दुश्मन ताकतवर है लेकिन... || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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दुश्मन ताकतवर है लेकिन... || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। मैं पिछले सोलह सालों से विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ा रही थी। तो पिछले एक साल से मेरा बिलकुल मन नहीं था, अपनी सेवा को जारी रखने का। तो मैंने एक भयभीत दृश्य देखा। मेरे आसपास, जहाँ पर मैं रहती हूँ; वहाँ पर जानवरों पर बहुत अत्याचार होते हैं। ख़ासतौर पर गायों पर और जो गली के सामान्य जानवर हैं। तो अब मैंने अपनी नौकरी से अन्ततः अपना मन बना लिया है कि मैं उसको जारी नहीं करूँगी। और पशुओं के लिए, जानवरों के लिए मैं कुछ करना चाहती हूँ। मन में मेरे बहुत सारे द्वन्द हैं कि ये सही रहेगा या नहीं रहेगा। पिछले एक वर्ष से मैं आपको सुना रही हूँ लगातार। और मेरे पति तो काफ़ी मेरा, मेरी बात को वो समर्थन करते हैं कि मुझे अब उसको छोड़ देना चाहिए। और जो मेरा मन करे वो उसको करना चाहिए।

आचार्य प्रशांत: आप आगे बढ़ें। और बार-बार अपनेआप से यही पूछ लें कि दोनों तलों पर लाभ है न, और किस तल पर कितना। एक तल पर तो आपको ये लाभ होगा कि व्यक्तिगत तौर पर आपको थोड़ा हल्कापन लगेगा; थोड़ा आनन्द लगेगा; ग्लानि की भावना थोड़ी कम रहेगी। कुछ ग़लत हो रहा हो; उसको देखते रहो और उसके बारे में कुछ करो। नहीं तो भीतर एक अपराधभाव आ जाता है। जब आप कुछ करने लगेंगे तो अपराधभाव थोड़ा कम हो जाएगा। तो ये सब आपके व्यक्तिगत लाभ हो गये। और दूसरा लाभ उन जानवरों को होगा। तो आपको देखना है कि ऐसा तो नहीं है कि इनमें से एक ही लाभ हो रहा हो। दोनों लाभ आवश्यक हैं। और इन दोनों लाभों में भी वरीयता किसको देनी है? जो बड़ा सामाजिक कारण है। समाज में मैं पशुओं को भी शामिल कर रहा हूँ। उनको भी हम कह सकते हैं न एनिमल पीपल। तो उनको भी शामिल कर रहे हैं एज़ पीपल। तो आप जो करें उसमें आपको तो लाभ हो ही। आपसे ज़्यादा लाभ उनको हो। ठीक है?

मैं सावधान इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि कई बार ये जो सामाजिक सक्रियता होती है; सोशल एक्टिविज्म ; वो स्वयं को फील गुड (अच्छा लगना) कराने का एक बहाना बन जाती है। उसमें समाज के लिए तो जो आप करते हैं; सो करते हैं। समाज से ज़्यादा फिर अपने लिए कर रहे होते हैं। उसमें ऐसा हो जाता है कि समाज को पाँच रुपये का आपने लाभ पहुँचाया और अपने भीतर जो अहम् बैठा था उसको पिच्चानवे रुपये का लाभ पहुँचा दिया। वो नहीं होना चाहिए। वो होता है इसलिए आपको मैं पहले ही सावधान करे दे रहा हूँ।

आप जो निर्णय लेने जा रहे हैं वो अपनेआप में ऐसा निर्णय है; जो बहुत और लोगों को लेना चाहिए। आप सफल भी हों और आप कइयों की प्रेरणा बने ये आवश्यक है। और इससे आप ये समझ लीजिए कि असफल होना फिर आपको गवारा नहीं करना चाहिए। क्योंकि अगर आप ऐसा कोई क़दम उठाए और आप असफल हो जाए तो आप हज़ारों लोगों के लिए एक नकारात्मक उदाहरण बन जाएँगे। समझ रहे हैं बात को? कि देखो, वो भी थी, वो भी अच्छी-भली नौकरी छोड़कर के सामाजिक सक्रियता करने निकली थी और देखो उनका क्या हुआ! उनका कुछ नहीं, कोई काम भी नहीं कर पायी। और अब नौकरी छोड़ दिए तो पछताती रहती है; ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि लोग इस तरह के उल्टे उदाहरणों की तलाश में रहते हैं।

भई, आप सही काम नहीं कर रहे; इसके लिए आप क्या बहाना खोजोगे? ऐसे ही तो कुछ बहाना खोजोगे न? कोई आपका विरोध ही करना चाहता है; मान लीजिए, आप ये क़दम उठा रही है और कोई आपका विरोध करना चाहता तो यही तो कहेगा कि अरे, नहीं, नहीं, आप जैसा कर रही हैं; वो फ़लानी थे, उन्होंने भी करा था। पर देखिए उनका आज बुरा हाल है। तो अपने काम का, अपने संकल्प का बुरा हाल नहीं होने देना है। अगर आप इसमें उतरे तो फिर सावधानी, सतर्कता संकल्प के साथ, पूरी शक्ति के साथ। हार-जीत कभी पूरी तरह अपने हाथ में नहीं होती। लेकिन आदमी इतना तो कई बार सुनिश्चित कर ही सकता है कि बुरी हार मिले।

जीत अपने हाथ में हो न हो; हम अगर चाहें तो एक बहुत बुरी हार तो हमारे हाथ में हो सकती है। हो सकती है की नहीं? आप पास होगे या नहीं होगे परीक्षा में; हो सकता है, या आपके हाथ में न हो। पर बुरी तरह फेल होना तो आपके हाथ में होता है। या नहीं होता? उससे सावधान रहिएगा। बहुत सावधान रहिएगा।

प्र २: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, बात, आपने भिड़ने की बात की, लड़ने की बात की इन ताक़तों से। पर ये सामने बहुत ताक़तवर ताक़ते हैं। जैसे कि मैं अभी बिहार एक परीक्षा देने गया था। तो रास्ते में एक ऐसी जगह कसाई खाना सा था; मतलब सब जगह मुर्गे कटे या मछलियाँ, बकरे। अच्छा नहीं लगा। एक तो था, मोटा सा, मुर्गी को उछालकर ऐसे; खेल रहा है उससे; बस काटने वाला था। मन तो किया था; गाड़ी के डैश बोर्ड में पिता की लाइसेंस रिवाल्वर पड़ी थी, वही उसके ऊपर चला दूँ एक बार। और मैने सोचा, मेरे ऊपर (धारा) तीन-सौ-दो लग जाएगी। और पूरा बाज़ार ये सब काम कर रहा है। तो फिर आगे का सोचते हैं तो लगता है; अभी यहाँ डिनर करके; सैर करता आ रहा था, तो भी मछलियाँ डिवाइडर पर, ये बेच रहे थे। तो मन किया की इनको ईंट उठाकर मार दूँ; ये क्या कम कर रहे है। तो मतलब इनके ख़िलाफ़ लड़ भी सकते हो?

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है; लड़ नहीं सकते। मेरे पास तुम्हारे लिए काम है। ऋषिकेश में, तुम्हें पता ही है, माँस वगैरह की बिक्री ग़ैरक़ानूनी है। पर वहाँ बाक़ायदा रेस्टोरेंट , अपने मेन्यू में लिखकर के माँस बेच रहे हैं। ठीक है? तो उन पर कानूनी कारवाई करनी है। चलो।

प्र २: वो तो कानूनी तो करनी है। पर आचार्य जी, सामने फोर्सेज़ ऐसी होती है की जैसे; मानलो किसान आन्दोलन है; अब चल रहा है। ये प्रोटेस्टर्स ( प्रदर्शनकारियों)। अब मैं हिसार से आ रहा था तो दिल्ली आने में बहुत दीक्क़तें हुईं। सुबह पाँच बजे चला; अब आकर पहुँचा। तो क्या होता है; कोई इनके विरुद्ध इनकी माँगे ऐसी कि उन्हें पराली जलाने की अनुमति दी जाए। अब पर्यावरण के विरुद्ध है पराली जलाना। और कहते हैं, ‘हमारे पास जो केसेस लगाये, पर्यावरण संरक्षण के तहत, आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) के तहत कि हमने पराली जलायी; वो सारे केस हटाये जाएँ। हमें डीजल पचास प्रतिशत सस्ता दिया जाए।’ तो ये इनकी माँगे ग़ैरक़ानूनी है। इनके विरुद्ध कोई बोले; मान लो जैसे कि सेलिब्रिटी ने बोला, कंगना ने बोला, सब उसके ख़िलाफ़ हो गये। पूरी ये पंजाब की युनिटी उसका समर्थन कर रहे हैं किसानों का। गायक का ये तो अपना वोट बैंक भी है। फिर इनसे कैसे लड़ा जाए?

आचार्य: देखो, तरीक़े होते हैं। आमतौर पर जो कोई झूठ का पक्ष ले रहा होता है; वो ख़ुद ही अपने हारने की तैयारी कर रहा होता है। क्योंकि ताक़त तो सच्चाई में ही होती है। ताक़त तो सच्चाई में ही होती है। आप अगर झूठ का पक्ष लोगे तो ख़ुद ही आपकी ताक़त कम होती चलेगी। आप कमज़ोर होते जाओगे। बहुत मुश्किल होता नहीं है झूठ को झूठ की जगह रख देना, उसे हरा देना। उसमें समस्या जहाँ आती है वो बताये देता हूँ। झूठ को पता होता है कि वो झूठा है और कमज़ोर है। चूँकि उसे पता है की कमज़ोर है इसलिए वो संगठित हो जाता है। वो बहुत सारे जुड़ जाएँगे, आपस में। इसलिए नहीं जुड़ जाएँगे कि वो ताक़तवर है। वो ठीक इसलिए जुड़ जाएँगे क्योंकि उन्हें पता है; वो कमज़ोर है। और सच की निशानी होती है ताक़त। तो सच को संगठित होने की बहुत ज़रूरत स्वभावगत रूप से महसूस नहीं होती।

सच्चे आदमी को ये नहीं लगा कि मैं झुंड बनाऊँ। झूठा आदमी हमेशा झुंड बनाकर चलेगा। तो जो तुम कह रहे हो न कि वो इतने बड़े हैं, इतने बड़े बड़े नहीं। वो बहुत छोटे छोटे हैं। वो बहुत छोटे हैं। बस वह संगठित है तो उनका मुकाबला करने के लिए तुम्हें भी वही करना पड़ेगा; संगठित होना पड़ेगा। और कोई तरीक़ा नहीं है। हाँ, तुम्हें उनके मुकाबले बहुत कम संगठित होने की ज़रूरत पड़ेगी। उनके संगठन का स्तर बहुत ऊँचा है। उन्हें बहुत ज़बरदस्त तरीक़े से ऑर्गेनाइज़ होना पड़ता है। तुम्हें तो उतना ज़्यादा ऑर्गेनाइज भी नहीं होना पड़ेगा। लेकिन तुम ये नहीं कर सकते कि अकेले खड़े हो जाओ। तुम्हें भी कुछ व्यवस्था बनानी पड़ेगी; कुछ इंस्टीट्यूशंस बनाने पड़ेंगे। फिर हो जाएगा।

प्र २: आचार्य जी, मुझे ऐसा महसूस होता है; जैसे मैं जिम जाता हूँ; सबसे कहता हूँ, ‘यार, छोड़ो। यार, अंडे-वंडे।’ सारा दिन बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस अंडे खा रहे हैं और चिकन। वीगन बताता हूँ। वीगन डाइट से बन सकता है सब। बस फिर सारे मेरे विरुद्ध हो जाते हैं खड़े। उनको बस।

आचार्य: वो नहीं खड़े हुए है। जो संगठित प्रचार किया गया है उनके मन पर; वो प्रचार तुम्हारे विरुद्ध खड़ा हुआ है। उनके बाद अपना तो कुछ है ही नहीं। अहंकार के पास अपना क्या होता है? उसके पास तो बस इधर-उधर से, इकट्ठा की हुई सूचनाएँ होती हैं। सवाल ये है कि उनके मन तक ये प्रचार किसने पहुँचाया। उनके मन तक ये प्रचार पहुँचाया संगठित मीडिया ने, ठीक है? तो तुम्हें भी प्रचार करने की ज़रूरत है। लगो न प्रचार में।

जैसे उनके मन पर प्रचार करके ये भाव छोड़ा जा सकता है कि तुम्हारे लिए मीट खाना ज़रूरी है; उसी तरीक़े से उनके मन पर प्रचार करके ये भाव भी छोड़ा जा सकता है कि तुम्हारे लिए मीट नुक़सानदेह है। तुमने क्यों नहीं प्रचार किया अभी तक।? जो कमज़ोर आदमी है वो प्रचार करे ले रहा है। तुम मज़बूत आदमी हो; तुम क्यों नहीं प्रचार कर रहे? जो कमज़ोर आदमी है उसने संगठित होकर, जुड़कर पचास कमज़ोर लोगों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, मीडिया पर कब्ज़ा कर लिया है। जो मज़बूत लोग हैं, वो क्यों नहीं ये सब कर रहे?

उन लोगों की ग़लती नहीं है, जो जिम में हैं। उन लोगों के पास अपना कुछ भी है क्या? उनके पास में एक जो ओपिनियन है; अपना है क्या? वो जो कुछ भी सोच रहे हैं या कह रहे हैं, उनके पास कहाँ से आया? प्रचार से आया। वो प्रचार तुमने क्यों नहीं किया? झूठ को प्रचार करने का पूरा मौक़ा मिला हुआ है। सच के पास भी मौक़ा है। सच अपना प्रचार क्यों नहीं कर रहा? संगठित होने का मौक़ा झूठ के पास भी है; सच के पास भी है; सच क्यों नहीं संगठित हो रहा? लेकिन कुछ हमारा खोपड़ा उल्टा है। सच प्रचार करने लग जाता है तो हम कहते हैं अरे ,देखो! अब तो सच को प्रचार करने की ज़रूरत पड़ गयी।’ सच को आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है प्रचार की। और सच अगर प्रचार नहीं करेगा अपना तो झूठ का प्रचार तो चल ही रहा है दिन-रात।

मछली बेचने वाले के सिर को ईट से फोड़कर क्या मिलेगा तुमको? जिन्हें ख़रीदनी हो; कहीं और से ख़रीदेंगे। जो ख़रीदने वाले हैं उन्होंने किसने बताया कि मछली उनके लिए बहुत फ़ायदेमंद है? उनके भीतर की करुणा को और संवेदना को किसने नष्ट किया? बच्चा पैदा होते ही तो नहीं बोलता, ‘मछली लाओ, खाना है।’ या बच्चा पैदा होते ही बोले, बोलो? बच्चे ने पैदा होते ही मछली माँगी थी क्या? उसे मछली खाना जिसने सिखाया? उसको पकड़ो न! और जिसने उसे मछली खाना सिखाया उसे भी किसी ने सिखाया। तो ये जो पूरी दुष्प्रचार की व्यवस्था है, कड़ी है। इस कड़ी को तोड़ना होगा न? एक बार कोई व्यक्ति माँसाहारी हो जाए, फिर तुम उसका विरोध करो तो गोलियाँ चलेंगी। तुम उसे माँसाहारी होने ही क्यों दे रहे हो? यहाँ बात गोली चलाने की नहीं होनी चाहिए। ये बात मन में रोशनी लाने की होनी चाहिए न। उसको ज्ञान दो, उसको अज्ञान है, वो जानता ही नहीं।

पहली बात तो वो भौतिक तल पर ये नहीं जानता की माँस कितनी नुक़सान-देह है; शरीर के लिए भी और पर्यावरण के लिए भी। ठीक? पहला ज्ञान ये है कि भौतिक तल पर उसको नहीं पता की माँस शरीर को भी बर्बाद कर रही है और पूरी पृथ्वी को बर्बाद कर रही है। और आध्यात्मिक तल पर उसको ये नहीं पता कि करुणा और संवेदना खो दी है उसने जानवरों को काट-काटकर खाने से। और अगर करुणा, संवेदना उसने खो दिए तो उसके जीवन में प्रेम बचा नहीं। वो अब जीकर क्या करेगा? लेकिन ये बात समझाने वाला चाहिए न कोई? ये बात समझाने वाला कोई है नहीं और माँस का प्रचार करने वाले बहुत हैं। तुम उन्हें जीतने क्यों दे रहे हो?

प्र २: आचार्य जी, प्रचार कर रहे हैं मतलब प्रचार कोई ऐसा हल्का-फुल्का इंसान तो नहीं करता। वो उसी पोजिशन (पद) पर पहुँचकर ही करता है।

आचार्य: पोजिशन पर पैदा हुआ था?

प्र २: नहीं। वो अच्छे एथलीट ख़ुद कहते हैं: मैं उठते ही पहले तो पचास ग्राम वाइट चिकन लेता हूँ।

आचार्य: वो उन अच्छे एथलीट्स को सब किसने सिखाया? वो पैदा होते ही उसने आधा किलो चिकन खाया था?

प्र २: तो अब वो बोलेंगे तो हम क्या कर सकते हैं?

आचार्य: जैसे उन्होंने इतनी बड़ी ताक़त खड़ी कर ली, तुम भी करो न। वो तो कमज़ोर है; जो इतनी बड़ी ताक़त बन गये। और तुम तो, जो बात बोल रहे हो सच्ची है; तुम उसके पक्ष में एक व्यवस्था नहीं खड़ी कर सकते? और नहीं कर सकते तो फिर हार मान लो।

झूठ इतना कुछ करे ले रहा है और सच कह रहा है कि अब मैं क्या कर सकता हूँ; ये कैसी बात है? और झूठ इतना कुछ करे ही इसलिए ले रहा है क्योंकि वो डरा हुआ है। डर में बहुत ऊर्जा होती है। जब आप किसी ग़लत काम में होते हो तो आपमें बहुत ऊर्जा आ जाती है। क्योंकि आपको पता होता है कि आपको कभी भी नष्ट किया जा सकता है। झूठ में जान कितनी होती है? कहते हैं न, “झूठ के पाँव नहीं होते।” तो वो हमेशा डरा-सहमा रहता है। जब वो डरा-सहमा रहता है तो बहुत मेहनत करता है। उतनी ही मेहनत तुम्हें भी करनी पड़ेगी। गोली चलाने, ईट चलाने से नहीं होगा। मेहनत करने से होगा। मेहनत करो, न। जानते हो तुम गोली चला दोगे तो क्या होगा? कहेंगे, ‘देखो, ये कहते हैं कि कसाई हिंसा कर रहा है। अरे, कसाई तो सिर्फ़ जानवरों को मारता है। इन्होंने तो इंसान को मार दिया। इससे क्या सिद्ध होता है? इससे ये सिद्ध होता है कि शाकाहारी लोग ज़्यादा हिंसक होते हैं, जैसे हिटलर।’ (श्रोतागण हँसते हैं) खट से आ जाएगा तर्क। क्यों बेवकूफ़ी करना चाहते हो?

देखो, आज तक जितनी भी बड़ी लड़ाइयाँ हुई हैं नितिन, उनमें संख्या बल हमेशा सच का ही कम रहा है। कौरवों-पांडवों की लड़ाई हो रही थी उसमें तुम जानते ही हो; पांडवों की सेना कौरवों की दो-तिहाई थी, ठीक है? तो उनका तुम्हारे पास दो-तिहाई बल हो, इतना चल जाएगा। पर ये तो नहीं हो सकता न कि उनके आगे तुम्हारे पास कोई बल ही नहीं है। तब नहीं जीत सकते। तुम्हें उतना नहीं करना पड़ेगा; जितना उन्हें करना पड़ता है। पर कुछ तो करना पड़ेगा। तुम उतना भी नहीं करोगे तो कैसे काम बनेगा?

तुम कह दो, ‘नहीं, दुर्योधन तो अधर्मी है। तो वो इतनी बड़ी सेना लेकर आया है। हम तो धर्म के पक्ष में हैं। हम तो सच्ची बात कर रहे हैं। तो हम तो कोई सेना बनाएँगे ही नहीं।’ तो फिर जीतने से रहे तुम। सेना तो बनानी पड़ेगी। कुछ तो करना पड़ेगा। बस, तुम्हें दुर्योधन जितनी बड़ी सेना नहीं बनानी पड़ेगी। उससे छोटी सेना में भी तुम्हारा काम चल जाएगा ।

प्र २: जैसे आप बोलो कानूनी लड़ाई लड़नी है। अगर मान लो पीआईएल फाइल करता हूँ वहाँ, उत्तराखंड हाई कोर्ट में या फिर रिट भी डालता हूँ; तो उनकी तरफ़ से तो यूँ लगा लो; बड़ी-बड़ी लॉ फॉर्म्स पेश होंगी; कारपोरेट हाउसेज़ आ जाएँगे। तो ये मेरी तरफ़ से, कोई मैं हर साल, वे जैसा; एडवोकेट तो आने नहीं वाला है मेरा सपोर्ट करने वाला है। वहाँ भी हमें (अकेले लड़ना होगा)

आचार्य: जब निर्णय आया था कोर्ट का कि नहीं हो सकता तो उस वक्त भी तो उतनी बड़ी ताक़तें इस निर्णय के ख़िलाफ़ रही होंगी न? तब ये निर्णय कैसे आ गया?

प्र २: तो वो मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया था न? हाई कोर्ट तक।

आचार्य: तो बस हो गया। तो जीत मिली थी न? तो तब जीत मिल सकती है तो फिर से मिल सकती है न? और अभी तो तुम्हें कोई निर्णय भी नहीं चाहिए। अभी तो तुम्हें सिर्फ़ क्या कराना है? इम्प्लीमेंटेशन (लागू) कराना है, जो निर्णय आ चुका है। इतना निराश क्यों हो रहे हो? कोई तो लोग होंगे न, जीत भी हासिल कर ली। तुम्हें तो कोई जीत भी नहीं हासिल करनी। तुम्हें तो एक एग्ज़िस्टिंग जजमेंट (पहले से मिला फ़ैसला) को बस इम्प्लीमेंट करना है। फिर तुम्हें कैसे पता कि कोई बड़ा वकील तुम्हारे साथ आने के लिए तैयार नहीं होगा? तुम्हें कैसे पता? तुम अकेले ऐसे हो जिसमें पशुओं के प्रति सहानुभूति है, देश भर में?

प्र २: नहीं, ऐसी बात नहीं है। मैंने तो जितने बड़े वकील देखते हैं; वो तो, ये तो, पार्टीज़ में ऑर्डर महँगी-महँगी दो-दो लाख वाली सूची ऑर्डर करते है।

आचार्य: तुम्हें कैसे पता सब ऐसे है? तुम्हें कितने वकील करने है? आठ दस? कितने करने हैं? तुम्हें जो एक चाहिए वो कहीं-न-कहीं मिल जाएगा। मेहनत तो करो। ये कृत्रिम निराशा है और ये निराशा हम इसलिए पालते हैं ताकि मेहनत करनी ही न पड़े। हम कहते हैं, ‘अब तो कुछ हो ही नहीं सकता, मेहनत करने से फ़ायदा क्या!’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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