एक प्यार ऐसा, जो हारने नहीं देगा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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एक प्यार ऐसा, जो हारने नहीं देगा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं हमेशा आपको आदर्श की तरह देखता हूँ, आपको सुनने के बाद कुछ-कुछ मेरे अन्दर बदलाव आये, मैं विगनिज़्म की तरफ़ आया और मेरी ज़िन्दगी में किस काम को लेकर आगे बढ़ना है इन सब चीज़ों से सम्बन्धित बदलाव आये। हमारे माँ-बाप के साथ मेरी इसपर चर्चा भी होती है और अभी फिलहाल ऐसा भी हुआ कि वो रो दिये। तो ये देखकर मुझे बहुत बुरा भी लगा कि मैं कुछ करने भी जा रहा हूँ तो ऐसे बीच में फँसा हुआ हूँ। हमको बचपन से सिखाया जाता है कि माँ-बाप की सेवा करनी चाहिए। आपने कहा कि उनको एक सही दिशा दो और तो इसके लिए मैंने कोशिश भी करी। मैं आपके कुछ कोर्सेस भी उनको गिफ्ट करता हूँ। लेकिन फिर उसके बाद भी ये सब चीज़ें होती हैं इसे हम एक व्यक्ति के तौर पर कैसे देखें और कैसे इसपर विजय हासिल करें?

आचार्य जी, अभी आपने बोला कि अगर हमको अन्दर से लाज नहीं आती या फिर वो अपमान महसूस ही नहीं होता तो हम कैसे आन्तरिक प्रगति करेंगे। ऐसा होता है कि हम कुछ गलत कर रहे होते हैं कोई हमको आकर टोकता है कि तुम गलत कर रहे हो तो उस समय हमको महसूस होता है लेकिन फिर उसके बाद कभी मोबाइल में लग गये, किसी काम में लग गये तो वो लाज लम्बे समय तक नहीं रह पाती है तो हम आगे भी उसमें सुधार कर नहीं पाते हैं। तो कैसे हमेशा याद रखें ताकि हमारी प्रगति में सहायक हो?

आचार्य प्रशांत: ये तो सवाल देखो जो पहला हिस्सा था कि माता-पिता घरवालों से सम्बन्धित वहाँ पर जो तनाव है और घर्षण है उसे तो झेलना पड़ेगा और वो लम्बे समय तक चलता है। संस्था की बात कर रहे हो या लोगों की, संस्था के लोगों की तो इनमें से कोई ऐसा नहीं है जिसने वो तनाव न झेला हो या अभी भी न झेल रहा हो किसी के यहाँ थोड़ा कम है, किसी के यहांँ थोड़ा ज़्यादा है।

उसमें ये उम्मीद करना कि कोई ऐसा अलौकिक दिन आएगा जिस दिन सब घर वाले सबकुछ समझ चुके होंगे — ये नादानी होगी। ख़ुद को ही पूरी तरह बात समझ में नहीं आती है, दूसरे पूरी तरह कैसे समझ जाएंँगे किसी दिन? तो ये तनाव बना रहेगा इसी तनाव के साथ-साथ चलना होगा। इसके साथ जीना सीख लो।

दूसरी बात जो बोली कि लाज आती है लेकिन थोड़ी देर में भूल जाती है। सबको भूल जाती है। कोशिश करो कि थोड़ा कम भूला करें। कुछ और है नहीं, कोई जादुई इलाज नहीं होता, बाबाजी की बूटी डज़ंट एग्ज़िस्ट (विद्यमान नहीं है)। (श्रोतागण हँसते हैं)

यहाँ अगर इतना सही होता न कि एक रात की बात है अंगारों पर से गुज़रना है, गुज़र लिये तो आज़ादी मिल जाएगी तो बहुत आसान होता एक बार गुज़र लेते अंगारों पर भी, जितना जलना होता जल लेते लेकिन आख़िरी होती न बात उसके बाद कुछ नहीं। नहीं, यहाँ तो लगातार सीखना होता है दिनभर, रात भर सीखना होता है और उसके बाद धीरे-धीरे परिणाम पता चलने लगते हैं एक लम्बी यात्रा के लिए जो तैयार हो, जिसमें इतना प्रेम हो और संयम उसी के लिए है कोई ऊँची चीज़। आप एक बहुत लम्बी यात्रा के लिए तैयार नहीं हैं तो कुछ बदलने नहीं वाला।

देखिए अभी संस्था के कम-से-कम चार-पाँच लोगों के अभिभावक यहाँ मौजूद हैं, ऐसा हमेशा नहीं था, बहुत समय लगता है धीरे-धीरे समझते हैं लोग आपको उतना सब्र रखना पड़ेगा, आपमें उतनी ताकत होनी चाहिए कि उतने समय तक जूझ लें। और अभी भी ऐसा नहीं है कि जो लोग आ गये हैं वो सब सब समझ ही गये हैं। पर ठीक है, धीरे-धीरे हो रहा है।

कोई भी अच्छा ऊँचा काम रातों-रात नहीं हो जाता। तो जादू की, कोई फिक्स सॉल्यूशंस (निश्चित समाधान) की उम्मीद मत करो और दिन-महीने तो गिनो मत कि अब तो आचार्य जी, चौदह महीने हो गये। मेरे ही कितने काम हैं जो चौदह साल में नहीं पूरे हो रहे, अब मैं बहुत चाहता हूँ कि हो जाएँ, नहीं हो रहे।

ये तभी हो पाता है इतना संयम जब आप निर्विकल्प हो जाओ, जब आप कहो कि धीरज धरने के अलावा विकल्प क्या है ये रास्ता छोड़ तो सकते नहीं तो इस रास्ते पर जितना भी वक्त लग रहा हो अब लगे क्या करें भाई, लम्बा समय लग रहा हो तो लगे दूसरा कोई रास्ता है नहीं। दूसरे रास्ते बन्द कर दो, ठोस कलेजा चाहिए, दूसरे रास्ते बन्द कर देना है और सही रास्ते पर समय गिनना बन्द कर देना है। अब तो कोर्स किये हुए अठ्ठारह दिन हो गये, पिताजी निर्वाणपद को प्राप्त हो ही गये होंगे (श्रोतागण हँसते हैं)। नहीं बाबा, ऐसे नहीं। करते चलो, करते चलो। परिणाम कभी प्रतीत होने लगे तो उपकार मानो, कहो कि ये अतिरिक्त कुछ मिल गया इसकी तो उम्मीद भी नहीं थी ये एक्स्ट्रा (अतिरिक्त) मिल गया।

अच्छा परिणाम हमेशा क्या मानना है? बोनस है। वो नहीं मिले तो कोई तकलीफ़ नहीं, मिल गया तो एहसान की बात है, ‘आपने दे दिया, हमें तो उम्मीद ही नहीं थी कि कुछ अंजाम भी मिल जाएगा।’

लगे रहना पड़ता है अपने साथ भी जिनका भला चाहते हो उनके साथ भी। और अगर पूरी दुनिया का भला चाहते हो तो पूरी दुनिया के साथ संयम, संघर्ष दोनों चाहिए। क्या तो है — “हारोगे तुम बार-बार, बस कोई हार आख़िरी न हो।”

ये सान्त्वना तो मैं आपको दे ही नहीं सकता कि दो-चार बार हारोगे फिर जीत जाओगे ये जीत शब्द मेरे शब्दकोश का नहीं है ये मोटिवेशन वालों का है कि जीत तुम्हारी है। मैं तो बता रहा हूँ, अग्रिम सूचना है — हारोगे बार-बार, बस इतना और बताये देता हूँ कि आत्मा, सच्चाई वो जो आख़िरी चीज़ है, उसका आकर्षण उसकी कशिश बहुत गहरी होती है।

तो तुम जितनी भी बार गिरोगे, उसकी खातिर तुम्हें उठ खड़े होना पड़ेगा, चीज़ ऐसी है। चीज़ वही है जिसकी खातिर लोग हाथ-पाँव कट जाने पर भी लड़ते रहते थे। कुछ बचा न हो तो भी लड़ते रहेंगे,

"पुरजा-पुरजा कट मरे तबहूँ न छाड़े खेत"

खेत माने रणक्षेत्र, खेत नहीं। कुछ तो ऐसा होगा न “पुरजा-पुरजा कट मरे” — हाथ कट रहा है, पाँव कट रहा है, अहंकार कट रहा है, पुराना जीवन ही कट रहा है।

लेकिन तो भी, सही रास्ता पकड़ लिया है उसको छोड़ने का जी नहीं कर रहा निर्विकल्प हो गये। आपमें से जो लोग हीरे-मोतियों की उम्मीद में यहाँ आये होंगे उन्हें निराश लौटना पड़ेगा। नहीं, मैं पत्थर के हीरे-मोती की बात नहीं कर रहा हूँ। आप अगर किसी अन्दरूनी हीरे-मोती की तलाश में भी आये हैं, आध्यात्मिक रत्न इत्यादि तो भी आपको नहीं मिलेंगे।

मैं तो आपको बस कटने का आमन्त्रण दे सकता हूँ और ये बता सकता हूँ कि झेल जाओगे, बहुत बुरा लगेगा, बहुत दर्द है, बहुत बार टूटोगे, गिरोगे, झल्लाओगे राह से हटने की भी सोचोगे लेकिन अगर टिके रह गये तो एक अलग मज़ा आएगा। टिके रह सकते हो बहुत ताकत है आत्मा में। माया शक्तिशाली होगी, आत्मा सर्वशक्तिमान है। माया तुम्हें खींचती है, आत्मा भी तो खींचती है। झूठ खींचता है, सच्चाई भी तो खींचती है। सच्चाई का खिंचाव नित्य है, अनन्त है। तुम उसको कितना भी ठुकरा लो वो पीछा नहीं छोड़ता।

वो तुमको कहे, ‘सुनो न आओ तो।’ पीछा माया भी नहीं छोड़ती। पर इनमें से जीत एक की ही होनी है तुम बस अपनी हार मत होने देना। जिसकी जीत होनी है वो सदा से जीती हुई है आपको उसे जिताने की ज़रूरत नहीं, आप बस अपनी हार मत होने दीजिएगा। और हारें होंगी बहुत सारी तो क्या करना है? कहना है, ‘चलो एक और हार के लिए तैयार।’ पिट-पिटकर उठता है। पिट-पिटकर उठता है। आप नॉक आउट मत होइएगा। बस पिटते जाओ, उठते जाओ। पोस्टर बनाओ भाई, ये मज़ा आया मुझे — ‘पिटते जाओ, उठते जाओ’। न पिटने वाली कोई बात नहीं।

ये होती है चीज़ अलौकिक, ये होती है चीज़ अचिन्त्य क्योंकि व्यवस्था तो हमारी ऐसी है कि चार-पाँच बार पीटे फिर ढेर हो जाएंँ। इसको बोलते हैं परमात्मा। ‘ये उठ कैसे गया! इतना तो पिटा, फिर उठ कैसे गया! ये है, ये है अध्यात्म। ये उठ कैसे जाता है बार-बार? जला ही दिया, राख करके आये थे। क्योंकि पहले दफ़न करा था, बाहर आया हमें लगा क्या पता जगकर ज़ोर-वोर लगा दिया हो, तो इस बार तो राख कर दिया, जला दिया। फिर उठ गया!

पश्चिम में इससे जुड़े हुए दो प्रतीक हैं। एक — फिनिक्स और एक — मिथ ऑफ़ सिसिफस पिटते जाओ, उठते जाओ। फिनिक्स क्या करता है? राख से उठ गया फिर से, उड़ गया। और सिसिफस क्या करता है? (श्रोतागण उत्तर देते हैं) और पत्थर को पहाड़ पर चढ़ता है और पत्थर लुढ़क जाता है। फिर क्या करता है सिसिफस? फिर से चढ़ता है। यही करना है — जल जाओ, राख हो जाओ, फिर खड़े हो जाओ।

जो तुमने मेहनत करी उसको अपने सामने बर्बाद होते देखो तुम फिर शुरू हो जाओ, ‘हम फिर खड़ा करेंगे, फिर मेहनत करेंगे।’ क्योंकि आप जो कुछ भी करेंगे उसे तोड़ने वाले बहुत मौजूद हैं आपका किया धरा सब तोड़ देंगे, आप मत टूटिएगा आप फिर बनाइएगा। आपकी जीत इसमें नहीं है कि एक दिन आप जो बनाएँ वो आख़िरी हो जाएगा। आपकी जीत इसमें है कि आप बनाते जाएंँ, भले ही वो कितना भी टूटे। न हारना ही जीत है। ये खेल ऐसा है। बस हारिएगा नहीं।

प्र २: मेरा प्रश्न ये है कि यदि गुलामी दिख जाए तो क्रान्ति हो जाएगी तो गुलामी कैसे दिखे?

आचार्य: दिनभर जो कर रहे हो उसी को ध्यान से करो, चलते हो तो राह देखते हो न? तो गड्ढा दिख जाता है। ठीक वैसे ही सुबह से शाम तक जो कर रहे हो उसको देखो तो गुलामी दिख जाएगी। बस आँखें बन्द करके नहीं चलना है। दिन भर जो तुम्हारे साथ हो रहा है उसी में बन्धन है और उसी को जानना मुक्ति का रास्ता भी है।

वहाँ अगर नहीं बात पता चल रही है तो कहीं और नहीं पता चलेगी, कोई किताब बहुत बताती रहे आपको कि सच्चाई ज़रूरी है, आनन्द ज़रूरी है, मुक्ति ज़रूरी है पर आपको अपनी ज़िन्दगी में बन्धन दिख ही नहीं रहा है तो किताब आपके काम नहीं आएगी।

तो अपनी ज़िन्दगी को साफ़-साफ़ देखना बहुत ज़रूरी है, मैं कुछ कह रहा हूँ, मैं किस नीयत से कह रहा हूँ, पूछो तो। मैं कुछ बोल रहा हूँ, मैं क्या बनकर बोल रहा हूँ, मैं किसी चीज़ का विरोध कर रहा हूँ वो चीज़ क्या है मैं उसके विरोध में क्यों खड़ा हो गया, मैं किसी चीज़ के समर्थन में कुछ बोल गया, ‘मैं क्या बनकर बोल गया?’ और अपनी पहचान याद रखो। क्या पहचान है? चेतना हो तुम। अभी जो तुमने कहा क्या चेतना होकर कहा? जो तुम्हें अच्छा लग रहा है, जो तुम्हें बुरा लग रहा है वो चेतना होकर लग रहा है? ये देखते रहो न और चेतना होना कोई बाहरी थोपी हुई कृत्रिम बात नहीं है वो तुम हो, मेरे कहने से नहीं हो गये, वो तुम हो ही।

उससे पूछो तो लग कैसा रहा है? हाल-चाल लिया करो, अन्दर के मौसम की जानकारी लेते रहा करो। बाहर जितना ज़्यादा चीज़ें आकर्षक हो जाती हैं न भीतर की ओर देखने की आदत उतनी ज़्यादा छूटती जाती है, कुछ पता ही नहीं लगता कि भीतर चल क्या रहा है। क्योंकि लगातार व्यस्त हैं — यहाँ क्या हो रहा है, वहाँ क्या हो रहा है, यहाँ क्या मिला, वहाँ क्या खोया?

भूलो नहीं कि बाहर जो कुछ भी है तुम्हारे लिए है, तुम्हारे लिए नहीं है तो उसकी कीमत क्या है। तुम बाजार से गुज़र रहे हो क्यों प्रभावित हो जाते हो चकाचौंध से? वो होगी बहुत बड़ी चीज़ उसमें तुम्हारे लिए क्या है? कोई बहुत बड़ा होटल है, बहुत बड़ा फाइव स्टार होटल है। उसके आगे पचासों इम्पोर्टेड (आयातित) गाड़ियों की लाइन लगी हुई है। तुम पूछो, ‘इसमें मेरे लिए क्या है? और अगर नहीं है तो मैं सिर क्यों झुकाऊँ? मैं क्यों प्रभावित हो जाऊँ? मैं क्यों छोटा अनुभव करूँ? ये कौन होते हैं मुझे इम्प्रेस (प्रभावित) करने वाले? मुझे क्या दिया है तुमने जो मुझ पर चढ़ रहे हो?’

तो अपना स्मरण सदा रखो, ‘इसमें मेरे लिए क्या है? मैं कौन हूँ? इससे मुझे क्या मिल गया? दुनिया ये जतलाने में तुली रहती है कि बाहर जो है बस है। नहीं, ऐसा नहीं है, बाहर जो है वो हमारे लिए है। तो सबकुछ अपने सन्दर्भ में देखा करो क्योंकि वो तुम्हारे सन्दर्भ में ही है। इसका मुझ पर असर क्या हो रहा है? इससे मुझे मिल क्या रहा है? इससे मैं खो क्या रहा हूँ? ये मुझे किस तरफ़ को धकेल रहा है?’ सुमिरन इसी को कहते हैं।

सदा याद रखो। क्या याद रखो? आसमान पर कोई परमात्मा नहीं जिसको तुम याद रख सको। सुमिरन का मतलब ही यही है, अपनी हालत को याद रखो। शुद्धता की अपनी चाहत को याद रखो, ‘मैं गन्दा हूँ, मुझे शुद्ध होना है। मेरे सामने जो चीज़ है वो मुझे साफ़ करेगी या और गन्दा? वो चीज़ जैसी भी होगी, मैं नहीं जानता, मुझ पर क्या असर हुआ उसका?’

और जो कुछ भी तुम्हें गन्दा करता हो, ‘ना बाबा, ना।’ अभ्यास लगता है। बार-बार फिसलोगे, गिरोगे, अभ्यास करते रहो। अभी आधे घंटे का बीच में ब्रेक हुआ था, उसमें देखा लोगों ने कितनी बातचीत कर ली आपस में! पूछे ही नहीं एक-दूसरे से कि मैं कौन हूँ, मुझे क्या चाहिए, मैं ये बात कर क्यों रहा हूँ।

कम ही लोग होंगे जिनके लिए ये तीन हिस्से एक समान बीते — सत्र का पूर्वार्ध, मध्यान्तर, उत्तरार्ध। न। पहला और तीसरा हिस्सा एक सा है, बीच में हमारी रंगीन दुनिया — ‘आओ खेलें, खायें, नाचें।’ जैसे बच्चे करते हैं इंटरवल में, स्कूल में।

अभी फिर से अब आप बाहर जाएंँगे, यहाँ आपकी एक स्थिति थी अपनी स्थिति को क्यों खो देना चाहते हैं? और ऐसा नहीं कि उस स्थिति को आप यथावत् नहीं रख सकते, वो स्थिति आपको अच्छी लगती है इसीलिए आप इतना श्रम करके, पैसे खर्च करके यहाँ पर आये हैं। आपमें से बहुत लोगों के लिए बहुत आसान नहीं रहा होगा यहाँ आना, पर आप आये किसी भी तरीके से। भूलो नहीं न कि तुम्हें क्या चाहिए और भूलो नहीं कि तुम कहाँ खड़े हो।

दोनों बातें याद रखो — ‘मैं कहाँ खड़ा हूँ, मुझे जाना कहाँ है?’ ‘कहाँ खड़ा हूँ? कहाँ जाना है?’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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