Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles

दुनिया मुझ पर हावी क्यों हो जाती है? || आचार्य प्रशांत (2015)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

7 min
173 reads
दुनिया मुझ पर हावी क्यों हो जाती है? || आचार्य प्रशांत (2015)

श्रोता : सर, मैंने देखा है कि मेरी ख़ुशी दुसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं उस पर निर्भर करती है। ऐसा क्यों होता है?

वक्ता : और क्या हो सकता है? क्या तुम्हें और कुछ होने की भी उम्मीद है?

श्रोता: हाँ, सर।

वक्ता: क्या उम्मीद है?

श्रोता: सर, ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि मुझे फ़र्क न पड़े कि कोई मेरे बारे में क्या कह रहा है।

वक्ता: फर्क न पड़े! तुम कैसे हो?

श्रोता: सर, नार्मल।

वक्ता: नार्मल माने क्या?

श्रोता: सर, कोई अच्छा या बुरा कहे तो कोई फ़र्क न पड़े।

वक्ता: अगर अच्छे या बेकार का तुम पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा तो ज़्यादातर चीज़ें जो तुम परिणाम के लिए करते हो वो तुम करोगे नहीं। देखो, बदलाव टुकड़ों में नहीं होता। यह कहना बहुत आसान है कि मैं ऐसा हो जाऊँ कि मुझ पर दूसरों के कहे का फ़र्क न पड़े। दूसरे हँसे तो भी मैं वही करता रहूँ जो मैं कर रहा हूँ और दूसरे तारीफ़ करें तो भी मेरे करने में कोई अंतर न आए। लेकिन उसमें एक पेंच है वो यह है कि अगर दूसरे हँसे नहीं या दूसरे तारीफ़ न करें तो तुम वो ज़्यादातर काम करोगे ही नहीं जो तुम करते हो। समझो बात को। तुम कहते हो कि मैं कुछ करता हूँ और उस काम के अंत में मुझमें यह अंतर न पड़े कि लोग क्या कहेंगे। पर तुम पर अगर अंतर न पड़ता होता लोगों का कि क्या कहेंगे तो तुम ये काम करते ही नहीं। तो तुम जो मांग रहे हो, वो असंभव है। क्योंकि पूरी ज़िन्दगी तुम काम ही वही सब करते आए हो जो तुम्हें दूसरों से तारीफ़ दिलवाए, मान्यता दिलवाए, दूसरों से कुछ दिलवाए या दूसरों से तुम्हारी रक्षा करें। तुम्हारे सारे कामों का जो केंद्र है वो आत्म नहीं है, तुम्हारे सारे कामों का जो केंद्र है वो क्या है? वो संसार है। तो इतनी सी मांग करना कि मैं काम तो करूँ पर उस पर परिणामों का फल न पड़े। यह मांग असंभव मांग है। तुम्हें इससे बड़ी मांग करनी पड़ेगी। बड़ी मांग क्या है? छोटी मांग है कि मैं करूँ वही जो कर रहा हूँ पर जब परिणाम निकले तो मुझ पर कोई असर न पड़े। इससे बड़ी मांग करनी पड़ेगी। इससे बड़ी मांग क्या है? कि मैं वो करूँ ही न जो मैं कर रहा हूँ। पर जैसे ही यह मांग करोगे तो एक शर्त आएगी कि तुम जो हो वो तो वही करेगा जो वो कर रहा है। तो तुम अगर चाहते हो कि दूसरों के कहे का तुम पर कोई असर न पड़े तो तुम्हें अपने होने को ही बदलना पड़ेगा।

हम ज़िन्दगी भर वही सब कुछ करते हैं जो हमें दूसरों से मिला है। जो दूसरों से ही मिला है वो करने में दूसरों के कहे का अंतर हम पर कैसे नहीं पड़ेगा। दूसरों के कहे का अंतर तो हम पर पहले ही हो चुका है। हो चुका है तभी तो हमने वो काम करना शुरू किया है। अब वो काम कर लेने के बाद तुम मांग क्या कर रहे हो? कि हम पर अब फ़र्क न पड़े। अरे! फर्क न पड़ता होता तो तुम यह काम शुरू ही क्यों करते। और शुरू तुम करोगे, क्यों? क्योंकि तुम हो ही ऐसे। कैसा हूँ मैं? यह जानने के लिए अपने दिन भर की गतिविधियों को देखो। मैंने सिर्फ देखना कहा, कुछ करना नहीं कहा। मैंने नहीं कहा कि देख कर के उनको बदल दो, उनको रोक दो। मैंने कहा सिर्फ देखो और यह देखना ही काफी हो जाएगा। असल में

आत्मज्ञान के अभाव में ही दुनिया तुम पर हावी हो सकती है।

जैसे-जैसे तुम जानते जाते हो अपने-आप को, वैसे-वैसे दुनिया तुम पर हावी होना छोड़ देती है। आत्मज्ञान और संसार ज्ञान यह बहुत अलग-अलग बातें नहीं हैं। दुनिया को भी अगर बारीकी से देख लिया तो अपने आप को भी समझ जाओगे।

बाज़ार में निकलते हो वहाँ दुकानें लगी हुई हैं लाइन से, तुमको ललचाने के लिए। दुकानों को अगर तुम समझ गए तो तुम लालच को समझ गए और लालच कहाँ होता है? अपने मन में न। तो उन दुकानों को अगर ध्यान से समझ लिया तो किस को समझ लिया? अपने आप को समझ लिया।

श्रोता: सर, क्या हम ऐसे जी पाएँगे?

वक्ता: ‘जी पाना’ मतलब क्या? ‘जी पाने’ का अर्थ भी तुम्हें दुनिया ने ही दिया है। जी पाने का मतलब क्या होता है? परिभाषा क्या है जी पाने की?

श्रोता: सर, ज़रूरतों का पूरा होना।

वक्ता: ज़रूरतें क्या है ये तुम ख़ुद जानते हो या फिर दुनिया ने सिखाया है? जब तुम अपनी ज़रूरत की परिभाषा भी अपनी दुनिया से ला रहे हो तो उन ज़रूरतों को पूरा भी तुम्हें दुनिया के अनुसार ही करना पड़ेगा। जो चाहते हो कि ज़रूरतें तो पूरी करें पर दुनिया से बचे रहें, उन्हें अपनी ज़रूरतों की परिभाषा ही बदलनी पड़ेगी। तुम तो बड़ी दुनिया-दारी वाली परिभाषा रखते हो न ज़रूरतों की। तुम्हारे लिए ज़रूरतें क्या हैं? तुम्हारे लिए ज़रूरतें हैं एक अच्छा मकान, गाड़ी-वाड़ी होनी चाहिए, बढ़िया वाले कपड़े होने चाहिए, दुनिया से इज्ज़त मिलती हो। तुमने इन्हीं सब को ज़रूरतों का नाम दिया हुआ है न? यह परिभाषा तुम्हें किसने दी?

श्रोता: सर, दुनिया ने।

वक्ता: जब यह परिभाषा ही तुम्हें दुनिया से मिली है तो इन सब बातों को पूरा करने के लिए तुम्हें गुलामी भी किसकी करनी पड़ेगी? दुनिया की ही करनी पड़ेगी।

अपनी ज़रूरतों की परिभाषा बदलो। यह बात बिलकुल छोड़ दो कि ‘बंदे को कम से कम इतना तो चाहिए न।’ जो बातें बड़ी साधारण लगती हैं ज़रा उन पर सवाल उठाना शुरू करो। यह बात तुम किसी से करोगे तो वो कहेगा- कि यार! इतना तो चाहिए ही होता है। पर तुम डर मत जाओ, तुम संकोच में मत आ जाओ। तुम यह कहो कि मैं जानना चाहता हूँ कि इतना क्यों चाहिए होता है। और मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि यदि इतना भी न हो तो क्या हो जाएगा। और मैं जानना चाहता हूँ कि मेरा कुछ बिगड़ जाना है क्या? और अगर मुझे लग रहा है कि मेरा कुछ बिगड़ जाना है तो वो जो बिगड़ जाना है वो असली है या फिर दुनिया का दिया हुआ है? कुछ बिगड़ भी सकता है, उदाहरण के लिए इज्ज़त जा सकती है, पर इज्ज़त अस्तित्वगत है या समाजगत है? हाँ, बिलकुल कुछ नुक्सान हो सकता है अगर तुम दुनिया के अनुसार अपनी ज़रूरतें पूरी न करो तो। और वो जो नुक्सान होगा उसमें तुम्हारा क्या जाएगा? कुछ ऐसा जो तुम्हें अस्तित्व ने दिया या कुछ ऐसा जो तुम्हें समाज ने दिया?

अब अगर तुमने तय ही कर रखा हो कि तुम्हें सामाजिक होकर जीना है तो फिर तो सत्य तुम्हारे लिए है नहीं। और अगर सत्य की ज़रा भी प्यास है तो सबसे पहले वो परिभाषाएँ छोड़ो जो तुम्हें दुनिया ने दी हैं और अपनी आँखों से साफ़-साफ़ देखो तो तुम्हें सब समझ में आ जाएगा। बाहर से धारणाएँ लेने में कोई फायदा नहीं है।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

YouTube Link: https://youtu.be/p78lNu36l5M

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles