प्रश्नकर्ता: मुझे ग्यारहवीं और बारहवीं में शिक्षकों द्वारा यह दबाव बनाया जाता था कि तुम केवल पाठ्यक्रम का ही पढ़ो पर मैं उन पर ध्यान ना देकर प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारी करता था। मुझे अच्छा कॉलेज भी मिल गया इस कारण। लेकिन अभी कॉलेज में मैं एक्स्ट्रा को-करिकुलर एक्टिविटी (सह-पाठ्यक्रम गतिविधियों) में ज़्यादा ध्यान देता हूँ। खेल-कूद और अन्य प्रतियोगिताओं में भाग लेता हूँ। ये सब मैं इसलिए करता हूँ ताकि मैं अपनी पढ़ाई के कमजोरियों को छुपा सकूँ। अब इन गतिविधियों में भाग लेने के कारण मैं अपने पढ़ाई में बहुत पिछड़ गया हूँ और नौकरी के लिए तो पढ़ाई ही ज़्यादा ज़रूरी है। इस परेशानी से निजात कैसे पाऊँ?
आचार्य प्रशांत: तुम कैसी नौकरी लोगे, उसमें होगा क्या तुम्हारा। कोई-न-कोई नौकरी तो लग ही जाएगी, सभी की लग जाती है। सदा के लिए बेरोज़गार तो कोई भी नहीं बैठता, हमेशा बेरोज़गार कोई भी नहीं रहता। अब पढ़ाई अगर तुम इसीलिए कर रहे हो कि रोज़गार मिल जाएगा, तो मिल जाएगा। शायद उतना ज़्यादा तुम्हें ऊँचे पैसे वाला ना मिले, जितना तुम चाहते हो, उतने ऊँचे ब्रांड में ना मिले जितना तुम चाहते होगे पर कुछ-न-कुछ मिल ही जाएगा।
ज़्यादातर लोगो की यही कहानी है। यहाँ सबलोग जो बैठे हुए हैं बहुत कम होंगे जिनकी गहन रूचि रही होगी अपनी पढ़ाई के विषय में पर सभी को कुछ-न-कुछ नौकरी मिल ही गई। ज़्यादातर लोग तो अपनी पढ़ाई के विषय में नौकरी कर भी नहीं रहे होंगे। कोई-न-कोई काम-धंधा मिल ही जाता है सबको। अब तुम्हारी जिज्ञासा बस इतनी सी है कि अंततः रोज़गार तो मुझे पढ़ाई से ही मिलना है।
वास्तव में तो तुम्हें पढ़ाई से भी नहीं मिलना है, तुम्हें पढ़ाई से भी कोई मतलब नहीं है तुम्हें अंक-तालिका से मतलब है। तुम अपने सीवी के साथ जो मार्क-शीट दिखाओगे तुम उनको लेकर परेशान हो कि, "मेरा सीवी कितना भरा हुआ, कितना रिच (सम्पन्न) है।"
मुझे नहीं मालूम इसका तुम्हें क्या जवाब दिया जाना चाहिए। कोई गहराई लाओ सवाल में तो मैं कुछ बोलूँ भी। ले लो नौकरी। मैं समझता हूँ कि तुम टीटी खेलना या जो भी करते हो, स्विमिंग करना, एथेलीट करना यह सब बंद कर दो। पर चाहे अथेलेटिक्स रोक दो, चाहे टीटी रोक दो इससे जो हर आदमी के सामने अस्तित्वगत सवाल होता है, एक्सिस्टेंशियल क्वेस्चन उसका तुम्हें जवाब मिल जाएगा क्या?
असल में हो तुम अभी छात्र और जो कैंपस का माहौल होता है उसमें बस यही सवाल संक्रमण की तरह फैला होता है कि, "जॉब लगी कि नहीं लगी? और लगी तो कितने की लगी और कहाँ लगी?" तो तुम उस सवाल से आगे जा ही नहीं पा रहे हो। अगर हो सके तो उस सवाल से आगे जाओ क्योंकि लग तो जाएगी ही। कोई बेरोज़गार बैठा है यहाँ पर? होंगे भी तो एक-आध दो होंगे।
सब काम-धंधा कर ही रहे हैं लेकिन परेशानियाँ फिर भी हैं। काम-धंधा मुझे नहीं पता परेशानियाँ दूर कर रहा है या खुद बहुत बड़ी परेशानी बन जा रहा है। और परेशानी अगर बन जा रहा है तो इसीलिए क्योंकि उसकी तरफ हमारा रवैया ही यही होता है, जहाँ पैसा दिखा चल दिए। मज़ाक है क्या काम? काम का मतलब समझते हो? वह एकमात्र तरीका जिससे तुम उस क़ैद से बाहर निकल सकते हो जिसमें जन्म और जीवन ने तुम्हें फँसा रखा है। काम पैसा कमाने का साधन नहीं होता है। काम ऐसी चीज़ नहीं होती है कि जिधर जगह मिली, रास्ता दिखा उधर ही भग लिए, कि फलाने सेक्टर में आजकल ज़्यादा अवसर हैं चलो जल्दी से वहाँ जॉब ले लो।
काम का मतलब होता है अपनी बेचैनी की अभिव्यक्ति भी, इलाज भी। आदमी अकेला जीव है जो काम करता है, आदमी के अलावा कोई नहीं काम करता। जंगल चले जाओ वहाँ तुम्हें कोई नहीं मिलेगा काम करता हुआ। बस रमण करते हैं, वो बस ज़िंदा हैं, वो बस अपनी प्रकृतिक क्रियाएँ करते हैं। उस प्रकृतिक क्रिया में यह भी शामिल हो सकता है कि दिनभर कूद-फांद करते रहो पेड़ों पर, पर वह काम नहीं है, वर्क नहीं है। या दौड़ा रहें हैं किसी हिरण को कि शिकार करना है अब उसमें बहुत ऊर्जा लगी पर वह भी काम नहीं है, वर्क नहीं है।
आदमी अकेला जीव है जो काम करता है और अगर आदमी अकेला जीव है जो काम करता है तो काम का मनुष्य की मनुष्यता से कोई ज़रूर बहुत गहरा सम्बन्ध है। आप इंसान हो, आपकी इंसानियत के केंद्र में काम बैठा हुआ है, कर्म। इंसान वह जो कर्म करे। जो जीव कर्म करता है वह इंसान कहलाता है। और कर्म के अलावा तुम्हारी कोई पहचान नहीं। कर्म के अलावा तुम्हारे पास कोई उपकरण, कोई संसाधन नहीं।
तुम्हारा पूरा जीवन ही इसी बात से तय होता है कि तुम काम क्या कर रहे हो। और तुम काम को इतने हल्के में ले रहे हो कि वो पढ़ाई कर लो ताकि कुछ रोज़गार लग जाए। कुछ रोज़गार लग जाए, फिर पूछ रहा हूँ — मज़ाक है? तुमने कुल इसपर ही ध्यान दिया है? यह जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण, केंद्रीय मुद्दा है यह, कि क्या काम करना है। इससे अधिक महत्वपूर्ण कुछ होता ही नहीं और इस मुद्दे पर इतनी हल्की बातचीत।
तुमको दोष नहीं दे रहा हूँ, कैंपस में सब ऐसे ही होते हैं। पर तुम्हें वैसे ही हो जाना है जैसे सब हैं कैंपस में? वही हैं तुम्हारे आदर्श? आपकी तकदीर है आपका काम। आपकी जिंदगी की पूरी कहानी का निचोड़ है आपका काम। काम के अलावा और है क्या जीवन में, बताओ न मुझे? जीवन माने काम नहीं तो क्या? काम माने यही नहीं कि पेड-वर्क , जिसके लिए तुम्हें कोई भुगतान करता हो या मुनाफा होता हो आर्थिक। काम माने वह सबकुछ जो तुम करते हो, और जो कुछ तुम करते हो उसमें से आठ-दस घण्टा तो अपने दफ्तर में ही करोगे न? तो सबसे महत्वपूर्ण तो वही हो गया।
फालतू किसी दिशा में मत घुस जाना कि आजकल फलाना सैक्टर हॉट चल रहा है तो हमने भी जॉब ले ली। छह-महीने साल भर बेरोज़गार बैठ लेना कहीं बेहतर है, कुछ नहीं हो जाएगा। और बहुत दफ़े तो यह निर्णय ऐसे होते हैं कि पलटे नहीं जा सकते। घुस गए किसी उद्योग में वहाँ से बाहर आने का कोई चारा नहीं। या आ भी सकते हैं तो यह है कि उसी इंडस्ट्री की एक कंपनी छोड़कर दूसरी कंपनी में चले जाओ, इंडस्ट्री नहीं बदल सकते, बहुत सारी ऐसी इंडस्ट्रीज हैं।
तो इसमें हड़बड़ी में मत रहो और न किसी के प्रभाव में आओ। दुनिया को ध्यान से देखो। किस तरीके के काम लोग करते हैं, किस तरह के व्यापार लोग करते हैं, यह सब अच्छे से देखो और धीरे-धीरे फिर अपने भीतर इस स्पष्टता को उभरने दो कि तुम्हारे लिए जीवन में क्या करने लायक है। वह भी स्पष्टता साफ समझो कि एक बार में नहीं उभरेगी। जितना स्पष्ट हो सकते हो उतनी स्पष्टता के साथ एक काम करो, बहुत संभावना है कि उस काम से आगे का फिर तुम्हें समझ में आएगा।
फिर दूसरी चीज़ में प्रवेश करो, फिर ज़रूरत हो तो तीसरी चीज़ में जाओ और जब तुम यह यात्रा कर रहे हो तो इस यात्रा के बीच में ही ना तो कहीं घर बना लेना और ना बहुत सारा बोझ इकट्ठा कर लेना, यात्री यह दोनों ही काम नहीं कर सकता। ना वह यात्रा के बीच में पीठ पर बोझ लाद सकता है और ना ही वह रास्ते पर ही कहीं पर मकान बना सकता है।
हमें यह दोनों ही ज़बरदस्त आदतें लगी होती हैं, झट से मकान बना लेते हैं। और पीठ पर बोझ लेकर चलने को तो हम अपना पुरुषार्थ बताते हैं, कि कितना ज़बरदस्त आदमी है, इतना बोझ लेकर चल रहा है पीठ पर। आधा तो जन्मजात मिला हुआ था बाकि आधा तो इसने जानबूझ कर इकट्ठा किया है क्योंकि जो जितना बोझ लेकर के चलता है वह उतना ज़बरदस्त आदमी है। यह सब कर मत लेना। हल्के चलो और चलते रहो।
ये बातें अगर कैंपस में ही सबको पता चल जाएँ न तो ज़िंदगी बहुत दूसरी हो। सबसे खेद की बात यही है कि ये बातें हमें तब बताई ही नहीं जाती जब हमें इन बातों की सबसे ज़्यादा उपयोगिता है और जब इन बातों को हम अपेक्षतया कम संघर्ष के साथ जीवन में लागू कर सकते थे, बहुत देर से पता चलती हैं। तुम्हें समय पर पता चल रही है।
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