Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
घर के आगे भी जहान है || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
30 min
68 reads

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक सवाल बहुत सारे जो वीगनवाद (करुण शाकाहारी) का समर्थन करते हैं, ये वीगन शब्द या वीगनिज़्म बोलते हुए डर जाते हैं, शरमा जाते हैं, उसको कुछ और तरीक़े से बोलते हैं। सो ये लोग जो हैं जिसको शायद कप केक, कप केक वीगन्स जो कहते हैं कि तो क्या हमें जब यह हम प्रचार कर रहे हैं, हमें डरना चाहिए? क्या हमें कुछ अच्छा दूसरा शब्द इस्तेमाल करना चाहिए? कि शुड बी वी अनअपालजेटिक एंड से इट (क्या हमें क्षमाप्रार्थी नहीं होना चाहिए और ये कहना चाहिए)?

आचार्य प्रशांत: डरना तो कभी भी नहीं चाहिए तो इसमें कैसे डर सकते हैं। हाँ, शब्द ज़रूर शायद भारतीय संदर्भ में शुद्ध शाकाहार बोल दीजिए। निर्विद्याहार भी बोलते हैं पर बहुत भारी हो जाता है। शुद्ध शाकाहार अच्छा है। शाकाहारी तो होते ही हैं भारत में सभी होते हैं। शुद्ध शाकाहारी और अच्छा है। इससे यह और साबित हो जाता है न कि वो अशुद्ध शाकाहारी हैं वो तो है ही। वीगनिज़्म थोड़ा सा लगता है जैसे कोई वेस्टर्न फैड (पाश्चात्य शैली) है।

प्र: पर ये शुद्ध शाकाहार जो हुआ यह कि जितने सारे होटल हैं वेजिटेरियन वो सब शुद्ध शाकाहार ही लिखते हैं, प्योर वेजिटेरियन। सो ये प्योर वेजिटेरियन उस कैटेगरी (श्रेणी) में चले जाता है कि हम तो प्योर ही हैं हम वही खाते हैं जाकर।

आचार्य: नहीं, तो शुद्ध शाकाहार जो बात है उसको साफ़ अर्थ देना पड़ेगा फिर। मैं समझता हूँ ज़्यादा, ज़्यादा फ़ायदे की बात हो सकती है बिलकुल ठीक कहा आपने। लोग अपनेआप को शुद्ध शाकाहारी इस अर्थ में बोलते हैं कि हम माँसाहारी नहीं हैं तो हम शुद्ध हैं। शाकाहारी होने भर से हम शुद्ध हो गए।

वो ये नहीं मानते कि शाकाहार भी दो तरह का हो सकता है: एक शुद्ध और एक अशुद्ध। जिसमें तुमने दूध डाल दिया वो अशुद्ध हो गया क्योंकि दूध कहाँ से शाक हो गया भाई। दूध कौन सा शाक है; वो तो अशुद्ध ही है न।

शाक के बीच में दूध तो एक अशुद्धि है बिलकुल ठीक बात है। देखिए, और एक बात लोगों को समझानी पड़ेगी जो नए लोग हैं— समस्या मूलत: हमें दूध से नहीं है; समस्या हमें उस पूरी प्रक्रिया से है जिससे दूध आता है; समस्या हमें उस सम्बन्ध से है जो हम पशु के साथ रखते हैं दूध निकालने के लिए।

इन दोनों बातों में अंतर है क्योंकि आप जैसे ही बोलोगे न एक भारतीय परिप्रेक्ष्य में कि मुझे दूध से समस्या है; वहाँ पर लोगों को कुछ धार्मिक बातें याद आने लग जाती हैं, उन्हें श्री कृष्ण का माखन याद आने लग जाता है। पर हम उन्हें दोष नहीं दे सकते इस बात के लिए।तो उन्हें बताना पड़ेगा कि देखो दूध को आप एक तरफ़ रखिए, अभी मुझे ये बताइए की आप जानते हैं कि दूध किस प्रक्रिया से आज आपके घर आ रहा है? श्री कृष्ण का समय अलग था। मैं आज के दूध की बात कर रहा हूँ, मैं श्रीकृष्ण के समय के दूध की बात नहीं कर रहा हूँ।

आज का दूध क्या आप जानते हैं किस तरह से आपके घर आता है। क्या आपको पता है किस तरह वो पशु पैदा किया गया। क्या आपको पता है उसके बछड़े का या पड़वे का क्या होता है पैदा होने के बाद। क्या आप जानते हैं कि भारत जो इतना गोमांस या भैंस का माँस या बीफ का निर्यात करता है वो कहाँ से आता होगा इतना सारा? क्या आपने कभी सोचा है? ये बातें करनी पड़ेगी।

हम नारा लगाते हैं दूध बुरा है, दूध बुरा है, दूध बुरा है, तो लोगो की ओर से एक जाहिरी प्रतिक्रिया आती है बिलकुल आएगी। दूध बुरा कैसे हो सकता है— हम शिवलिंग में दूध चढ़ाते हैं, हम जन्माष्टमी पर खीर चढ़ाते हैं। दूध बुरा कैसे हो सकता है। और मैं जब वो ऐसी प्रतिक्रिया दें तो मैं उनके प्रति संवेदना रखता हूँ। वो ठीक कह रहे हैं, दूध को काहे को बुरा बोल रहे हो; दूध कैसे आ रहा है; बुराई उसमें है न।

समझाओ तो उनको वाक़ई बुराई है कहाँ पर— हम जानवरों पर भीषण अत्याचार कर रहे हैं, इंडस्ट्रियल लेवल (औद्योगिक तल) पर अत्याचार कर रहे हैं। और आप जानते भी नहीं हो कि कितना भारी अत्याचार हो रहा है ये दूध-लस्सी-घी की हवस के कारण। यहाँ बुराई है। ये समझाना पड़ेगा।

वैसे मैंने ख़ुद इस बात का कभी सामना करा नहीं तो मैं थोड़ा सा समझ कम पा रहा हूँ। किसी को डर क्यों लगता होगा ये बोलने में कि वो वीगन हैं। हम तो जहाँ जाते हैं वहाँ तो हम तो ढपली पीटते हैं, शोर मचाते हैं, अरे! वीगन कुछ नहीं है क्या।

प्र: हँसते हैं।

आचार्य: अरे! वीगन अपने मेन्यू में एक सेक्शन बनाओ। क्या कर रहे हो हम तो और ज़्यादा ज़ोर अभी उधर बैठे थे वहाँ पर तो उसको हमने ऐसे ग्लानी में डाल दिया हमने वीगन चीज़ (शुद्ध मक्खन) नहीं है तुम्हारे पास हम पिज्जा नहीं खा सकते तुम्हारा। वो बेचारा शर्मसार हो गया फिर उसमें कुछ टोफू-वोफू मल के लाया। तो इसमें कोई डर कैसे सकता है पता नहीं। जब प्यार किया तो डरना क्या इसमें।

प्र: सर, ये तीसरा सवाल आपने कहीं पर बोला हुआ है। सर, इन्होंने लिखा तो मैं पूछ लेता हूँ कि ये जो पशु प्रेमी होते हैं एनिमल लवर्स या जो एनवायरमेंटलिस्ट (पर्यावरणविद्) होते हैं जो पर्यावरण के लिए बहुत दिल जाता है उनका ये इतने ड्रमैटिक (नाटकीय) क्यों होते हैं? यह लॉजिकल (तार्किक) क्यों नहीं होते कि क्या ये सिर्फ़ एक शोबाजी (प्रदर्शन) करना चाहते हैं? ये गहराई पर क्यों नहीं?

आचार्य: वजह यही है न कि उनका जो पशु प्रेम है वो अक्सर उठता ही आंतरिक ड्रामे से है। आंतरिक ड्रामे (नाटक) को क्या बोलते हैं—इमोशन (भावना)। माय कैट इज़ सो क्यूट सो हू एम आई (मेरी बिल्ली प्यारी है तो मैं कौन हूँ?) आई एम एन एनिमल लवर बिकॉज़ माय कैट इज़ सो क्यूट बट आई ऍम अफ्रेड ऑफ लिज़र्ड एंड कॉकरोचेज (मैं एक पशुप्रेमी हूँ क्योंकि मेरी बिल्ली प्यारी है लेकिन मैं छिपकली और कॉकरोच से डरता हूँ)।

तू है ही ड्रामा भीतरी ड्रामा है। कैट इज़ सो क्यूट बट कॉकरोचेज आर बैड (बिल्ली बहुत प्यारी है लेकिन कॉकरोच गंदे हैं)। स्पष्टता नहीं है क्लैरिटी से नहीं उठ रहा है उनका एक्टिविज़म (सक्रियतावाद) भावना इमोशन से उठ रहा है।

और अब आप मज़े की बात सुनिए। दुनिया की बड़ी से बड़ी हिंसा का जो कारण है वो इमोशन ही है। तो इमोशन आपको एनिमल लवर कैसे बना देगा— जब इमोशन ही रिस्पॉन्सबल (ज़िम्मेदार) है एनिमल क्रूएल्टी (जानवरों के प्रति क्रूरता) के लिए— ये बात लोगों को अभी आसानी से पल्ले नहीं पड़ेगी कि इमोशन से क्रूएल्टी कैसे आएगी। क्रोध क्या है; इमोशन; लस्ट (काम भोग) क्या है;इमोशन;जेलसी (ईर्ष्या) क्या है; इमोशन। तो हम कैसे सोच रहे हैं कि इमोशन से कोई भला काम भी हो सकता है दुनिया का है। हाँ, कुछ इमोशन ऐसे होते हैं जो हमें मीठे लगते हैं। जैसे मोह, अटचमेंट ।

प्रेम इमोशन होता नहीं। वास्तविक जो प्रेम है वो इमोशन होता नहीं; इमोशन जितने होते हैं वो सब गड़बड़ होते हैं।

तो अगर आपका जो पूरा एक्टिविज़म है वो इमोशनल ग्राउंड से उठ रहा है तो बहुत कमज़ोर आपका एक्टिविज़म होगा और बहुत दूर तक जाएगा नहीं। वो भी वही रहेगा जो आपने कहा, ‘ड्रामा।‘

प्र: सो आप चाहेंगे कि जो एक्टिविस्ट (सक्रियतावादी) हैं, जो बहुत इमोशनल हो जाते हैं, वो अपनेआप को थोड़ा बैलेंस (संतुलित) करें।

आचार्य: नहीं बैलेंस की बात नहीं गहराई की बात है। बैलेंस तो उसी तल पर हो जाता है जिस तल पर आप हो। नीचे जाना पड़ेगा; गहराई। बात ये नहीं है न कि वो, वो पप्पी था वो सड़क पर था और उसकी टाँग से ख़ून बह रहा था तो मैं उसको डॉक्टर के पास ले गया और क्या होगा एक पप्पी को बचाकर के ऐसे!

हाँ, इससे इतना ज़रूर हो जाएगा कि आपको बहुत अच्छा इंस्टाग्राम वीडियो मिल जाएगा कि आपने पप्पी को बचाया और पप्पी का क्यूट फेस (प्यारा चेहरा) है और ये और वो ये है, ये सब नहीं होता। मैं नहीं कह रहा हूँ कि पप्पी के ख़ून बह रहा है तो उसको छोड़ दो। मुझे भी मिलेगा तो मैं भी ले जाऊँगा लेकिन बात उस भावना भर की नहीं है कि मैंने पप्पी को बचा लिया बात गहराई से आनी चाहिए, एक आंतरिक स्पष्टता से आनी चाहिए।

नहीं तो आप इतने जानवर है दुनिया के जो क्यूट नहीं होते आपमें उनके प्रति कोई संवेदना क्यों आए बताइए। ऐसे-ऐसे जानवर हैं जो गंध मारते हैं, ऐसे-ऐसे जानवर हैं जो ऐसे-ऐसे, छोटे-छोटे, ऐसे लीच की तरह, कुछ हैं, कुछ वो हैं। आपको उसके प्रति वो तो क्यूट नहीं हैं; आपको उसके प्रति कोई भाव ही नहीं आएगा।

प्र: ऐसे भी जानवर हैं जो आपके लिए हानिकारक हैं।

आचार्य: हानिकारक हैं। आपको कोई भाव नहीं आएगा तो यहाँ बात व्यक्तिगत पसंद, न पसंद की नहीं हो सकती। यहाँ पर बात कुछ और है और वो जो और बात है, जबतक हम उसतक नहीं पहुँचेंगे तबतक हम वास्तव में अहिंसक नहीं हो सकते।

प्र: सो इंसान गहराई में क्यों नहीं जाता? ये इमोशंस में क्यों अटक जाता है? क्यों उसे इसी में मज़ा आता है?

आचार्य: गहराई में आनंद है और जो कुछ हमें आनंदित करता है हम उससे डरते हैं, हम उससे बचना चाहते हैं, अवॉइड करते हैं। हमें सबसे ज़्यादा डर लगता है डीप प्लेज़र से, माने जॉय से। हमें सबसे ज़्यादा डर उससे लगता है। हम सब कहने को प्लेज़र सीकिंग लोग होते हैं कि सबको प्लेज़र चाहिए लेकिन असली प्लेज़र जो होता है वो सामने आता है और हमारे छक्के छूट जाते हैं बिलकुल।

जिसको हम अध्यात्म में मुक्ति कहते हैं वो किस चीज़ से मुक्ति है— इसी से तो। जो ये हमारा तनाव, कलह, क्लेश और जो उतरी हुई शक्ल है इससे मुक्ति। इससे हमें मुक्ति चाहिए नहीं। इसीलिए मुक्ति इतनी विरल, रेयर होती है। लोग इसलिए डर जाते हैं कि अगर ये बात मैंने समझ ली तो कहीं मेरे दुख छूट न जाएँ, हमें अपने दुखों से बड़ा मोह हो गया है, अपने बंधनों से लगाव।

प्र: हमें शायद लगने लगता है कि इन्ही से हमारी पहचान है।

आचार्य: हम यही हैं, यही ज़िंदगी है और ये छूटा तो हम कहीं के रहेंगे नहीं, हम ही मिट जाएँगे जैसे। डीप प्लेजर इज़ द एंड ऑफ ए लाइफ ऑफ डीप सफोकेशन (गहरा आनंद गहरी घुटनभरी ज़िंदगी का अंत है)। है न? तो वो लाइफ ही ख़त्म हो जाती है फिर।

प्र: और शायद इंसान न्यूनस (नयापन) और अननोन (अपरिचित) से डरता है।

आचार्य: हम अननोन से भी नहीं डरते हैं। हम नोन सफरिंग से अटैच हैं। हमें अननोन से डर नहीं है बस हमें सबकुछ नोन चाहिए। नोन में भले सफरिंग भी हो तो भी चलेगा और नोन में सफरिंग ही होती है। क्योंकि वो मैं जिसकी बात कर रहा हूँ जिसे लिबरेशन कहेंगे या डीप प्लेज़र, आनंद कहेंगे जिसको मुक्ति कहेंगे वो तो सदा नया होता है कष्ट ही पुराने होते हैं, बंधन ही पुराने होते हैं।

प्र: आपने जो बात बतायी वही मैं भी बाहर बात कर रहा था कुछ देर पहले कि वो अपनेआप में एक एक्टिविज़म होता है जहाँ लोगों के पास वीगन ऑप्शन्स नहीं हो। सोयामिल्क नहीं है, रखना चाहिए। वीगन क्या शब्द है समझाना। तो सेम चीज़।

आचार्य: बहुत जगहों पर रखवाया है। रोहित (एक स्वयंसेवक को सम्बोधन) यहाँ पर भी इनके पास था या नहीं न या मँगाया है अलग से? था पहले से था।

स्वयंसेवी: इनके पास था।

आचार्य: इनके पास था। ऋषिकेश में ख़ासतैर पर बहुत जगहों पर रखो,रखो, रखो। और नहीं भी रखें न तो ऐसे दस लोग आकर दस बार बोलेंगे तो कमर्शियली (वाणिज्यिक) उसके लिए ज़रूरी हो जाता है कि रखो लोग माँग रहे हैं, है नही आपके पास। क्यों नहीं है?

प्र: सो आचार्य जी, आपने कहा कि अपने घरवालों को कोई और बता देगा, आप दूसरों के घरवालों को बताओ। आपने जो कहा सही है पर फिर भी मुझे अपने परिवार वालों से इतना लगाव है इतना सम्बन्ध है कि मैं चाहता हूँ कि वो बदलें और मैं वहीं अटके रह जाता हूँ। सो क्या ये जो मुझे दबा देता है जो मुझे डिमोटिवेट (हतोत्साहित) कर देता है, क्या यह ग़लत है?

आचार्य: नहीं।

प्र: मैं इससे कैसे निकलूँ?

आचार्य: थोड़ा, थोड़ा विस्तार देता हूँ। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि अपने घरवालों से बात नहीं करिए। मैं कह रहा हूँ, वहाँ अटककर मत रह जाइए। आपकी ज़रूरत सिर्फ़ आपके परिवारवालों को नहीं पूरी दुनिया को है न। तो आप शुरुआत घर से ही करिए। बिलकुल सही है कि जो निकट के हैं सबसे पहले आप उनको ही बताइए लेकिन संभावना यही है कि अपने परिजन अपनी बात नहीं सुनेंगे। क्योंकि उन्होंने आपको किसी और रूप में देखा है। वो आपको शिक्षक या ज्ञानी या गुरु के रूप में आसानी से नहीं देख पाएँगे।

तो जितना आप उनके साथ प्रयास कर सकते हैं करिए लेकिन वहाँ रुके मत रहिए। आप अपने काम का दायरा थोड़ा बढ़ाइए, विस्तार दीजिए, बताइए, आप बाहर इस बात को जितना बढ़ाएँगे उतनी संभावना बढ़ेगी कि फिर धीरे-धीरे परिवार के लोग भी समझना शुरू कर देंगे। नहीं तो उनको लगता है कि दुनिया तो इस पर सुन नहीं रही कोई और इनकी सुनता नहीं इसलिए हमें सुना रहे हैं ये।

उनको लगता है कि इनकी बात सुनने वाला दुनिया में तो कोई है नहीं तो इसीलिए ये हमको सुना रहे हैं। उनको ये स्पष्ट होना चाहिए कि मैं आपको जो बात बोल रहा हूँ, आपका सम्बन्धी होने के नाते नहीं बोल रहा। मैं बात के सच्चे होने के नाते बोल रहा हूँ। इन दोनों बातों मे बहुत अंतर है। मैं आपको कोई बात बताऊँ इसलिए कि मैं आपका भाई हूँ और मैं आपको कोई बात बताऊँ इसीलिए कि बात सच्ची है। पहली स्थिति में रिश्ता प्रमुख है, भाई तू मेरा भाई है तो मैं तुझसे कोई बात बोल रहा हूँ।

दूसरी स्थिति में सच्चाई प्रमुख है। मैं इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि बात सच्ची है। अधिकांशतः जब घरवालों से जो बात होगी तो उनको यही लगेगा की आप रिश्ते के नाते बता रहे हो। जब रिश्ते के नाते बता रहे तो माना, माने बात में बहुत दम नहीं है न। वो तो रिश्ते के नाते बता दिया बात पीछे है रिश्ता आगे है। तो इसलिए थोड़ी घर में कठिनाई आती है। घरवालों को हम सब चाहते हैं कि सबसे पहले उन्हीं की बेहतरी हो, घरवालों से ख़ास रिश्ता होता है। लेकिन वहाँ रुक मत जाइए ठीक है। घरवाले भी जब दुनिया में आपकी सफलता देखेंगे तो उनको अच्छा लगेगा। उनमें भी उत्सुकता उठेगी। वो ख़ुद, ख़ुद ही पूछेंगे कि आपकी ऐसी कौन सी बात है जो अब इतने लोग सुन रहे हैं थोड़ा हमें भी बताइए हम भी सुनना चाहते हैं। ऐसे ही होते हैं न हम। हमें भी, हमें भी संख्याओं में ही सुकून मिलता है।

जब पता चलता है कि अच्छा आपके काम के फलस्वरुप अब चार हज़ार लोग वीगन हो गए, तब घरवाले भी देखते हैं, कहते हैं अच्छा! चार हज़ार लोगो ने इनकी बात सुन ली ऐसी कौन सी बात हो गई ज़रा बताओ थोड़ा।

प्र: कुछ ऐसे भी मुझे कुछ ऐसे भी कुछ लोगों ने मुझसे बात की है कि मेरा, मेरी पत्नी नहीं बनती है, मेरा पति नहीं बनता तो उनको बहुत तकलीफ़ हो जाती है। मैरिड लाइफ (शादीशुदा ज़िंदगी) में भी इशूज़ (मामले) आ जाते हैं। सो क्या आप ऐसा, क्या आप ये जो बात आपने बतायी इसका ऐसा मैं अर्थ निकाल सकता हूँ कि थोड़ा सा डिटैच (अलग) भी हो जाएँ आप इस मामले में ताकि आप..

आचार्य: नहीं, देखिए, अब ये तो इतिहास की ग़लतियाँ हैं इन्हें कौन सुधार सकता है। आपने किसी से शादी कर ली है उसको कुछ समझ में ही नहीं आती बात। तो अब तो ऐसी सी बात है कि पानीपत की लड़ाई हुई थी उसमें कौन जीता? अब जो जीत गया वो जीत गया अब बदल तो सकते नहीं। आप अतीत में कोई कांड कर आएँ हैं बदला तो जा नहीं सकता तो कम से कम अब वो करिए न जो सही है। अब वो करिए न जो सही है। आपने किससे शादी कर ली अब थोड़ी बदल लोगे और हिंदुस्तान में तलाक़ वगैरह ज़्यादा होते नहीं; कोई अच्छी बात भी नहीं। तो अब कम से कम अब वो करो न जो ठीक है। काहे इस ज़िद पर अड़े हुए हैं कि मेरे माँ-बाप या पति-पत्नी या भाई या यार दोस्त सब वीगन बन जाएँ या उनमें भी एक फ़लानी तरह की चेतना का उदय हो; नहीं होगा।

देखिए, आपका इसमें असम्पशन, आपकी मान्यता क्या है— आपकी मान्यता ये है कि आपने अतीत में जो निर्णय करे वो इतने अच्छे हैं आपने इतने अच्छे यार-दोस्त बनाएँ या आपने इतने अच्छे पति-पत्नी बनाएँ कि वो ऊँची बातों को समझेंगे ज़रूर। और हक़ीक़त अगर यह हो कि आपने जिन लोगों से रिश्ते बनाएँ वो लोग ही इतने गिरे हुए हैं कि उन्हें कोई अच्छी बात समझ में आ ही नहीं सकती तो? जब आप किसी से रिश्ता बना रहे थे तो ये सोचकर बना रहे थे कि ये वीगन निकलेगी न? ये सोचकर बना रहे थे क्या? तब तो कुछ और सोच के रिश्ता बनाया था।

अब रिश्ता बना लिया, रिश्ता मान लीजिए उसकी सुंदरता देख के बना लिया था। अब जब रिश्ता बन गया, रिश्ता बने पाँच साल बीत चुके हैं, एक-आध बच्चा भी, बेबी भी हो गया है तो कह रहे हैं, ‘तू वीगन क्यों नहीं हो रही’—वो कहेगी, ‘पहले मेरी जाँच-पड़ताल करी थी कि मैं वीगन होने लायक भी हूँ या नहीं।’ वीगन होना भी एक ऊँची बात है उसके लिए भी एक पात्रता, श्रेष्ठता चाहिए न उसके लिए।

ऐसे थोड़ी हर कोई वीगन हो सकता है। सबकी हैसियत नहीं वीगन होने की। तो या तो इतिहास में पहले ही इस तरीक़े से आपने चयन किया होता अपने आस-पास के लोगो का कि वो सब ऊँची चेतना के लोग होते तब तो किसी को भी ज़िंदगी में शामिल कर लिया। और अब हम छाती पीटेंगे, ‘अरे! मेरे घरवाले नहीं सुनते मेरी, मेरे यार-दोस्त नहीं सुनते मेरी,’ वो यार-दोस्त इस लायक ही नहीं हैं वो क्यों सुनेंगे। तो अब कोई बात नहीं परेशानी की औरों को बताओ।

नए यार-दोस्त बनाओ, यार-दोस्त नहीं भी बनाओ तो अधिक से अधिक लोगों में इस ऊँची चेतना का संचार करो। कभी ऐसा संयोग बनेगा, कभी ऐसा वक़्त आएगा कि अपने घरवाले या यार-दोस्त भी बात को फिर समझेंगे, धीरे-धीरे होगा, अटक मत जाओ।

प्र: कहीं पर शायद आपने ये भी बात कही जो मैं समझा कि हम बेसिकली (दरअसल) अटक रहे हैं क्योंकि हमारा अहम् आ जाता है कि मेरा चयन ग़लत न हो।

आचार्य: बिलकुल यही कह रहा हूँ। आपने बिलकुल ठीक समझा। हमें यह मानते बड़ी तकलीफ़ होती है कि मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसे लोगों से रिश्ता बना रखा है जो एक इतनी सीधी-सरल-सच्ची बात भी नहीं समझ पा रहे। तो फिर हम उन्ही पर पूरी आजमाइश, ज़ोर आजमाइश करते रहते हैं कि नहीं ‘तुम भी समझो, नहीं तुम भी समझो।‘

ये ऐसी सी बात है कि मैं जा करके एक घटिया सा स्कूटर ख़रीद ले आऊँ कोई। ठीक है। क्यों इंजन उसका बिलकुल फुँका हुआ था लेकिन पेंट उस पर बहुत अच्छा था। हम रिश्ते ऐसे ही तो बनाते हैं पेंट देखकर। अब ले आए। अब इंजन उसका फुँका हुआ है और फिर मैं कह रहा हूँ कि ये मार्क थ्री की स्पीड से उड़ क्यों नहीं रहा है? अब में पूरी जान लगा रहा हूँ कि इसको में उड़ा के मानूँगा मार्क थ्री से। अरे! वो नहीं उड़ेगा।

ये एक हिस्टोरिकल ब्लंडर (ऐतिहासिक भूल) है, यह बैटल ऑफ पानीपत है जो तुम हार चुके हो। अब तुम उसको वापस जाकर के जीत नहीं सकते न। हम कह सकते हैं कि हम वापस जाएँगे बारहवीं शताब्दी में और पानीपत की हारी हुई लड़ाई दोबारा जीत कर लाएँगे; नहीं कर सकते न। हार गए अब वो भूल जाओ। अब आगे की लड़ाईयाँ देखो।

प्र: सो हम वीगनवाद अच्छाई और सच्चाई की जगह ख़ुद के लिए लड़ने लगते हैं।

आचार्य: अपने लिए लड़ने लगते है न। मेरा भाई है इसको तो वीगन होना ही चाहिए। अरे! भाई नहीं होगा वो लेकिन मेरा है न, ‘मेरा भाई’ है तो इतना गिरा हुआ कैसे हो सकता है कि वीगन नहीं बन रहा। अहम् है ये फिर। छोड़ो इस अहम् को आगे बढ़ो।

प्र: आचार्य जी, आपने कहा कि वीगनवाद के सफ़र में चेतना जगाने के सफ़र में हमें संयम रखना चाहिए। कुछ लोग शायद धीरे-धीरे ऐसे समझें, पर कितना संयम रखें? क्योंकि लोग कहते हैं कि हमें पशु बहुत पसंद हैं हम पशुप्रेमी हैं और लेकिन वो सच्चाई न देखना चाहते हैं न जानना चाहते हैं। जैसे— अगर मैं अपने बच्चों को बोलूँ चलो आओ मैं तुमको सच में तबेला दिखाऊँ; वो आते ही नहीं हैं। उनको पता है क्या नज़र आएगा। तो ऐसे लोगों के साथ कैसे संयम?

आचार्य: किसी बड़े अभियान में मेगा प्रोजेक्ट में युक्ति का बड़ा उपयोग होता है। स्ट्रैटेजी (रणनीति), प्लानिंग (योजना) इन सबकी बड़ी ज़रूरत होती है। वो इसमें भी होगी, बच्चे अगर स्वेच्छा से नहीं आ रहे तो संयोग से तो आ सकते हैं न। आप कहीं से जा रहे थे किसी तबेले के सामने आपकी गाड़ी ख़राब हो सकती है या नहीं हो सकती है! है न।

प्र: हँसते हैं।

आचार्य: तो बहुत हमारे जीवन में जब सब कुछ संयोगवश ही होता है तो संयोगवश कुछ अच्छी बातें भी हो जाएँ। जितने हमारे जीवन में सब कांड हुए हैं, वो सब दुर्घटनावश ही हुए है। संयोग था हो गया, हो गया अब क्या बताएँ। तो इसी तरीक़े से हम कुछ आयोजित दुर्घटनाएँ भी कर सकते हैं। वो फिर दुर्घटना नहीं होगी वो सुघटना होगी।

तो मैनेजमेंट, प्लानिंग, स्ट्रेटाइजिंग, इनका इस्तेमाल हम क्यों चाहते हैं कि सिर्फ़ प्रॉफिट मेकिंग कॉरपोरेशन (मुनाफ़ा कमाने वाली संस्था) से ही करें। आप महाभारत की लड़ाई लड़ रहे हैं उसमें नीति नहीं लगेगी क्या? जीतनी है लड़ाई कि नहीं जीतनी है? तो फिर उसमें कभी-कभी करना पड़ता है— "नरोवा कुंजरोवा।" उसमें कई बार तब भी सूरज को छुपा देना होता है जब सूर्यास्त नहीं हुआ होता। बहुत बड़ी लड़ाई है, इसमें युक्ति चाहिए, टैक्टिक्स, स्ट्रैटेजी भी चाहिए और टैक्टिक्स सबकुछ चाहिए इसमें जो कि किसी भी वॉर में चाहिए होता है।

प्र: सो अभी आपने प्रॉफिट मेकिंग ऑर्गेनाइज़ैशन कहा तो मेरे दिमाग में एक और सवाल आया। सैड्ली, दुख की बात है कि जितने ऑर्गनाइज़ैशन हैं जहाँ पर हम नौकरी करते वो सारे प्रॉफिट रिलेटेड (मुनाफ़ा कमाने सम्बन्धी) ही होते हैं; प्रॉफिट बेस्ड ही होते हैं। तो वो सारे एथिकल (नैतिक) नहीं होते बहुत सारे जो काम हैं वहाँ पर अगर आप देखेंगे तो इनडायरेक्टली (अप्रत्यक्ष) शोषण के साथ होते हैं। सो क्या करें हम? वहाँ नौकरी न करें, छोड़ दें?

आचार्य: देखिए, आम आदमी इतनी आत्मिक चेतना रखता नहीं है कि वो ख़ुद ही अपने हिसाब, सबकुछ जिसको आप कह रहे हैं एथिकली करे। वैसे तो मुश्किल से समाज के दस प्रतिशत लोग होते हैं जो समाज का नैतिक पथप्रदर्शन करते हैं। समाज का मोरल कम्पास (नैतिक घेरा) बनते हैं। उनका ताक़तवर होना बहुत ज़रूरी है। बाक़ी तो बस अनुयायी ही हो सकते हैं, बाक़ी तो अनुयायी ही होंगे। तो आप अगर ये सोचेंगे कि कोई भी कंपनी है उसको तो एथिकल होना ही चाहिए तो ये चाहिए जैसा शब्द काम करता नहीं है।

वो कंपनी तो वही करेगी जो मार्केट में चलेगा और मार्केट में वो चीज़ चलती है जो कि ग्राहकों को, कस्टमर को चाहिए। तो आपको माहौल ऐसा बनाना पड़ेगा एक व्यापक तौर पर कि जो रेगुलेटिंग बॉडी (नियामक संस्था) है यानी की गवर्नमेंट (सरकार) और जो सेलिंग बॉडी (विक्रय शाखा) है यानी की कार्पोरेशन, ये दोनों विवश हो जाएँ एथिकल काम करने के लिए।

आज भी बहुत कुछ है जो एथिकल हो रहा है इस दुनिया में। उदाहरण के लिए, आप किसी को पैसा देते हैं, ये, ये होटल है यहाँ आपने एडवांस का पैसा दिया तो आप यहाँ आते हो तो आपको कमरा मिल जाता है। ऐसा नहीं होता कि आपका पैसा लेकर भग गए। ऐसा तो नहीं होता न?

वो जो एथिक्स है वो इसलिए है क्योंकि लोग बहुत अच्छे हैं। वो एथिक्स इसीलिए है क्योंकि रेगुलेशन है। वो एथिक्स इसलिए है क्योंकि, क्योंकि मार्केट में इनका नाम ख़राब हो जाएगा अगर इन्होंने ऐसी कोई बात करी आगे कोई रहने नहीं आएगा। वो एथिक्स इसलिए है क्योंकि हम जाकर के कहीं पर मेक माई ट्रिप पर, कहीं पर, कुछ रिव्यू लिख देंगे, वो एथिक्स इसलिए है। तो ये उम्मीद करना कि हर कोई स्वेच्छा से और आत्मा से एथिकल हो जाएगा; ऐसा होने नहीं वाला।

यह बात जो है न, ये हमारे, हमारे, हमारे जैविक ढांचे के विरुद्ध है। हम शरीर से ऐसे नहीं हैं। हम शरीर से जानवर ही हैं और जानवरों के साथ तो जंगल का कानून चलता है, वहाँ नीति, मर्यादा नहीं चलते। तो नैतिकता सबमें स्वत: स्फूर्त उदित हो जाए; मैं नहीं देखता कि ऐसा निकट भविष्य में हो सकता है।

लेकिन इतना ज़रूर हो सकता है कि जो लोग ताक़त में हों, जो लोग सत्ता में हों, वो लोग ऐसे हों, जो, जो समाज के लिए एक उदाहरण बन सकें। और जो उदाहरण मात्र ही न बनें, जो समाज को, देश को सही नियमों में भी बाँध सकें। जैसे— प्लेटो का एक सपना था फिलोस्फर किंग का कि “जो दार्शनिक हो उसी को राजा होना चाहिए।“ वैसी ही चीज़ है फिर ये सब पीछे-पीछे चलेंगे।

नहीं तो मैं देख नहीं पा रहा हूँ कि मैं कैसे भारत में लाखों कंपनियाँ हैं इन सबके बोर्ड्स को यह मनवाया जा सकता है कि आप सबकुछ देखिए एथिकली ही करिए। ये तो नियम, क़ानूनों और सत्ता और ताक़त के ही पीछे-पीछे चलेंगे। ताक़त अगर सही लोगों के पास है तो इनका व्यवहार सही रहेगा, ताक़त यदि ग़लत लोगों के पास है तो उनका व्यवहार ठीक नहीं रहेगा।

महाभारत की भी बात करी, वहाँ भी कृष्ण अर्जुन को एक तर्क यही देते हैं, कहते हैं, “देखो अर्जुन अगर तुम लड़ाई छोड़कर के भागते हो तो तुम दुनिया के सामने बहुत ग़लत उदाहरण रखोगे।“ क्योंकि अधिकांश लोग ये बिलकुल गीता से बता रहा हूँ आपको, अधिकांश लोग अनुगामी ही होते हैं। जो ऊँचे लोग हैं इसीलिए उनको सही उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।

अर्जुन से कहते हैं कि तुमने अगर गड़बड़ कर दी तो तुम सोचो समाज का क्या होगा। तुमने अगर यहाँ पर पीठ दिखा दी मैदान में तो फिर तो सब भगोड़े हो जाएँगे न। तुम ये नहीं कर सकते। तो और इसीलिए वो कह रहे थे कि तुम्हारा जीतना ज़रूरी है।

आज भी वही बात है, आज भी महाभारत है और सही ताक़तों का जीतना बहुत ज़रूरी है। सही ताक़तों का जीतना बहुत ज़रूरी है क्योंकि दुर्योधन अगर सत्ता में है तो आप सोचिए फिर कि ये पूरा राज्य कैसे चलेगा। किस तरीक़े के लोग फिर वहाँ पर हावी होंगे और कैसे-कैसे वहाँ अनाचार और अत्याचार होंगे।

प्र: सो, सो कहीं पर ये जो सत्ता में लोग हैं ये वही करेंगे जो वोटर्स (मतदाता) चाहेंगे। तो इसीलिए जनजागरूक होना बहुत ज़रूरी है या वही एक तरीक़ा है।

आचार्य: आपके लिए एक राहत की बात यह है कि जनतंत्र में पाँच या दस प्रतिशत वोट स्विंग से सबकुछ बदल जाता है। तो आपको सौ प्रतिशत लोगों को जागृत नहीं करना है। वो जो साइलेंट वोटर होता है या जो फेंस सिटर (स्वतंत्र व्यक्ति) होता है आपको बस उसका मन ठीक कर देना है। दस प्रतिशत लोगों का मन भी अगर आपने बदल दिया तो आप सत्ता बदल दोगे।

प्र: और उस डर से जो पावर में बैठे हैं,

आचार्य: सब, सब बदल जाएगा। आपको पूरा युद्ध नहीं जीतना है आपको बस उतना जीतना है जितना जीतकर आप जीत गए।

प्र: सच बात है। सो आचार्य जी, बहुत सारे लोगों के मन में हम फिर भी अच्छाई जो ज़मीनी जीव हैं, उनके प्रति फिर भी ला सकते हैं कि देख भाई बिल्ली, देख कुत्ता, देख बकरी, देख मुर्गी। लोग फिर भी थोड़े से कनेक्ट (जुड़) हो जाते हैं लेकिन ये जो समुद्री जीव हैं इनके प्रति हमारे दिल में सद्भावना या संवेदनशीलता आती नहीं है। वो ऐसा लगता है कि हम उनको पहचान ही नहीं पाते हैं और ख़ासकर ये गोवा में। जैसे— गोवा में सारे लोग जो बाहर से भी आते हैं वो मच्छी ही खाने आते हैं। एग्ज़ोटिक डिश (आकर्षक खाद्य) और यहाँ के लोग भी बहुत ज़्यादा खाते हैं। और यहाँ के ही नहीं मेरे ख़्याल से कोस्टल (तटवर्ती) के जितने लोग हैं सारे यही करते हैं।

आचार्य: इसीलिए तो मैं कह रहा हूँ न कि..

प्र: सौरी सर, उनको ऐसा लगता है कि ये हमारा धर्म है, हमारी परंपरा है कि हम मच्छी खाएँ। हमारी पूरी पहचान ही इससे है। सो उनके साथ क्या करे?

आचार्य: देखिए, जबतक आपका जो वेजिटेरियनिज़्म या वीगनिज़्म होगा, जबतक उसका सम्बन्ध किन्ही ख़ास प्रजातियों भर से होगा तबतक आप बस इतना करेंगे कि उन प्रजातियों को बक्श देंगे। मैं बिल्ली नहीं खाता, मैं कुत्ता नहीं खाता। मैंने एक से एक माँसाहारी देखे हैं जिन्हें बड़ी कोफ़्त होती है कि चीन में कुत्ते क्यों खाए जाते हैं। वो ख़ुद बकरा फाड़कर खा रहा होगा अभी बिलकुल और कह रहा होगा चीनी बड़े कमीने होते हैं।

बकरा, वो कुत्ता खाते, कुत्ता खाते हैं। भई, बकरा-कुत्ता, कुत्ता-बकरा उसको नहीं समझ में आती यह बात। लोगों को अपने कुत्तों से बहुत प्यार होता है और कुत्तों को वो चिकन खिला रहे होते हैं। लोगों ने साँप पाल रखे होते हैं और साँपों को वो ज़िंदा चूहा या खरगोश खिला रहे होते हैं, ज़िंदा। ऐसे बस उनकी ओर उछाल देते हैं ऐसे। खरगोश लिया और अजगर बैठा है, साँप बैठा है, उसकी ओर ऐसे उछाल दिया।

ये सबकुछ स्पीशिज़्म (प्रजातिवाज) में है, यह सबकुछ इगो (अहम्) है क्योंकि इगो व्यक्तिगत लाइक्स (पसंद) और डिसलाइक्स (नापसंद) पर चलती है। मुझे मेरा साँप पसंद है, मुझे मेरा कुत्ता पसंद है, आपको जानवर नहीं पसंद है, आपको अपना अहंकार पसंद है। आपको कोई जानवर नहीं पसंद है, आपको अपना अहंकार पसंद है।

संयोग की बात है कि आपको एक साँप पसंद आ गया, आपको चूहा पसंद आ गया, आपको कुत्ता पसंद आ गया, आपको हाथी पसंद आ गया, इसका मतलब आप एनिमल लवर (पशु प्रेमी) नहीं हो गए। उस स्पीशीज़ के अलावा आप बाक़ी सबके प्रति हिंसक ही रहोगे क्योंकि आपको वास्तव में हाथी से भी नहीं है प्यार, आपको बस अपने अहंकार से, अपनी-अपनी पसंद से प्यार है। वो मेरी पसंद है इसलिए मुझे उससे प्यार है। ये इसमें कोई दम नहीं है।

नैतिकता का जो केंद्र है वो आत्मा होनी चाहिए। आत्मा माने बोध, साफ़ समझ, साफ़ समझ।

वरना वही होगा जो आपने कहा कि मछली दिखायी नहीं देती, मछलियों से हम सम्बन्ध कम बैठा पाते हैं, पानी में रहती है, हम हवा में रहते हैं। तो मछली खा भी रहे हैं तो कई लोग तो उसको सी फूड (जलीय भोजन) बोल रहे है, कई उसको ऐसे ही बोलते हैं, क्या बोलते हैं? शायद बंगाल में बोलते हैं कि ये तो पानी की चीज़ है न (तो क्या? उपस्थित स्वयंसेवी से पूछते हैं।)

स्वयंसेवी: पानी की घास

आचार्य: पानी की घास बोल देते हैं कि ये तो पानी के अन्दर है तो ये वेजिटेरियन है, पानी से निकली है पानी की घास ये वो। तो ये सब भी चलता है। क्योंकि आप उससे रिश्ता ही नहीं बैठा पा रहे। ऐसे-ऐसे गुरु हैं जो बोलते हैं मछली खाना तो ठीक है क्योंकि मछली दूर की चीज़ है।

प्र: हाँ।

आचार्य: मछली दूर की चीज़ है, मछली खा सकते हो ये सब भी चल रहा है। ये मतलब ग़ज़ब अहंकार है और कुछ नहीं है ये।

प्र: जो हमारे डीएनए से बहुत दूर है उसे खा सकते हो।

आचार्य: उसको खा सकते हो। मतलब मूर्खता में और कितनी बड़ी पीएचडी करनी है! बोलने के लिए।

सभी मौजूद प्रतिभागी हँसते हैं।

आचार्य: तो क्या बोलूँ में। बात हमारी पसंद ना पसंद कि नहीं होनी चाहिए। बात इसकी नहीं है कि कौन मुझसे पास है, कौन मुझसे दूर है, बात इसकी नहीं है कि कौन, क्या खाऊँगा तो मेरे शरीर में ज़्यादा वृद्धि आ जाएगी, प्रोटीन आ जाएगा, ये आ जायेगा। बात इसकी बिलकुल भी नहीं है। बात कुछ और है और वो कुछ और जो बात है वो नहीं समझेंगे तो हम यही मूर्खताएँ करते रहेंगे।

प्र: अच्छा, ये स्पीशिज़्म जातिवाद, प्रजातिवाद, ये कई डेफिनेशन (परिभाषा) मैंने आज पहली बार सुना और अच्छा भी लगा।

आचार्य: वैसे मुझे बड़ा अच्छा लगा आपने जातिवाद-प्रजातिवाद एक साथ बोला। लोगों को जातिवाद से इतनी समस्या है, प्रजातिवाद से क्यों नहीं समस्या है?

प्र: और जातिवाद में भी हम उस जाति से बहुत प्यार करते हैं जहाँ पर हम..

आचार्य: जहाँ हम हैं। मेरी जाति है न इसीलिए अच्छी है। वैसे मेरी प्रजाति है इसलिए अच्छी है। और जो भी प्रजातियाँ मेरी प्रजाति से मिलती-जुलती हैं। जैसे कि चिम्पेंजी हो गया, बंदर हो गया, उनको नहीं खाते हम आमतौर पर।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles