आचार्य प्रशांत: मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ — जो फ़िल्में, जो पिक्चरें, मूवीज़ जनसामान्य के लिए रिलीज़ करी जाती हैं, उन पर सेंसर बोर्ड ‘ए’, ‘यूए’, ‘यू’ ये सब ठप्पा लगाता है न? लगाता है न? तो बहुत सारी बातें होती हैं जिनको समाज और सरकार और बाहर की जो व्यवस्था है हमारी, वो भी समझती है कि बच्चों तक नहीं पहुँचनी चाहिए। ठीक है न!
किसी फ़िल्म में उस तरह की बातें होती हैं तो उसको ‘ए’ सर्टिफ़िकेशन दे दिया जाता है। प्रमाणित कर दिया जाता है कि भाई, इसमें जो सामग्री है, वो सिर्फ़ बड़ों के लिए है। और आवश्यक नहीं है कि वो जो ‘ए’ सर्टिफ़ाइड फ़िल्म है, उसमें सेक्स संबंधित मसाला हो इसीलिए उसको ‘ए’ का, एडल्ट का प्रमाणपत्र मिला है, हिंसा हो तो भी मिल जाता है न? मिल जाता है न?
जो बातें वर्जित होती हैं कि बच्चे सिनेमा हॉल की स्क्रीन (पर्दा) पर न देखें, मुझे बताइए क्या उससे ज़्यादा हिंसायुक्त बातें और दृश्य बच्चे अपने घर में और मोहल्ले में ही नहीं देख रहे होते?
सेंसर बोर्ड इतना ही तो कर सकता है कि जब आप थिएटर के अंदर आएँ बच्चों को लेकर के तो स्क्रीन पर कुछ ऐसा बच्चे को न दिखायी दे जो उसके कोमल मन पर आघात करे, है न!
अब अपने पिछले साल, दो साल, पाँच साल के अनुभव को थोड़ा याद करिए। घर में ही बच्चे ने क्या-क्या नहीं देख लिया! घर में जो दृश्य बच्चे ने देख लिए और जो संवाद सुन लिए, वो उसे सिनेमा हॉल में देखने की अनुमति नहीं है। सिनेमा हॉल में हम उसे नहीं देखने देते, घर में लाइव दिखाते हैं।
सिनेमा हॉल में हम कहते हैं, ‘अरे! नहीं, नहीं, मत देखना।’ रिकार्डेड है, अभिनय मात्र है, तब भी कहते हैं कि मत देखना। और घर में तो सजीव है, लाइव , और अभिनय नहीं है, मामला असली है और बच्चा देख रहा होता है। और फिर हम कहते हैं, ‘फ़िल्मों का बड़ा बुरा असर पड़ रहा है बच्चों पर।’
हाँ, फ़िल्मों का असर तो बुरा पड़ रहा है बच्चों पर, पर वो ‘वो’ फ़िल्म है, जो रोज़ घर में ही चल रही है। और टीवी के पर्दे पर नहीं चल रही है, रसोईघर में चल रही है, लिविंग रूम (बैठक) में चल रही है, दालान में चल रही है, सीढ़ियों पर चल रही है।
बोलिए, घर में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है न जो हम स्क्रीन पर भी अगर देखें तो वीभत्स लगेगा? कहिए! स्क्रीन पर तो वर्जित कर दिया, घर में कौन वर्जित करेगा? कौनसा सेंसर बोर्ड है जो आपके घर में घुस कर वर्जित करेगा कि माँ-बाप इस तरह की बातें और इस तरह की हरक़तें बच्चों के सामने न करें। बात माँ-बाप की नहीं है; कोई भी हो सकता है। हो सकता है आपके मोहल्ले में किसी और घर में इस तरह का माहौल हो कि दुष्प्रभाव पड़ता हो बच्चे पर।
आप संगीत के बड़े रसिक हैं और ऐसा तो आपका घर होगा नहीं कि एक कमरे में संगीत चले तो आवाज़ दूसरे कमरे तक नहीं जाती होगी। साधारणतया ऐसे घर तो होते नहीं हैं न! अब आप सुन रहे हैं संगीत और आप जो संगीत सुनते हैं वो कोई शास्त्रीय संगीत तो है नहीं, न रविन्द्र संगीत है, न लोक संगीत है, न भजन है। आप जो सुन रहे हैं साहब, वो तो आपके लिए भी हानिप्रद है। वो इतना ज़हरीला है। सोचिए, बच्चे के लिए वो कैसा होगा।
आप जो सुन रहे हैं वो ऐसा है कि आप भी उसे सुनते हैं तो आपकी रगों में ज़हर दौड़ जाता है और जो आप सुन रहे हैं, क्या वो सबकुछ बच्चे तक नहीं पहुँच रहा? पर आप तो अपने में मगन हैं।
अहंकार का यही काम है। वो बस अपनेआप को देखता है। आप अपने में मगन हैं। कह रहे हैं, बढ़िया है! चल रहा है, दर्द भरे गीत चल रहे हैं। वो दर्द भरे गीत आपको भी नहीं सुनने चाहिए, बच्चे को सुना दिए आपने। और हमें लगता है, 'नहीं-नहीं, ये सब कोई गलत चीज़ें थोड़ी ही हैं। हाँ, कोई अश्लील गीत होगा तो हम बंद कर देंगे।'
हमें लगता है कि जैसे बच्चे को एक ही चीज़ से बचा कर रखना है — अश्लीलता से। अश्लीलता तो बुरी है पर उससे कहीं ज़्यादा बुरे और कई दुष्प्रभाव हैं। बचपन में ही बच्चे की पूरी आन्तरिक मूल्य व्यवस्था निर्धारित हो रही होती है, उसका वैल्यू सिस्टम डेवलप हो रहा होता है और आप जो गीत सुन रहे हैं वो गीत नहीं है, उसमें बहुत ताक़तवर छुपे हुए संदेश होते हैं।
आमतौर पर फ़िल्मी संगीत ही तो चलता है घर में; और क्या चलता है! और बहुत घरों में होता है कि माताएँ या पिता भी कुछ कर रहे होते हैं, बैठे होते हैं, और एफ़एम लगा देते हैं, और उसमें जो आ रहा है, उसका तो आपने वास्तव में चुनाव भी नहीं करा न!
जब आप कोई सीडी वग़ैरा लगाते हैं तो कम-से-कम आपका उस पर थोड़ा नियंत्रण होता है। आप जानते हैं कि आपने क्या लगाया है, उसमें कैसी अंदर सामग्री है। जब आप एफ़एम लगा देते हैं तो आपको पता भी नहीं है कि अगला गाना वो क्या बजा देगा और ये जो रेडियो जॉकी (रेडियो पर बोलनेवाला) हैं, ये कौनसी अगली फूहड़ बात कह जाएँगे।
पर आप उसको लगा देते हो और आप सोचते हैं घर में थोड़ी रौनक रहनी चाहिए, कुछ-न-कुछ बजता रहना चाहिए। थोड़ा शोर तो होता रहे, कुछ आवाज़ें आती रहें, उससे माहौल थोड़ा उत्तेजना का रहता है।
आपके लिए वो सबकुछ जो रेडियो से आ रहा है, साधारण हो सकता है, बच्चे के लिए साधारण नहीं है। बच्चा ऐसा होता है जैसे रुई, रुई का बहुत बड़ा फाहा; जैसे कपास का ढ़ेर और इधर-उधर से जो सब प्रभाव आ रहे हैं, वो ऐसे होते हैं जैसे गन्दा पानी। रुई क्या करेगी? गंदे पानी को सोख लेगी। आपको लग रहा है, नहीं, कुछ नहीं है। ये तो साधारण सी बात है। एफ़एम ही तो चल रहा है; रेडियो मसाला।
वो जो चल रहा है, वो बच्चे को मारे डाल रहा है। पर ये आप नहीं समझेंगे क्योंकि आप बच्चा बनकर नहीं सुन रहे हैं रेडियो को।
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