एकाग्रता का मुद्दा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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एकाग्रता का मुद्दा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एकाग्रता क्यों नहीं बनती?

आचार्य प्रशांत: कितने लोग यहाँ बैठे हो जो एकाग्र होना चाहते हो, पर पाते हो कि हो नहीं पाते? जिन मौकों पर एकाग्रता की ख़ासतौर पर ज़रूरत पड़ती है, उन्हीं मौक़ों पर वो आती नहीं, ऐसा कितने लोगों के साथ होता है?

(कुछ श्रोतागण हाथ उठाते हैं)

ठीक। मेरे लिए बड़ा आसान है कि मैं तुमको छोटी-सी दवाई थमा दूँ कि ऐसे कर लो तो हो जाएगा। और बाज़ार में ऐसी दवाईंयाँ बहुत हैं; ‘कैसे पाएँ एकाग्रता को?’, बहुत घूम रहा है ये सब कुछ।

मैं ज़रा कहीं और से शुरू करता हूँ। मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि तुम कभी भी, किस वस्तु पर एकाग्र हो पाओगे?

मन है न जो एकाग्र होता है? एकाग्र होने का अर्थ है कि मन कहीं पर जा कर के बैठ गया है, और वहाँ से हिल नहीं रहा है। यही है न एकाग्रता?

मन किस पर एकाग्र होना चाहेगा?

प्र: जो उसको अच्छा लगेगा।

आचार्य: बहुत बढ़िया। जो उसको अच्छा लगेगा, या फिर…? दो ही स्थितियाँ हैं जहाँ मन को बड़ी गहरी एकाग्रता मिलेगी। पहली, जहाँ पर मन…?

प्र: ख़ुश रहे।

आचार्य: जहाँ मन ख़ुशी पाएगा। और दूसरी, जहाँ पर मन गहरा दुःख पाएगा। जहाँ गहरी ख़ुशी है, वहाँ भी तुम एकाग्र हो जाओगे। और जहाँ गहरा दर्द है, वहाँ भी तुम एकाग्र हो जाओगे। तुम्हारे दाँत में दर्द हो रहा हो, ज़बरदस्त दर्द, तुम्हारी पूरी चेतना कहाँ केन्द्रित हो जाएगी शरीर में?

प्र: दाँत में।

आचार्य: तुम्हारे पूरे शरीर में कुछ बचेगा ही नहीं दाँत के अलावा। लगातार बस उस दाँत का अहसास रहेगा। यहाँ शीशे से बाहर यदि कोई बहुत ख़ूबसूरत चीज़ निकल जाए, तो तुम एकाग्रता से उसे देखोगे। या अगर कोई गहरा, हिंसक, डरावना पशु निकल जाए, तो भी उतने ही ध्यान से देखोगे।

ख़ुशी या दर्द, मात्र इन्हीं दोनों पर मन आकर्षित होता है, और उसी गहरे आकर्षण का नाम है—एकाग्रता।

मैं किधर को आकर्षित हो रहा हूँ, ये इसी पर तो निर्भर करता है कि मैं हूँ कौन।

घास रखी है और माँस रखा है, और घोड़ा है और शेर है। कौन किधर को कॉन्सेंट्रेट करेगा? घोड़ा कॉन्सेंट्रेट करेगा घास पर, और शेर कॉन्सेंट्रेट करेगा माँस पर।

जिसका जैसा मन, उसकी वैसी एकाग्रता।

तुम बाज़ार के लिए निकलते हो, और तुम भूखे हो, तो तुम्हें और कुछ दिखाई नहीं देगा, पर खाने-पीने की दुकान ज़रूर दिखाई दे जाएगी।

तुम ध्यान देना कि तुम कार ख़रीदने जा रहे हो या मोटरसाइकिल ख़रीदने जा रहे हो, तुम्हें कार का सिर्फ़ वही मॉडल चारों ओर दिखाई देता है। वो जहाँ भी होता है, तुम्हें दिखाई दे जाता है, क्योंकि तुम्हारे मन पर वही छाया हुआ है।

इस कमरे में मक्खी आ जाए, तो उसको इस कमरे में सिर्फ़ वही जगह दिखाई देंगी, जो गन्दी हैं। मक्खी वहीं एकाग्र हो जाएगी।

जैसा तुम्हारा मन है, जैसी तुम्हारी कन्डिशनिंग है, तुम उधर ही कॉन्सेंट्रेट करने लग जाओगे। तुम कामुक प्रवृत्ति के हो, मैं यहाँ पर एक बहुत बड़ा चित्र लगा दूँ जिसमें दुनिया भर की चीज़ें हों, और बड़े-बड़े महाज्ञान की बातें लिखी हों, और वहाँ कहीं बीच में एक छोटा-सा हिस्सा किसी नग्न शरीर का भी हो, तुम एकाग्र होकर मात्र उस अंश की तरफ़ देखोगे।

देखोगे या नहीं?

जैसी वृत्ति, वैसी एकाग्रता। तुम्हारा जैसा मन है, तुम्हारी एकाग्रता ठीक वैसी होगी।

मानते हो या नहीं? स्पष्ट हो गई बात? तो तुम पूछ रहे हो, “एकाग्र कैसे हों?” मैं कह रहा हूँ, हुआ ही नहीं जा सकता। जो तुम हो, ऐसा रहते हुए तुम्हारी एकाग्रता का केन्द्र, तुम्हारी एकाग्रता का विषय, उसकी वस्तु बदल नहीं सकती।

ये वैसा ही है कि जैसे घोड़ा पूछे कि, “मैं माँस पर कैसे एकाग्र हो जाऊँ?”, हो ही नहीं सकता। जब तक तुम घोड़े हो, तब तक तुम्हारी नज़र घास पर ही रहेगी। तो तुम्हारे लिए असम्भव है, बात ख़त्म हो गई।

तुम जो हो, वो रहते हुए तुम्हारी इच्छा ही यही है कि, “हम जैसे हैं हम तो यही रहें, लेकिन उसके बाद भी कॉन्सेंट्रेट कर लें।” यही चाहते हो न?

तुम कहते हो कि, “हमें बदलना ना पड़े, पर हमारे जीवन में एकाग्रता की ताक़त आ जाए, हम एकाग्र कर लें, ताकि हमारे हितों की पूर्ति हो सके।”

तुम कहते हो कि, “मैं वैसा ही रहूँ जैसा हूँ, पर जब परीक्षा का समय आए, तो मैं किताब पर एकाग्र हो जाऊँ।” और मैं कह रहा हूँ कि तुम असम्भव की माँग कर रहे हो, ऐसा हो नहीं सकता।

तुमने जैसा जीवन बिताया है, तुम्हारी एकाग्रता ठीक वैसी होगी। तुम्हें एकाग्रता चाहिए, तुम अपनी एकाग्रता की वस्तु बदलना चाहते हो, तो तुम्हें जीवन बदलना पड़ेगा। लम्बी बात है।

यही कारण है कि हज़ारों-लाखों ने कोशिश कर ली एकाग्र होने की, और हज़ारों-लाखों ने मंत्र दे दिए एकाग्रता के, पर वो कभी काम नहीं आए, कभी किसी के काम नहीं आए, क्योंकि मन पर किसी का ज़ोर चलता नहीं। मन के आगे हर मंत्र हारा हुआ है। जीवन बदलना पड़ेगा।

तुम्हें किताब पर एकाग्र होना है, तुम्हें सीखना पड़ेगा कि किताब से प्रेम कैसे करते हैं। तुम्हें जानना पड़ेगा कि किताब से प्रेम का भी सम्बन्ध हो सकता है, मात्र शोषण का ही नहीं कि जब परीक्षा आई तो किताब खोल ली, और अब चाह रहे हैं कि एकाग्र हो जाएँ। नहीं हो पाएगा! तुम कर लो लाख कोशिश, हारोगे।

तुम्हें उस किताब के प्रति प्रेमपूर्ण होना पड़ेगा, तुम्हें उससे एक रिश्ता बनाना पड़ेगा, और फिर तुम पाओगे कि तुम्हें एकाग्रता की ज़रूरत ही नहीं है। और जब तक ज़रूरत है एकाग्रता की, वो मिलेगी नहीं। तुम चला लो हाथ-पाँव, कर लो लाख कोशिशें।

अपनी वृत्तियों को देखो, उनको समझो। उनको समझने में ही उनसे मुक्त हो जाओगे।

तुम पाओगे कि जो बातें आकर्षक लगती थीं, जिन पर बड़े एकाग्र होकर घुस जाते थे, वो आकर्षक ही नहीं लगतीं। कुछ नया है जो अब जीवन में आ रहा है, और उसकी ओर जाने का मन करता है। एकाग्रता आ रही है, पर उस एकाग्रता का विषय बदल रहा है।

पहले एक प्रकार की किताबें थीं जिन पर बड़े एकाग्र हो जाया करते थे, एक प्रकार के टी.वी. शोज़ थे जिनको बड़ा एकचित्त होकर देखते थे। और अब वही टी.वी. है, पर उस टी.वी. में ही अब कुछ और है जिसको मैं बड़े ध्यान से देखता हूँ। जो पुराना था, सड़ा-गला था, जो पहले बड़ा आकर्षक लगता था, अब उसकी ओर मन जाता ही नहीं।

कबीर साहिब ने कहा है –

पहले ये मन काग था करता आतम घात,

अब तो मन हंसा भया, मोती चुन चुन खात

पहले मन कौए जैसा था। और कौए की सारी एकाग्रता किसमें रहती है? विष्ठा में, मल में, गन्दगी में। जब तक तुम कौए हो, तो तुम्हारी एकाग्रता का विषय वही रहेगा।

कबीर साहिब कह रहे हैं कि पहले मन कागा था, कौआ था, और आत्मघात करता था। वो जो करता था, वो आत्मघात जैसा था, आत्महत्या जैसा था। अपना ही नुकसान करता था। “अब तो मन हंसा भया”—अब मन हंसा जैसा हो गया है, लाख चारों तरफ़ विष्ठा पड़ी रहे, गंदगी पड़ी रहे, वो गन्दगी उसको आकर्षित ही नहीं करती। वो तो मोती खाता है बस अब। तुम उसके सामने लाख गन्दगी रख दो, वो छूएगा ही नहीं।

ऐसे हो जाओ, मन को ऐसा कर लो, मन की वृत्तियों का ऐसा शोधन कर लो कि वो गन्दगी की तरफ़ आकर्षित ही ना हों। तुम्हारे आसपास चलता रहे ये सारा प्रपंच, पर तुम्हें वो गन्दा ही ना कर पाए, छू ही ना पाए। जैसे कि तुम कोयले की खान में हो, पर फिर भी काले नहीं हो रहे; जैसे तुम कीचड़ में हो, और तब भी तुम्हें कीचड़ छू नहीं जा रहा। ऐसे हो जाओ।

फिर नहीं पूछोगे कि, “एकाग्र कैसे होएँ?”

पर उसके लिए पूरा जीवन बदलना पड़ेगा। शॉर्टकट नहीं है, सस्ते उपाय नहीं मिल पाएँगे। तुम उसके तरीक़े पूछोगे कि, “ऐसा कैसे हो जाएँ?” तरीक़े मैं तुम्हें कई बार कह चुका हूँ, फिर से कह देता हूँ।

तुम देखो कि तुम क्या पढ़ते हो। अभी इंटरनेट की हमने बात की, तुम देखो कि इंटरनेट पर भी क्या देखते हो। इंटरनेट तो विशाल भण्डार है, उस पर तुम्हें ऐसा भी कुछ मिल जाएगा जो तुम्हारे मन को पूरी तरह सुलझा दे, और ऐसा भी बहुत कुछ मिल जाएगा जो मन को और गन्दगी में डुबो दे।

तुम कर क्या रहे हो? ईमानदारी से अपने आप से सवाल करो कि, “ये मैं क्या अपना ही नाश नहीं कर रहा, आत्मघात?” तुम देखो कि तुम किन लोगों की संगति में हो। वो विष्ठा जैसे हैं, या मोती जैसे? वो तुम्हारे मन को साफ़ करने में मदद करते हैं, या मन को और कचरा कर जाते हैं?

अर्जुन और कृष्ण भी दोस्त ही थे आपस में, पर वो ऐसा दोस्त था जिसने गीता का पाठ दे दिया। और तुम्हारे दोस्त कैसे हैं कि गीता पढ़ भी रहे हो, तो कहेंगे, “पागल, चल दारु पीकर आते हैं।” तो तुम देखो तुमने जीवन में क्या भर रखा है, और उसकी सफ़ाई करो। जो उसमें मोती जैसा है, उसको गले से लगा लो; और जो उसमें कचरे समान है, उसको तुरन्त बाहर कर दो।

बदल जाएगा जीवन। ये अड़चन ही नहीं आया करेगी कि अब ध्यान लगाना है, और ध्यान लग नहीं रहा। एकाग्रता वगैरह सब अपने आप हो जाएगी। और आसान है! तुम्हें किसी और से पूछना नहीं है, अपनी ही ज़िन्दगी को देखना है कि, "मैं सुबह से शाम तक करता क्या हूँ?" बिलकुल ईमानदारी से देखना है, और निडर होकर देखना है। बस और कुछ ख़ास नहीं करना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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