Gen Z की मानसिक बेचैनी और समाधान

Acharya Prashant

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Gen Z की मानसिक बेचैनी और समाधान
मन जो है न, अहम्, अपूर्ण होता है। वो माँगता है सहारा सचमुच, वो माँगता है जीवन के लिए एक लक्ष्य। शिक्षा की वजह से, विज्ञान की वजह से, ये सब आपको पता चल गया है कि वो जो सहारे थे वो नकली थे, तो उनको तो आपने अस्वीकार कर दिया। उन सहारों की जगह कुछ वास्तविक हम ला नहीं पाए, मन की अपूर्णता को भरने के लिए हमने क्या दे दिया उसको? हमने उसको दे दिया भोगवाद। हमने कह दिया, ‘भीतर से अगर तुम खाली अनुभव कर रहे हो, तो लो भोगो।’ तो पहले एक नकली सहारा था, वो हटा दिया, अब कह दिया कि उसकी जगह तुम भोग से भर लो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, मेरी उम्र पच्चीस साल की है और आइ फॉल इन कैटेगरी ऑफ़ जेन-ज़ी (मैं जेन-ज़ी की श्रेणी में आती हूँ)। और ऐसा माना जाता है, ऐसा एनालिसिस (विश्लेषण) करके देखा गया है कि हमारी जेनरेशन (पीढ़ी) जेन-ज़ी , जो उन्नीस-सौ-छियानवे से अभी, मतलब ग्यारह साल से अभी छब्बीस साल की उम्र के हैं अभी जो लोग, उन लोगों में ऐसे एनालिसिस करके देखा गया है कि हमारी जेनरेशन हमारी ओल्डर जेनरेशन (पुरानी पीढ़ी) से काफ़ी मेंटली डिस्टर्ब जेनरेशन (मानसिक तौर से परेशान) है।

क्योंकि मैं रियल लाइफ़ में भी अपने दोस्तों को देखती हूँ, मैं खुद को भी देख रही हूँ, हर जगह मैं जिसको देखती हूँ मेरी उम्र की या मेरी आस-पास की उम्र की, सबमें कोई-न-कोई मेंटल डिसऑर्डर (मानसिक विकार) और बहुत सारा सफ़रिंग (कष्ट) है। और ये हमारे पेरेंट्स की जेनरेशन (माँ-बाप की पीढ़ी) में ये शब्द, डिप्रेशन , एंग्जायटी और स्ट्रेस (अवसाद, चिंता और तनाव) इन शब्दों से वो लोग इतना परिचित भी नहीं थे। सर, मेरा प्रश्न है कि व्हाय बिकॉज़ ऑफ़ दिस जेनरेशन गैप वी हैव सम वेरिएशन ऑफ़ मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर्स (इस पीढ़ी के अंतर के कारण हमारे पास मानसिक स्वास्थ्य विकारों में कुछ भिन्नता क्यों है)? और मैंने ये भी देखा है कि तथाकथित धार्मिक और रूढ़िवादी लोगों से ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग मानसिक विकारों से ग्रसित हैं, ऐसा क्यों है?

आचार्य प्रशांत: कई पक्ष हैं इसके, पहला तो ये कि ऐसा नहीं है कि जो पिछली पीढ़ियाँ थीं उनमें मानसिक स्वास्थ्य की समस्या नहीं थी। समस्या है ये बताने के लिए कोई ऐसा भी तो चाहिए न, जो घोषित कर सके कि हाँ, है समस्या? तो वो पहले भी था, हो सकता है आज से कम रहा हो, पर पहले ये शब्द प्रचलन में नहीं थे, न इनका कोई डायग्नोसिस , माने निदान हो सकता था। आज आपको हॉस्पिटल्स में साइकोलॉजिस्ट्स, साइकैट्रिस्ट (मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक) ये सब मिल जाते हैं, पहले थोड़े ही होते थे। काउंसलिंग (परामर्श) सुविधाएँ आज होती हैं, पहले थोड़े ही होती थीं। तो पहले ये सब बातें मानी जाती थीं कि होती ही नहीं हैं।

अगर ये सब नहीं होतीं, मेंटल हेल्थ की समस्या नहीं होतीं तो इतना अंधविश्वास कहाँ से आता? अंधविश्वास अपने आप में एक मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम है।

ये जो आप देखते हो, पुराने समय में ये और ज़्यादा होता था कि बहुत सारी ऐसी धार्मिक भूत-प्रेत, जादू-टोने की जगह होती हैं और वहाँ पर जाकर के लोग, कोई बाल खोलकर औरत बैठ गई है और ऐसे-ऐसे कर रही है, कोई कुछ कर रहा है, कोई कुछ। तो ये अभी भी होता है, पहले और ज़्यादा होता था। और ऐसा नहीं कि वो कुछ खास जगहों पर ही होता है, वो तो पहले हर गली-मोहल्ले में चल रहा होता था ये सब। है न? वो मेंटल डिज़ीज़ (मानसिक रोग) ही तो है वो सब, लेकिन तब उसको कोई मेंटल डिज़ीज़ बोलता नहीं था। आप बोल देते थे कि ये जो बंदा है ये पज़ेस्ड है, आविष्ट है ये बंदा और उसको आप एक धार्मिक नाम दे देते थे। अब हम जो हैं उसको एक चिकित्सीय नाम देते हैं, हम कहते हैं, ‘ये एक रोग है।‘ पहले वो रोग नहीं होता था, पहले वो एक दैवीय स्थिति होती थी। तो पहले तो ये कि वो सब तब भी था, ठीक है, उनको छोड़ो।

ऐसा नहीं है कि पीछे वाले बहुत अद्भुत आभा से प्रकाशित हैं और उनको देखो, कहो, ‘ये महान लोग थे और हम ही रह गए नीचे।‘ अब जो अभी की पीढ़ी है आप लोगों की उस पर आते हैं। हाँ, वो बात बिल्कुल ठीक कही कि पहले भले ही अंधविश्वास था पर विश्वास तो था, भले ही किसी ऐसे का सहारा था जो सहारा दे ही नहीं सकता, पर ये मान तो सकते थे कि किसीका सहारा है। अब तो बात लगभग खुल गई है कि किसी का सहारा नहीं है, या उसका सहारा नहीं है जिसका सहारा पिछली पीढ़ियों ने माना है। तो वो जो पुराने ढ़ांचे थे व्यवस्थागत सहारे के, सपोर्ट के, वो तो आपने हटा दिए, नया आप कोई लेकर आए नहीं।

मन जो है न, अहम्, अपूर्ण होता है। वो माँगता है सहारा सचमुच, वो माँगता है जीवन के लिए एक लक्ष्य। पहले भले ही नकली सहारे थे ज़्यादातर, पर कुछ तो थे। आज आपने जान लिया है कि वो सहारे नकली थे। शिक्षा की वजह से, विज्ञान की वजह से, ये सब आपको पता चल गया है कि वो जो सहारे थे वो नकली थे, तो उनको तो आपने अस्वीकार कर दिया। उन सहारों की जगह कुछ वास्तविक हम ला नहीं पाए, मन की अपूर्णता को भरने के लिए हमने क्या दे दिया उसको? हमने उसको दे दिया भोगवाद। हमने कह दिया, ‘भीतर से अगर तुम खाली अनुभव कर रहे हो, तो लो भोगो।’ तो पहले एक नकली सहारा था, वो हटा दिया, अब कह दिया कि उसकी जगह तुम भोग से भर लो।

अब ये जो भोग है, ये भीतर की अपूर्णता को भर ही नहीं पा रहा है, आप कितनी भी कोशिश कर लो। और जो पूरी औद्योगिक व्यवस्था है, वो इस तरीके की है कि वो आपको भोगने के लिए मजबूर करती रहती है। आपकी पीढ़ी तो खासतौर पर निशाना है। हर तरीके से ये जवान लोगों को ही लक्ष्य बनाया जाता है कि फ़लानी चीज़ आ गई है, खरीदो। कोई भी ट्रेंड (रुझान) चल रहा है, इन्हीं लोगों को ट्रेंड बनाकर चलता है। वो जो बाहर उत्पादन की पूरी क्षमता तैयार हुई है, वो अपने माल की खपत के लिए जवान लोगों को ही लक्ष्य बनाती है। हर चीज़ इन्हीं को लक्ष्य करके दी जाती है कि अब ये करो, चाहे ये हो कि शिक्षा क्या लेनी है। तो इन्हीं लोगों को लेकर विज्ञापन आ जाएँगे कि इस-इस स्तर की शिक्षा ले लो, ये कर लो।

शिक्षा भी ये नहीं कि कोई उच्च शिक्षा, बचपन से ही कि इनको अब इस तरह के प्ले स्कूल में डाल दो और उसके बाद इनको ये सिखा दो, अब इनको अब ये सिखा दो, उनको ये सिखा दो, इंग्लिश स्पीकिंग (अंग्रेज़ी भाषा में बोलना), पर्सनैलिटी डेवेलपमेंट (व्यक्तिगत विकास), ये सारी पचास चीज़ें इनको।

फिर उसके बाद अब इनको ये ऐसे तरह के कपड़े मिलने चाहिए, खासतौर पर फ़लानी चीज़ के अलग कपड़े हैं, इसके अलग कपड़े हैं, इस चीज़ के अलग जूते हैं, उस चीज़ के अलग जूते, आठ तरह के कम-से-कम अलग जूते होने चाहिए। डांसिंग शूज़ (नाचने के लिए जूते अलग होते हैं, डांसिंग में भी सालसा और भांगड़ा शूज़ अलग होते हैं और ये सब चल रहा है। और तो कोई जा रहा है, ‘बहुत स्पेसिफिक (विशिष्ट) मेरी वो है, वो क्या है? मुझे सालसा शूज़ चाहिए।’ ठीक है, पहले घर में एक जोड़ी जूता होता था, दूसरा काम आता था वो जिस दिन वो पी.टी. डे होता था, ठीक है, नहीं तो एक जोड़ी जूता अपना! तो तमाम तरह के भोगवाद का आपको निशाना बनाया जा रहा है और आशा ये दी जा रही है कि इस भोगवाद से जो भीतरी खोखलापन है वो भर जाएगा; वो भरता नहीं। तो जो एक पारंपरिक सहारा था वो हटा दिया गया।

पारंपरिक सहारा था कि विचार में धर्म को रखो और आचरण में समाज को रखो। कि विचार चलना चाहिए धर्म के हिसाब से और आचरण होना चाहिए जो समाज ने व्यवस्था बना दी उसके हिसाब से, वो सब हटा दी। आप लोग न तो धर्म के हिसाब से आचरण करते, न समाज क्या बोल रहा है इसकी भी। मतलब जो पुराने किस्म का जो समाज है, उसकी तो आप परवाह करते नहीं हो। चलो वो हट गया, कोई बात नहीं, उसके विकल्प में भोग दे दिया गया है। अब ये जो भोग है ये पर्याप्त पड़ नहीं रहा है, ले-देकर बचा क्या है? सूनापन, खालीपन। क्या करोगे ज़िंदगी का?

इतनी बड़ी ज़िंदगी है, निरर्थक, निरुद्देश्य, कुछ नहीं समझ में आता इसका करना क्या है। जो भोगने का कार्यक्रम था, वो तो तुम लोग शुरू कर देते हो पाँच की उम्र से ही, पच्चीस तक आते-आते तो भोगने से ही उकता जाते हो, *रिटायर्ड*। कितना भोगोगे, भोग-भोगकर खत्म हो गए! हर प्रकार का भोग, जो ये अभी वाली पीढ़ी है ये निपटा चुकी है पच्चीस तक आते-आते। मानसिक, आर्थिक, भौतिक, हर तरीके का जो शारीरिक भोग हो सकता है सब निपटा दिया और उससे मिलता कुछ नहीं है, तो अब क्या करोगे?

भगवान जैसी एक चीज़ पहले होती थी, उसकी शरण अब जा नहीं सकते, क्योंकि जान गए हो कि वो तो मामला जो है वो कहाँ से आ रहा है, कैसे हो रहा है। क्योंकि इतिहास पढ़ लिया, समाजशास्त्र पढ़ लिया, अर्थशास्त्र पढ़ लिया, तो पूरा समझ में आ गया है कि वो जो पुरानी व्यवस्था थी वो गड़बड़ थी। और ठीक हुआ, अच्छा हुआ समझ में आ गया, तो अब आप पुरानी व्यवस्था में सम्मिलित तो हो नहीं सकते। जो नई व्यवस्था बनी है, वो उत्तेजना तो आपको दे पाती है पर आनंद दे नहीं पाती, तो क्या करोगे? फिर यही होता है कि सिर पकड़कर बैठ जाते हो कि अब क्या करें, क्या करें, क्या करें।

उसका तो एक ही समाधान है कि उस चीज़ के पास जाओ जो सचमुच है। जो बस वादा नहीं करती है कि हूँ, जो वास्तव में है। उसको ‘सत्य’ बोलते हैं, द नॉन-ड्यूल ट्रुथ (अद्वैत सत्य)। वो अकेली चीज़ है जिसके भरोसे जिया जा सकता है और कभी धोखा नहीं देती। धोखा देने के लिए किसी चीज़ को आपसे बाहर होना चाहिए न। ये माइक धोखा दे गया, अब बज नहीं रहा; ये गिलास धोखा दे गया, इसमें मक्खी पड़ गई; पेन धोखा दे गया, ये बाहर की चीज़ें हैं।

नॉन-ड्यूल का मतलब है बाहर है ही नहीं, भीतर है। जो भीतर है वो धोखा नहीं दे सकता। उसके सहारे ज़िंदगी काटी जा सकती है। और जो वो भीतर होता है, वो भीतर से आपको पूरी तरह भर देता है। जब भर देता है तो कंज़म्पशन की, भोग की उतनी ज़रूरत नहीं पड़ती कि अब ये आ गया है मार्केट में इसको भी ले आओ, ये भी ले आओ। ट्रेंड क्या है ये पता करो, फ़ोमो हो जाता है। ये सब न फिर उतना ज़्यादा आपको प्रभावित नहीं करता। तो पुराने धर्म के हटने के बाद जो नया धर्म आना है, उसका बस एक ही नाम हो सकता है — अद्वैत वेदांत।

आप लोगों ने क्या करा है कि पुराने वाले को खारिज कर दिया लेकिन अभी तक नए वाले का स्वागत नहीं करा है। और आदमी को धर्म तो चाहिए, अहम् अपूर्ण है और उसी अपूर्णता में वो चैन से जी नहीं सकता, छटपटाएगा, तो इंसान को धर्म तो चाहिए-ही-चाहिए। बहुत अच्छा करा नकली धर्म हटाया, पर सिर्फ़ हटाने भर से थोड़े ही होता है, असली वाले को लाना भी तो पड़ेगा। इधर-उधर की फ़ालतू की जो बातें चलती थीं धर्म के नाम पर, तुम्हारी पीढ़ी उनको नहीं मानती। अभी भी कुछ लोग हैं जो मानते हैं, पर ज़्यादातर लोग जो हैं, कहते हैं, ‘नहीं-नहीं-नहीं, ये बेकार की हैं, हम इनको नहीं मानते।‘ चलो ठीक है, अच्छा करा, पर तुम गीता भी तो नहीं पढ़ते।

गीता से नहीं शुरुआत करना चाहते, लगता है अरे! ये तो बहुत पुरानी किताब है, इसमें क्या रखा है, तो दर्शन से ही शुरुआत कर लो। वेदांत का संबंध क्यों मान रहे हो कि किसी धर्म से है, वेदांत तो अपने आप में एक फ़िलॉसॉफ़ी (दर्शन) है। फ़िलॉसॉफ़ी पढ़ने में भी क्या कुछ समस्या हो गई, या सेक्युलर (धर्म निरपेक्ष) वगैरह कहलाने के लिए ज़रूरी है कि फ़िलॉसॉफ़ी भी नहीं पढ़ोगे? फ़िलॉसॉफ़ी के नाते ही वेदांत पढ़ लो, सांख्य पढ़ लो, बौद्ध दर्शन पढ़ लो, क्या समस्या आ गई? हम नहीं उसको देखते हैं।

चलो, दर्शन नहीं पढ़ना, फ़िलॉसॉफ़ी भी मुझे बोरिंग लगती है। अरे! भाई, रमन महर्षि के संवाद हैं उनको पढ़ लो। वहाँ तो वो एक-एक, दो-दो लाइनों में बात करते थे। वो मेरी तरह सब थोड़े ही होते हैं कि तीन घंटे सब बक-बक करें कि आपने एक पाँत का सवाल पूछ दिया और मैं उसमें आधे घंटे अब…! तो वहाँ पर आपको संक्षेप में सब मिल जाएगा। कृष्णमूर्ति को पढ़ लीजिए। और अगर बहुत साधारण तरीके से समझना है, तो रामकृष्ण परमहंस के प्रसंग हैं उनको पढ़ लीजिए, पर जो असली है उसको जीवन में लेकर तो आइए। कहीं से तो लाना पड़ेगा न।

असली की जगह आप कहें कि द सब्सीट्यूट फॉर द ओल्ड रिलीजियोसिटी इज़ न्यू कंज्यूमेरिज़्म (पुरानी धार्मिकता का विकल्प नया उपभोक्तावाद है), तो ये तो बहुत ही मूर्खता की बात है, ऐसे नहीं चलेगा। इससे तो फिर मेंटल एपिडेमिक (मानसिक महामारी) ही आएगा कि पुराना सब हटा दो, ये बेकार के लोग हैं और हमें क्या करना है? हमें तो जी बस कंज़्यूम करना है, *कंज़्यूम*। कोई पूछे कि भाई, तुम्हारी ज़िंदगी का लक्ष्य क्या है, तो कहें, ‘कंज़ंप्शन।‘

थोड़ा ज़ोर डालो और कि भाई, ठीक है, पर क्या, डू यू हैव ए गाइडिंग फ़िलॉसॉफ़ी (क्या आपके पास कोई मार्गदर्शक दर्शन है)? तो कहते हैं, ‘ह्यूमनिज़्म (मानवतावाद)।‘ मैंने पूछा, ‘इसका मतलब क्या है? ह्यूमन का मतलब तो होता है एक स्पीसीज (प्रजाति), ये ह्यूमनिज़्म क्या होता है?’ तो बोलते हैं, ‘मानवतावाद।‘ मैंने कहा, ‘इसका मतलब बताओ?’ मतलब कुछ नहीं है, इधर-उधर की दस-पाँच बातें करीं, उनमें जैसे ही थोड़ा गहराई से पूछो तो कुछ नहीं पता, पर ह्यूमनिज़्म, इंसानियत हमारा धर्म है। अरे! इसका मतलब क्या है, इंसानियत हमारा धर्म है? इंसान तो सौ तरीके के होते हैं, उसमें से कौन-सा तुम्हारा धर्म है? और जितने मुँह उतनी बातें, सौ इंसान हैं, तो सौ तरह की बातें करेंगे, उनमें से कौन-सी बात धर्म है? ‘वो कुछ नहीं है, हम इतना नहीं सोचते, इंसानियत है।’

इंसानियत का मतलब क्या? ‘यू नो, यू मस्ट हेल्प अदर्स, इट्स वैरी ऑब्वियस, दैटस इंसानियत (आप जानते हैं, आपको दूसरों की मदद करनी चाहिए, ये स्पष्ट है, यही इंसानियत है)।’ नहीं, इट्स नॉट दैट ऑब्वियस, यू रिक्वायर्ड सम रिगर इन थॉट (ये इतना सपष्ट नहीं है, आपको विचारों में कठोरता, स्पष्टता और गहराई की आवश्यकता है)। ऐसे नहीं होता है कि इंसानियत का मतलब होता है, डू गुड, डोंट हर्ट अदर्स (अच्छा करो और दूसरों को चोट मत पहुँचाओ)। डू गुड माने क्या? एंड हू इज़ द डूअर, हू विल डिफाइन गुडनेस (और कर्ता कौन है, अच्छाई की परिभाषा कौन करेगा)? ‘नहीं, इन बातों में हम जाते ही नहीं, हम तो जेन-ज़ी से हैं।‘ अरे भाई, ‘ज़ी’ हो कि ‘छी’ हो, लेकिन एक मुद्दा है, उस पर विचार तो करना तो पड़ेगा न, विचार करना ही नहीं है।

विचार करना पड़ेगा, क्योंकि ये जेनरेशंस बदलती रहती हैं, लेकिन अहम् की जो मूल प्रकृति है वो तो वही है न जो हमेशा थी, क्या? अपूर्णता। तो मनुष्य को धर्म हमेशा चाहिए होगा, हमेशा, बस नकली धर्म मत पकड़ना। असली धर्म का क्या नाम आज हमने कहा? आत्मज्ञान, *सेल्फ़ नॉलेज*। आत्मज्ञान ही अध्यात्म है। तो तुम्हारी पीढ़ी हो, पिछली पीढ़ी हो, अगली पीढ़ी हो, सबको आत्मज्ञान ही चाहिए। और वो आत्मज्ञान रहेगा तो मौज रहेगी, दिमाग एकदम इधर-उधर नहीं भागेगा, एकदम संट रहेगा। हाँ, कोई ब्रेन डिसऑर्डर (मस्तिष्क विकार) हो तो वो अलग चीज़ होती है। उसका इलाज अध्यात्म में नहीं होता, उसका इलाज तो फिर आपको मेडिकल साइंस में ही मिलेगा अगर ब्रेन (मस्तिष्क) में ही कुछ हो गया है।

लेकिन हम जिसको माइंड (मन) बोलते हैं, उसका इलाज अध्यात्म के पास निश्चित रूप से होता है। सेल्फ़ नॉलेज इज़ वेरी इफेक्टिव इन क्यूरिंग ए लॉट ऑफ़ द मेंटल नॉनसेंस (आत्मज्ञान बहुत सी मानसिक समस्याओं को ठीक करने में बहुत कारगर है)। ठीक है?

प्रश्नकर्ता: और सर, आजकल फ़ेमिनिज़्म (नारीवाद) के नाम पर भी ऐसा बोला जा रहा है कि फ़ेमिनिज़्म मतलब लड़कियाँ कुछ भी कर सकती हैं। मतलब दे हैव द फ्रीडम टू वियर व्हाटएवर दे वांट (उन्हें जो चाहे पहनने की आज़ादी है), दे हैव द फ्रीडम टू (उनके पास आज़ादी है)। एक क्वोट (उद्धरण) में मैं देख रही थी कि एक सेलिब्रिटी बोल रहा था कि पीपल थिंक दैट इट्स रॉन्ग फॉर वोमेन टू थिंक दैट दे कैन नॉट वांट मनी, फ़ेम (लोग सोचते हैं कि महिलाओं के लिए ये सोचना गलत है कि वे पैसा, प्रसिद्धि नहीं चाहतीं)।

मतलब उन लोगों के पास अभी फ्रीडम (आज़ादी) और इंडिपेंडेंस (स्वतंत्रता) का मतलब ही मनी , फ़ेम (प्रसिद्धि), जैसे चाहो उस तरह के कपड़े पहनना, जो भी चाहो बिना सोचकर बातें करना, ये ज़्यादा चीज़ हाईलाइटेड (प्रकाशित) होता है, इंस्टेड (बजाय) कि नॉलेज (ज्ञान) की ओर। जैसे कि ये ज़्यादा हम देखते हैं कि ये बॉलीवुड, हॉलीवुड सेलिब्रिटीज़ जो रेड कारपेट पर जाते हैं, उन लोगों के पिक्चर्स बहुत ज़्यादा लोग देखते हैं। और कौन-सा पॉप-स्टार फेमस है, एक बच्चे को भी पता है और इसरो की कौन-सी महिलाएँ कैसे हमें, हमारे देश को आगे ले जा रही हैं, ये लोग ऐसे लोगों को डिस्कस (चर्चा) भी नहीं करते हैं।

और डिस्कस करने से भी आपको बोला जाए कि क्या इतना इंटेलेक्चुअल (बौद्धिक) बात कर रहे हो, अभी यहाँ पर ये सब मत करो। तो मैंने सर, अपने ऑफ़िस में भी कलीग्स (सहकर्मियों) के साथ ये फ़ेस (सामना) किया है। वो लोग रिडिक्यूल (उपहास) (करते हैं)। उनका जो माहौल है वो ऐसे सिर्फ़ बॉलीवुड फ़िल्म्स और ऐसी ही चीज़ों में हमेशा डूबे रहते हैं डिस्कशन उन लोगों का। तो मैं कभी जब कुछ अच्छी तरह से डिस्कशन दूसरी तरफ़ घुमाने की कोशिश किया, तो दे जस्ट शट मी ऑफ़ (उन्होंने मुझे चुप करा दिया) और ऐसे मुझे रिडिक्यूल भी किया गया है कि मैं गीता पढ़ती हूँ और मैं वीगन हूँ। इसके बाद जैसे कि मुझे बहुत रिडिक्यूल भी किया गया है, तो मतलब वैसे ही मैं ग्रुप से अलग होती गई और किसी ने बात भी नहीं किया। तो सर, ऐसा हो रहा है हमारी जेनरेशन के साथ।

आचार्य प्रशांत: देखो, अगर इंटेलेक्चुअल रिगर (बौद्धिक कठोरता) नहीं हैं न, तो एक वो बेचारी गाँव की देहातन है जो पढ़ी-लिखी नहीं है और वो किसी पेड़ के नीचे अभुआ रही है ऐसे-ऐसे (आचार्य जी ने अपने सिर को ज़ोर से घुमाने का अभिनय करते हुए) करके उसमें और शॉर्ट स्कर्टस पहनकर के कहीं आप ऑफ़िस में हो या कहीं घूम रहे हो और एकदम उथली बातें कर रहे हो, दोनों व्यक्तियों में कोई अंतर नहीं है। दोनों में साझी चीज़ ये है कि इंटेलेक्चुअल रिगर तो दोनों में ही नहीं है न, आत्मविचार तो दोनों ने ही नहीं कर रखा है। पर आप बोल देते हो कि वो पिछड़ी हुई है, वो गँवारन है क्योंकि वो गाँव में रहती है, उसने साड़ी पहन रखी है और वो एक तरह की भाषा बोलती है, तो वो गँवारन है। ये भी गँवारन है, ये होगी किसी एमएनसी के ऑफ़िस में और इसने पहन रखे होंगे आधुनिक वाले कपड़े, पर ये भी गँवारन है।

इंसान को इंसान बनाती है उसकी चेतना, गहराई से समझ पाने की उसकी क्षमता। आप होंगे सुपर मॉडर्न , पर अगर आप चीज़ों पर विचार नहीं कर सकते, आप ध्यान नहीं दे सकते, आप समझ नहीं सकते, तो आप गँवार ही हो, पशु हो आप। तो वो भी पशुता ही है, बराबर की पशुता है, उन दोनों में कोई अंतर नहीं है। देखिए हम, क्या होता है न, अंतर जहाँ नहीं होते वहाँ देख लेते हैं और जहाँ होते हैं, फिर इसीलिए वहाँ हमें दिखते नहीं। हम कपड़ों के आधार पर अंतर कर लेते हैं, हम भाषा के आधार पर अंतर कर लेते हैं। है न? इन सब पर हम अंतर कर लेते हैं।

सुपरस्टीशन (अंधविश्वास) तो सुपरस्टीशन है, कोई बोले, ‘भूत होते हैं,’ सिर्फ़ यही अंधविश्वास थोड़े ही है। एक कॉर्पोरेट लेडी बोल रही है, ‘ज़िंदगी मनी के लिए है,’ ये भी तो अंधविश्वास है। ये दोनों सुपरस्टीशियस हैं, दोनों को इलाज चाहिए, दोनों मेंटली डिस्टर्ब्ड हैं। सुपरस्टीशन माने ऐसी चीज़ जो फैक्ट (तथ्य) नहीं है, तुम्हारी कल्पना भर है, तुम्हें ऐसा लग रहा है। उसको अगर फैक्ट से मिलान करोगे तो तुम उसे सच नहीं पाओगे, उसको सुपरस्टीशन बोलते हैं। आप एक अपना एक कॉन्सेप्ट (अवधारणा) बनाकर बैठे हुए हैं, आपने कभी उसको परखने की, प्रयोग करके, एक्सपेरिमेंट करके उसको जाँचने की कोशिश नहीं की तो आप सुपरस्टीशियस ही तो हो। कि नहीं हो?

ज़िंदगी के बारे में आपने कोई मान्यता बना रखी है, कुछ भी बना रखी है कि आप पच्चीस के हो गए हो, अब आपको कमाना चाहिए, या अब आप तीस के हो गए, अब बच्चा होना चाहिए, ये सब मान्यता बना रखी हैं। ये भूत-प्रेत की ही तो मान्यता हैं। और क्या है, ये भूत-प्रेत ही तो है। आप ऐसी चीज़ में विश्वास कर रहे हो जिसको आपने कभी जाँचकर, जिज्ञासा से, प्रश्न करके कभी परखा ही नहीं, बस आप माने ही जा रहे हो। जिस चीज़ को आप माने ही जा रहे हो, वो ही भूत-प्रेत है। प्रमाण कुछ नहीं है, बस माने ही जा रहे हो।

तो सुपरस्टीशियस तो हर वो आदमी है जिसके पास आत्मज्ञान नहीं है, आप उसका क्या करोगे, कपड़ों पर मत जाया करो। जहाँ फ़र्क नहीं है, वहाँ फ़र्क मत देखा करो। धूमिल का वक्तव्य था, फ़र्क से याद आ रहा है:

कि अगर जीवन जीने के पीछे सही तर्क नहीं है , तो रामनामी बेचकर या रंडियों की दलाली करके खाने में कोई फ़र्क़ नहीं है। ~धूमिल

ऊपर-ऊपर से ऐसा लगेगा कि ये तो विपरीत काम है, एक धर्म का काम कर रहा है, एक वैश्यावृत्ति का काम कर रहा है। ये तो दो अलग-अलग काम हैं, पर ये अलग काम नहीं हैं। अगर जीवन जीने के पीछे सही तर्क नहीं है, तो अच्छा दिखने वाले काम और बुरे दिखने वाले काम, दोनों में कोई फ़र्क नहीं है। सही तर्क, उसके लिए चाहिए दर्शन, समझ, फ़िलॉसॉफ़ी , सोचना पड़ेगा, किताबों के साथ समय बिताना पड़ेगा, गहरी बातें करनी पड़ेंगी, त्रिवियल (मामूली) डिस्कशन से आगे जाकर के मीनिंगफुल इंगेजमेंट्स (सार्थक चर्चाएँ) करने पड़ेंगे, तब जाकर ज़िंदगी समझ में आती है। जब ज़िंदगी समझ में आती है तो दिमाग सुलझता है, फिर ये एंगज़ाइटी और ये सब कम होते हैं।

प्रश्नकर्ता: बट सर, मेरा लास्ट क्वेश्चन ये है कि माना जाता है कि पाँच हज़ार साल पहले वेदांत आए थे इंडिया में।

आचार्य प्रशांत: उतना नहीं, कम। वेदांत, ढाई हज़ार साल, तीन हज़ार साल।

प्रश्नकर्ता: हाँ, सॉरी , तब से जब वो शुरू हुआ, वो कॉमनर्स (आम आदमी) में इतना प्रचलित नहीं हो पाया और जितना दिन जाता रहा, ये दिन-दिन करप्ट (मिलावटी) होता रहा वेदांत, जैसे सेल्फ़ नॉलेज की बात करें। पर दूसरी तरफ़ हम देखते हैं कि अब्राहमिक एक रिलीजन इतना सक्सेसफुल (सफल) है। लोग अभी भी, आज के दिन भी ऐसे इसको माने जाते हैं और हम जिन लोगों को हिंदू बोला जाता है, वो लोग फूल-चंदन से पूजा करते हैं और बाकी लोग खुद को एकदम एथीस्ट (नास्तिक) कह देते हैं, तो हमें वेदांत का भी पता नहीं।

अगर वेदांत इतना अच्छा एक तरीका है सेल्फ़ नॉलेज के लिए, तो ये दिन के दिन इतना करप्टेड (भ्रष्ट) क्यों होता गया और ये इतना प्रचलित भी क्यों नहीं हो पाया? और दूसरी तरफ़ ये अब्राहमिक रिलिजन इतना सक्सेसफुल कैसे होता रहा? मतलब वेयर डिड वी लूज़ वेदांत (हमने वेदांत को कहाँ खो दिया)?

आचार्य प्रशांत: वेदांत करप्ट नहीं हुआ है, इंसान करप्ट हुआ है, वेदांत तो अपनी जगह रखा ही हुआ है। वेदांत को किसने करप्ट किया, वो तो उपनिषद् वैसे ही रखे हैं, गीता रखी हुई है। हाँ, इतना ज़रूर है कि कुछ श्लोक शायद ऊपर-नीचे कर दिए गए होंगे। इंसान करप्ट हो गया; और क्यों करप्ट हो गया? क्योंकि उसकी वृत्ति है ऐसी चीज़ की ओर जाना जो सरल लगती हो और ऐसी चीज़ से कतराना जो उस पर भारी पड़ेगी, उसके इनर एक्सिस्टेंस , अहंकार के आंतरिक अस्तित्व को ही खतरा बन जाएगी।

आप किसी चीज़ में बहुत गहरा यकीन करते हो, ठीक है, बहुत ज़्यादा; और जिस चीज़ में आप बहुत ज़्यादा यकीन करते हो, उसमें आपके स्टेक्स (दाँव) हो जाते हैं। अब आप क्या किसी ऐसे आदमी से मिलना पसंद करोगे जो आपका यकीन तोड़ गया हो? आपका एक बेस्ट फ्रेंड है , ठीक है? और उस बेस्ट फ्रेंड्स के साथ आपके कई तरह के अटैचमेंट्स हो गए हैं, स्टेक्स (दाँव) हो गए हैं, ठीक है? अब मैं आपके पास आऊँ, मैं आपको कुछ बातें बताना चाहूँ आपके इस बेस्ट फ्रेंड के बारे में, आप मुझे सुनना पसंद नहीं करोगे। क्योंकि अगर आप मुझे सुनते हो, तो ये जो आपका रिश्ता है और उस रिश्ते से जो आपको सुविधाएँ आ रही हैं, वो सब टूट जाएँगी।

तो इसलिए वेदांत बहुत प्रचलित नहीं हो पाया, क्योंकि पहली बात, उसको समझने के लिए दिमाग लगाना पड़ता है, ज़ोर लगाना पड़ता है, बुद्धि लगानी पड़ती है। दूसरी बात, चूँकि वो कठिन है, इसीलिए उसको समझाने वाले लोग भी बहुत ज़्यादा नहीं हुए हैं। और तीसरी, जो सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण बात है, वो ये है कि समझ में तो आ जाए, इतना भी कोई कठिन नहीं है, आ सकता है समझ में, खासतौर पर अगर समझाने वाला अच्छा हो तो समझ में आ सकता है। लेकिन जो समझने वाला है, वो अगर समझेगा तो मिटेगा। और समझने वाला मिटने के लिए तैयार नहीं होता, इसलिए वेदांत इतना नहीं प्रचलित हो पाया।

उसकी तुलना में आप अब्राहमिक धर्मों की भी बात क्यों कर रहे हो, भारत को ही ले लो जहाँ पर वेदांत की अपेक्षा और न जाने कितनी चीज़ें प्रचलित जो गई हैं। जो चीज़ें बुद्धि पर बहुत ज़ोर नहीं डालती, जहाँ आपको बहुत एक साधारण सा कॉन्सेप्ट दे दिया जाता है, एक बिलीफ़ सिस्टम (मान्यताएँ) दे दिया जाता है, वो आम आदमी को बहुत आसान लगता है, बोलता है, ‘हाँ, बस ठीक है। बहुत लंबी-चौड़ी बात मत करो, बस बता दो कि क्या मानना है, क्या नहीं मानना। अच्छा, ऐसे हुआ था, अच्छा-अच्छा! ऐसे पृथ्वी बनाई गई थी, ऐसा हुआ, फिर ये हुआ, फिर ये हो रहा है, ठीक है, ठीक है। हाँ, यही धर्म बढ़िया है, इसमें कोई तकलीफ़ नहीं हो रही है।’

और धर्म ऐसा बना दो जिसमें बढ़िया कुछ मनोरंजन भी होता हो और स्वार्थपूर्ति होती हो और जो अहंकार को तोड़ता भी न हो, तो ऐसे धर्म को बड़ा आकर्षक मानते हैं लोग। वो आकर्षक है भी, धार्मिक भी कहला जाओगे और अहंकार भी नहीं टूटेगा, “हींग लगे न फिटकिरी, रंग भी चोखा।” धार्मिक भी कहला गए और अहंकार भी नहीं टूटा। तो उस तरह की जो धाराएँ होती हैं वो फिर खूब सफल हो जाती हैं। उनके जो अनुयायी होते हैं वो खूब बढ़ जाते हैं, चाहे वो भारत में वेदांत के जो अलावा बाकी धाराएँ हैं वो हों, और चाहे वो अब्राहमिक धर्म हो। दुनिया का तो दस्तूर यही है न कि यहाँ गुणवत्ता वाली चीज़ें खरीदने वाले लोग बहुत कम होते हैं और जो चीज़ सस्ती हो वो जनमानस में प्रचलित हो जाती है।

आप लोग बात करते हो कि क्वालिटी ऑफ़ वेदांत सब तक लाने की कोशिश कर रहे हैं। वो जो डेढ़ लाख वाला फ़ोन होता है वो ज़्यादा बिकता है या आठ हज़ार वाला ज़्यादा बिकता है? बस समझ जाओ कि वेदांत क्यों नहीं इतना चला, वो बोलता है, 'आई, कौन।‘ समझ में आ रही है बात? तो वो नहीं चलेगा। इसी तरह मर्सिडीज़ ज़्यादा बिकती है या आई-टेन, ऑल्टो? अब मर्सिडीज़ तो मर्सिडीज़ है, पर सौ गाड़ियों में एक दिखाई देती है; वेदांत मर्सिडीज़ है। और जब आदत लग गई हो न उत्तरप्रदेश राज्य परिवहन में पचास की बस में डेढ़-सौ के चलने की, तो मर्सिडीज़ ऐसा लगता है जैसे कि पता नहीं क्या है, ये खा जाएगी, शव वाहन है, इसमें नहीं जाएँगे। कोई मुफ़्त में दे रहा हो तो भी नहीं घुसते मर्सिडीज़ में।

सस्ती चीज़ें ज़्यादा फैलती हैं हमेशा, क्योंकि लोग मूल्य चुकाना नहीं चाहते। सबसे बड़ा मूल्य होता है अध्यात्म में अहंकार को ही चुका देना, वो मूल्य चुकाने को कौन तैयार होता है। जो वो मूल्य चुकाने को तैयार हो, वेदांत उसके लिए है। लेकिन वो मूल्य चुकाकर के जो मिलता है, वो बहुत बड़ी बात होती है। तो अगर लोगों को सही से समझाया जाए, वो मूल्य चुका भी देते हैं, ऐसा नहीं है, आप चुका रहे हो न?

प्रश्नकर्ता: कोशिश करती जा रही हूँ।

आचार्य प्रशांत: हाँ-हाँ, हम भी कोशिश करते जा रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: पिछले सात-आठ महीनों से मैं आपको सुन रही हूँ और बहुत सारे चेंजेस (बदलाव) मैं खुद की लाइफ़ पर इंप्लीमेंट करी हूँ। मतलब आइ डू फ़ील दैट आइ एम गेटिंग बेटर एवरी डे एज़ ए पर्सन (मुझे लगता है कि मैं हर नए दिन एक बेहतर इंसान बनती जा रही हूँ) और बहुत क्लैरिटी (स्पष्टता) आ रहा है। हर दिन एक-एक और हर गीता क्लास में लग रहा है, दिमाग का हर एक डायमेंशन ओपन (आयाम खुल) हो रहा है। तो सर, मैंने भी देखा कि मैंने ये वीडियोज़ न बहुत लोगों में शेयर (साझा) करने की कोशिश की, क्योंकि मुझे लगा कि आइ एम गेटिंग बेनिफ़िटेड फ्रॉम दिस (मुझे भी इससे फ़ायदा हुआ है)। सो इफ आइ शेयर, सम पीपल विल वॉच इट एंड दे मे आल्सो बी बेनिफ़िटेड फ्रॉम दैट, सो आइ कैन हेल्प द सोसाइटी एंड द पीपल, आइ नो, एटलीस्ट अदर पीपल अराउंड मी (अगर मैं कुछ लोगों में भी बाँटूँगी और उनमें से कुछ उसे देख भी लेंगे और शायद उन्हें फ़ायदा भी मिले। इस तरह मैं समाज और उनके लोगों की मदद कर सकूँ जिन्हें मैं जानती हूँ, कम-से-कम मेरे आसपास के लोग)।

तो मैंने देखा कि कुछ-कुछ लोग ऐसे जब वीडियो आपका देखना शुरू करते हैं, एक वीडियो को देखने के बाद लोग ऐसे छूट जाते हैं। उन लोगों को इतना कड़वा सच पसंद नहीं होता है, लगता है कि बहुत एक्सट्रीम बातें करते हैं और इसको नहीं सुनेगें। और कोई-कोई लोग हैं ऐसे जो एक वीडियो देखेंगे, जैसा मेरे साथ भी हुआ, मेरे कुछ दोस्तों के साथ भी हुआ कि एक वीडियो देख लिया, तो जैसे मैंने आपको देखना शुरू कर दिया, मतलब आपको सुनना शुरू किया, एक वीडिओ देखा तो मैं रुक नहीं पाई और मैं देखती गई रिपेटिटिव (लगातार) एक-एक *वीडियोज*। तो ये एक ऐसा भी, जो आपने बोला, आदत लग जाता है। और हमें इतना यकीन है कि हमारी ये बिलीफ़ सिस्टम में, अगर कोई जैसे हथौड़ा मार रहा है, वो हमें पसंद नहीं है। कुछ लोग तो एक वीडियो देखने के बाद ही हट जाते हैं और कुछ लोग जैसे लोगों को आदत पड़ जाती है, वो लोग देखना बंद ही नहीं कर सकते हैं।

आचार्य प्रशांत: ये दोनों तरह के लोग होते है न, देखिए, एक आपको मिलते होंगे जिनको पकोड़े की पलेट दे दो, फिर वो रुक नहीं सकते। उनको पकोड़ा दे दिया और वो खाए जा रहे हैं। और कुछ ऐसे होते हैं जो लगातार कसरत करते हैं, उनको दो दिन जिम जाने को न मिले तो वो परेशान हो जाते हैं। पकोड़े वाला परेशान हो जाता है कि पकोड़ा काहे नहीं आया और जिम वाला परेशान हो जाता है कि दो दिन हो गए जाने को नहीं मिला। तो ये तो इस पर निर्भर करता है न कि आपने अपने आप को आदत क्या दे दी है। प्रेम एक प्रकार की एक सही आदत होता है, जिसमें हर पल एक नया और सही चुनाव करना पड़ता है। बात समझ रहे हो?

कठिन होता है किसी से पकोड़े छुड़वाना, पकोड़ा स्वादिष्ट होता है। देखो, एक धारणा चल रही है, अब चाहे अब तुम अब्राहमिक धर्म ले लो, चाहे भारत में ही तमाम दूसरी तरह की धार्मिक धाराएँ चलती हैं। वहाँ पर आपको बिल्कुल एक बाल कथा, एक परी कथा सुना दी गई, वो पकौड़े जैसी आसान, उठाओ, खा जाओ। वो परी कथा क्या है? एक गॉड है; और गॉड अलग-अलग तरीके का होता है अलग-अलग धाराओं में। गॉड ने यूनिवर्स (ब्रह्मांड) बना दिया, इसमें अभी तक कोई तकलीफ़ हो रही समझने में? परी कथा आसान है, पकोड़ा है, खाते जाओ, कोई इसमें इंटेलेक्चुअल प्रॉब्लम (बौद्धिक) हो रही है समझने में? कोई मेहनत, कुछ कसरत करनी पड़ रही है?

गॉड ने यूनिवर्स बना दिया, फिर? फिर गॉड ने कहा कि अब ये यूनिवर्स ऐसे-ऐसे चलेगा। फिर गॉड ने कुछ गुडीज़ (अच्छे) बनाए, कुछ बैडीज़ (बुरे) बनाए। तो बैडीज़ लोग कभी जीतने लग गए, तो गुडीज़ ने गॉड से बोला, ‘दिस इज़ नोट फ़ेयर (ये ठीक नहीं है)।‘ तो गॉड सेड, ओके, वेट, आइ एम कमिंग (तो भगवान बोले, ‘इंतज़ार करो, मैं आ रहा हूँ)।‘ फिर गॉड आ गया। वन्स यू नो ही कैन नॉट कम, सो ही सेंड हिज़ सन (एक बार वो नहीं आ पाया, तो उसने अपना पुत्र भेज दिया)। अब इसमें कोई समस्या हो रही क्या समझने में? इसमें कोई इंटेलेक्चुअल डेप्थ (बौद्धिक गहराई) चाहिए क्या? अब दूसरी ओर अष्टावक्र ऋषि आ गए, वो बोल रहे हैं, ‘संसार है ही नहीं, प्रक्षेपण है,‘ अब क्या करोगे? अब फँस गए, तो बोल रहे हैं, ‘ये देखना ही नहीं वीडियो मुझे, ये आते ही बोल गया कि ये तो संसार ही नहीं, प्रक्षेपण है।‘

एक न्यूज़ चैनल वालों ने मुझे बुलाया, वहाँ पर उन्होंने पहले ही पूछा, ‘अद्वैतवाद समझाइए।‘ तो जब उनको अद्वैतवाद समझाऊँगा, तब उनको ये भी समझाऊँगा कि ये सब प्रक्षेपण है तुम्हारा। वो एकदम लहूलुहान हो गए, लोटने लग गए! उनको समझ में नहीं आया कि ये क्या हो गया हमारे साथ, उसमें से एक तो बिल्कुल ही तुनक गया! अगले दिन कोई मैच हुआ क्रिकेट का, तो उसमें भारतीय क्रिकेट टीम हार गई, तो उसने ट्वीट करी। वो जो स्कोर था, स्कोर लगाया, बोला, ‘आचार्य प्रशांत के मुताबिक ये मैच कभी हुआ ही नहीं, मैं यही मानना चाहता हूँ।‘ वो उसने अपनी ओर से व्यंग करा था।

वो कहना चाहता था, ‘अद्वैत वेदांत का मतलब है जो चीज़ें अच्छी नहीं लगतीं उनको मानो कि वो है ही नहीं, इसीलिए तो अद्वैत वेदांत कहता है कि संसार है ही नहीं। अब ये जर्नलिस्ट हैं और बड़ा चैनल और इन्होंने ये अपनी बुद्धि लगाई है। अब ऐसों के लिए तो यही अच्छा है न कि पकोड़ा डालते जाओ कि हाँ, फिर गॉड ने कहा कि मैं अब नेक्स्ट (अगला) आऊँगा। फिर गॉड ने ऐसा करा, फिर गॉड ने कहा कि अब ये तुम लोग हो, तुम ये चार लोग हो, यू नो , तुम इसको कंट्रोल करोगे। तुम इस एरिया (क्षेत्र) में रहोगे, तुम यहाँ से नहीं जाओगे। तुम्हारे लिए ऐसे रूल्स (नियम) हैं। और फिर गॉड ने ये सब बोला, बाकी सब बंदे बोले, 'येस सर।' अब ये कूल है, कोई इसमें खोपड़ा लगाना पड़ रहा है, लग रहा है कुछ?

और तभी वहाँ नागार्जुन आते हैं, बोलते हैं, ‘प्रतीत समुत्पाद'। अब भागो पकोड़ा-वकोड़ा छोड़कर के, चटनी भी गिर गई, सब खराब हो गया। मूड ही पूरा खराब हो गया, ये क्या बोल दिया है इन्होंने। पहले तो उच्चारण करने में ही लग जाएँगे पाँच-दस दिन, पकोड़े खराब सारे! वो बोल रहे हैं, ‘*डिपेंडेंट कोओरिजिनेशन*’(आश्रित सह-संयोजना), जैसे वो पैदा हुआ वैसे ही ये पैदा हुआ, *दैट बीन दिस, दिस कम्स इंटू बींग*। अब समझो, इसका मतलब क्या है। तो वहाँ महावीर खड़े हो गए, वो स्यादवाद बता रहे हैं, अनेकांतवाद बता रहे हैं। कोई पूछे, ‘इन दोनों का मतलब, अर्थ एक ही है या कुछ अलग-अलग हैं ये दोनों, अनेकांतवाद, स्यादवाद?’ और उसके सामने कहा जा रहा है, ‘देखो, तुम छोड़ो, बाकी सब पकोड़े खाओ, खीर खाओ, आज गॉड का बर्थ डे है।‘

तो इस तरह की चीज़ें हमेशा ज़्यादा चलेंगी जिसमें पकोड़े और खीर और एकदम लो इंटेलेक्चुअल लेवल (न्यूनतम बौद्धिक स्तर) की बातें हो रही हों। ये चीज़ें हमेशा ही ज़्यादा चलेंगी न। जो चीज़ असली है, वो हमेशा आपकी बुद्धि की माँग करेगी अगर आप उसको समझना चाहते हो। और ज़्यादातर लोग बुद्धि लगाना पसंद नहीं करते, क्योंकि अगर बुद्धि लगा दी, पहली बात तो बुद्धि लगाने में तकलीफ़, दूसरी बात अगर बुद्धि लगा दी तो जो नतीजा आएगा वो उनके अहंकार को नहीं भाएगा। तो उसकी जगह ये सब चलता है, ‘ये हो गया, फिर ये हो गया है। फिर गॉड ने अपनी वाइफ़ (पत्नी) से बोला कि यू नो, यू ट्रबल मी अ लॉट (तुम मुझे बहुत परेशान करती हो), तो मैं अबकी बार जाऊँगा, नेक्स्ट वाइफ़ (दूसरी पत्नी) लेकर आऊँगा।

तो गॉड की वाइफ़ ने कहा, ‘ओह! माय गॉड, ये तो नेक्स्ट वाइफ़ लाएगा!’ तो गॉड की वाइफ़ ने मिरेकल (चमत्कार) करा। जब गॉड ज़मीन पर गया नई वाइफ़ लाने को, तो गॉड की वाइफ़ ही नई वाइफ़ बनकर खड़ी हो गई, तो गॉड उसको ले आया। जब उसको ले आया, घूँघट उठाया, तो वाइफ़ बोली, ‘देखा, पकोड़ा खिलाया बुद्धू बनाया! मैं तो पुरानी वाली वाइफ़ हूँ!‘ आपकी धार्मिक कथाएँ इससे आगे की हों तो बताइए। दुनिया भर में धर्म के नाम पर जो गप्पबाज़ी और किस्से-कहानियाँ चलते हैं, चाहे भारत हो, चाहे दुनिया का कोई और देश, कोई और हिस्सा हो, दुनिया भर में जो धर्म के नाम पर कहानियाँ चलती हैं, वो इससे ऊँचे स्तर की होती हैं तो बता दीजिए। इसलिए अद्वैत वेदांत बहुत प्रचलित नहीं हो पाया।

आई, कौन, तो अब से हम सब उसको बोलेंगे *आइकॉनिक*।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं जो अपने बारे में फील (महसूस) करती थी उसको लेकर भी लिखा है और उसमें आपके बारे में भी लिखा हुआ है, कुछ गलती हो जाए तो बता दीजिएगा। और मुझे पता है आप इसको काउंटर (विरोध) करेंगे, क्योंकि आप ये बातें पहले भी बोल चुके हैं, पर फिर भी मैंने लिखा है। और मैंने अभी लिखना स्टार्ट किया है, तो सुनाती हूँ। कुछ गलत लगे तो मुझे बता दीजिएगा।

मैं था बड़ा अंधेर में, मैं हूँ अभी भी देर में। बस एक ही ये प्रण लिया, न रहना ऐसे गंध में, न रहना ऐसे अंध में।

इस मुद्र का कुछ मूल्य नहीं, जिसपे हैं मरते तुच्छ सभी ये जानता तू था कहीं, पर ज्ञान ही तो था नहीं।

जो सोचती थी आपकी हुंकार में मुझको मिला जो पूछती थी आपकी पतवार से मुझको मिला और इस तरह कुछ आपसे मेरा ये संचार हुआ

आपकी नकार, जब भी कोई गुरु से नवाज़े आपको कि आप तो गुरु हैं ही नहीं, फिर आपने ही तो बताया गुरु है वही, गुरु है वही।

जो नींद से झकझोर दे, तेरी राह को यों जोड़ दे तेरे पंखों में भर दे उड़ान, तेरे कर्म से तुझको जोड़ दे जो लड़खड़ाए तू कभी, अपने बल से तुझको बल वो दे।

आचार्य प्रशांत: अच्छा लिखा है, लिखती रहिए। और अब अगली बार इस पर लिखिएगा कि अच्छी छात्रा कौन होती है, ठीक है?

प्रश्नकर्ता: ओके।

आचार्य प्रशांत: हमें उस पर ध्यान देना है, अच्छी छात्रा कौन-सी होती है। उसको इसी तरीके से मधुर और प्यारी अभिव्यक्ति दीजिए। और जब लिख लीजिएगा तो फिर से सुनाने आइएगा।

प्रश्नकर्ता: ठीक है आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: ठीक है, सीखने वाले का धर्म क्या है और सीखने वाले की गरिमा और गौरव किसमें है? और जैसे आज की बढ़िया थी, वैसे ही अगली वाली भी बढ़िया होनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता: ठीक है, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: ठीक है। चलिए सुंदर!

Quote: इंसान को इंसान बनाती है उसकी चेतना, गहराई से समझ पाने की उसकी क्षमता। आप होंगे सुपर मॉडर्न , पर अगर आप चीज़ों पर विचार नहीं कर सकते, आप ध्यान नहीं दे सकते, आप समझ नहीं सकते, तो आप गँवार ही हो, पशु हो आप।

सुपरस्टीशन (अंधविश्वास) तो सुपरस्टीशन है, कोई बोले, ‘भूत होते हैं’, सिर्फ़ यही अंधविश्वास थोड़े ही है। एक कॉर्पोरेट लेडी बोल रही है, ‘ज़िंदगी मनी के लिए है,’ ये भी तो अंधविश्वास है। ये दोनों सुपरस्टीशियस हैं, दोनों को इलाज चाहिए, दोनों मेंटली डिस्टर्ब्ड हैं।

सुपरस्टीशियस तो हर वो आदमी है जिसके पास आत्मज्ञान नहीं है, आप उसका क्या करोगे, कपड़ों पर मत जाया करो। जहाँ फ़र्क नहीं है, वहाँ फ़र्क मत देखा करो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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