गहरे ध्यान में जीना || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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गहरे ध्यान में जीना || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

नीहारधूमार्कानलानिलानां खद्योतविद्युतस्फटिकशशिनाम्। एतानिरूपाणिपुरःसराणि ब्रह्माण्यभिव्यक्तिक राणि योगे॥

योग साधना प्रारम्भ करने पर ब्रह्म की अभिव्यक्ति स्वरुप सर्वप्रथम कुहरा, धुआँ, सूर्य, वायु, जुगनू, विद्युत्, स्फटिकमणि, चन्द्रमा आदि बहुत से रूप साधक के समक्ष प्रकट होते हैं।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय २, श्लोक ११)

आचार्य प्रशांत: योग की दृष्टि से कैसे पढ़ें इसको? कि जब आप ध्यान में बैठते हैं तो मन में किस प्रकार के आकार आने लग जाते हैं। आप आँख बंद करके बैठे, आँखों के आगे कोई तारा नाच गया, आँखों के आगे प्रकाश का एक बड़ा सा पुंज खड़ा हो गया सूरज जैसा, या छोटे-छोटे प्रकाश के बिंदु झिलमिलाने लगे जुगनू जैसे, या कि सब कुछ धुआँ-धुआँ सा हो गया कोहरे जैसा।

इस तरह के अनुभव ध्यान के अभ्यासी अकसर बताया करते हैं। और योग में बात यहीं पर ख़त्म हो जाती है। योग कहता है इस तरह का कोई अनुभव आपको हो रहा है, तो इसका मतलब ये है कि आप ध्यान के पहले चरण में हैं, आगे बढ़िए, लक्षण शुभ है।

वेदांत की दृष्टि से इनका अर्थ दूसरा है, गहरा है। आज तक आप वही देखते थे और अनुभव करते थे जो आपकी जागृत अवस्था की चेतना आपको दिखाती थी। ठीक है? उसके अलावा आपके अनुसार और कुछ है ही नहीं। उदाहरण के लिए आपसे पूछा जाए कि, 'आपकी दुनिया में क्या है?' तो आप कहेंगे 'मेरी दुनिया में मेरा परिवार है, मेरी नौकरी है, मेरा घर है, मेरा अतीत है, मेरे सपने हैं, और मैं समझता हूँ यही है मेरी दुनिया।' और आपको पूरा विश्वास भी होगा कि आपकी दुनिया इतनी ही है।

जब आप ध्यान में उतरते हैं, जब आप अपने जीवन का बारीकी से अवलोकन करना शुरू करते हैं, तो आपको पता चलता है, कि नहीं साहब, ये सब जो आप सोच रहे थे आपकी दुनिया में है, उसके अलावा भी बहुत कुछ है। वो छुपा-छुपा है; वो पता नहीं चलता था पर मौजूद था। पता इसलिए नहीं चलता था क्योंकि आप कभी करीब से, ध्यान से देखते ही नहीं थे। तो ये चाँद, तारे, कोहरा, धुआँ, वायु, जुगनू, विद्युत् ये सब उसके प्रतीक हैं जो आपके मन में मौजूद तो था पर अर्धचेतन तरीके से। मन की निचली तहों में मौजूद था, मन के तहखानों में मौजूद था, जहाँ तक आपकी चेतना का प्रकाश पहुँचता ही नहीं था। आपको पता ही नहीं था कि आपके मन में ये सब भी है।

जैसे वो खलील जिब्रान की कहानी, कि एक घर में माँ-बेटी रहते थे, और रात के तीसरे पहर वो दोनों ही नींद में चलते हुए बाहर आ जाती हैं अपने घर के बाग़ में। और नींद में हैं, बेटी माँ का गला पकड़ लेती है, माँ बेटी का गला पकड़ लेती है। बेटी माँ से बोल रही है, "डायन, तू ही मेरी ज़िन्दगी का अभिशाप है।" माँ बेटी से बोल रही है, "न जाने तू पैदा कहाँ से हो गई, मुझे तबाह करने के लिए आयी है।" और ऐसे करके दोनों अपना खींचातानी कर रही हैं, गाली गलौच, कि तभी मुर्गा बोल देता है, कुक-डू-कू।

प्रभात की पहली किरण आने ही वाली है, दोनों की नींद खुल जाती है। और नींद खुलते ही माँ बेटी से कहती है, "तू ठीक तो है न बिटिया रानी, क्या कर रही है यहाँ बाहर?" और बेटी बोलती है, "अरे माँ, तुम्हें गठिया है, इतनी ठण्ड में बाहर तुम्हें नहीं घूमना चाहिए सुबह-सुबह, चलो अंदर चलो, तुम्हें चाय बना कर देती हूँ, सुबह हो गई।"

हमारे मन में क्या है हमें पता नहीं होता। ऐसा नहीं है कि ये माँ-बेटी जैसे ही जगे हैं, वैसे ही नाटक करने लग गए हैं। ना, ये जैसे ही जगे हैं, वैसे ही अपनी चेतना के सतही तलों पर वापस आ गए हैं। इस समय इन्हें वास्तव में नहीं पता कि इन दोनों के ही दिलों में एक-दूसरे के लिए कितनी घृणा है; ये नहीं जानते। और घृणा तो है ही। अभी उनसे पूछा जाए कि आपका आपसी रिश्ता क्या है, ये दोनों एक-दूसरे के गले लग जाएँगी, कहेंगी हम इसी के सहारे तो जी रहे हैं। माँ बेटी के, बेटी माँ के। लेकिन दोनों को एक दूसरे से बेइंतहा नफ़रत, द्वेष है।

जो छुपा हुआ है हमारे मन में और जो हमारे जीवन को संचालित कर रहा है बहुत तरीकों से, लेकिन जिसकी उपस्थिति से हम बिलकुल अनभिज्ञ हैं, उसके प्रतीक हैं ये चाँद तारे, कोहरा, धुआँ, सूर्य, वायु, जुगनू वगैरह। जब तुम ध्यान से जीवन जीना शुरू करते हो, तब, सिर्फ़ तब पहली बार पता चलता है कि तुम कितनी झूठी दुनिया में आज तक जी रहे थे। तब तुम्हें पता चलता है कि वो सब जो तुम्हें दिख रहा था वो झूठा भले ही ना हो पर ज़बरदस्त रूप से अधूरा ज़रूर था, और जो अधूरा हो गया उससे ज़्यादा झूठा कौन होता है?

झूठ और क्या है?

अधूरे सच को ही तो झूठ बोलते हैं। सच के विपरीत नहीं होता झूठ। सच तो इतना पूरा है कि उसके विपरीत कुछ हो ही नहीं सकता।

सत्य क्या होता है?

पूर्ण। पूर्ण के विपरीत क्या होगा? कुछ भी नहीं। पूर्ण तो पूर्ण है। तो फिर असत्य किसको बोलते हैं? झूठ क्या है? पूर्ण का अंश भर देख पाना, अंश हो जाना और अंश ही देख पाना, यही झूठ है। मन तुम्हारा पूरा-पूरा क्या है, अगर तुम देख लो तो मन से मुक्त हो गए, या मन पूर्ण हो गया। हम फँसे इसलिए हैं क्योंकि हमें अपने मन का सिर्फ़ अंश भर पता है। कौनसा अंश? सतही अंश। उतना हमें पता है। हमारे मन की गहराइयों में क्या है, वो हम नहीं जानते। और मन का जो सबसे गहरा बिंदु है उसी को तो आत्मा कहते हैं। मन को पूरा जान गए तो आत्मा तक पहुँच गए।

तो जो ध्यान में उतरते हैं उन्हें शुरू में बड़ी असुविधा होती है। जो लोग आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करते हैं उनके लिए पहले ही कदम पर चुनौती है। उन्हें ऐसी चीज़ें पता लगनी शुरू हो जाएँगी, झेली न जाएँ। वो कहेंगे कि 'इससे भले तो हम अज्ञानी ही थे। ये कौनसा ज्ञान मिल रहा है हमको? हम जानना ही नहीं चाहते ये बात जो अभी-अभी पता लगी है। शिक्षक महोदय ने तो बता दिया, जाओ, अपने जीवन का अवलोकन करो। अपनी वृत्तियों का, अपने विचारों का, अपने विकारों का, अपने संबंधों का अवलोकन करो।'

'और अब मैं देख रहा हूँ साफ़-साफ़, अवलोकन माने देखना, और अब मैं देख रहा हूँ साफ़-साफ़ कि मेरी इच्छाएँ वास्तव में क्या माँग रही हैं। बाप रे बाप! बड़ी खौफ़नाक इच्छाएँ हैं। और अब मैं देख रहा हूँ साफ़-साफ़ कि मेरे रिश्ते कैसे हैं। मैं तो तीस साल से इन रिश्तों को पवित्र-पावन-पूज्य मान रहा था। आज छान-बीन करी तो पता चला यहाँ से तो बदबू उठ रही है; कितना ज़हर।'

और फिर जब ये सब अनुभव होते हैं तो आमतौर पर साधक घुटने टेक देता है। वो कहता है, "मुझे आगे और कुछ जानना ही नहीं है। पहले ही ठीक था, ज़्यादा पता नहीं था पर सुकून तो था।" और अध्यात्म में तो जो भी उतरेगा पहले तो उसे अपना सुकून गँवाना पड़ेगा। ये अलग बात है कि वो जिस सुकून को गँवा रहा है वो सुकून ही झूठा है। अगर वो सुकून असली होता तो उसे अध्यात्म में आना ही क्यों पड़ता? फिर तो बात ये थी न कि तुम पहले ही सुकून में थे, पहले ही शांति थी तो अध्यात्म में क्या करने आए हो? तो निश्चित रूप से तुम्हारे पास पहले भी जो शांति थी, वो?

प्रश्नकर्ता: झूठी शांति थी।

आचार्य: झूठी शांति थी। यही जो झूठी शांति होती है तुम्हारी, इसे अध्यात्म छीन लेता है। वो इसे छीन लेता है तो हम बिलबिलाने लग जाते हैं। हम कहते हैं, 'शांति छीन ली, शांति छीन ली!' अरे भाई, कोई नकली चीज़ थी वो छीनी है। असली होती तो छिनती क्यों? और असली होती तो तुम अध्यात्म में आते ही क्यों?

तो जो योग के भी अभ्यर्थी होते हैं उनको निर्देश यही दिया जाता है कि जब इस तरीके के दृश्य आएँ या अनुभव आएँ, रोशनियाँ दिखाई दें, चाँद-तारे दिखाई दें, हवा, कोहरा, बिजली कड़कती हो, इस तरह की बातें हो तो इन पर ध्यान नहीं देना है। अपनी साधना आगे बढ़ाए रखो।

ये जो निर्देश योगियों को दिया जाता है, इस निर्देश का वेदांत में अनुवाद क्या होगा? कि साधना के रास्ते पर, ध्यानपूर्ण जीवन जीने के रास्ते पर जो भी बाधाएँ आएँ उन पर ध्यान नहीं देना है, अपनी यात्रा रोक नहीं देनी है। जो भी दिखाई दे रहा हो, भले ही वो डरावने-से-डरावना क्यों न हो, उसको देखते जाओ और उसका सामना करते हुए आगे बढ़ते जाओ। रुक मत जाना।

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