दुःख मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है || आत्मबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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दुःख मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है || आत्मबोध पर (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। कभी-कभी बहुत गहरा भाव उठता है कि सब छोड़-छाड़कर खड़ी हो जाऊँ और चीख-चीखकर कहूँ, "अब और नहीं!" कभी-कभी अनजाने में खड़ी भी हो जाती हूँ, फिर ठिठक जाती हूँ कि “ये क्या हुआ?”

आचार्य जी, ये ज्ञान-विज्ञान, कर्म मुझे कुछ समझ नहीं आता, और समझना भी नहीं चाहती शायद। बस यही गहरा भाव है कि आचार्य जी, आपके चरणों में गिर पड़ूँ और बिलख-बिलखकर रो लूँ और बस रोती ही रहूँ। इसमें प्राण निकल जाएँ तो और ही अच्छा। ये रोज़-रोज़ थोड़ा-थोड़ा रोना, इतनी पीड़ा! अभी भी प्रश्न लिखते हुए आँसू बह ही रहे हैं। वेदना बहुत है, आचार्य जी। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: काश! मुक्ति रो-रोकर, तड़पकर प्राण त्यागने से मिल सकती—नहीं मिलती है। बहुत महँगी है। अगर इतने में भी मिल जाती कि कोई वेदना में छटपटाकर, रोकर प्राण त्याग दे, तो भी मुक्ति सस्ती थी। ऐसे भी नहीं मिलती, तो ऐसे पाओगी नहीं।

मुक्ति का तो एक ही तरीक़ा है – एक-एक करके अपने बंधनों को पहचानो और काटते चलो।

रोने-तड़पने भर से कुछ हो नहीं पाएगा।

मैं तुम्हारी वेदना समझता हूँ; सबकी वेदना समझता हूँ, ये तक कह सकते हो कि अनुभव करता हूँ, लेकिन ये भी जानता हूँ कि ये वेदना अधिकांशतः व्यर्थ ही जाती है।

आँसू मत बनाओ वेदना को, आग बनाओ। चिल्लाओ नहीं, कलपो नहीं, संयमित रहकर अपने दर्द को अपनी ताक़त बनाओ। आँसुओं से तो सिर्फ़ गाल गीले होते हैं, तुम्हें आग चाहिए; तुम्हें अपनी बेड़ियाँ पिघलानी हैं। वही वेदना का सार्थक उपयोग है।

तो सहानुभूति पूरी रखता हूँ, एक तल पर तुम्हारे दर्द से एक हूँ, लेकिन फिर भी यही कहूँगा कि जो कर रहे हो, वो व्यर्थ जाएगा। इसीलिए ज्ञान आवश्यक है।

भावनाओं का आवेग यदि बल है, तो ज्ञान उस बल को सही दिशा देता है। इसीलिए शास्त्रों का अध्ययन ज़रूरी है, ताकि तुम्हारे भीतर की इस ऊर्जा को सही दिशा दी जा सके। सही दिशा नहीं दोगे तो भीतर की बेचैनी तुम्हें ही खा जाएगी। जैसा तुमने लिखा है, कुछ-कुछ वैसा ही हो भी जाएगा। आज नहीं तो कल यूँ ही दुःख में, मलिनता में, अवसाद में जान दे ही दोगे, या जान नहीं भी दोगे, जिये जाओगे तो वो जीना भी मृतप्राय ही रहेगा। ये बात सबके लिए है, सब पर लागू होती है।

दुःख भी ऊर्जा है एक प्रकार की, उसका सदुपयोग करो। दुःख आए तो उस घटना को, उस उद्वेग को व्यर्थ मत जाने दो। दुःख का ही इस्तेमाल कर दो दुःख के मूल को काटने के लिए, जैसे साँप के ज़हर का इस्तेमाल होता है साँप का ज़हर उतारने के लिए। और कोई तरीक़ा भी नहीं दुःख को काटने का।

हमेशा कहा है मैंने कि मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन दुःख ही है। अब या तो दुःख को अभाग समझ कलप लो, या दुःख को लपक लो। बताओ कलपना है, कि लपकना है?

मैं कह रहा हूँ, लपक लो। दुःख बारूद है, उसका इस्तेमाल करो। सब जो कुछ जीवनक्षीण, फटा-पुराना, अनावश्यक है, ढहा दो उसको। करो विस्फोट!

ये बेचैनी, ये बेक़रारी बेसबब नहीं होती। कभी बहुत पहले मैंने कहा था कि पीड़ा परम का पैग़ाम होती है। पैग़ाम आया है, उसको पढ़ो। रोना-पीटना बहुत हुआ। आँसू पोंछो, साफ़-साफ़ पढ़ो कि क्या कहा जा रहा है। इसीलिए ये ग्रन्थ हैं, इसीलिए आदि शंकराचार्य के साथ हो।

मनुष्यों में, ख़ासतौर पर स्त्रियों में भावुकता तो होती ही है, और भावुकता माने भाव की ऊर्जा। उसी भावुकता को अगर ज्ञान की दिशा मिल जाए तो फिर कुछ सार्थक होता है, अन्यथा वो भावुकता भावुक व्यक्ति को ही भारी पड़ती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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