट है, वहाँ त्याग है। तो इसीलिए रामचरितमानस को लेकर के लोग इतने उत्कंठित होते नहीं। क्योंकि वहाँ तो आप न भी चाहो तो आपको इस बात को देखना पड़ेगा कि राम ने त्याग करा; और त्याग कौन करना चाहता है आज के समय में? और मर्यादा का पालन करा; और मर्यादा का आज कौन पालन करना चाहता है? तो जनमानस में प्रचलित क्या होता जा रहा है? भागवत पुराण। अब भागवत पुराण जैसी कोई चीज़ न राम के लिए मौजूद है, न शिव के लिए मौजूद है, पर कृष्ण के लिए मौजूद है।

और भागवत पुराण में बहुत ऐसी कहानियाँ हैं, जिसमें आपको विवेक-बुद्धि का कोई प्रयोग करना नहीं पड़ता। आप उनको लेकर के ख़ूब रसपान कर सकते हैं; और लोग करते हैं और कथावाचक कराते हैं। वो बोलते ही हैं कथामृत। मैं नहीं देखता की गीता कथामृत कहीं चल रहा हो या गीता यज्ञ कहीं चल रहा हो, पर हर गली-मोहल्ले में भागवत की कथाओं का कथामृत चल रहा होता है। और वहाँ जो रससुधा बरसती है, पूछिए मत! सबसे ज़्यादा एक चीज़ को लेकर के — ‘फिर फ़लानी गोपी को क्या बोला।’ और महिलाएँ नाच रही हैं।

इस सबसे मुझे आपत्ति बस ये है कि ये कर के आप गीता से दूर हो जाते हो। आपके लिए कृष्ण का अर्थ फिर गीताकार नहीं रह जाता। आपके लिए कृष्ण आपके कान्हा और वो लड्डू गोपाल और ये सब बन जाते हैं। एक बार आपने कृष्ण को माखन-चोर ही बना दिया और उसके बाद आप कैसे उनको गीताकार की तरह देख पाओगे। नहीं देख पाते लोग। और इसमें उनको सुविधा भी ख़ूब रहती है क्योंकि गीता को पढ़ना ख़तरे की बात है न। वहाँ आपके भ्रम टूटते हैं, अहंकार टूटता है। और ये सब करोगे फिर कि माखन ले कर भागे, फ़लाने ग्वाले से क्या कहा, फिर ये हुआ, फ़लानी गैया आ गयी, फिर ऐसा वैसा। वो सबमें बड़ा आनंद आता है, कोई बुद्धि नहीं लगानी पड़ती, कोई सीख भी विशेष नहीं है। नाचने-गाने को भी मिल जाता है, पूरी सुविधा है।

भागवत पुराण की कथाओं में भी सार है, पर वो सार तब समझ में आएगा जब पहले गीता समझ में आएगी। गीता पहले आती है, पुराण बाद में आता है। गीता के कृष्ण को यदि आप जान गये हैं, तो भागवत के कृष्ण को फिर आप समझ जाएँगे। पर अगर आपने सिर्फ़ भागवत के कृष्ण को जाना है, तो गीता के कृष्ण से शायद आप और दूर हो जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories