एक ही गलती कितनी बार करनी है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

9 min
321 reads
एक ही गलती कितनी बार करनी है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता : नमस्ते आचार्य जी, मेरा नाम शिखर है। कल आपने अपना एक कॉर्पोरेट (निगम) का थोड़ा सा अनुभव बताया था कि आप जेंटल इलैक्ट्रिक में काम करते थे, तो वहाँ पर आपने पूछा कि अच्छा, आपके ऊपर कितने लोग काम करते थे, तो किसी को कोई मतलब नहीं था। तो मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ अनुभव था कि मैं एक कंसल्टिंग (परामर्श )में काम करता था और वहाँ पर एक जैसे आपने प्यादे का उदाहरण दिया कि रख दिया गया, वैसे ही वहाँ परभावना आ रही थी कामगार की। तो मैंने वो छोड़कर दूसरा काम उठाया है और मतलब थोड़ा उससे उच्च स्तर का ही है। मगर उससे भी और बेहतर काम मैं कर सकता हूँ, मुझे ऐसा लगता है। तो मेरा यह सवाल है कि अनुभव की कितनी भूमिका होनी चाहिए, वेदान्त को जानने में?

आपने जैसे बोला कि संसार को जानना है। तो अनुभव ही एक तरीक़ा है जानने का? किसी चीज़ को अगर मुझे जानना है तो क्या मैं उसको अनुभव करूँ या फिर दूर से भी किसी चीज़ को समझा जा सकता है? क्योंकि अनुभव करने चला तो बहुत कुछ है करने को तो।

और दूसरा सवाल यह है कि मैं देखता हूँ कि जैसे आपने आज सुबह भी बोला कि हम लोग इस्तेमाल कर रहे हैं आपको, एक हिसाब से। तो मैंने देखा कि मेरा जीने का माध्यम ही उपभोग है। मतलब मैं अगर अभी देख भी रहा हूँ तो उपभोग कर रहा हूँ, सुन भी रहा हूँ तो भी उपभोग कर रहा हूँ। कुछ भी कर रहा हूँ, कपड़ा भी पहन रहा हूँ तो उपभोग कर रहा हूँ। तो इसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ नीयत का अन्तर है कि मैं प्रेमभाव से या, क्योंकि उपभोग तो होना है, ये तो है; मतलब, मुझे लग रहा है। तो इसमें सिर्फ़ नीयत का ही अन्तर है या फिर कुछ और भी एक तरीक़ा है जीने का?

आचार्य प्रशांत : क्या, पहली बात क्या बोली थी?

प्र : पहली बात तो ये थी कि अनुभव के बारे में।

आचार्य : अनुभव, ठीक हैं।

कम-से-कम अनुभव में, अधिक से अधिक सीखने की कोशिश करनी चाहिए। और चूँकि हमारे सब अनुभव लगभग एक जैसे ही होते है तो इसलिए बहुत ज़्यादा अनुभवों की ज़रुरत पड़ती नहीं है, सच्चाई जानने को, अगर नीयत साफ़ है, अगर नीयत साफ़ है ।

कोई कहे—‘मुझे हर तरह की शराब का अनुभव करना है।’, नशा तो नशा होता है, जान तो गये कि नशा क्या होता है। अब अगर तुम कहते हो—‘मुझे और अनुभव चाहिए।’ तो तुम अनुभव इसीलिए नहीं ले रहे हो कि तुम्हें मुक्ति मिलेगी। तुम अनुभव इसीलिए ले रहे हो, क्योंकि तुम्हें चस्का लग गया है, ज़ायका लेने लग गये हो। तो अनुभव ज़रुरी भी है, लेकिन अनुभव प्रयोग के लिए, सच्चाई जानने के लिए किया जाना चाहिए। अनुभव इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि अनुभव की लत लग गयी है या आदत बन गयी है।

यही वजह है कि शंकराचार्य हो या विवेकानंद हो या न जाने कितने और ऐसे ज्ञानी हुए हैं, जो बहुत कम उम्र में भी उन बातों को जान गये, जो साधारण आदमी अस्सी साल में नहीं जान पाता। क्योंकि उन्होंने एक बार अनुभव करा और बोले—‘समझ गये, दूसरे अनुभव की अब ज़रूरत नहीं है।’

और साधारण आदमी ऐसा होता है कि जो एक ही गड्ढे में अस्सी बार गिरे और हर बार ये उम्मीद करे कि इस बार नया कुछ हो जाएगा। और पूछे कि काहे को गिरे फिर से, अभी कल ही तो गिरे थे इसी गड्ढे में, अब दोबारा क्यों गिरे? कल इतनी चोट लगी थी, फिर भी आज गिरे? बोले—‘कल वो गड्ढे के ऊपर लाल रंग का कपड़ा था, आज हरे रंग का कपड़ा था; तो हमें लगा कि कुछ नया अनुभव होगा।’, अब ऐसों को कोई जवाब नहीं दिया जा सकता।

जल्दी-जल्दी सीखो न! ज़िंदगी छोटी है, तो जल्दी-जल्दी सीखो। बार-बार क्या वही काम कर रहे हो! ‘अरे! अभी तो अनुभव लेना बाक़ी है।’। इनसे भी आगे के लोग होते हैं, वो बोलते हैं—अनुभव लेना बाक़ी नहीं है। वो कहते हैं—'जब पूर्ण अनुभव हो जाता है, तब मुक्ति मिल जाती है।' कहता हूँ—ग़ज़ब हो गया! ये पूर्ण अनुभव क्या होता है? कब जानोगे कि पूर्ण अनुभव हो गया है? क्योंकि संसार तो अनन्त है, इसमें अनुभव कैसे पूर्ण हो पाएगा कभी भी? ये पूर्ण अनुभव की बात सिर्फ़ और सिर्फ़ अनन्त लालसा का लाइसेन्स (अनुज्ञापत्र) होती है।

कहते हैं कि कामवासना में गहरे उतर जाओ तो वासना से मुक्ति मिल जाती है। ऐसा तुमने कहाँ होते देखा है? एक-से-एक घूम रहे हैं, उनको अस्सी-अस्सी साल का होकर भी मुक्ति नहीं मिलती है। कौन है, जो गहरे उतर गया है तो मुक्ति पा गया है? बताना तो गहरे उतरना चीज़ क्या होती है? “ज़्यादा भोगो, ख़ूब भोगोगे संसार को, एक दिन विरक्त हो जाओगे।”—ऐसा कहीं होते हुए देखा है? एक-से-एक महाभोगी घूम रहे हैं, तुमने कब देखा कि वो संन्यासी हो गये?

तो ये सब बेकार की बात है। ये दुनिया है, एक चीज़ है। अब पैदा तो हो ही गये हो और चारों तरफ़ यही अनुभव होती है सब—दुनिया, संसार, जगत। तो इसको परखो, इसको जानो और बुद्धिमानी इसी में है कि इसको जल्दी-से-जल्दी पहचान लो। चालीस-पचास साल नहीं लगने चाहिए। सोलह-अठारह-बीस-बाईस, जितनी जल्दी हो सके। एकदम साफ़-साफ़ देख लो कि ये फ़साना क्या है? कुल कथा क्या है ये? सब जान लो। एक ही ग़लती सौ बार मत दोहराओ। समझ में आ रही है बात? कहते हैं—“दूध का जला छाँछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।”, तुम पनीर से भी तौबा कर लो, बिलकुल जड़ तक पहुँच जाओ। बोलो—‘बात इसकी भी नहीं है कि दूध गरम था, बात इसकी है कि दूध था।’।

जहाँ एक अनुभव हो जाए, एक चोट लग जाए, उसकी जड़ तक जाओ, ताकि वैसी चोट दुबारा न लगने पाए।

किसी काम में असफलता मिली हो, किसी सम्बन्ध में धोखा मिला हो, ये मत कह दो—किस्मत ख़राब थी। बैठ जाओ और साफ़-साफ़ समझने की कोशिश करो कि हुआ क्या है। बहुत निष्पक्ष तरीक़े से, अपनेआप को दूर से देखकर थोड़ा, डीटैचमेन्ट (अलगाव) के साथ—'क्या हुआ है?'। अगर समझ जाओगे ‘क्या हुआ है’ तो दोबारा असफलता नहीं मिलेगी, दोबारा ठोकर नहीं खाओगे। नहीं समझोगे, तो सज़ा ये मिलेगी कि उसी गड्ढे में पाँच बार गिरोगे। समझ में आ रही है बात?

तो आदमी की असली चतुराई इसमें है कि कम-से-कम अनुभवों के साथ, कम-से-कम प्रयोगों के साथ जल्दी-से-जल्दी सीख ले। जीवन का उद्देश्य ही यही है, जल्दी सीख लो। मैं भी कह सकता था कि सीख लो, पर सिर्फ़ सीख लो कैसे बोल दूँ, जब तुम्हारे पास सिर्फ़ साठ साल या अस्सी साल हैं? तो ‘जल्दी’ शब्द मुझे जोड़ना पड़ता है। जल्दी सीख लो। आ रही है बात समझ में?

और हाँ! चूँकि हमारे जो मूल दुश्मन हैं, वो बहुत भिन्न-भिन्न तरीक़े के नहीं होते; वो क्या होते हैं? ये ही तो—भय, काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ। तो इसीलिए हम ग़लतियाँ भी बहुत विभिन्न प्रकार की नहीं करते हैं। सब ग़लतियाँ कुल मिलाकर के इन्हीं दो-चार तरीक़ों की होती हैं—कहीं पर लालच आ गया था, कहीं मोह बैठ गया था, कहीं पर डर गये थे; यही सब। तो एक ऐसी ग़लती, जो इस कारण हुई क्योंकि डर गये थे। एक ऐसी ग़लती तुमको मुक्ति दिला सकती है, आने वाली उन सब ग़लतियों से, जो सम्भावित रूप में हो सकती थीं, डर के कारण।

आप जीवन भर जितनी ग़लतियाँ करते हैं, वो सब इन चार-पाँच बक्सों में रखी जा सकती हैं। डर वाली ग़लतियाँ, लोभ वाली ग़लतियाँ, मोह वाली ग़लतियाँ, काम वाली ग़लतियाँ इत्यादि।

ठीक हैं?

एक बक्से में एक ग़लती होनी चाहिए बस। एक बक्से में एक ग़लती होनी चाहिए, दूसरी की नौबत नहीं आनी चाहिए। दूसरी अगर हो गयी है तो?—तीसरी की नौबत नहीं आनी चाहिए। कुछ सीख तो लिया। लालच तो लालच है। पहले एक चीज़ का लालच था, अब दूसरी चीज़ का लालच है। लालच का विषय बदल गया है, पर लालच तो लालच है। लालच से पहले भी मैंने दुःख पाया, अब क्या दुबारा दुःख पाऊँ? नहीं पाना। तो लालच वाला बक्सा हमेशा के लिए बंद, सिल कर दो। अब लालच वाली ग़लती जिंदगी में दोबारा नहीं करेंगे। एक बार कर ली, दुःख पा लिया बहुत है।

समझ में आ रही है बात? तो अनुभव तो लेना पड़ेगा, लेकिन अनुभव लेने का ये नहीं मतलब है कि अनुभव की दलदल में धँसते ही चले गये। अनुभव लेना भी ज़रुरी है, लेकिन कम-से-कम अनुभव में काम चला लो। और क्या बोला था? (पूछते हुए) मोड ऑफ़ लिविंग—कन्ज़म्पशन (जीवन-यापन का माध्यम—उपभोग)।

तो ठीक है, करो कॉन्ज़्यूम (उपभोग), पर ऐसी चीज़ को कॉन्ज़्यूम करो फिर, जो कन्ज़म्प्शन (उपभोग) की तुम्हारी वृत्ति को ही कम कर दे।

तुम कह रहे थे कि मुझे भी भोग ही रहे हो, तो ठीक है, मुझे ही भोग लो। भोग लो। मैं भोगने की तुम्हारी इच्छा को ही कम कर दूँगा। समझ में आ रही है बात?

जैसे, किसी ने बहुत खा लिया हो और सब फँस गया हो खाया हुआ, पेट फूलकर इतना बड़ा हो गया तो उसका इलाज यही है न कि उसको और खिलाओ? यही तो इलाज होता है! क्या खिलाओ और?—एक दवाई।

फिर ये थोड़ी बोलोगे कि ये पहले ही इतना खा रखा है, अगर दवाई ले पाने की जगह होती तो एक लड्डू और न ले लिया होता। (सब हँसते हैं) ये थोड़ी बोलोगे!

तो जब बहुत खा लिया हो तो फिर उसका इलाज ये है कि एक चीज़ अब और खा लो—दवाई। उसी तरह से मुझे भोग लो। ख़ूब भोग रखा हो, उसके बाद मुझे भोग लो। जो कुछ भोग रखा था, वो सब बाहर आ जाएगा। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories