दूसरों पर निर्भरता घटाने का उपाय || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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दूसरों पर निर्भरता घटाने का उपाय || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्न: आचार्य जी, जब मैं किसी से जुड़ जाती हूँ, तो उसके ही ख़यालों से मन भर जाता है। और अगर सामने वाला मुझपर ध्यान न दे, तो बुरा लगता है। मैं खुद में मज़बूत कैसे बनूँ, कि दूसरे पर आश्रित न रहना पड़े?

आचार्य प्रशांत जी:

इससे पहले कि तुम्हें किसी दूसरे के सहारा न लेना पड़े, तुम्हें जो सही है, उसका सहारा लेना पड़ेगा।

अभी तुम्हारी स्थिति क्या है? अभी तुम्हारी स्थिति ये है कि तुम्हें सहारों की ज़रुरत पड़ती है। जिसे सहारों की ज़रुरत पड़ती हो, वो दुर्बल हुआ, नासमझ हुआ। और जो नासमझ है, वो अपने लिए सहारे भी कैसे चुनेगा?

प्रश्नकर्ता: अपने जैसे नासमझ।

आचार्य प्रशांत जी: सब गड़बड़ सहारे। तो ये तो दो तरफ़ा चोट पड़ गई न। पहली बात तो ये कि तुम्हें किसी के सहारे की ज़रुरत पड़ी, बल्कि बहुतों के सहारे की ज़रुरत पड़ी – ये पहली गड़बड़। और दूसरी गड़बड़ ये कि तुमने ग़लत लोगों का सहारा ले लिया। पहली बात तो ये कि तुमने भीख माँगी। बुरी बात। और दूसरी ग़लत बात ये कि तुमने भिखारियों से भीख माँगी। मिलेगा भी तो क्या? तुम तो दोतरफ़ा चोट खा रही हो।

पहली बात तो ये कि हमें किसी का सहारा लेना पड़ता है। और दूसरी बात ये कि हम ऐसों का सहारा ले रहे हैं जो हमसे भी गए गुज़रे हैं। तो कौन-सा सहारा मिल जाएगा भई? तो इसीलिए तुम्हें दो चरणों में अपनी स्थिति से बाहर आना पड़ेगा। दो चरण कौन-से हैं, समझना।

पहला चरण वहीं से तो रखोगे न जहाँ खड़े हो। और यही तुमने अपनी हालत बना रखी है कि तुम्हें सहारों की ज़रुरत पड़ती है। अपनी नज़र में तो तुम ऐसी ही हो। तुम कहती हो, “मैं वो हूँ, जो सहारा माँगती है।” ठीक, तुम वो हो जो सहारा माँगती है। तो इतना तो करो कि कम-से-कम सही सहारा ढूँढो अपने लिए। मैं तुम्हें नहीं सुझा सकता कि तुम एक झटके में ही सारे अवलम्बों को ठुकरा दो, सारे सहारे हटा दो, क्योंकि ये तुमसे हो नहीं पाएगा।

तो पहला चरण है – विवेक। जिनसे सहारा ले रही हो, गौर से देखो कि वो सहारा देने लायक भी हैं, या तुम्हारे ही जैसे, या तुमसे भी बदतर हैं। उचित सहारा ढूँढो।

उचित सहारा कौन-सा है? उचित सहारा वो होता है, जो शनैः शनैः तुम्हें ऐसा बना दे, कि तुम्हें फिर किसी सहारे की आवश्यकता न रहे।

अनुचित, गड़बड़, सहारा कौन-सा होता है? जो लत बन जाए।

सिगरेट भी एक सहारा ही होती है। लत बन जाती है। तमाम प्रकार के रिश्ते, मनोरंजन, ये भी एक सहारा ही होते हैं। ये लत बन जाते हैं। और ये लत ऐसी बनते हैं कि पहले पाँच सिगरेट से सहारा मिल जाता था, अब पचास चाहिए, रोज़ाना।

*झूठे सहारों की यही पहचान है –* *वो तुम्हें और पंगु, और दुर्बल कर देते हैं।* वो तुम्हारे लिए और आवश्यक कर देते हैं कि तुम सहारे पर ही आश्रित रहो। और सच्चे सहारे की पहचान ये है कि वो तुम्हें सम्हालता है, और धीरे-धीरे अपने आप को अनावश्यक बना देता है। वो तुम्हें कभी अपनी लत नहीं लगने देता।

हालाँकि की तुम यही चाहोगे कि तुम उसे भी पकड़ लो, क्योंकि सहारा तो मीठी चीज़ होता है न। ज़िम्मेदारी से बचाता है वो तुमको। तो अपनी ओर से तुम यही चाहोगे कि जो सच्चा सहारा हो, उसको भी पकड़ ही लो। और सच्चे सहारे का गुण यही है – तुम जितना भी चाहो, वो तुम्हारा अहित नहीं होने देगा। और तुम्हारा अहित इसी में होता है कि – तुम्हें सहारे की लत लग गई।

पहला चरण – सही सहारा पकड़ो। दूसरा चरण – सहारा अगर सही पकड़ा होगा, तो फ़िर किसी भी सहारे की ज़रुरत नहीं पड़ेगी।

शुरुआत करनी है विवेक से। थोड़ी नज़र पैनी करो। थोड़ी ईमानदारी से पूछो अपने आप से, “मैं जिनके पास जाती हूँ मदद के लिए, वो इस लायक भी हैं कि मुझे मदद दे पाएँगे?” और नहीं हैं इस लायक, तो क्यों बेचारों पर बोझ डालती हो?

उनसे अपना तो जीवन चलाया नहीं जा रहा। तुम और खड़ी हो जाती हो कि – “हमें भी चलाईए।”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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