घटनाएँ बहाएँगी, तुम अडिग रहना || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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घटनाएँ बहाएँगी, तुम अडिग रहना || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: | वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते || २, ५६ ||

दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५६

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, श्रीकृष्ण ने स्थिरबुद्धि वाले मनुष्य के विषय में बताया है। मेरा सवाल है कि क्या उस स्थिति को प्राप्त करने लिए मुझे वातावरण में किन्हीं बातों पर ध्यान देना पड़ेगा? अगर हाँ, तो किन बातों पर? कैसी साधना की आवश्यकता होगी? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: वातावरण की सभी बातों पर ध्यान देना होगा। देख रहे हो न, क्या समझा रहे हैं श्रीकृष्ण? "दुखों से मन में उद्वेग ना हो, सुख की प्राप्ति में निःस्पृह हो, राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हों, तब जा करके स्थितधी यानी स्थिरबुद्धि हुए तुम।”

अब वातावरण में तो ये सब लगातार ही मौजूद हैं; दुःख-सुख, राग-द्वेष, भय, कामनाएँ। कोई क्षण ऐसा नहीं है जब वातावरण मन पर प्रभाव ना डाल रहा हो। जब कोई क्षण ऐसा नहीं है जब वातावरण मन पर प्रभाव ना डाल रहा हो, तो ये देखना भी लगातार होगा कि मन पर प्रभाव क्या पड़ रहा है। मन कम्पित हो गया तो स्थिरता कहाँ है? जब स्थिरता नहीं है तो स्थिरबुद्धि कैसे कहलाए तुम?

स्थितधी हुआ ही वही जिसका केंद्र कभी डगमगाता ना हो। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसका केंद्र ऐसा हो गया हो जैसा वायुरहित स्थान में रखा गया दीया, उसकी लौ ज़रा भी काँपती ही नहीं। निर्वात जगह पर है वो, जहाँ पर ज़रा भी हवा नहीं बह रही, उसकी लौ अकंप है, स्थिर है। मन को ऐसा कर लेना है। केंद्र अडिग हो जाए। बाहर-बहुत कुछ चलता रहेगा, भीतर कुछ ना चले। और बाहर माने कहाँ? शरीर से बाहर नहीं, ‘तुमसे’ बाहर। तुम केंद्र मात्र हो। मन भी तुमसे बाहर का स्थान है। मन में भी बहुत कुछ चलता रहे, तुम तब भी अडिग रहो।

अक्सर जब कहा जाता है कि बाहर-बाहर कुछ भी चलता रहे, भीतर तुम अप्रभावित रहना तो छवि ऐसी बनती है जैसे शरीर से बाहर और शरीर से भीतर का भेद किया जा रहा हो, जैसे खाल विभाजन रेखा हो कि खाल के उस तरफ़ जो चल रहा है, वो बाहरी बात हुई, खाल के इस तरफ़ जो चल रहा है, वो आतंरिक बात हुई। ना, शरीर से बाहर ही नहीं होंगी घटनाएँ; शरीर के भीतर भी होंगी घटनाएँ। तुम शरीर के भीतर घटने वाली घटनाओं से भी अनछुए, अप्रभावित रहना।

और ध्यान दीजिएगा, शरीर से बाहर जो घटनाएँ घट रही हैं, उनसे अप्रभावित रह जाना फ़िर भी आसान है। शरीर के भीतर जब घटना घटती है, उससे असंपृक्त रह जाना, उससे अनछुए रह जाना बड़ा मुश्किल है। बाहर से जब कोई उत्तेजित करे आपको, हो सकता है कि आप झेल जाएँ, पर उत्तेजना अगर अपने ही शरीर में उठ रही है, फ़िर क्या करेंगे? बाहर से कोई कुप्रभाव डाले आपके ऊपर, कुसंगति बने आपके लिए, हो सकता है आप झेल जाएँगे, पर अपने ही मस्तिष्क में अगर कुविचार आ रहे हों फिर?

वो सब कुछ जिसे अपना भी कहते हो, वो पराया ही है, बाहरी ही है। आत्मा मात्र अपनी है, बाकी सब बाहरी है। शरीर को, मन को, मस्तिष्क को भी अपना मत कह देना, ये भी बाहरी हैं। जितना बाहरी बाहर वालों को समझते हो, उतना ही बाहरी इस मन को समझो जिसे कहते हो 'मेरा मन'। मेरा मन नहीं है, ये भी पराया मन है। आत्मा अपनी है, बाकी सब पराया है।

प्रश्नकर्ता आगे पूछ रहे हैं कि "मेरे मन में विचार आ रहा है कि निश्चित रूप से स्थिरता के लिए कड़ी साधना की ज़रूरत होगी। मार्गदर्शन करें।"

ठीक ही समझ रहे हो। अस्थिर होने के लिए कोई साधना नहीं चाहिए। डगमग डोलने के लिए कोई साधना नहीं चाहिए, प्रभावित हो जाने लिए कोई साधना नहीं चाहिए। डटे रहने के लिए, अड़े खड़े रहने के लिए तो साधना चाहिए ही होगी। और सब इन्द्रियाँ, सब प्रभाव, सब संस्कार, सब वृत्तियाँ तुम्हें यही सुझाएँगी कि बह चलो—सुख आया है, बह चलो; उत्तेजना आई है, बह चलो; दुःख आया है, बह चलो; ईर्ष्या आई है, बह चलो।

जब तुम्हारी पूरी व्यवस्था लगातार यही सन्देश दे रही हो कि बह चलो, उस वक़्त पर अंगद की तरह पाँव जमाकर खड़े हो जाना और कहना, “मैं नहीं बहूँगा।” ये हुई आत्मा वाली बात।

नींद बहाए लिए जा रही है, भूख बहाए लिए जा रही है, कामोत्तेजना बहाए लिए जा रही है, संस्कार बहाए लिए जा रहे हैं, क्रोध बहाए लिए जा रहा है, हम अड़ गए, “मैं नहीं बहूँगा” यही साधना है। और कोई साधना करनी नहीं होती है।

अपने ही बहाव के विरुद्ध खड़े हो जाना कहलाता है 'साधना'।

हम बहाव हैं। और आत्मा बहती नहीं, वो अचल है। प्रकृति बहती ही रहती है, निरंतर चलायमान। देखते हैं कौन जीतता है। तुम बह चले, तुमने प्रकृति को जिता दिया। तुम डट गए, तुम जीत गए।

उत्तराखंड में बाढ़ आई थी। बड़ा नुकसान हुआ उसमें। उस बाढ़ से एक तस्वीर है जो छपी हुई है और अमर हो गई है। पानी बह रहा है, बह रहा है, भीषण उसकी गति। बाढ़ है, गंगा हैं, और उनके मध्य में शिव की प्रतिमा, अडिग। सब कुछ बहा जा रहा है, शिव अकंप, अचल। ये रिश्ता है प्रकृति और आत्मा में। वो बहती है, और शिवत्व है ना बहने में। ना बहने में तुम बहने वाले के साक्षी हो जाते हो। ना बहकर तुम बहने वाले से सही सम्बन्ध बना लेते हो। और तुम भी बह चले तो तुम बहने वाले का हिस्सा हो गए। तुम बचे ही नहीं, अब सम्बन्ध क्या?

ना बहना बहने वाले का अपमान नहीं है, ना बहने में ही बहने वाले के प्रति सद्भाव है; क्योंकि बहने वाले के साथ तुम बहने लगे तो खेल बड़ा खराब हो जाता है। जिसका काम है बहना, वो बहे। जिसका काम है चुपचाप खड़े होकर देखना, वो देखे। देखो, यही उचित है। और देखने का मतलब यह भी नहीं है कि तुम बहाव का विरोध करो। जिसको बहना है, वो बहे, हम ना समर्थन में हैं, ना विरोध में हैं। तुम अपना काम करो, हम अपना काम करें।

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। समीप आने के लिए एक और अवसर देने के लिए धन्यवाद। और मैं जैसी हूँ, वैसा होने के लिए कृपया मुझे माफ़ करिए। फ़िर से करीब आने की चाह है, यह तभी पता चला जब शिविर में मिली, और अब दोबारा भूलने की ग़लती नहीं करना चाहती। गीता में श्रीकृष्ण का हर श्लोक मुझे भूलने और चालाकी से आज़ादी दिलाने वाला रास्ता बताता हुआ लगता है। आपके साथ इस गीता पाठ को अर्जुन के समान कैसे सुना जाए? धन्यवाद, आचार्य जी।

आचार्य: अर्जुन को दो बातें लगातार स्मरण हैं; पहली बात, वो विकट स्थिति में है और दूसरी बात, कृष्ण सहायता करेंगे। ये दोनों बातें याद रखनी होंगी। बहुत अलग-अलग, बहुत दूर-दूर की बातें हैं, अर्जुन को दोनों पता हैं। पहली बात, वो फँस गया है और दूसरी बात, उसको संभालने और निकालने के लिए कोई मौजूद है। दोनों में से अगर एक भी बात का स्मरण छूटा तो श्रवण भी छूट जाएगा।

शिष्य को चाहे श्रोता को ये दोनों ही बातें याद रखनी होती हैं। पहली बात, मेरी हालत ठीक है। दूसरी बात, कोई है जो मेरी सहायता कर सकता है। जब इन दोनों बातों का एक साथ और लगातार स्मरण रहता है, तब गीता प्रभावी हो पाती हैं। अन्यथा बहुत गीताएँ आईं, बहुत गीताएँ गईं, जिन्हें लाभ नहीं होना था ,उन्हें नहीं ही हुआ। तो ये दोनों बातें आप एक साथ और लगातार याद रखिएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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