गाने सुनते हो? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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गाने सुनते हो? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: गाना सुन रहे हो तो भाई सुन ही लो न कि गाना क्या बोल रहा है। गाना तो मजबूर है, छुपा ही नहीं पाएगा जो वह बोल रहा है। गाने सुनने की आदत लगी हुई है बचपन से तो ऐसा क्यों नहीं करते कि गाना फिर सुन ही डालो? जिस गाने को तुमने पूरी तरह सुन डाला, वो गाना या तो तुम्हें मिटा देगा या फिर वो गाना मिट जाएगा, दोबारा कभी उसे सुनोगे ही नहीं।

दिक्क़त तब होती है जब गाना सुन भी लेते हो और सुनते भी नहीं। हम ऐसे ही सुनते हैं न, सुनते जा रहे हैं, सुनते जा रहे हैं; सुना तो है ही नहीं कि वो बोल क्या रहा है। जो बात वह बोल रहा है, वह इतनी छिछोरी है कि अगर तुम समझ जाओ वाक़ई कि उसने क्या बोला, उसकी बद्तमीज़ी को, उसके अज्ञान को, उसके अन्धेरे को, उसकी दुर्गन्ध को अगर पूरी तरह देख लो तो उस गाने को तो फिर दोबारा सुन नहीं सकते। और अगर गाने में क़ाबिलियत है और अगर गाना किसी बहुत सच्ची जगह से निकला है तो फिर तुम उस गाने के ऐसे क़ायल हो जाओगे कि उस गाने को कभी छोड़ नहीं पाओगे। दो में से एक बात होगी। वो ताक़त है न तुम्हारे पास कि समझ लो।

जो कुछ भी करते हो, उसको समझते चलो, रुक-रुककर।

एक चीज़ तुम्हारी दुश्मन है — आत्मविश्वास, यह धारणा कि तुम्हें पता है, तुम जानते हो। हम कुछ नहीं जानते, हम अपने दायें हाथ को नहीं जानते। तुम जिस बिस्तर पर हो सकता है आठ साल से सो रहे हो, तुम उस बिस्तर को नहीं जानते। आइने में जिस चेहरे को तुम पिछले पच्चीस साल से देखते हो, तुम उस चेहरे को नहीं जानते।

भीतर से अपने यह दम्भ तो पूरी तरह निकाल दो कि तुम्हें कुछ भी पता है। जैसे ही ये दम्भ निकाला वैसे ही देख पाने के ख़िलाफ़ जो तुमने अपने ही भीतर साज़िश कर रखी थी, उससे बच जाओगे। हमारी आँखें सब देख सकती हैं, इन आँखों की नहीं बात कर रहा हूँ (अपनी आँखों की ओर इशारा करते हुए), इन आँखों की भी बात कर रहा हूँ। इन आँखों के पीछे एक और आँख भी है। हम सब देख सकते हैं। देख पाने के रास्ते में अवरोध की तरह, एक अड़चन की तरह, एक स्क्रीन (पर्दे) की तरह, मैंने कहा, क्या खड़ा हो जाता है? हमारा आत्मविश्वास, कॉन्फ़िडेन्स कि मुझे तो पता है।

यही सब जो कुछ चल रहा है, तुम्हारी नौकरी, तुम्हारा खाना-पीना, तुम्हारे मंगलवार-बुधवार, तुम्हारे शुक्रवार-शनिवार, तुम्हारा फ़ोन, यार-दोस्त, लड़के-लड़कियाँ, सैलरी स्लिप, बैंक स्टेटमेंट यही सब जो ज़िन्दगी में चलता है न, इसी को बस ऐसे देख लो जैसे पता ही नहीं कि ये क्या हैं; एकदम नादान होकर के, एकदम अज्ञानी होकर के। सब मामला एकदम खुल जाना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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