प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मैं हाल-फिलहाल में यह देख रहा हूँ कि शरीर के साथ मेरा तादात्म्य थोड़ा धीरे-धीरे करके कम होता जा रहा है। मैं देख पा रहा हूँ कि यह शरीर जो है, ख़ासकर जब मैं सत्र में बैठा होता हूँ, तो लगता है कि यह जो है कुछ, शायद प्रगति बोल लूँ, हो रही है शायद। मन के साथ भी बहुत ज़्यादा तादात्म्य रहा नहीं। बीच-बीच में आता रहता है, बारिश होती है और वो फिर ठीक हो जाता है।
सही मायने में बताऊँ तो अब ऐसी स्थिति आ गई है कि मुझे तो कुछ समझ में आ नहीं रहा है कि अब मैं करूँ तो क्या करूँ? मतलब बड़ी ही विचित्र स्थिति है, क्योंकि मैंने जो कुछ सीखा है, जाना है, जो कुछ भी, अब कुछ और सूझ नहीं रहा है इसके आगे। शरीर मैं नहीं हूँ, मन मैं नहीं हूँ, सेंसेस (इंद्रियाँ) मैं नहीं हूँ। तो बात क्या हो रही है? मतलब अभी तक सारे-के-सारे स्क्रिपचर्स (शास्त्र) तो मैंने ग़लत ही पढ़े हैं। जो कुछ भी पढ़ा है, समझा है, सब कुछ शायद समझा ही नहीं है।
आचार्य प्रशांत: जब स्क्रिपचर्स आपसे कहते हैं कि आप शरीर या मन नहीं हैं, तो वो इसलिए नहीं कहते कि आप भी इस बात को दोहराना शुरू कर दो कि ‘न मैं देह हूँ, न मैं मन हूँ’। वो सिर्फ आपसे उम्मीद करते हैं कि आप सवाल करोगे अपनेआप से कि क्या ‘मैं देह हूँ, क्या मैं मन हूँ?’ क्योंकि धारणा हमारी यही होती है न? 'मैं शरीर हूँ, मैं मन हूँ।'
ठीक है। वो धारणा है, बड़ी पक्की धारणा है, एकदम ज़बरदस्त धारणा है। और उस धारणा से बिलकुल हटकर कुछ बातें हैं जो ग्रंथों में लिखी हैं। कह रहे हैं, 'नहीं साहब, तन-मन नहीं आत्मा हैं आप।' तो वो वहाँ इसलिए नहीं लिखी हैं कि आप उन बातों को दोहराना शुरू कर दें, वो इसलिए लिखी हैं ताकि आप थोड़ा-सा अपने प्रति जिज्ञासु हो जाएँ।
आप अपनी धारणाओं के प्रति प्रश्नचिन्ह तो खड़ा करना शुरू करें। नहीं तो बात बड़ी अजीब हो जाएगी कि कल तक तो बड़े ज़ोर से, बड़े विश्वास से कह रहे थे, 'मैं तन हूँ, मैं मन हूँ।' और फिर गए, रात में कोई किताब पढ़ी, और अगले दिन क्या राग है – 'न तन हूँ, न मन हूँ, मैं तो आत्मा हूँ।' यह रातों-रात तुमको बिजली कौंध गई? एपीफेनी (अहसास) कैसे हो गया?
इतनी जल्दी दिव्य ज्योति न उतरे आपके ऊपर वही अच्छा है। थोड़ा थम के! अभी तो इतना ही करिए कि अपनेआप से पूछिए कि यह चल क्या रहा है। मुझे तो बिलकुल यही लगता है कि मैं शरीर हूँ। कोई विचार उठता है तो मुझे लगता है कि मेरा ही विचार है। कोई भावना उठती है, कोई आक्रोश, कोई आवेग उठता है, तो मुझे लगता है ‘भाई, सब मेरा ही तो है’। मेरा गुस्सा, मेरा प्यार, मेरी पसंद, मेरी नापसंद, यह सब मुझे अपना लगता है।
और दूसरी ओर कोई तथाकथित महान आदमी किसी महान ग्रंथ में क्या कह रहा है? ‘न, न, न! इन सब चीज़ों से हमारा कोई संबंध नहीं, कोई लेना देना नहीं, हम तो कुछ और ही हैं’। तो ईमानदारी का तकाज़ा यह है कि उसकी बात तत्काल अपनी बात न बना लो। बल्कि जिज्ञासा का, अनुसंधान का, सवाल-जवाब का एक दौर शुरू करो। और वो लंबा चलना चाहिए, करीब-करीब अंतहीन होना चाहिए।
प्रयोग करो, परीक्षण करो, जाँचो, परखो। ‘अच्छा, अगर मैं मन नहीं हूँ, तो फिर यह पता भी किसको चल रहा है कि मैं मन नहीं हूँ? तो फिर यह जो पूरा खेल चल रहा है, यह क्या है?' बार-बार उलझो। बार-बार उलझो। फिर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे कुछ चीज़ों से उलझने की वृत्ति ही कमज़ोर पड़ जाती है। फिर एक जगह आती है जहाँ यह सवाल-जवाब बहुत आकर्षक ही नहीं लगते। वो जगह जब आएगी तब आएगी, अभी तो सवाल-जवाब करो।
घातक होता है अपनेआप को तन-मन मानना, और उससे कहीं-कहीं ज़्यादा घातक होता है अपनेआप को आत्मा मान लेना। तो आप अपनेआप को एक साधारण व्यक्ति की तरह तन-मन ही मानते रहें, वो अच्छा है। कम-से-कम साधारण तो हो। ज़्यादा दुर्गति उनकी हो जाती है जो दो-चार किताबें पढ़ने के बाद शुरू कर देते हैं, क्या? ‘अहं ब्रह्मास्मि'। ये बड़ी दुर्दशा में पड़ते हैं। एक लंबे समय तक यही कहो कि मैं तो शरीर ही हूँ। ठीक है?
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