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एकलव्य नहीं, द्रोण हैं दया के पात्र || महाभारत पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: एकलव्य ने द्रोण की माँग मानी, ये कैसी दक्षिणा कि अपना अँगूठा ही दे दिया?

आचार्य प्रशांत: हमें लगता है कि बड़ा अन्याय हो गया। अरे! अन्याय कुछ नहीं हो गया, समझो एकलव्य को। द्रोण ने थोड़े ही दीक्षित किया था एकलव्य को—द्रोण माने शारीरिक गुरु—शरीर का तो कोई गुरु एकलव्य को मिला ही नहीं, या मिला? द्रोण की तो प्रतिमा भर थी। और किसी-न-किसी की तो प्रतिमा बनाओगे, उसने द्रोण की ही बना दी। एकलव्य को द्रोण आए थे क्या शिक्षा देने? तो एकलव्य के पास शरीर रूप में कोई गुरु नहीं था, एकलव्य का वास्तविक गुरु कौन है? राम। वो सिखा रहे हैं एकलव्य को।

प्रतिमा से क्या फ़र्क़ पड़ता है, किसी की बना दो! हर प्रतिमा का कोई-न-कोई चेहरा होगा, कोई नाम दे दो। सिखाने वाला तो राम था, एकलव्य तो शिष्य था राम का, इसीलिए उसने कहा कि “जब शरीर का गुरु नहीं चाहिए था सीखने के लिए, तो फिर शरीर की ऐसी क्या हैसियत कि उसको बचाकर रखूँ? आज अगर संयोग ऐसा आ गया है कि इस शरीर का अँगूठा कोई माँग रहा है तो दे देंगे।” अँगूठा जब दिया है उसने, तो साथ ही ये भी कहा है, “आप ले जाओ अँगूठा, मैं चार उँगलियों से ही चला लूँगा। और चार उँगलियों से भी, अगर मेरे राम चाहेंगे, तो बाण वैसे ही चलाऊँगा जैसा अँगूठे का उपयोग करके चलाता था।"

एकलव्य की कहानी शरीर से आगे जाने की कहानी है, एकलव्य ने कहा, “शरीर का गुरु नहीं मिल रहा, कोई बात नहीं, हमें सिखाने वाला गुरु 'दूसरा' है”, उससे सीखा एकलव्य ने। और चूँकि एकलव्य शरीर पर बहुत कीमत नहीं रखता था, इसीलिए एकलव्य को ज़रा भी दुःख नहीं हुआ, ज़रा भी संकोच नहीं हुआ शरीर का ही एक हिस्सा दान में दे देने में। द्रोण भिखारी समान खड़े हैं एकलव्य के सामने, एकलव्य कह रहा है, “अरे! जाओ, तुम शरीरवादी हो, तुमने अधिक-से-अधिक माँगा भी तो क्या माँगा? शरीर का ये छोटा-सा हिस्सा माँगा, जाओ, ले जाओ। हमें सिखाने वाला वो है जो किसी शरीर में वास नहीं करता और सब शरीर जिसके शरीर हैं, हम उससे सीखते हैं। हमें सिखाने वाला सब शरीरों का प्राण है और स्वयं अशरीरी है, हम उससे सीखते हैं। तुम्हें शरीर का हिस्सा चाहिए, जाओ, ले जाओ।"

और यकीन जानना, वो अँगूठा इत्यादि दे देने के बाद भी एकलव्य का कुछ बिगड़ा नहीं होगा, एकलव्य अगले तल पर पहुँच गया होगा, न सिर्फ़ शस्त्र-साधना के, बल्कि अध्यात्म-साधना के। द्रोण का किस्सा होने से पहले तो एकलव्य सिर्फ़ शस्त्रधारी था, इस अँगूठे को दान देने के बाद एकलव्य का जीवन सफल हो गया होगा। पहले तो उसके पास सिर्फ़ शस्त्र-विद्या थी, अँगूठा जिस दिन दे दिया, उस दिन समझ लो कि वो अगली श्रेणी में पहुँच गया, अगली कोटि में पहुँच गया, उसके मन का ऊर्ध्वगमन हो गया, ऊँचा उठ गया। ये भला हुआ एकलव्य के साथ। तुम्हें अगर दया करनी है तो द्रोण जैसों पर करो, एकलव्य पर नहीं।

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