दोस्त वो जो तुम्हें तुम तक वापस लाए || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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दोस्त वो जो तुम्हें तुम तक वापस लाए || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

श्रोता १: सर, दोस्त और दोस्ती क्या है?

वक्ता: दोस्त और दोस्ती क्या है? जब भी दोस्त कहते हो, तो तुम्हारा आशय हमेशा किसी दूसरे से होता है। है ना? तो चलो, वहीँ से शुरू करते हैं| कोई दूसरा कब मानूं कि मेरा दोस्त है? जो दूसरा है, उसको कब दोस्त कहा जा सकता है; और कब कहें कि वो हमारा दोस्त, नहीं है?

तो हम दूसरों के बीच में रहते हैं| लगातार हम दूसरों से घिरे हुए रहते हैं| है ना? हम जानना चाहते हैं कि दूसरे में, कैसे परखें कि हमारे लिये भला कौन और बुरा कौन। जिसको हम अपने लिये भला मानते हैं, उसको हम दोस्त का नाम दे देते हैं| ठीक है? तो प्रश्न बहुत सीधा हो गया है। हम, एक दुनिया में रहते हैं, जहां हमें चारो ओर दूसरे ही दूसरे दिखाई देते हैं, इन दूसरों में, कैसे जानूँ कि मेरे लिये हितकर कौन है। ठीक है ना? और जो ही हितकर है, उसी का नाम दोस्त हो गया| दोस्त कौन है, ये समझाने के लिये, पहले मुझे ये देखना पड़ेगा कि मेरा हित किसमें है? फिर जो मुझे, मेरे हित की तरफ ले जाए, वही कौन हुआ?

सभी श्रोतागण(एक साथ): दोस्त|

श्रोता २: सर, फिर तो इन सब में, स्वार्थ ही है।

वक्ता: हां, बिल्कुल |

श्रोता २: सर फिर फायदा क्या है?

वक्ता: समझो उसको| तुम्हारा हित किसमें है, और तुम्हें प्रिय क्या है- ये दोनों बहुत अलग अलग बातें हैं| तुम कभी अपना हित नहीं देखते हो| तुम हमेशा ये देखते हो कि तुम्हें प्रिय क्या है; और जो तुम्हें प्रिय है उसने तुम्हें इतना जकड़ रखा है कि जब मैं कहता हूं कि अपना हित देखो, तो भी तुरंत तुम्हें सुनाई ये दिया कि जो तुम्हें प्रिय लगे, वो तुम्हारा दोस्त है| मैंने ये तो नहीं कहा था। हित अपना जानते हो क्या? हम अपना हित जानते ही नहीं, इसी कारण हम ये जानते ही नहीं कि हमारा दोस्त कौन हुआ| हम ये तो अच्छे से जानते हैं कि हमें प्रिय क्या लगता है, हमारा मन उत्तेजित किन बातों पर होता है, हमें मनोरंजन कैसे मिलता है- ये सब तो हम जानते हैं| पर हम ये बिल्कुल भी नहीं जानते कि हमारा हित कहां पर है। फंस गए ना?

जिसे तुम स्वार्थ कह रहे हो, वो साधारण स्वार्थ| वो तो प्रिय-अप्रिय का खेल है| जिस स्वार्थ की तुमने बात की, उसमें जो ‘स्व’ है, वो नकली स्व है| वो हित को समझता ही नहीं| क्या तुम जानते हो तुम्हारा हित कहां है? यदि तुम ये जान गए कि तुम्हारा हित कहां है, तो फिर तुम ये भी तुरंत समझ जाओगे कि तुम्हारा दोस्त कौन हुआ। एक क्षण की देरी नहीं लगेगी| आज अगर हम दोस्तों के नाम पर दुश्मनों से घिरे हुए हैं, तो उसका कारण यही है कि हमें ही नहीं पता कि हमारा हित कहां है। और हमें ये नहीं पता कि हमारा हित कहां है क्योंकि हम यही नहीं जानते कि हम कौन हैं? जिसे अपना नहीं पता, उसे दोस्तों का क्या पता होगा? कहां है तुम्हारा हित?

क्या तुम्हारा हित इसमें है कि तुम्हें तुमसे दूर कर दिया जाए? क्या तुम्हारा हित इसमें है कि तुम्हारे मन में दस तरह के उपद्रव भर दिये जाएं? पर तुम दोस्त तो इन्हीं आधारों पर चुनते हो? क्या तुम्हारा हित इसमें है कि जब तुम बेहोशी की दिशा में जा रहे होओ, तो तुम्हें उसी दिशा में और धकेल दिया जाए? और याद रखना, जो बेहोशी की तरफ जा रहा होता है, उसे बेहोशी बड़ी प्रिय लगती है| शराबी को शराब, बड़ी प्रिय लग रही होती है| तो कौन हुआ दोस्त? जो तुम्हारे साथ बैठ कर शराब पीये? पर तुम्हारे अनुसार तो तुम्हारा दोस्त वही है| कितने लोग हैं यहां पर जो दुश्मनों के साथ बैठ कर पीते हैं? दुनिया में तुमने जिसको भी पीते देखा होगा, दोस्तों के साथ ही पीते देखा होगा| उसका दावा यही होगा कि दोस्तों के साथ जरा पी रहा था| पर वो तुम्हारा दोस्त हो कैसे सकता है? अगर उसके साथ तुम पी रहे थे, तुम्हारा दोस्त क्या तुम्हें बेहोश होने देगा? जिसने भी आज तक जा कर लड़ाई की, उपद्रव किये, युद्ध किया, उसके दावे यही रहें हैं कि ये दोस्तों के लिये, और दोस्तों के साथ किया| सच तो ये है कि अगर तथाकथित दोस्तों का समर्थन ना मिले, तुम एक भीड़ जुटा ना पाओ| तो तुम उपद्रव कर नहीं सकते| पर जो उपद्रव में तुम्हारी सहायता कर रहा है, वो तुम्हारा दोस्त हुआ कहां? तुम्हें अपने हितों का पता कहां है? लेकिन दावा तुम्हारा यही होता है कि ये मेरे दोस्त थे, और सारे उपद्रव दोस्तों के ही साथ और दोस्तों के ही संरक्षण में किये जाते हैं| दुश्मनों के साथ तो नहीं किये जाते| या ये कहते हो कि दुश्मनों को साथ लेकर मैं गया था, लड़ाई करने? संगठित तो सब आपस में दोस्त ही होते हैं। कि नहीं होते?

(मौन)

हम दोस्ती को, जानते कहां हैं? मूल में बात ये है कि हम खुद को नहीं जानते| हम यही नहीं जानते कि हमारा वास्तविक हित कहां पर है| जब हम अपने आप को अहंकार से जोड़ कर के रखते हैं, तो हम बस यही समझते हैं कि जो हमारे अहंकार को और बढ़ाए, वही हमारे लिये अच्छा है|

तो दोस्त दो तरह के हो सकते हैं| एक वो, जो तुम्हारे अहंकार को और बढ़ाए, जो तुम्हारी धारणाओं को और मजबूत करे, जो तुम्हारी बिमारियों को और गहरा करे, जो तुम्हें लगातार इस भ्रम में रखे कि सब ठीक है, तुम बढ़िया हो, तुम में कुछ गड़बड़ नहीं है, तुम दौड़े चलो, जाओ भविष्य की ओर, और वहां से कुछ उठा कर के ले आओ, कुछ जीत लाओ| ये वो दोस्त हैं जिनके साथ तुम्हारा अहंकार बड़ी ख़ुशी पता है, बड़ी ख़ुशी पाता है| मैं तुमसे कह रहा हूं, ये तुम्हारे दोस्त नहीं हैं, यही तुम्हारे जीवन का बोझ हैं| इनसे जल्दी से मुक्त हो जाओ, तुरंत।

और एक दूसरा दोस्त भी होता है| एक दूसरा दोस्त भी होता है, जो तुम्हारे अहंकार को बढ़ाता नहीं| उसे गला देता है| ये दोस्त तुम्हें पसंद नहीं आएगा| क्योंकि ये दोस्त तुम्हारे सामने जब भी पड़ेगा, ये तुम्हारे मुंह पर आईना रख देगा| ये कहेगा, अपनी असली शक्ल देखो| ये तुमसे झूठ नहीं बोलेगा| ये तुमसे ये नहीं कहेगा कि तुम जैसे हो बहुत बढिया हो| ये तुमसे कहेगा कि दोस्त, अभी तो तुमने अपने आप को जो पाल रखा है, अभी तो तुमने अपने आप को जो मान रखा है, वो बड़ा अस्वस्थ है, वो बड़ा झूठा है| हां, आत्यांतिक रूप से, संभाव्य के रूप में तुम बहुत कुछ हो| पर फ़िलहाल, तुम अपने उस संभाव्य से बहुत दूर हो| ये दोस्त तुमको सपनों में नहीं रखेगा| ये तुमको हकीकत में ले आ देगा, और इसी कारण ये तुमको पसंद आएगा नहीं| ऐसे दोस्तों से तुम दूर भागोगे| ये तुम्हारा सच्चा मित्र होगा, पर तुम्हें इसकी शक्ल पसंद नहीं आएगी| तुम इसको देखते ही कहोगे, ‘ये फिर आ गया, मुझको दुःख देने’| ये तुम्हें नहीं दुःख दे रहा है| ये तुम्हारे ‘अहंकार’ को दुःख दे रहा है| तुम अपने अहंकार से जुड़े बैठे हो| इस कारण तुम्हें लगता है कि तुम्हें दुःख दे रहा है| तुम्हें दुःख दे ही नहीं रहा ये| तुम्हारा हित है मुक्ति में, तुम्हारा हित है आनन्द में और प्रेम में| देखो कि जिसको तुम अपना दोस्त कहते हो, क्या वो तुम्हें मुक्ति की ओर ले जा रहा है? या दुनिया भर के बन्धनों में और जकड़ता जा रहा है? तुम्हारा हित है होश में, जागृति में| देखो कि जिनको तुम अपना दोस्त बोलते हो, क्या वो, खुद जगे हुए हैं? क्योंकि सोता व्यक्ति दूसरे को नहीं जगा सकता| देखो कि जिसको तुम अपना मित्र बोलते हो, जब तुम उसके साथ होते हो तो तुम्हारा होश बढ़ जाता है, या तुम और बेहोश से हो जाते हो? अपने हितों को जानो| होश को अपना परम हित समझो, आनन्द को और प्रेम को अपना, परम हित समझो। और जब तुम इनको अपना हित जान लोगे, तो तुम तुरंत देख लोगे कि कौन तुम्हारा दोस्त है, और कौन तुम्हारा दोस्त नहीं है| आ रही है बात समझ में? जो तुम्हारा वास्तविक मित्र होगा, मैं दोहरा रहा हूं, वो तुमको कुछ समय के लिये बड़ा कष्टप्रद लगेगा क्योंकि जब अहंकार पर चोट पड़ती है, तो मन तिलमिलाता है| जब आईना सामने रख दिया जाता है, तो मन उसे देखना नहीं चाहता| मन तो अपने नकली स्वप्नों में, अपने सपनों में ही खोया रहना चाहता है| तुम्हारा असली दोस्त तुम्हें भाएगा नहीं| पर ज़रा जागो, होश से काम लो, समझदार रहो|

जीवन इतना सस्ता तो नहीं है कि उसे यूं ही बस, बिखरा बिखरा सा, बंटा-बंटा सा, जीये जाओ? तुम्हारी समझ, तुम्हारा असली दोस्त है| तुम्हारा अहंकार, तुम्हारा परम दुश्मन है| दोस्त और दुश्मन तुम्हारे ही भीतर बैठे हुए हैं| तुम्हारा ऊँचे से ऊँचा दोस्त है, तुम्हारा होश, तुम्हारी जागृति| और तुम्हारा परम शत्रु है, तुम्हारा अहंकार| तो अहंकार के चलते जो भी लोग तुम्हारे जीवन में, तुमसे जुड़े हुए हैं, वो तुम्हारे दुश्मन हुए| और समझ और प्रेम से जो भी लोग तुम्हारे जीवन में आए हैं, वो तुम्हारे दोस्त हुए|

ठीक?

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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