संतों का रोना क्या दर्शाता है?

Acharya Prashant

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संतों का रोना क्या दर्शाता है?
जो जगेगा, वही रोएगा क्योंकि संसार बड़ी पीड़ा में है। और जो जगता है, संसार की पीड़ा अपने ऊपर ले लेता है। संतों का रोना संत की करुणा की अभिव्यक्ति है। वो तुम्हारे लिए रोते हैं, वो अपने लिए नहीं रोते। दस लोग सो रहे हैं और घर में आग लग गई है। उन दस में से एक जगा हुआ है, तनाव किसे रहेगा? एक जगे हुए आदमी को ना! जो जग जाता है, वह शिव की तरह संसार के विष को ग्रहण करता है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

सुखिया सब संसार है, खावे और सोए।

दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए।।

~ संत कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: सवाल है कि क्या कबीर साहब को भी दुख होता है, क्या वे भी रोते हैं? और अगर जग ही चुके हैं तो अब दुख काहे का है?

कौन हैं कबीर साहब? ठीक कहा तुमने। कबीर साहब वो हैं जो जग चुके हैं, वो जीवन मुक्त हैं, संसार सो रहा है।

सुखिया सब संसार है, खावे और सोए।

संसार खा रहा है, संसार भोग में लिप्त है। संसार को एक ही प्रयोजन दिखाई पड़ता है जीने का कि किसी तरह से कामनापूर्ति करो। संसार इस सब में लगा हुआ है, संसार अपने आप को देह ही मानता है और पदार्थ को ही आखिरी सत्य मानता है, और इसी कारण अंततः संसार फूट-फूट के रोता है; खूब दुखी रहता है।

कबीर साहब उस अवस्था से पार पा चुके हैं। तो प्रश्न है कि अब वो क्यों रो रहे हैं? संसार के रोने और कबीर साहब के रोने में अंतर है। संसार जब भी रोएगा अपने लिए रोएगा क्योंकि वो अपने को जीव माने बैठा है। कबीर साहब कभी अपने लिए नहीं रोएंगें। वे अपने जीव भाव से पूरी तरह मुक्त हैं। वे अपने सुख-दुख से पूरी तरह से मुक्त हैं। अपने को तो जीव नहीं जानते, लेकिन ये तो देख ही रहे हैं कि तुम अपने आप को जीव मानते हो। कबीर साहब तर गए हैं, सौ बार कबीर साहब ने धार की, नदी की और मझदार की बात करी है। कबीर साहब तर गए हैं पर तुम तो इसी पार अटके हुए हो। क्या कबीर साहब का कोई व्यक्तिगत दुख है, जिसके लिए रो रहे हैं? और क्या तुम कभी रोए हो, किसी ऐसे दुख से जो व्यक्तिगत नहीं है? ये दोनों रूदन बिल्कुल अलग-अलग तलों पर हैं।

तुम जब भी रोए हो सिर्फ अपने स्वार्थ की खातिर रोए हो। ध्यान देना! तुम्हारा रोना तुम्हारे स्वार्थ का प्रतिफलन है, कबीर साहब का रोना कबीर साहब की करुणा की अभिव्यक्ति है। तुम तो जब भी रोए अपने लिए रोए, तुमने दावा भी भले ये किया हो कि किसी और के लिए रो रहा हूँ, पर देखना कि तुम दूसरे के लिए भी जब रोए तो उससे अपने नाते की खातिर रोए। किसी के मरने पर भी जब रोए तो इसलिए नहीं रोए कि उसका क्या हुआ। तुम रोए कि तुम्हारा कुछ छिन गया, तुम्हारी ज़िंदगी से कुछ कम हो गया, तुम्हारी पहचानों में से एक पहचान मिट गई।

हमारे आँसू अहंकार के अलावा किसी और स्रोत से नहीं निकलते।

वही अहंकार जो लगातार दुख पाता है, क्या वही अहंकार नहीं है जो सुख की चेष्टा में लगा रहता है? और सुख की चेष्टा का फल दुख और आंसुओं के अलावा होगा क्या? हम ऐसे रोते हैं, हम अपनी मूर्खतावश रोते हैं, हम तो जब रोते भी हैं तो हमारा अहंकार और सघन होता है क्योंकि रो करके हम अपने और अस्तित्व के बीच में जो रेखा है, उसको और घना कर देते हैं। हम कहते हैं, ‘दुनिया ने मुझे दुख दिया।’ हमारा ‘मैं’ का भाव और घना होता है। ‘मैं’ कौन? जिसे दुनिया दुख दे रही है।

‘मैं’ और दुनिया दो अलग-अलग सत्ता हैं, दो अलग-अलग इकाईयां हैं, अलग होने का भाव और बढ़ता है रो-रो कर। हम हँसते हैं, उसमें अहंकार; हम रोते हैं, उसमें और बड़ा अहंकार। अपने ही लिए रोते हैं और रोकर के अपने होने के भाव को, ‘मैं’ के भाव को और ज्यादा प्रगाढ़ करते हैं।

एक कबीर साहब का रोना, एक बोधिसत्व का रोना बिल्कुल दूसरा है। वो कहता है, 'इतना सरल था जान जाना, मुझे दिख गया तुम्हें क्यों नहीं दिखता?' वो कहता है, 'जो दूसरा छोर है, जिधर मैं पहुंचा हूँ वो पहले से जुड़ा ही तो हुआ है, इतना समीप है कि दो छोर हैं ही नहीं, एक ही छोर है। मैं सहजता से तर गया, तुम क्यों नहीं तर जाते?'

वो तुम्हारे लिए रोता है, वो अपने लिए नहीं रोता, वो अपने से तो कब का मुक्त हो चुका, अपने लिए अब वो कुछ करता ही नहीं। बाहर-बाहर से दूर-दूर से तुम देखोगे तो लगेगा कि ये तो अभी भी बहुत कुछ करता है। कोशिशों में लगा रहता है, व्यस्तता रहती है, श्रम कर रहा है, जीवन की गतिविधियों में लगा हुआ है, हँसता है, बोलता है, सारे भाव जो कोई भी आम आदमी दर्शाए, सब दर्शाता है, क्रोध भी करता है, तनाव में भी दिखाई देता है, पर यदि देख सकते हो तो देखो कि क्या उसका क्रोध उसके लिए है? क्या उसका तनाव इस खातिर है कि उसका कुछ छिन रहा है? नहीं, अब उसका जो कुछ है वो तुम्हारे लिए है।

आप पढ़ें कबीर साहब को तो उसमें आपको कबीर साहब की पूर्णता ही नहीं दिखाई देगी, उसमें आपको कबीर साहब की शांति और मुक्ति ही नहीं दिखाई देगी, उसमें आपको कबीर साहब की बेचैनी और लाचारगी भी दिखाई देगी, और हर संत ने एक तल पर बेचैनी और लाचारगी में भी जीया है। वो स्वास्थ्य के जिस बिंदु पर है, वहाँ से दुनिया उसके लिए बहुत सरल है। वो यह सवाल बार-बार पूछता है कि, ‘जो इतना सरल है वो संसार के लिए क्यों इतना जटिल है?’ वो यह सवाल बार-बार पूछता है कि, ‘जब सुख-दुख इतने अनावश्यक हैं तो दुनिया इसमें क्यों उलझी हुई है?’ ऐसा नहीं है कि प्रश्न जानता नहीं, पर करुणा का अर्थ ही यही है कि तुम जानते तो हो कि तुम्हारे सामने जो रो रहा है, उसका दुख सिर्फ एक भ्रम है लेकिन फिर भी तुम कहते हो कि, ‘वो भ्रम है, ये मैं जान रहा हूँ, जो रो रहा है वो नहीं जान रहा।’ ये जो रोती हुई इकाई है, इसके लिए तो इस क्षण पर इसका दुख ही एकमात्र वास्तविकता है और किसी सत्ते से ये परिचित ही नहीं हैं, इसी का नाम करुणा है।

करुणा ये नहीं है कि मन में दया उठ आई, करुणा में आप स्पष्ट जानते हो कि, ‘तू आया है मेरे सामने अपनी समस्या लेकर, तू विलाप कर रहा है, आँसू झर रहे हैं और ये सब धोखा है।’ करुणा का ये नहीं अर्थ है कि उसके भाव देखकर आप भी भावुक हो लिए; करुणा में आपको स्पष्ट पता है कि, ’ये सब धोखा है, तेरे अपने विषय में मान्यता ही धोखा है तो तेरे आँसू सच्चे कैसे हो सकते हैं? क्योंकि हर आँसू तेरी अपनी मान्यता से निकल रहा है, पहचान से निकल रहा है, जैसा तू संसार को देखता है वहाँ से निकल रहा है।’

करुणा में सब पता होता है, लेकिन ये सब पता होने के साथ ये भी पता होता है कि, ‘ये जो शरीर रुपी मेरे सामने खड़ा है, इसके लिए तो अभी दुख ही है।' हाँ, समय एक ऐसा आएगा, ये पहुंचेगा एक ऐसे बिंदु पर जब ये खुद ही हँसेगा कि, ‘मैं किस बात पर दुख मनाता था।’ अब इस बिंदु पर जीवनमुक्त को निर्णय लेना होता है। वो यह निर्णय भी कर सकता है कि, 'जब ये सारे दुख झूठ हैं तो झूठ से उलझना कैसा? जो बीमारी है ही नहीं, उसका उपचार कैसा?' वो ये भी कह सकता है कि, ‘मैं इस सब प्रपंच को छोड़ कर के बाहर ही निकल रहा हूँ,’ वो ये कर सकता है। वो ये कह सकता है कि, ‘ये पूरा संसार झूठ, इसकी इच्छाएँ झूठ, इसकी हंसी झूठ और इसका रूदन भी झूठ, मुझे इससे कोई संबंध ही नहीं रखना।’ या वो ये कह सकता है कि, 'नहीं! मैं रुक रहा हूँ। झूठ है, ये मैं जान रहा हूँ पर अभी ये नहीं जान रहें, ये जान जाएँ इस खातिर रुक रहा हूँ।' कबीर साहब उस दूसरी स्थिति में हैं।

दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए।।

जो ही जगेगा, वो ही करुणा से भर जाएगा। जागृति कठोरता नहीं देती, जागृति करुणा देती है। और यदि आप पाएँ कि जागृति से संवेदनशीलता मर रही है, आप में करुणा का भाव नहीं उदित हो रहा तो स्पष्ट समझ लीजिएगा कि आपकी जागृति सिर्फ आपके मन की एक कल्पना है, आप जगे नहीं हैं। जगा हुआ व्यक्ति पूरे संसार के लिए शुभ संदेश होता है, सूरज की तरह होता है जो पूरी दुनिया का अँधेरा मिटाए।

जगे हुए होने का अर्थ ही यही है कि, ‘अब आत्म-केंद्रित नहीं रहा कि अब मेरा आत्म ब्रह्म हो चुका है। अब आत्म अहंकार के साथ संयुक्त नहीं रहा, अब आत्म वृहद हो चुका है, इतना फ़ैल चुका है कि उसमें सब समा गए हैं। अब मैं ये नहीं दावा कर सकता कि, 'किसी और का घर, अब मैं ये नहीं कह सकता कि संसार का दुख, मैं समष्टि के साथ एकाकार हूँ।’ तो जहां कहीं भी दुख है, जहां कहीं भी भ्रम है, जहां कहीं भी अँधेरा है उससे मेरा सरोकार है। मैं ये नहीं कह सकता कि, 'अरे! हो रहा होगा किसी और के घर में, किसी और के देश में। किसी जंगल में हो रहा होगा, किसी जानवर के साथ हो रहा होगा, मेरा क्या जाता है।' ना, मैं अब ये दावा नहीं कर सकता।

यहाँ भी जो कुछ है वो मेरा है। 'मैं हूँ और जब सर्वत्र मैं ही मैं हूँ। तो कुछ भी बेगाना कैसे हो सकता है? कुछ भी दूसरे का कैसे हो सकता है? दूसरे का प्रश्न ही नहीं होता।’ अब संसार का रोना आपका अपना मसला है, जो जगेगा वही रोएगा क्योंकि संसार बड़ी पीड़ा में है और जो जगता है, संसार की पीड़ा अपने ऊपर ले लेता है, नीलकंठ शिव की तरह कि संसार है, उसमें से ज़हर निकल रहा है और वो ज़हर कौन धारण करेगा? वो शिव ही धारण करेगा। ज्यों ही जगेगा उसे ज़हर पीना ही पड़ेगा। हाँ, उस ज़हर से उसका कोई नुकसान नहीं हो जाएगा, पर पीना तो उसे पड़ेगा।

बिल्कुल ठीक कहा है कबीर साहब ने कि, ‘सुखी हो एकमः’ क्योंकि तुम्हें अभी पता ही नहीं कि तुम ज़हर में डूबे हुए हो, आकंठ डूबे हुए हो। अभी तुम्हें पता ही नहीं, जब तक सो रहे हो ठीक हो।

सुखिया सब संसार है, खावे और सोए।।

सोए हुए आदमी के पास दिक्कतें हो सकती हैं पर तुम्हारी दिक्कतें वास्तव में उस दिन बढ़ेंगीं, जिस दिन जगोगे, अभी तो छुट्टियाँ चल रहीं हैं। जो जगता है उसको ही दिखाई देता है कि स्थिति क्या है चारों तरफ, घर में आग लगी हुई है, जब तक जगे नहीं हो तब तक तो सोओ, लगी होगी आग। तुम तो सपनों में हो, झरने में नहा रहे हो। यही कारण है कि गृहस्थों ने कभी नहीं दुनिया को गाली दी क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है दुनिया का, गाली क्यों देंगे?

कबीर साहब कहते हैं संसार के बारे में बहुत कुछ, और संसार की तारीफ में नहीं कहते। संन्यासियों ने खूब आरती उतारी है संसार की, चुनिंदा शब्दों में आरती उतारी है! सोचिए कि ऐसा क्यों है? इसीलिए है क्योंकि आम संसारी को, गृहस्थ को, संसार का कुछ पता ही नहीं है। उसके पास कोई कारण ही नहीं है कि वो कहे कि ये दुनिया कितनी पापिनी है, उसको पता ही नहीं तो वो कहेगा कैसे? ये तो एहसास ही तब होता है, जब आँख खोल कर के देखते हो।

संसार का वास्तविक स्वरूप तो सिर्फ एक जगे हुए आदमी को ही दिखाई देता है।

तो इसीलिए संत लिखता है संसार के बारे में, गृहस्थ नहीं लिखता। गृहस्थ के लिए तो संसार उसके सपनों का बाग है, उसमें भी जाना ही नहीं और जितना आँख खोलोगे उतना ज्यादा दिखाई देगा कि कहाँ फंसे हो। वो दिखाई देने से ही बाहर निकलने की उत्कंठा तीव्र होती है, वो दिखाई देना ही सत्य का खिंचाव है। जितना ज्यादा समझ में आता है कि घर जल रहा है, उतनी विग्रता से बाहर को भागते हो, गिरते-पड़ते आतुरता से, ये भूल करके कि पीछे क्या छोड़ रहे हो, ‘रखे होंगे मेरे लाखों करोड़ों, भागो।’

समझ रहे हो?

जो जागेगा, उसे ही दिखाई देगा कि क्या है। इसीलिए जो जगा है उसी के ऊपर करुणा का दायित्व भी आया है, इसी करुणा के दायित्व को कबीर साहब कह रहे हैं, जागे और रोए।

दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए।।

जो अभी जगा ही नहीं, उसके ऊपर कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं। दस लोग सो रहे हैं और घर में आग लग गई, उन दस में से एक जगा हुआ है, तनाव किसे रहेगा? नौ सोए हुए लोगों को या एक जगे हुए आदमी को?

श्रोतागण: जगे हुए को।

आचार्य प्रशांत: जो एक जगा आदमी है, तनाव उसे रहता है।

दुखिया दास कबीर है, जागे और रोए।।

जो सो रहे हैं, वो कहाँ हैं? वो तो झरने में नहा रहे हैं। संसार जल रहा है, जिस संसार में वो अपने आप को मानते हैं, उनकी नज़र में तो वो जीव ही हैं न? उनकी नज़र में तो वो जीव हैं। कोई यही न सोचे कि, 'जगने से आनंद का, मुक्ति का कोई स्वर्ग खुल जाता है तुम्हारे लिए।' हाँ, वो स्वर्ग खुलते हैं, जहां पर तुम्हारे अंतर्जगत की बात है। उसमें प्रेम का झरना फूटता है, मुक्ति का आकाश खुलता है, आनंद का अमृत मिलता है। ठीक, अंतर्जगत में ये सब होता है पर जगने का दायित्व भी बहुत बड़ा है।

जगे हुए व्यक्ति को ये न मान लेना कि वो यूँ ही मुस्कुराता हुआ घूम रहा होगा चारों तरफ। उसकी ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है क्योंकि उसे दिख रहा है, उसे तुम्हारा सारा दुख और कारण दिख रहा है, उसे दिख रहा है कि किन दुखों से मुक्ति सहज संभव है, उसे ये भी दिख रहा है कि वो मुक्ति मिल नहीं रही। तो यूँ ही किसी मीठी कल्पना में मत रहना कि मोक्ष माने तो हर्निश मधु बरसेगा और हम मौज में रहेंगे। रहोगे, मौज में रहोगे, पर साथ ही साथ पाओगे कि अब तुम सत्य के पैगम्बर हो। सत्य सिर्फ मौज ही नहीं देता, सत्य ये आज्ञा भी देता है कि, ’मेरा पैगाम फैलाओ।’ जो मौज तुम्हें मिल रही है, वो सबको भी मिले क्योंकि उसका स्वभाव है विस्तीर्ण होना।

सत्य सीमित नहीं रहना चाहता और सत्य का पैगम्बर होना आसान नहीं।

हमें पता है कि हमने अपने पैगम्बरों के साथ क्या किया है।

हाड़ जलै ज्यों लाकड़ी, केस जलै ज्यों घास।

सब जग जलता देख के, भया कबीर उदास।।

नहीं, कबीर साहब नहीं कह रहे हैं कि, 'कबीर साहब को जलता देख के कबीर साहब उदास हुए हैं।’

सब जग जलता देख के, भया कबीर उदास।।

तुम वो हो, अमृता जिसका स्वभाव है और अब फिर भी जल रहे हो। ये बात जितनी हास्यास्पद है, उतनी ही ज्यादा करुणाजनक भी तो है। एक छोर पर तो उपहास किया जा सकता है, मज़ाक की बात है कि जो मर नहीं सकता, वो मर भी रहा है और जल भी रहा है। एक छोर पर तो ये सिर्फ एक मज़ाक है, ये चुटकुले की तरह है दुनिया। दूसरे छोर पर ये बात बड़ी त्रासिक भी है कि डूबे हुए हैं हम, नाक तक, दुख में ही डूबे हुए हैं। वही तो भवसागर कहलाता है न? दुख का सागर, वो दुख का ही सागर है भवसागर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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