गालियों के पीछे का मनोविज्ञान समझते हो? || (2020)

Acharya Prashant

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गालियों के पीछे का मनोविज्ञान समझते हो? || (2020)

प्रश्नकर्ता: पिछले दिनों गालियों को लेकर आपका एक वीडियो आया, मैं बात की और ज़्यादा गहराई में जाना चाहता हूँ, मुझे बताइए गालियों के पीछे का मनोविज्ञान क्या है?

आचार्य प्रशांत: जो बात बिलकुल सीधी है उसी से शुरू करो — तुम गाली किसी को आहत करने के लिए ही देते हो न? तुम्हें किसी को चोट पहुँचानी है, तुम चाहते हो किसी को ज़रा दर्द हो तो तुम उसे गाली देते हो। तो यही मनोविज्ञान है, गाली दे दो।

मैं किसी कारण से तुमसे चोट पा रहा हूँ तो मैं तुमको चोट पहुँचाना चाहता हूँ और इसमें अगर गहरे प्रवेश करोगे तो मैं कहूँगा कि दूसरे को सबसे ज़्यादा चोट वहाँ लगती है जहाँ दूसरे का हृदय होता है।

शरीर में भी कोई तुम्हारे हाथ में गोली मार दे, पाँव में गोली मार दे तुम बच जाते हो। तुम्हारे कंधे पर कोई गोली मार दे तो भी बच जाते हो पर कोई तुम्हारी गर्दन में मार दे, या छाती में मार दे, या बिलकुल मस्तिष्क में मार दे तो नहीं बचोगे न? किसी को चोट पहुँचानी हो तो उसके मर्म-स्थल पर मारना होता है, मर्म-स्थल। उस जगह पर मारो जो उस व्यक्ति के लिए सबसे केंद्रीय जगह है, जहाँ हृदय है उसका। जिस चीज़ को वह पवित्र समझता हो, सेक्रेड (पवित्र) समझता हो वहाँ आघात करो। वही चीज़ गाली कहलाती है। यह गाली की फिर एक ज़्यादा व्यापक परिभाषा हुई। किसी व्यक्ति के मर्म पर, हृदय पर आघात करना गाली है और गाली फिर आवश्यक नहीं कि कोई शब्द ही हो। वह कोई कर्म भी हो सकती है।

गाली के बारे में जो एक केंद्रीय बात है वह यह है कि वह सेक्रेडनेस को, पवित्रता को नहीं मानती। वह कहती है, "कुछ है ही नहीं पवित्र, जो तुझे पवित्र लगता है मैं उसे अपवित्र कर दूँगा।" अब ज़्यादातर लोगों की ज़िंदगी में वह चीज़ जिसको वह कभी अपवित्र होना देखना नहीं चाहते वह होती हैं उनके परिवार की स्त्रियाँ।

यह अध्यात्म की नहीं यह संस्कृति की बात है। क्योंकि आध्यात्मिक तल पर तो पवित्रता और अपवित्रता का कुछ और ही अर्थ होता है। ज़्यादातर लोग आध्यात्मिक तल पर जीते नहीं। हम सामाजिक संस्कृति के तल पर जीते हैं तो एक चीज़ है जिसको हम अपवित्र होते नहीं देखना चाहते। जिसकी शुचिता की, जिसकी इज़्ज़त की हमें बड़ी परवाह होती है। वो किस चीज़ की परवाह होती है? घर की स्त्रियों की। यह दुनिया भर में ऐसी संस्कृति है, भारत में और पड़ोसी देशों में ये और ज़्यादा है।

घर का लड़का बद्तमीज़, बेग़ैरत निकल गया हो, बुरी बात होती है पर बहुत ज़्यादा बुरी नहीं होती। घर की लड़की अगर आवारा निकल जाए तो घर वालों को बड़ा चुभता है। कोई आकर के बताए कि, "आपका लड़का तीन लड़कियों के साथ घूम रहा था", तो अटपटा लगेगा, बुरा भी लगेगा, लड़का डाँट भी खाएगा लेकिन पीछे से उसके चाचा-ताऊ हो सकता है कि मुस्कान भी फेंके कि, "तीन लड़कियाँ लेकर क्यों नहीं घूमेगा हमारा खून है!" यही खबर आ जाए कि आपकी लड़की तीन लड़के लेकर घूम रही थी तो कोई चाचा-ताऊ मुस्कान नहीं फेकेंगे। घर में तुरंत उपद्रव मच जाएगा कि, "अरे यह क्या हो गया! तीन-तीन!" तो सांस्कृतिक कारणों से जिस चीज़ को भारत में, दुनिया भर में भी बड़ा पवित्र माना गया है वह हैं घर की स्त्रियाँ।

तो आम आदमी के जीवन में आध्यात्मिक पवित्रता की तो कोई बात होती नहीं। हम यह तो कहते नहीं कि द मोस्ट सेक्रेड इज ट्रथ , कि जो सबसे पवित्र, पावन, पुनीत है उसका नाम सत्य है। सत्य से तो ज़्यादातर लोगों का कोई सरोकार होता ही नहीं तो फिर ले-देकर के हमारी ज़िंदगी में पवित्र, पावन, पुनीत क्या बचता है? यही कि घर की स्त्रियाँ।

भई! पवित्र वह चीज़ होती है जिसपर आप किसी तरह का दाग, धब्बा, लांछन लगना स्वीकार नहीं करोगे। उसको पवित्र कहते हैं। यह पावन है, पाक है। इसपर किसी तरह का दाग-धब्बा हम बर्दाश्त नहीं करते। वास्तव में तो उस चीज़ का नाम होना चाहिए — सत्य, या कह दो कि हृदय, ईश्वर कह लो, कुछ भी कह दो, अल्लाह कह दो। वह होना चाहिए कि इस चीज़ पर हम कोई दाग-धब्बा स्वीकार नहीं करते।

लेकिन ज़्यादातर लोगों की ज़िंदगियाँ इतनी आध्यात्मिक होती ही नहीं हैं तो उनके पास फिर यही बचता है कि, "हमारे घर की लड़कियों पर कोई तोहमत हम बर्दाश्त नहीं करते।" अब तुम्हें समझ में आएगा कि ज़्यादातर जो फिर गालियाँ चलती हैं वो स्त्रियों को लक्ष्य बनाकर ही क्यों दी जाती हैं, क्योंकि वही चीज़ है जिसको हमने बड़ा पवित्र माना हुआ है। यह बड़ी पवित्र चीज़ है इसपर कोई दाग-धब्बा नहीं लगना चाहिए।

अब सामने वाले को भी यह बात पता है कि तुम्हारी ज़िंदगी में ले-देकर के यही एक पवित्र चीज़ है। तुम्हारी माँ-बहन यह सब। तो वह भी फिर बिलकुल निर्मम होकर निशाना साधता है, वह कहता है, "मैं इन्हीं पर हमला करूँगा।" तो उसने तुम्हारे मर्म पर हमला करा है, यह है गालियों का मनोविज्ञान।

गाली देने वाला वास्तव में किसी सेक्रेडनेस (पवित्रता) को, किसी पवित्रता को मान नहीं रहा है। इसीलिए तुम पाओगे कि धार्मिक लोगों के अपेक्षा जो आज का बुद्धिजीवी वर्ग है वह ज़्यादा धाराप्रवाह गलियाँ देता है, खासतौर पर अंग्रेज़ी में और वहाँ यह ज़्यादा प्रचलित है, फैशनेबल है।

जो थोड़ा पुराने किस्म के लोग हैं, भले ही वो जवान हों, पर आज भी अगर वो परंपरागत परिवारों से हैं, छोटे शहरों से हैं, उनके घर में धार्मिक खान-पान और आचरण रहा है तो उनके मुँह से इतनी धाराप्रवाह गलियाँ नहीं फूटती। क्योंकि उनकी जो पूरी दीक्षा हुई है उसमें कुछ-न-कुछ उनको बताया गया है कि पवित्र है और जो चीज़ पवित्र होती है उसपर दाग-धब्बे नहीं लगाते, उसपर नहीं थूकते।

मंदिर में घुसते वक़्त चप्पल उतारकर घुसते हैं। उनको पवित्रता का कान्सैप्ट (धारणा) फिर भी थोड़ा-बहुत पता है कि कुछ चीज़ों को गंदा नहीं करते कभी। मूर्ति को छूना है तो पहले नहा कर आओ, चलो। तो उनके मन में यह बात फिर भी है कि हमारे इस सामान्य जीवन से उठकर कुछ होता है वह पवित्र होता है। समान्य जीवन में बहुत गंदगियाँ हैं कुछ जीने के लिए ऐसा होना चाहिए जो गंदगी से ऊपर हो। तो वह फिर उस पवित्रता को मानते भी हैं, उसे इज़्ज़त भी देते हैं।

जो ज़्यादा पाश्चात्य संस्कृति में रंगा हुआ वर्ग है उसका ना अध्यात्म से कोई ताल्लुक है, ना किसी तरीके की शुचिता से, सेक्रेडनेस से, पवित्रता से, उनकी नज़रों में कुछ ऐसा होता ही नहीं है जो इस लायक हो कि उसे पवित्र माना जाए।

और गहरे समझना चाहते हो? कुछ अगर तुमने मान लिया कि इस लायक है कि उसको कभी गंदा ना करें तो तुम्हें उसके सामने सिर झुकाना पड़ेगा न, क्योंकि तुम गंदे हो गए उसकी तुलना में। कोई चीज़ अगर तुमने ऐसी मान ली कि वह सेक्रेड है तो तुम्हें उसके सामने झुकना पड़ेगा और अहंकार को यह गँवारा नहीं होता झुकना। जो बुद्धिजीवी वर्ग है महाअहंकारी होता है, उसे झुकना गँवारा नहीं है, झुकना नहीं चाहते हो तो फिर तुम्हारी मजबूरी हो जाती है कि तुम्हें सेक्रेडनेस को कचरा-पेटी में डालना पड़ेगा। फिर तुम्हें यह ऐलान करना पड़ेगा कि कुछ भी सेक्रेड होता ही नहीं है, क्योंकि कुछ अगर कुछ सेक्रेड होता तो तुम्हें उसके सामने सरैंडर (समर्पण) करना पड़ता।

जहाँ तुमने माना कि कुछ है जो बिलकुल निर्दोष और निर्विकार होता है तो तुम्हें फिर उसके सामने सिर झुकाना पड़ेगा, समर्पण करना पड़ेगा। किसी चीज़ को अगर तुमने निर्दोष और निर्विकार मान लिया तो उसके सामने फिर तुमको सिर भी तो झुकाना पड़ता है न? समर्पण करना नहीं चाहता अहंकार लेकिन, तो तरीका यह निकाला कि, "मैं मानूँगा ही नहीं कि कुछ भी सेक्रेड होता है।" जब कुछ भी ऐसा नहीं है जो हमारे गंदे हाथों की पहुँच से बाहर का हो तो फिर हम किसी भी चीज़ को गाली दे सकते हैं, किसी भी चीज़ को गाली के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं।

इसीलिए जब तुम दूसरे को आहत करना चाहते हो तो जो माँ-बहन वगैरह की गलियाँ चलती हैं वह तो चली ही आ रही हैं, अभी नया प्रचलन शुरू हुआ है कि दूसरे के देवी-देवताओं को लेकर के भद्दे चित्र बनाओ और उपहास करो। ये गलियाँ ही हैं, यह समझ लो ये गलियों का एक और चढ़ा हुआ स्तर है कि, "तुम जिस चीज़ को दिल के सबसे ज़्यादा करीब रखते हो, तुम जिस चीज़ को जीवन में सबसे ज़्यादा पवित्र-पावन मानते हो मैं उसी पर थूक दूँगा। मैं तुम्हारे आराध्य देवों की मूर्तियाँ तोड़ दूँगा। मैं तुम्हारे अवतारों को लेकर के चुट्कुले बना दूँगा, वह भी अश्लील चुट्कुले बना दूँगा।" अब यह सब चल रहा है।

तो गालियों को लेकर के यह दो बातें समझना। पहली — तुम दूसरे को आहत करना चाहते हो इसीलिए बिलकुल उसके मर्म-स्थल पर वार करना चाहते हो। दूसरी बात — मर्म स्थल पर है क्या? अगर तुम्हारे मर्म-स्थल पर वह परम नहीं बैठा होगा, सच्चाई नहीं बैठी होगी तो तुम्हारे लिए जो ऊँची-से-ऊँची सफाई की और इज़्ज़त की और शुचिता की और पवित्रता की चीज़ होगी वह यही होगी कि घर की लड़कियों-बहुओं पर कोई ताना ना कस दे या कोई तोहमद ना लगा दे। ये दो बातें हैं।

जिसको गाली पड़ रही है वह अपने-आपसे पूछे कि, "मैं इतना क्यों बिदक जाता हूँ जब कोई शब्द मेरे कान में पड़ता है?" और जो कोई गाली दे रहा है वह अपने-आपसे पूछे कि, "मेरी भावना क्या है, मेरी धारणा क्या है जो मैं दूसरे व्यक्ति को इस तरह की गाली दे रहा हूँ?" इस पूरी चीज़ को अगर हम समझें तो फिर हमें अपने जीवन के बारे में भी काफी कुछ समझ में आएगा। वह ज़्यादा महत्वपूर्ण बात है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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