दुर्योधन और कर्ण की दूषित मित्रता || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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दुर्योधन और कर्ण की दूषित मित्रता || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: दुर्योधन ने कर्ण को युद्ध में घसीटा था। क्या दुर्योधन कर्ता था जिसने कर्ण को युद्ध में घसीट लिया, क्या दुर्योधन केंद्रीय था? या फिर कर्ण की वजह से दुर्योधन युद्ध में गया था, कर्ण के भरोसे पर? तो क्या कर्ण केंद्रीय था?

आचार्य प्रशांत: सवाल समझ पा रहे हैं? पूछा है कि क्या दुर्योधन की युद्ध की प्रबल इच्छा थी, इस कारण वो कर्ण को युद्ध में घसीट लाया, या फिर कर्ण की उपस्थिति की वजह से दुर्योधन में युद्ध की इच्छा जागृत और प्रबल हुई? तो केंद्रीय कौन है, दुर्योधन की युद्ध की इच्छा या कर्ण की उपस्थिति से आया भरोसा? यह प्रश्न है। प्रश्न स्पष्ट है सबको?

फिर आगे दो सवाल लिखे हैं जो इसी मूल प्रश्न से संबंधित हैं।

उत्तरदायी कौन है, समझना थोड़ा। तुम्हें क्या लग रहा है, कर्ण नहीं होता तो दुर्योधन युद्ध में नहीं उतरता? सुनो तुम अच्छे से। कर्ण नहीं होता तो दुर्योधन किसी दूसरे कर्ण का निर्माण करता।

दुर्योधन कौन है? युद्ध को मचलती हुई वृत्ति है दुर्योधन। पूरे राज्य पर शासन करने को बेचैन वृत्ति है दुर्योधन। किसी भी कीमत पर सत्ता पाने को उतावली वृत्ति है दुर्योधन। ताक़त की उपासक वृत्ति है दुर्योधन। ये है दुर्योधन। कोई चेहरा नहीं है दुर्योधन।

दुर्योधन सर्वव्यापक है, हम सबमें मौजूद है। सत्ता हम सबको चाहिए और धर्म और न्याय को ठुकराने को हम सभी तैयार भी हो जाते हैं। हम सब दुर्योधन हैं।

वह जो वृत्ति है भीतर मचलती हुई, वो एक नहीं सौ कर्ण तैयार कर लेगी। यह जो ऐतिहासिक कर्ण है जिससे तुम महाभारत में रूबरू होते हो, इसका भी तो दुर्योधन ने निर्माण ही किया था। कर्ण थोड़े ही चल करके आया था दुर्योधन के पास। दुर्योधन ने देखा कि “अरे, अधिरथ का, राधा का जो पुत्र है, बड़ा तेजस्वी है, बड़ा योद्धा है, शस्त्र संचालन में बड़ा निपुण है। और ये भी मुझे दिख रहा है अभी-अभी कि अर्जुन से इसकी ठन गई है।” तुरंत दुर्योधन ने उसको बुलाया।

कर्ण कहाँ फँसता महाभारत के झमेले में अगर दुर्योधन ने उसे आमंत्रित न किया होता, अगर दुर्योधन ने उसे एक छोटे से राज्य का राजा न बना दिया होता! कर्ण को कर्ण बनाया किसने? दुर्योधन ने।

नहीं तो कर्ण तो सूतपुत्र था अपने छोटे से गाँव में। शस्त्र संचालन सीख गया था, अपने सीमित दायरे में प्रसिद्धि पा जाता। या हो सकता है कि उसका दायरा बढ़ता भी तो न जाने इतने बड़े संसार में किस दिशा को निकल जाता। वो जिस भी दिशा को निकलता, वहाँ ज़रूरी तो नहीं था न कि उसे महाभारत मिलती?

कर्ण की अपनी कोई अलग कहानी होती। कर्ण को महाभारत का कर्ण किसने बना डाला? नहीं तो कर्ण की अपनी कोई अलग कहानी चलती रहती, जैसे सबकी अपनी-अपनी कहानियाँ होती हैं। कर्ण का तो इस्तेमाल किया गया और वह इस्तेमाल किया जा सके, इसके लिए पहले उसका निर्माण किया गया। वह निर्माण करने वाली वो वृत्ति है जो कहती है, “मुझे ताक़त चाहिए। ताक़त जहाँ से मिले, मैं उसको निर्मित करूँगा, खीचूँगा, रचूँगा।”

और तुम परिचित हो बस एक कर्ण से। तुम्हें क्या लगता है, इतना भारी युद्ध हुआ, उसमें एक ही कर्ण रहा होगा? ये जो इतने राजा आ गए थे दुर्योधन की मदद करने के लिए, तुम्हें क्या लगता है, इनकी अपनी कहानियाँ नहीं हैं? वो कहानियाँ बस प्रसिद्ध नहीं हो पायीं, वो कहानियाँ प्रकाशित ही नहीं हो पायीं। उनमें से न जाने कितने ऐसे रहे होंगे जिनका दुर्योधन ने निर्माण ही किया होगा, जैसे तलवार का निर्माण किया जाता है, जैसे तीर का निर्माण किया जाता है, जैसे तोप-गोलों का निर्माण किया जाता है। युद्ध की सारी सामग्री निर्मित सामग्री ही तो होती है न?

जिसे युद्ध लड़ना हो बड़ी ताक़त की ख़ातिर वो सामग्री पहले से निर्मित करके रखेगा। दुर्योधन ने एक ही कर्ण थोड़े ही निर्मित करके रखा होगा, दुर्योधन ने तो असंख्य कर्ण निर्मित किए होंगे। ये हुई दुर्योधन की ओर की बात। कि अगर तुम मुझसे कहोगे कि कर्ण ज़िम्मेदार है, तो मैं कहूँगा, “नहीं, बाबा। दुर्योधन ने तो कर्ण का निर्माण किया।”

मैं दूसरी तरफ़ भी जाऊँगा। कर्ण के भीतर क्या वृत्ति बैठी हुई है?

“मैं बड़ा ओजस्वी हूँ। मेरा प्रताप देखो, मेरा शौर्य देखो, मेरे कवच-कुंडल देखो। पर मुझे मान नहीं मिल रहा।”

कर्ण कौन-सी वृत्ति है? दुर्योधन अगर ताक़त के पीछे भागती हुई वृत्ति है तो कर्ण भी एक चेहरा नहीं है, कर्ण भी एक वृत्ति है। वह कौन-सी वृत्ति है? जो परिचय के पीछे भाग रही है, जो सम्मान के पीछे भाग रही है।

कर्ण जीवन भर तड़पा है, “मुझे मेरा परिचय बता दो, मैं कौन हूँ”, क्योंकि कर्ण का मन यह मानने को तैयार ही नहीं होता था कि वो एक साधारण सूतपुत्र है। डील-डौल से तगड़ा था, मन भी उसका तीव्र बुद्धि था और लोगों ने भी सदा उसको यही कहा कि “भाई, तू लगता नहीं है किसी साधारण कर्मचारी का या किसी साधारण कुल का बेटा।”

तो कर्ण के मन में कौन-सी भावना घर कर गई थी? कि, "हूँ तो मैं कोई और, ग़लत जगह फँसा हुआ हूँ। और जहाँ हूँ, वहाँ इज़्ज़त नहीं मिलती।" तो कर्ण बार-बार विह्वल होकर पूछे, "बता दो कि मैं कौन हूँ। मेरा परिचय दो न।"

ये जो परिचय की प्यासी वृत्ति है, ये जो सम्मान की प्यासी वृत्ति है, इसे किसी-न-किसी दुर्योधन का निर्माण करना था। दुर्योधन को सत्ता की ख़ातिर किसका निर्माण करना था? कर्ण का। और कर्ण को सम्मान, ओहदा, परिचय पाने के लिए किसका निर्माण करना था? दुर्योधन का।

राजपुत्रों की शिक्षा पूरी हुई थी, वो सब दर्शा रहे थे कि उन्होंने क्या सीखा। अपनी समस्त विद्याओं का परिचय दे रहे थे। बड़ा समारोह हुआ था। तो अपनी शस्त्र विद्या भी प्रकट कर रहे थे। कर्ण को पता चला, वहाँ पहुँच गया। कर्ण को किसी ने बुलावा भेजा था? पर वह पहुँच गया क्योंकि उसमें बड़ी प्यास है, क्या पाने की? परिचय पाने की, ओहदा पाने की। “अरे, ज़रा कोई हमारी भी ख़बर ले। अरे, ज़रा हमारी ओर भी तो देखो। तुम-ही-तुम नहीं हो, हम भी हैं।"

दुनिया एक बार कह दे कि कर्ण महान है। दुनिया एक बार कर्ण को वैसी ही आदर भरी नज़रों से देख ले जैसे राजपुत्रों को या राजाओं को देखा जाता है। कर्ण ललका जा रहा है, बड़ा प्यासा है, भिखारी जैसा है। “थोड़ा-सा सम्मान दे दो न, बस।” इस सम्मान की ख़ातिर कर्ण किसी भी दुर्योधन का निर्माण कर सकता था। कर्ण को चाहिए कोई जो कर्ण को राजा बना ले, कर्ण को चाहिए कोई जो कहे कि "कर्ण, तू बहुत ऊँचा आदमी है।" दुर्योधन में कर्ण को वो अवसर दिखा। तो वो दुर्योधन से कहता है, "मित्र, आजन्म मैं तुम्हारा साथ दूँगा।"

वास्तव में कर्ण दुर्योधन से क्या कह रहा है?

"पहचान दे दो, रुतबा दे दो, राज्य दे दो, ओहदा दे दो, सदा तुम्हारा ऋणी रहूँगा।" इस दुर्योधन से अगर कर्ण को राज्य, रुतबा, ओहदा, परिचय न मिला होता, तो कर्ण निश्चित रूप से किसी दूसरे दुर्योधन के पास चला जाता। कर्ण को तो चाहिए था, क्या?

श्रोतागण: सम्मान।

आचार्य: कोई ऐसा जो उसको तरक़्क़ी दे दे, कोई ऐसा जो उसको उठा करके सिंहासन पर बैठा दे। वो सम्मान, वो सिंहासन अगर उसे दुर्योधन से न मिला होता तो वो कहीं और चला गया होता। कहीं-न-कहीं उसने उस सम्मान की ख़ातिर अपने लिए एक उपयुक्त दुर्योधन का निर्माण कर ही लिया होता।

तो ये मत पूछो कि कर्ण केंद्रीय है, कि दुर्योधन केंद्रीय है। ये मत पूछो कि क्या दुर्योधन ने कर्ण को घसीटा या कर्ण का भरोसा था जिसके कारण दुर्योधन युद्ध में घिसट गया।

वृत्ति सदा शोषक होती है। वो दूसरे का शोषण करती है अपने स्वार्थ की ख़ातिर और इस प्रक्रिया में वो ख़ुद ही बुद्धू बन जाती है, अपना ही शोषण करा बैठती है। दुर्योधन कर्ण का शोषण कर रहा है और कर्ण दुर्योधन का शोषण कर रहा है; मारे दोनों जाते हैं।

दुर्योधन कर्ण का शोषण कर रहा है ताक़त की ख़ातिर, बदले की ख़ातिर। “मेरे बाप का राज्य था। मिल किसको गया? इन पांडवों के बाप को। और अब क्या हो रहा है? अब अभी मैं सबसे बड़ा हूँ। पुत्रों में मैं सबसे बड़ा हूँ, लेकिन राज्य किसको मिला जा रहा है? उस युधिष्ठिर को। यह नहीं होने दूँगा मैं। सत्ता चाहिए और बदला चाहिए।” इस सत्ता की ख़ातिर, इस बदले की ख़ातिर दुर्योधन की वृत्ति कर्ण का शोषण करती है। पहले कर्ण का निर्माण करती है, इस्तेमाल करती है, शोषण करती है।

और कर्ण को क्या चाहिए?

सम्मान दे दो, पहचान दे दो, परिचय बता दो। एक बार कोई कह दे कि राजपुत्र है कर्ण, सूतपुत्र नहीं। एक बार कहीं से कोई बोल दे कि सूर्यपुत्र है, सूतपुत्र नहीं। इस पहचान की ख़ातिर, इस पहचान के लालच में कर्ण दुर्योधन का शोषण करता है।

भाई, कर्ण की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी दुर्योधन के लिए अगर दुर्योधन में और पांडवों में संधि हो गई? तो कर्ण के लिए भी तो आवश्यक है न कि दुर्योधन की ठनी रहे पांडवों से। सोचो, अगर दुर्योधन और पांडवों का एका हो गया तो कर्ण को कौन पूछेगा? और अभी तक किसी को पता नहीं है कि वह कुंतीपुत्र है। अभी तक तो वह क्या है? बस यूँ ही कोई दोस्त है, मित्र है दुर्योधन का। एक बार भाइयों की आपसी फूट मिट गई, फिर इस तरीके के जो मित्र होते हैं, वो तो बाहर वाले हो जाते हैं।

तो कर्ण भी संधि का कोई अवसर आने नहीं दे रहा। दुर्योधन को ऐसी कोई राय नहीं दे रहा जिससे समझौता हो जाए। दोनों ही एक-दूसरे का शोषण कर रहे हैं। दोनों का ही अंत त्रासद है।

जो आदमी वृत्ति से संचालित है, वह पूरी दुनिया का बस इस्तेमाल करेगा अपनी वृत्ति की तृप्ति के लिए। और जो आदमी सत्य से, आत्मा से संचालित है, वह पूरी दुनिया की मात्र सहायता करेगा, उसकी करुणा पूरी दुनिया पर बरसेगी। ऐसों से बचना जिनके भीतर बड़ी प्यास हो, जिनके भीतर बड़ी आग लगी हुई हो, जिनके भीतर कोई बड़ी गहरी महत्वाकांक्षा हो; ऐसों से बचना। ये सबका इस्तेमाल करेंगे, ये तुम्हें भी बस साधन की तरह, माध्यम की तरह देखेंगे।

अगर किसी से प्रेम उठता हो तुमको और पाओ कि वह बड़ा महत्वाकांक्षी आदमी है, उससे ज़रा बचकर रहना। महत्वाकांक्षी आदमी को बस उसकी महत्वाकांक्षा प्यारी होती है। वह किसी का भी उपयोग कर सकता है।

वास्तव में महत्वाकांक्षी आदमी प्रेम जान ही नहीं सकता। जिसको कोई आग जला रही है भीतर-भीतर, वह दूसरों पर प्रेम के छींटें क्या मारेगा? उसकी तो सारी कोशिश यह रहेगी कि, "किसी तरह मेरी अपनी आग शीतल हो।" वो दूसरों का बस इस्तेमाल करेगा। ऐसों से बचना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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