करते क्या हो खाली समय में? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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करते क्या हो खाली समय में? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने पर्सनल टाइम (निजी समय) के ऊपर कुछ बताया हुआ है और उसमें ऐसा है कि जैसे हर एक क्षण जो आ रहा है, वह दूसरे को अर्पित कर दीजिए, उसको बचाइए मत ख़ुद के लिए। और दूसरी ओर कुछ उक्तियाँ हैं जैसे, "अलोननेस इज़ ए सैनिटी"। तो इसमें मुझे विरोधाभास लग रहा था। तो ये क्या है? इन दोनों में विरोधाभास हैं मेरे मन में कुछ, पर ऐसा भी लगता है कि दोनों शायद एक ही चीज़ हैं।

आचार्य प्रशांत: जिसको आप पर्सनल टाइम बोलते हो न, निजी समय, उसका ताल्लुक अलोननेस (अकेलापन) से होता ही नहीं है। अलोननेस का मतलब होता है — कैवल्य, आत्मिकता, निजता। समझ गए? अब जो आपको व्यक्तिगत समय मिलता है उसका आत्मा से कहाँ कोई ताल्लुक होता है, या होता है?

आप जब कहते हो कि फ़लाना समय मेरा व्यक्तिगत समय है, उसमें क्या करते हो? आत्मा तक पहुँचने वाले काम करते हो या और कचरे में घुसने वाले काम करते हो? आज ये वैलेंटाइन्स डे है, नीचे चल रहा है तमाशा! यहाँ बैठे लोगों में से कुछ लोग थे वहाँ पर। वहाँ आत्मा वाले काम हो रहे थे? कहिए! और था क्या सबका वो? निजी समय, पर्सनल टाइम। तो बताओ मुझे, जिसको आप व्यक्तिगत समय कहते हो उसका ताल्लुक अलोननेस माने आत्मिकता से कहाँ है? न व्यक्तिगत समय का उससे सम्बन्ध है, न व्यक्तित्व का ही। व्यक्ति का ही आत्मा से कहाँ सम्बन्ध है?

व्यक्तित्व माने क्या? पर्सनैलिटी, माने जो सब बाहर-बाहर का मामला है। इसको बोलते हैं व्यक्तित्व। और आत्मा कौनसी चीज़ है? जिसको मुहावरे के तौर पर कहा जाता है 'अंदर का बोध बिन्दु'। व्यक्तित्व क्या है सारा? बाहर का मामला। ये सब जो परते हैं एक के ऊपर एक चढ़ी हुई, इसको बोलते हैं व्यक्तित्व। और आत्मा क्या चीज़ है? अंदर का जो एक सच्चा केन्द्र है, उसको बोलते हैं आत्मा। ठीक है?

तो व्यक्तिगत समय में आप क्या करते हो, बताओ? व्यक्तिगत समय में कोई भी क्या करता है, बताना ज़रा? लोग जैसे ही बोलते हैं कि हमें अब कुछ खाली समय, व्यक्तिगत समय, फ्री टाइम मिल गया, तो उसमें वो क्या करते हैं, बताओ न!

प्रः मूवी देखते हैं, वीडियो देखते हैं यूट्यूब पर।

आचार्य: वीडिओज़ देखते हो या बनाते हो?

प्रः आचार्य जी, आपका वीडियो भी उस व्यक्तिगत समय में देखते हैं तो?

आचार्य: उस हद तक फिर ठीक है, सिर्फ़ उस हद तक। लेकिन उस समय फिर तुम वह हो जिसका व्यक्तित्व आत्मा को समर्पित हो गया है। नहीं तो आमतौर पर वीकेंड्स (सप्ताहांत) पर क्या होता है? एक आदमी को दिनभर मेहनत करने के बाद रात का जो आधा-एक घंटा मिलता है, उसमें क्या होता है? जाम ज़्यादा कब छलकते हैं? मंगलवार-गुरुवार को या शनिवार-रविवार को?

समझ में आ रही बात?

इसलिए मैंने कहा है कि ये जिसको तुम पर्सनल टाइम बोलते हो, यही तुम्हारी समस्या है। यही जहन्नुम है, क्योंकि ये वो समय है जो तुमने अपने लिए बचा कर रख लिया। उससे मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि तुम अपना समय अपने ऊपर नहीं, अपने बॉस के ऊपर ख़र्च करो कि तुम वीकेंड्स पर भी जाकर के ऑफिस में खपने लग जाओ, ये नहीं कह रहा हूँ मैं।

तो पर्सनल का मतलब ये नहीं होता कि वही समय जो तुमने अपने ऊपर लगाया। तुम अगर वो समय अपने बॉस पर भी लगा रहे हो तो क्यों लगा रहे हो, प्रेम के मारे या इस मारे कि उससे तुमको पर्सनल यानी व्यक्तिगत लाभ होगा, कुछ अधिक पैसे दे देगा, वगैरह-वगैरह, बोलो? तो हम ले-देकर के अपना सारा समय लगाते ही व्यक्तिगत लाभ की जगहों पर हैं, माने हमारा सारा काम स्वार्थ के लिए होता है।

और स्वार्थ का मतलब क्या होता है? वो सारे काम जिसमें अहंकार अपना हित देखता है और प्रबल होता जाता है। और अहंकार माने वह 'मैं' जो है ही नहीं, झूठा 'मैं'। अहंकार समझते हो क्या होता है? अभी समझाता हूँ। अभी खाना खाकर आये। अहंकार ऐसा है जैसे कि ये कान है (कान की ओर इशारा करते हुए), ये कान बोलना शुरू कर दें 'मैं-मैं-मैं'। ठीक है? और ये नाक बोलनी शुरू कर दे, क्या बोलना शुरू कर दें? 'मैं', और शरीर में और भी जितने छिद्र हैं, नीचे वाले, वो भी क्या बोल रहे हैं? 'मैं'।

यह आत्मा है (अपने मुँह की ओर इशारा करके उदाहरण देते हुए), यह असली 'मैं' है, यह चुप है। इसका स्वभाव मौन है। यह चुप है, यह तो 'मैं' बोल नहीं रही। तो तुम पोषण किसका किये जा रहे हो? अब खाने का समय है, खाना किसको खिलाये जा रहे हो? कान को। अहंकार ऐसा है।

तुम ग़लत जगह को पोषण दिये जा रहे हो, उससे तुम्हें कुछ मिलेगा? तुम्हें तो सिर्फ़ तब मिलता न जब तुम आत्मा को समर्पित होते, जब तुम आत्मा पर कुछ आहुति चढ़ाते। जब यहाँ को (अपने मुँह की ओर इशारा करते हुए) कुछ देते, तो तुम्हें कुछ लाभ भी होता।

ज़्यादातर लोग अपने झूठे 'मैं' को जीवन भर खिलाते रहते हैं। उसी को बिलकुल खिला-पिलाकर मोटा करते रहते हैं। अब मोटा हो गया, माने क्या हो गया? माने कान के अन्दर दाल डाल दी, सब्ज़ी डाल दी, मिर्च-मसाला डाल दिया, अब कान सूज कर मोटा हो गया, ये है अहंकार का मोटा होना। वह जितना मोटा होगा, उतना तुम्हें दुख देगा। अहंकार जितना बढ़ेगा, उतना तुम्हें दुख देगा।

सोचो न तुम्हारा कान बढ़ गया, सूज कर इतना बड़ा हो गया, काहे? काहे कि उसमें सब डाल दिया तुमने, खाने-पीने की सारी सामग्री। नाभी भर दी अपनी। गुदा द्वार खोलकर के नीचे से एकदम जैसे एनिमा लगाया जाता है, वैसे खाना ठूँस रहे हो, नतीजा क्या निकलेगा? जगह-जगह बीमारी हो जाएगी, सूज जाओगे, फूल जाओगे। ये अहंकारी आदमी की दशा होती है। उसने अपने सब ग़लत केन्द्रों को मज़बूत किया है, पोषण दिया है, उन्हीं को वह खिलाता गया है, और सही केंद्र को वह कभी जान ही नहीं पाया है। क्योंकि वो जो सही केन्द्र होता है, वो होता तो सही है, पर मौन होता है।

बात आ रही है समझ में?

तो व्यक्तिगत समय का क्या मतलब है? कि जितने झूठे 'मैं' हैं, एक को तुम दारू पिला रहे हो, एक को तुम मुर्गा खिला रहे हो, एक में तुमने जाकर के कुछ शॉपिंग करके सामान भर दिया, एक में गर्लफ्रेंड भर दी। और इन सब में तुम ठूँसते जा रहे हो, ठूँसते जा रहे हो। और जो तुम्हारा केन्द्र है, जो तुम्हारा सत् है, वह कुपोषण का शिकार हुआ जा रहा है। वह तरस रहा है कि है कभी तुम उसकी ओर भी देख लो, उसकी ओर तुम देख नहीं रहे हो।

वीकेंड्स पर, खाली समय पर, यही सब चलते हैं न पागलपने के काम? तो इसलिए बोलता हूँ कि अपने लिए समय बचा कर मत रखो। अपने लिए माने अपने स्वार्थ के लिए, अपने लिए माने अपनी व्यक्तिगत सरोकारों के लिए।

अपना समय अपने से आगे के किसी काम को अर्पित कर दो। अपना समय अपने से बड़े किसी लक्ष्य को आहुति दे दो।

कहो कि यार मैं परेशान भी हूँ, सिरदर्द भी हो रहा है, पूरे हफ़्ते काम करा है, अब जाकर सप्ताहांत आया है। ठीक है, मुझे मालूम है इस पूरे हफ़्ते लड़ाई ज़्यादा हो गयी है, नींद भी आ रही है, खोपड़ा भी थोड़ा दुख रहा है। लेकिन फिर भी कुछ दूसरे काम हैं जो ज़्यादा ज़रूरी हैं हमारे व्यक्तिगत सुख से। ये नहीं करूँगा कि शनिवार-इतवार पी ली, ज़्यादा सो लिए, पिक्चर देख आये या इधर-उधर टहल आये, ये नहीं करूँगा।

बताने की ज़रूरत है क्या कि इस वक़्त दुनिया की दुर्दशा कितनी है, आपको क्या दिखायी नहीं देता? जवान हैं आप, पढ़े-लिखे हैं आप, संसाधन-शाली हैं आप, बाहर निकलिए न! कब तक अपनी छोटी-छोटी गुफाओं में छुपकर बैठे रहेंगे? ये तो छोड़िए कि इतिहास नहीं माफ़ करेगा, दुनिया नहीं माफ़ करेगी, आप ख़ुद को माफ़ कर लेंगे?

समय का एक दुरुपयोग ये है कि किसी ने तुम्हें ग़ुलाम बना लिया और तुम्हारा सारा समय निचोड़ लिया, जो कि दफ़्तरों में होता है, ठीक? वह कहता है, 'तुम्हें पैसे दे रहा हूँ न, चलो यह वाला काम करो!' और उस काम से तुम्हारा कोई दिली ताल्लुक नहीं है। उस काम से तुम्हें प्रेम क़तई नहीं है, लेकिन पैसे की ख़ातिर बिके हुए हो, तो वो काम तो तुम्हें करना ही पड़ता है। एक तो ये हुआ समय का दुरुपयोग कि तुमने अपना समय पैसे के लिए बेच दिया। और समय का बराबर का दुरुपयोग ये होता है कि उस समय का इस्तेमाल तुमने अपने व्यक्तिगत सुख या व्यक्तिगत स्वार्थ या व्यक्तिगत मज़े के लिए कर लिया।

हम सोचते हैं, 'नहीं, अगर किसी दूसरे का ग़ुलाम बनकर हमें अपना समय लगाना पड़ रहा है तो यह बुरी बात है, लेकिन हम अपना समय अगर अपनी मर्ज़ी से कहीं लगा रहे हैं तो यह तो अच्छी और ऊँची बात है।' ऐसे ही सोचते हैं न हम आमतौर पर? जो बड़े आज़ाद तबियत बताते है अपनेआप को, जवान लोग, वो कहते हैं, ‘देखो, मैं अपना समय वहाँ लगाऊँगा, जहाँ मेरी मर्ज़ी है।’ वो सोचते हैं कि ये हमने ऊँची बात कर दी। पागल! यह भी समय का दुरुपयोग ही है कि तुमने समय को वहाँ लगा दिया जहाँ लगाने की तुम्हारी मर्ज़ी है।

हम भूल ही जाते हैं कि हमारी मर्ज़ियाँ आती कहाँ से हैं। हम एकदम भूल जाते हैं कि हम संस्कारित हैं, हम कंडीशन्ड हैं, हम इनडॉक्टरीनेटिड (उपदेशित) हैं। हमें यह समझ में भी नहीं आता है कि जिसको हम अपना सच बोल रहे हैं वह वास्तव में एक आयातित विचारधारा है, इम्पोर्टेड आइडियोलॉजी है। लेकिन हम इतने अन्धे रहे हैं जीवन के प्रति कि हमें यह पता भी नहीं कि हमने बाहर से कोई विचारधारा सोख ली हैं। उस विचारधारा को लेकर हमारी धारणा बन गयी है कि वह तो हमारे ‘अपने’ ख़याल हैं।

हम कहते हैं, 'साहब, मैं तो ऐसा सोचता हूँ!' मिलते हैं न लोग जो कहते हैं, 'बट आई थिंक'। उनको तो वहीं रोक देना चाहिए, 'डू यू?' यह विचार नहीं है, यह दोहराव है। तुम वही सब कुछ बोल रहे हो जो तुमको मीडिया ने, तुम्हारी शिक्षा ने, तुम्हारे संस्कारों ने, तुम्हारी संगति ने सिखा दिया है। और उस बात को ही तुम इतने आत्मविश्वास के साथ बोल रहे हो जैसे वह बिलकुल तुम्हारी मौलिक बात हो, जैसे तुम्हारी आत्मा से उठ रही हो। जबकि वो सिर्फ़ क्या है? एक बाहर की विचारधारा है, तुम पर पड़े हुए प्रभाव हैं। तो उसको तुम क्यों नाम दे रहे हो पर्सनल का? वह पर्सनल कहाँ है? व्यक्तिगत है ही नहीं, वह बाहरी है।

जब वो सब चीज़ें बाहरी हैं जिसको तुम पर्सनल बोलते हो, तो जब तुम ये भी कहते हो कि मैं अमुक तरीक़े से पर्सनल टाइम का व्यय करना चाहता हूँ, तो वास्तव में तुम अपना समय अपने अनुसार ख़र्च कर रहे हो या दूसरों के अनुसार? बोलो!

भई, कोई अगर हमसे खुलेआम ज़बरदस्ती करे तो हम इसका विरोध कर देते है न। कोई आये, धमकाये और बोले, 'देखो, अगले चार घंटे तुम वह करोगे जो मैं चाहता हूँ।' तुम कहोगे, 'अरे, ये तो हमारी स्वतंत्रता पर आघात हो गया। हमारे हाथ मरोड़े जा रहे हैं, बल प्रयोग है, ग़लत है भई!' धरना-प्रदर्शन सब कर डालोगे, कर डालोगे न? क्यों? क्योंकि यहाँ पर यह बात बिलकुल स्पष्ट है और ज़ाहिर है कि कोई आ करके तुमसे जबरन कुछ करवा रहा है। तुम्हारे चार घंटे, तुम्हारा समय लिए जा रहा है।

लेकिन अगर वो जो बाहर वाला है थोड़ा चतुर-चालाक होगा तो वो ये करेगा ही नहीं कि तुमसे खुली ज़बरदस्ती करे। वो क्या करेगा? वो तुम पर किताबों के माध्यम से, मीडिया के माध्यम से, हज़ार और तरीक़ों से वो तुम्हारी खोपड़ी में ख़याल भर देगा और अब तुम वो सारे काम करोगे जो वो चाहता है। और बड़ी ठसक के साथ, इस दावे के साथ करोगे कि ये सब काम तो मैं ख़ुद ही करना चाहता हूँ। उसको तुम नाम दे दोगे कि ये तो मेरा पर्सनल इंक्लिनेशन है, ये मेरा निजी रुझान है।

चूँकि वो जिसको तुम पर्सनल कहते हो, वही झूठा है, तो मैं कहता हूँ कि पर्सनल टाइम इज़ हेल (व्यक्तिगत समय नरक है)।

आ रही है बात समझ में?

प्र: आचार्य जी, बचपन से सीखा ही यही है कि पर्सनल टाइम का मतलब गाने सुनना, किताब पढ़ना या कोई और चीज़ है। आदी ही नहीं हैं कि किसी और तरह का कुछ करने के लिए।

आचार्य: नहीं, आदी होना भी नहीं है। जो तुमने नहीं सीखा, उसका फ़ायदा उठा लो न? ये सब आदतें कि गाने सुन लो, कपड़े खरीद लो, पिक्चर देख आओ, घूम-फिर आओ ये सब तो चीज़ें सीखी हैं। एक चीज़ है जो तुमने नहीं सीखी, वो क्या है?

अच्छा, कितने लोग हैं जो इस हॉल में पहली बार आ रहे हैं? यहाँ बहुत कुछ है जो नया है आपके लिए, है न? यह दीवार पहली बार देखी होगी। ये खम्भा भी पहली बार देखा होगा। ये सब बाहरी चीज़ें हैं, ये पर्दे, ये गद्दे, ये सब। कुछ हैं लेकिन यहाँ पर जो पूरी तरह आपका अपना है। यहाँ जो कुछ दिखायी दे रहा हो, उसमें से एक-एक चीज़ हो सकती है बाहरी हो, लेकिन इन सब बाहरी चीज़ों के बीच एक चीज़ है जो बिलकुल आपकी अपनी है, क्या?

प्र: देखना।

आचार्य हाँ। ठीक है? क्या है अपनी चीज़? चीज़ें भले ही सब बाहर से आयी हों, आदतें-ढर्रे सब भले ही बाहर से आये हों, पर उनको देखने की नज़र तो अपनी हो सकती है कि नहीं हो सकती है? वो तो सीखनी नहीं पड़ती न? तो बस वही अपनी उम्मीद है, उसी के भरोसे काम चल जाएगा। सब बाहरी हो सकता है, लेकिन एक ताक़त हमको पैदाइश के साथ ही मिल जाती है, क्या? देखना, समझना, अवलोकन। वो कर सकते हो कि नहीं कर सकते हो?

गाना सुन रहे हो तो भाई सुन ही लो न कि गाना क्या बोल रहा है। गाना तो मजबूर है, छुपा ही नहीं पाएगा जो वह बोल रहा है। गाने सुनने की आदत लगी हुई है बचपन से तो ऐसा क्यों नहीं करते कि गाना फिर सुन ही डालो? जिस गाने को तुमने पूरी तरह सुन डाला, वो गाना या तो तुम्हें मिटा देगा या फिर वो गाना मिट जाएगा, दोबारा कभी उसे सुनोगे ही नहीं।

दिक्क़त तब होती है जब गाना सुन भी लेते हो और सुनते भी नहीं। हम ऐसे ही सुनते हैं न, सुनते जा रहे हैं, सुनते जा रहे हैं; सुना तो है ही नहीं कि वो बोल क्या रहा है। जो बात वह बोल रहा है, वह इतनी छिछोरी है कि अगर तुम समझ जाओ वाक़ई कि उसने क्या बोला, उसकी बद्तमीज़ी को, उसके अज्ञान को, उसके अंधेरे को, उसकी दुर्गन्ध को अगर पूरी तरह देख लो तो उस गाने को तो फिर दोबारा सुन नहीं सकते। और अगर गाने में क़ाबिलियत है और अगर गाना किसी बहुत सच्ची जगह से निकला है तो फिर तुम उस गाने के ऐसे क़ायल हो जाओगे कि उस गाने को कभी छोड़ नहीं पाओगे। दो में से एक बात होगी। वो ताक़त है न तुम्हारे पास कि समझ लो।

जो कुछ भी करते हो, उसको समझते चलो, रुक-रुककर।

एक चीज़ तुम्हारी दुश्मन है — आत्मविश्वास, यह धारणा कि तुम्हें पता है, तुम जानते हो। हम कुछ नहीं जानते, हम अपने दायें हाथ को नहीं जानते। तुम जिस बिस्तर पर हो सकता है आठ साल से सो रहे हो, तुम उस बिस्तर को नहीं जानते। आईने में जिस चेहरे को तुम पिछले पच्चीस साल से देखते हो, तुम उस चेहरे को नहीं जानते।

भीतर से अपने यह दम्भ तो पूरी तरह निकाल दो कि तुम्हें कुछ भी पता है। जैसे ही ये दम्भ निकाला वैसे ही देख पाने के ख़िलाफ़ जो तुमने अपने ही भीतर साज़िश कर रखी थी, उससे बच जाओगे। हमारी आँखें सब देख सकती हैं, इन आँखों की नहीं बात कर रहा हूँ (अपनी आँखों की ओर इशारा करते हुए), इन आँखों की भी बात कर रहा हूँ। इन आँखों के पीछे एक और आँख भी है। हम सब देख सकते हैं। देख पाने के रास्ते में अवरोध की तरह, एक अड़चन की तरह, एक स्क्रीन (पर्दे) की तरह, मैंने कहा, क्या खड़ा हो जाता है? हमारा आत्मविश्वास, कॉन्फिडेन्स कि मुझे तो पता है।

यही सब जो कुछ चल रहा है, तुम्हारी नौकरी, तुम्हारा खाना-पीना, तुम्हारे मंगलवार-बुधवार, तुम्हारे शुक्रवार-शनिवार, तुम्हारा फ़ोन, यार-दोस्त, लड़के-लड़कियाँ, सैलरी स्लिप, बैंक स्टेटमेंट यही सब जो ज़िन्दगी में चलता है न, इसी को बस ऐसे देख लो जैसे पता ही नहीं कि ये क्या हैं; एकदम नादान होकर के, एकदम अज्ञानी होकर के। सब मामला एकदम खुल जाना है। चीज़ें साफ़ हो जाएँगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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