दूसरों पर निर्भर रहना बंद करो

Acharya Prashant

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दूसरों पर निर्भर रहना बंद करो

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत अच्छा लग रहा है यहाँ शिविर में आकर। ऐसा घर पर अनुभव नहीं होता। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: दो-चार बातें हैं, सब ध्यान से सुनो। पहली बात तो ये कि—सही जगह पर जितना समय गुज़ारोगे, भ्रामक और अशांत जगह पर वक्त गुज़ारना उतना मुश्किल होने लगेगा तुम्हारे लिए। तो यह हमने पहली बात कही। क्या? कि सही जगह पर जितना वक्त गुज़ारोगे, अशांतिपूर्ण जगह पर वक्त गुज़ारना तुम्हारे लिए उतना मुश्किल होने लगेगा। दूसरी बात ये कि—अक्सर सही जगह पर थोड़ा वक्त गुज़ारना अंदरूनी साज़िश होती है गलत जगह को बरकरार रखने के लिए। आप कहते हो कि, “एक संतुलन बना दिया न। मैं कोई पूरी तरह से भ्रमित या बहका हुआ थोड़े ही हूँ। मैं बीच-बीच में शिविरों में शिरकत करता रहता हूँ।” तो, शिविरों में जाना, अपनी जो बाकी उलझी हुई और बहकी हुई दिनचर्या है, उसको यथावत रखने का बहाना और कारण बन जाता है। ऐसे में आप शिविर से कोई गहरा लाभ उठा नहीं पाओगे, क्योंकि आप शिविर में इसलिए जा ही नहीं रहे हो कि आप शिविर के हो जाओ। आप शिविर में जा ही इसलिए रहे हो ताकि थोड़ी थकान मिटा लो, थोड़े ताजे हो जाओ। और वापस आकर के पुनः अपनी पुरानी दुनिया में डूब जाओ।

जब आदमी इस तरह का विभाजन करता है कि अट्ठाईस दिन काम के और दो दिन अध्यात्म के, तब उन अट्ठाईस दिनों में सब मैला-मैला, काला-काला हो जाता है। क्योंकि आप चाहते हो कि इस तरीके का एक तीक्ष्ण विभाजन हो जाए। और इन दो दिनों में आपको सब कुछ उजला-उजला, धवल-धवल, साफ-साफ बनाना ही पड़ता है। आपने इस विभाजन को परिभाषित ही ऐसे किया है कि, “मेरी कामकाजी दुनिया, मेरी सामान्य दुनिया, वहाँ लोग ज़रा गंदे-गंदे हैं। उनके साथ मेरा मन नहीं लगता। और उससे भागकर के मैं कभी-कभार शिविरों में आता हूँ। यह बड़ी अच्छी और प्यारी-प्यारी दुनिया है। यहाँ मेरा मन खूब लगता है।” तो फिर यहाँ के सब लोग तुम्हें अच्छे लगेंगे और वहाँ के सब लोग तुम्हें बुरे लगेंगे। यहाँ के सब लोग तुम्हें अच्छे लग ही इसलिए रहे हैं क्योंकि उनके साथ दो ही दिन रहना है और तुमने तय कर रखा है कि दो दिन के बाद विदाई है। इन्हीं लोगों के साथ हफ्ता गुज़रो, तो इनमें से ही कुछ तुम्हें बुरे लगने लगेंगे। ये तुम अपने लिए व्यर्थ का एक द्वैत खड़ा कर रहे हो, और ये द्वैत कुछ नहीं है, एक चक्की है, दो फांक हैं। विभाजन का काम ही यही होता है न, दो फांक बना देना। दो हिस्से हो गए, ये चक्की चलती रहेगी—जीवन इसमें पिसता रहेगा, समय व्यर्थ जाता रहेगा।

तुम यहाँ समय गुज़ारोगे और अपनेआप को बताओगे कि बहुत अच्छा समय था, बहुत बढ़िया समय था—लेकिन तुम्हारा यहाँ के यथार्थ से कोई संबंध नहीं होगा। तुम एक काल्पनिक, उज्जवल, धवल छवि गढ़ लोगे कि जगह बहुत अच्छी थी, समय बहुत अच्छा गुज़रा, बड़ा मीठा, बड़ा प्यारा अनुभव हुआ। और अब हम जा रहे हैं, कहाँ? वही अपनी दुनिया में वापस। और फिर यहाँ से जब वहाँ वापस जाओगे तो गरियाओगे, कहोगे, “यह बेकार है”। कुछ दिन वहाँ रहोगे फिर तुम्हारी ही परिभाषा कहती है कि वह दुनिया बेकार है तो एक-आध दो दिन को फिर यहाँ लौट कर के आओगे। उनको अगर तुम्हें कहते रहना है—‘बेकार’, तुम्हें अगर यह साबित करते रहना है कि तुम्हारी बाहर की दुनिया ‘बेकार’ है तो तुम्हारे ऊपर फिर जिम्मेदारी आ जाती है, अनिवार्य हो जाता है, कि तुम कहो कि यहाँ की दुनिया बहुत ‘अच्छी’ है।

तुम्हें कैसे पता कि यहाँ की दुनिया बहुत अच्छी है? अच्छी है या बुरी है? यह जानने के लिए तो पहले इसमें गहरे पैठना पड़ेगा। इस तरह की भावनाएँ, अध्यात्मिक शिविरों और सत्संगों में खूब छलकती हैं, इन भावनाओं से सावधान रहना। लोग मिलेंगे, एक दूसरे से कहेंगे, “बस, अब हम गुरु भाई हैं। तुम्हारा ही इंतजार था। ऐसा लग रहा है कि कुंभ में बिछड़ा हुआ कोई मिल गया। तुम्हारे लिए ही तो बेकरार थे। आओ सखी, तुम सब को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि तुम ही लोग परिवार हो।” ये लोग अगर इतने अच्छे लगते हैं तो इन को छोड़कर काहे जा रहे हो भाई? यही बस जाओ। और यह तो छोड़ दो कि यहाँ बसना है, तीसरे दिन देखना कितने हड़बड़ी में भागोगे—किसी का टिकट होगा, किसी की कोई और व्यस्तता, कोई और ज़िम्मेदारी। अभी ही, भोजन से पहले, एक-दो लोग यहाँ ज़्यादा थे। अभी एक-दो लोग कम हो गए। कमरे उनके यहाँ आरक्षित हैं। और कहना उनका यही है कि हम बिलकुल न किसी दबाव में जीते हैं, न हमें जीवन में किसी प्रकार का कोई कष्ट है। और दो फोन आए नहीं कि चंपत (गायब)! न कोई दबाव है, न कोई कष्ट है, बस कमरा सूना पड़ा है! इस तरह की सस्ती भावनाओं से बचना, और यह बहुत बहती हैं—अध्यात्म ‘भावुकता’ का नाम नहीं है कि “बस मुझे तो यहाँ आकर के ऐसा लगता है कि मुझे मेरा घर मिल गया, स्वर्ग मिल गया—लाओ ज़रा अपना फोन नंबर देना”। बहुत लोग होते हैं जो समाज में अन्यथा मेलजोल नहीं बढ़ा पाते तो अध्यात्मिक शिविरों को मेलजोल बढ़ाने का, सोशलाइज़िंग का माध्यम बना लेते हैं, कि चलो यहीं पर कुछ नए लोगों से जान पहचान होगी।

मीठा-मीठा नहीं है अध्यात्म। अगर तुम्हारे साथ ऐसा नहीं हुआ है कि ज़हर से ज़्यादा कड़वा लग रहा हो, तो अभी तुमने चखा ही नहीं है। जान जाती है, गला कटता है, ज़हर पीना पड़ता है। अभी तो बता रहे हो कि बाहर की दुनिया खराब है, यहाँ सत्संग अच्छा लगता है—ज़रा गहरे डूबोगे तो पता लगेगा। और जो गहरे डूबे हैं, उनसे कभी पूछना, वो बताएँगे, कि गुरु के सानिध्य में रहो तो बाहर की दुनिया बहुत प्यारी लगने लगती है, “ये कहाँ फँस गए, भागो रे!” ये सब किस्से कहानियों की लच्छेदार बातें हैं, इनमें मत फँस जाना, कि अमृत-धार बहती है, मधुरस बहता है, आ हा हा, जाम छलकता है, शहद-ही-शहद है। मार पड़ती है, बढ़िया वाली। और फिर बाहर, सब कुछ, बड़ा प्रलोभित करेगा, आमंत्रित करेगा, लगेगा बस भाग ही जाएँ। दो बार झाड़ पड़ेगी नहीं बच्चू कि गायब हो जाओगे एकदम। फिर नहीं कहोगे कि बाहर सब बुरा है। फिर कहोगे कि—“बाहर के क्या कहने! वहाँ कोई कम-से-कम छाती पर तो नहीं चढ़ता, गर्दन तो नहीं पकड़ता। यह अध्यात्म का तो मतलब होता है—व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ह्रास। हमें हमारे हिसाब से कुछ करने ही नहीं दिया जाता। हम कुछ भी करें तो कहा जाता है कि यह तो अहंकार है। चलो जी, गुरु की आज्ञा का पालन करो। गुरु न हुए हिटलर हो गए! हमारी भी कोई हस्ती है कि नहीं? संविधान ने हमको कुछ हक दिए हैं। मूल अधिकार है। हमारी भी कुछ स्वतंत्रता है। अब हमारा मन कर रहा है कि अभी हम सोएँगे तो सोएँगे। गुरुदेव कौन होते हैं बताने वाले कि अभी जगो? हमारा मन कर रहा है कि हम दिन भर सोएँगे, तो वो काहे को बता रहे हैं? हमारा मन है अभी हमें जाना है, हमारा मन है अभी हमें आना है। गुरुदेव बता रहे हैं—“नहीं, गुरु आज्ञा से आवे, गुरु आज्ञा से जाए”। काहे गुरु आज्ञा से आए? काहे गुरु आज्ञा से जाए? अपने हिसाब से चलेंगे। गुरुदेव कह रहे हैं—“कहे कबीर सो शिष्य को आवागमन नशाय”। अरे हमें आवागमन बंद करना ही नहीं है। हमें आना-जाना बहुत अच्छा लगता है, बस टिकट सेकंड ए.सी. का होना चाहिए, आवागमन में क्या समस्या है?

जो लोग ज़रा पुराने खिलाड़ी हों, उनसे पूछना कि अध्यात्म कितना मीठा है। कवियों से मत पूछो, और न उनसे पूछो जो पार निकल गए हैं, उनसे पूछो जो मध्य में हैं, क्योंकि उनसे तुमको तुम्हारे मुताबिक सही इशारा मिलेगा। न उनसे पूछो जो बाहर से देख रहे हैं, क्योंकि उन्हें कुछ पता नहीं। वह तो तुम्हें लच्छेदार परी कथाएँ सुनाएँगे। और न उनसे पूछो जो पार निकल गए हैं, जो पार निकल गए हैं, वह भी बड़ी मीठी बातें करेंगे। मैं कह रहा हूँ, उनसे पूछो जो मध्य में है, वो बताएंगे तुम्हें। “कितना मीठा है भाई, अध्यात्म?” नहीं, मीठा नहीं है।

प्रश्नकर्ता: पर मुझे वो बहुत कड़वा लग रहा है।

आचार्य प्रशांत: क्योंकि यह अभी कितना कड़वा है, पता नहीं चला न। इसको पी लो, फिर बाहर सब मीठा-मीठा लगेगा। अध्यात्म होता ही इसीलिए है ताकि फिर तुम जीवन को बहुत मीठा पाओ। यहाँ तुमको इतना कड़वा घोल पिलाया जाता है कि उसके बाद जीवन कैसा लगने लगता है, एकदम मीठा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या इसका मतलब यह है कि मैं कुछ दिन अध्यात्म में चल कर देखूँ, ताकि बाहर की दुनिया मीठी लगे?

आचार्य प्रशांत: अभी पहला ही दिन है, बेटा। (मुस्कुराते हुए) तीसरा दिन आने दो। और तीसरे दिन को भी झेल जाओ, तो फिर दो-चार शिविर और करना।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, स्पष्ट तौर पर बताऊँ तो दिल तो करता है कि झेल लूँ आकर के क्योंकि वहाँ नहीं झेला जाता है। बड़े भारीपन में होकर के जीता हूँ, वहाँ झूठा नकाब पहनकर मज़ा नहीं आता। समझ नहीं आता कि क्या करूँ।

आचार्य प्रशांत: (हँसते हुए) यह तुम हमें चुनौती दे रहे हो।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नहीं। सच बात बता रहा हूँ। चुनौती कैसे दे सकता हूँ। अपने मन की दुविधा साफ कर रहा हूँ कि कहाँ फँसा पड़ा हूँ अभी।

आचार्य प्रशांत: अरे बेटा, वहाँ फँसे ही इसलिए पड़े हो क्योंकि तुम्हारे भीतर की कड़वाहट तुम्हें कभी किसी ने ज़ाहिर नहीं करी। बाहर वाले अगर तुमको गुलाम बना रहे हैं तो इसलिए क्योंकि भीतर से तुम गुलाम हो। और यहाँ अगर आओगे तो आईना दिखाया जाएगा। उस आईने में चेहरा नहीं दिखाई देता, मन दिखाई देता है। और जब आईने में नजर आएगा कि भीतर कितनी गुलामी छुपी है, तो अच्छा नहीं लगेगा। हाँ, लेकिन अगर वो आईना ठीक से देख लिया, अपनी गुलामी से रूबरू हो गए, तो बाहर फिर किसी का गुलाम बनने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

बाहर की दुनिया ऐसी है कि जैसे ज़ख्म हो पाँव में, और चलो तो दर्द होता हो, टीस उठती हो। और अध्यात्म ऐसा है कि जैसे, आओ, और ज़ख्म उखेड़ दिए जाएँ। तो बाहर कम-से-कम ज़ख्म छुपे तो हुए हैं, पट्टी बंधी हुई है, चल तो रहे हो। यहाँ आओगे तो सब उघेड़ दिया जाएगा, और दिखेगा कि खून बह रहा है और घाव गहरा है।

प्रश्नकर्ता: पर यह निश्चित हो जाएगा कि ज़ख्म भर जाएगा।

आचार्य प्रशांत: क्या पता! तुम भरने दोगे तो भरेगा।

प्रश्नकर्ता: नहीं, उधर तो पता ही नहीं है न—पट्टी के अंदर पता नहीं भरे या न भरे।

आचार्य प्रशांत: हाँ, उधर पट्टी के नीचे ज़ख्म है पर आँखों के सामने रसगुल्ला है। तो ज़ख्म याद नहीं आता और तुम बढ़े जाते हो उसकी ओर। ये तो हुआ ही होगा न। पाँव में ज़ख्म है और आँखों के आगे क्या है? रसगुल्ला! तो बढ़े जा रहे हैं। फिर ज़ख्म का दर्द ज़रा सहनीय हो जाता है। यहाँ रसगुल्ला कोई है नहीं। और ज़ख्म और खोल दिया जाएगा, कि लो, देखो।

प्रश्नकर्ता: समय तो यही आ गया है कि अब देखने का दिल करता है।

आचार्य प्रशांत: बस, अब तो दिखा ही देते हैं, तुमको।

प्रश्नकर्ता: जितनी उम्र हो गई है, उस हिसाब से विकास नहीं हो रहा, परेशानी बहुत ज़्यादा है अंदर।

आचार्य प्रशांत: बस, शिष्य हो तो ऐसा। वो गुरु के सामने खुद फरसा लेकर खड़ा हो जाए, कि लो, काटो। बहुत बढ़िया।

बेटा, क्यों दुनिया दुःख झेलती रहती है, पीड़ित रहती है, फिर भी चलती रहती है? कभी विचार नहीं किया? दुनिया में जितने लोग हैं, सब संतप्त हैं, सबको दुःख है, है न? ऐसा क्यों है, कभी विचार नहीं किया? ऐसा इसलिए है क्योंकि दुःख से मुक्ति के लिए बड़े-से-बड़े दुःख से होकर गुज़रना पड़ता है। तो लोग कहते हैं कि दुनिया में जो हम दुःख झेल रहे हैं, वो तो छोटा है, मुक्ति के लिए जो दुःख झेलना पड़ेगा, वह बहुत बड़ा है। तो भाई, छोटा दुःख ही ठीक है।

अध्यात्म में आनंद बाद में आता है, पहले तुम्हें बड़े-से-बड़े दुःख से रूबरू होना पड़ता है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे भोला-भाला बन कर नहीं रहना है। ऐसा बनना है कि दुनिया के हाथ न आऊँ क्योंकि पिछली बार आया था तो बड़ी परेशानी हुई थी, इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: सारी समस्या ये है बेटा, पिटाई से बचने के लिए बहुत बड़ी पिटाई करवानी पड़ती है। तो गणित सीधा बैठता है फिर। आदमी कहता है कि छोटी पिटाई से बचना चाहते हैं, और उससे ज़्यादा बड़ी पिटाई कहाँ हो रही है? पिटाई से बचने की प्रक्रिया में। तो इससे अच्छा तो यह है कि बाहर जो पिटाई हो रही है, वह झेले चले जाओ। अगर आपसे कहा जाए कि किसी गर्म जगह को छह घंटे झेलना है। और आपसे कहा जाए कि उस गर्म जगह से बाहर आने का तरीका है कि आग से होकर एक बार में गुज़र जाओ—दो मिनट, पाँच मिनट लगेगा आग से होकर गुज़र जाओ। अब क्या बर्दाश्त करोगे? छह घंटे का ताप या पाँच मिनट के लिए आग से होकर गुज़रना?

प्रश्नकर्ता: पाँच मिनट के लिए आग से गुज़रना।

अन्य प्रश्नकर्ता: छह घंटे का ताप।

आचार्य प्रशांत: छह घंटे का ताप। जीवन भर का ताप झेल जाता है आदमी क्योंकि ताप से निकलने के लिए आग से गुज़रना पड़ता है। इसीलिए तो हम ताप बर्दाश्त करे रहते हैं, दुःख बर्दाश्त करे रहते हैं।

प्रश्नकर्ता: मन करता है कि पाँच मिनट की आग बर्दाश्त करके निकल जाएँ।

आचार्य प्रशांत: ऐसा होता नहीं है, कर लो तो अच्छा है। असंभव नहीं है, हो सकता है।

प्रश्नकर्ता: पहले मुझपर दादा जी का आशीर्वाद नहीं था। वह तो साथ में ही थे, पर पत्नी थी ही नहीं। अब दोनों हैं, तो मैं उनके सहारे से निकल सकता हूँ। मुझे लगता है ऐसा।

आचार्य प्रशांत: अच्छा है, निकल जाओ तो। निकलना चाहिए, यही दायित्व है। परंतु किसी भ्रम में मत रहना। निकलना आकर्षक लगता है; निकलने की प्रक्रिया में कीमत चुकानी पड़ती है। इसीलिए कहते हैं न ‘तपस्या’—तपना पड़ता है जमकर के, जल ही जाना पड़ता है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे घर वाले शिविर में आने ही नहीं दे रहे थे। उनका कहना है कि इससे मुझमें किसी तरह का कोई सुधार नहीं होता है। दूसरों पर निर्भरता से बाहर कैसे निकलूँ?

आचार्य प्रशांत: बेटा, सबसे पहले तो अपनेआप को उस हालत में लाओ जहाँ पर तुम्हें यह ‘अनुमति, सहमति’ के खेल से छुटकारा मिले। क्या उम्र है आपकी?

प्रश्नकर्ता: इकत्तीस वर्ष।

आचार्य प्रशांत: तो इस उम्र में आपको माँ-बाप से पूछना पड़ रहा है?

प्रश्नकर्ता: जी, हाँ।

आचार्य प्रशांत: तो सबसे पहले तो अपनेआप को इस हालत से बाहर लाओ। बाकी सब अध्यात्म बैठा रह जाएगा अगर सीधे-सीधे हाथों में बेड़ियाँ ही पड़ी हुई हैं। इसमें बहुत संभावना है कि कहीं कोई आर्थिक पक्ष भी होगा?

प्रश्नकर्ता: नहीं, आर्थिक पक्ष तो मजबूत है हमारा।

आचार्य प्रशांत: ‘हम’ माने कौन, तुम या घर वाले?

प्रश्नकर्ता: घर वाले ही हैं। लेकिन यह बात सही है कि उनसे इजाज़त के बिना नहीं कर सकता कुछ मैं।

आचार्य प्रशांत: तो वो ‘परमिशन’ है ही इसीलिए क्योंकि तुम्हारा अपना व्यक्तिगत आर्थिक पक्ष शायद दृढ़ नहीं है।

प्रश्नकर्ता: नहीं है। वो तो पिताजी के साथ ही काम करता हूँ मैं।

अचार्य प्रशांत: हाँ, तो बस हो गया। ऐसे में कोई मुक्ति नहीं मिलती।

प्रश्नकर्ता: यही बात है, यही मुसीबत है।

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे पास बुनियादी आर्थिक स्वतंत्रता ही नहीं है अगर, तो कौन-सी मुक्ति, कैसी मुक्ति? तुमने कहा कि घर वाले कह रहे हैं कि जब भी तुम किसी शिविर से लौटते हो, उन्हें तुममें कोई इंप्रूवमेंट, प्रगति नहीं दिखाई देती। उन्हें ‘प्रगति’ का अर्थ पता है? वो जाँच लेंगे ‘प्रगति’ को? पर उन्हें यह हक़ कैसे मिल गया कि वो तुम्हारी प्रगति के निर्णयता बन जाएँ? क्योंकि उन्होंने पैसे दिए हैं। तो ज़रा जमीन की बात करो।

ज़मीन की बात करने का नाम है ‘अध्यात्म’।

मुक्ति किस चीज़ से मिलेगी? जो तुम्हें बांधे हुए है, उसी से मुक्ति। अगर आर्थिक परतंत्रता तुमको बांधे हुए हो, तो सबसे पहले तो उससे मुक्ति पाओ न। मुक्ति क्या है? कोई चिड़िया थोड़े ही है कि पकड़ लाओगे—मुक्ति। मुक्ति कोई वस्तु थोड़े ही है कि साक्षात कर लोगे—मुक्ति। मुक्ति का क्या मतलब है? जो कुछ भी तुम्हें सीमित करता है, तुम्हें बंधन देता है, उससे छुटकारा पाओ। तुम्हारे सामने तो यही एक विकट स्थिति है कि पैसे, रूपए के लिए दूसरों पर आश्रित हो। उम्र इतनी है तुम्हारी, सबसे पहले तो उसको ठीक करो। नहीं तो दूसरे ही सब निर्णायक बने रहेंगे कि प्रगति हुई है कि नहीं हुई है। और मैं तुम्हें बताऊँ, जब तक कोई प्रगति नहीं हो रही है, तब तक तो फिर भी ठीक है—वो बस इतना ही कहेंगे कि कोई प्रगति नहीं हुई है—जिस दिन प्रगति वास्तव में हो गई, उस दिन देखना उनकी प्रतिक्रिया को। जब तक तो कुछ नहीं हो रहा तब तक तो अधिक-से-अधिक शिकायत ही करेंगे, कि, “अरे, कुछ हो नहीं रहा, कुछ हो नहीं रहा। तू फिर गया शिविर में और वैसे-का-वैसा आ गया। कुछ हो नहीं रहा।” और जिस दिन कुछ हो गया, उस दिन देखना। फिर तो शिविरों में आना पक्का बंद। तुम्हारी आर्थिक ऑक्सीजन ही काट दी जाएगी, साँस कैसे लोगे?

प्रश्नकर्ता: मुझे अब शिविर में आकर ही साँस आता है।

आचार्य प्रशांत: लो, शिविर में आकर साँस आता है, और वह साँस है उधार का।

प्रश्नकर्ता: बात तो सच है ये।

आचार्य प्रशांत: बस यही तो गड़बड़ है।

प्रश्नकर्ता: मुझे उत्तर मिल गया आपकी बातों में।

आचार्य प्रशांत: बस, अब पैसे कमाओ, यही अध्यात्म है।

प्रश्नकर्ता: पहले तो यही करना पड़ेगा।

आचार्य प्रशांत: बस, बस, बस।

प्रश्नकर्ता: पहले तो मेरा चलता ही था जैसे भी, अब तो मुझे पैसा कमाना ही पड़ेगा क्योंकि मुझे इस दिशा में आना है।

आचार्य प्रशांत: बेटा, इस दिशा में आओ चाहे न आओ, रोटी तो खा ही रहे हो न? हाँ, तो अपनी मेहनत की रोटी खाओ न। दूसरा अगर तुमको रोटी खिला रहा है, तो ऐसा हो नहीं सकता कि वो तुम्हारी आजादी पर बाधा न बने। हो सकता है वह बाधा तत्काल न दिखाई दे, लेकिन जिस दिन तुम उड़-भगना चाहोगे, उस दिन दिखाई देगा कि बाधा कितनी बड़ी है।

तुम्हें कोई बीमारी होती, तुम्हें कोई विशेष समस्या होती, तो चलो कोई बात नहीं, तुमने ले लिया सहारा। परमात्मा की रचना है संसार, उससे कुछ ले लिया, कोई बड़ी बात नहीं कर दी। पर जवान आदमी हो, हट्टे-कट्टे आदमी हो—शोभा नहीं देता कि तुम आर्थिक रूप से निर्भर रहो।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, दस साल हो गया। मैं दुकान पर काम करता हूँ, पिताजी के साथ।

आचार्य प्रशांत: तो अगर काम करते हो तो हक से अपनी तनख्वाह लो।

प्रश्नकर्ता: मुझसे हक से माँगा ही नहीं जाता।

आचार्य प्रशांत: देखो, सुनो व्यवहारिक बात—जो वास्तव में मेहनत कर रहा होता है, उसका हक कोई छीन नहीं सकता है। क्योंकि दूसरे व्यक्ति को पता होता है कि ये मेहनत कर रहा है, इसकी मेहनत से मेरी दुकान चल रही है—अगर ये चला गया तो मेरी दुकान का क्या होगा? तो, अगर तुमने वास्तव में मेहनत करी होती तो जो भी है, तुम्हारे नात, रिश्तेदार, पिताजी, जो भी हैं, वो तुम पर दबाव बना ही नहीं सकते थे। उनको बिलकुल पता होता कि दुकान के चलने में तुम्हारा वास्तव में योगदान है, और तुम्हारी मेहनत के दम पर दुकान चल रही है, तो फिर वो तुम्हें कैसे परेशान करते? वो तुम्हारी कीमत समझते। अभी निश्चित रूप से, तुम्हारी मेहनत का बहुत महत्व है नहीं उनकी नज़रों में।

प्रश्नकर्ता: बिलकुल यही बात है।

आचार्य प्रशांत: निश्चित रूप से, तुम ऐसे हो जिसका विकल्प उपलब्ध है। उन्हें दिख रहा है कि तुम अगर गए भी तो आसानी से तुम्हारी जगह कोई और ले लेगा, तो इसलिए तुम्हारा मूल्य नहीं है। और जब तुम्हारा मूल्य नहीं है तो फिर तुम्हारे ऊपर दबाव बनाया जाता है, और पचास तरह की बंदिशें।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं आर्थिक रूप से मज़बूत हूँ, ख़ुद कमाती हूँ। परंतु शिविर में आते समय मुझे अनुमति लेनी पड़ी और साथ ही ताने भी सुनने पड़े कि मैं भाग रही हूँ और अगर ऐसे शिविरों में जाना है तो अपना अलग देख लेना होगा रहने का। उन्होंने ये बातें मुझे आते समय कहीं थीं रेलवे स्टेशन पर।

आचार्य प्रशांत: किसने बोला?

प्रश्नकर्ता: मेरे पिताजी ने।

आचार्य प्रशांत: ठीक।

प्रश्नकर्ता: मैंने भी उनसे बोला कि “हाँ, ठीक है”।

आचार्य प्रशांत: ठीक है। तुम अपना सेपरेट देख लो—ओके। और क्या? ओके, देख लो। अगर धमकी दे पा रहे हैं तो निश्चित रूप से उनकी समझ ये है, उनका अनुभव ये है, उनकी परख ये है, कि किसी-न-किसी रूप में आश्रित हो। धन के लिए नहीं आश्रित हो तो पहचान के लिए आश्रित हो। किसी-न-किसी प्रकार का अवलंबन है ज़रूर। कोई सहायता ली होगी, कोई सुरक्षा ली होगी, घर लिया होगा, रहने का ठिकाना लिया होगा, पहचान ली होगी, सामाजिक प्रतिष्ठा ली होगी, कुछ तो लिया होगा। नहीं तो दुनिया में कोई किसी पर कैसे धौंस बता देगा? जिससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं, तुम उसके ऊपर नहीं चढ़ सकते। जब आप लोग मजबूरियों का हवाला देते हो, किसी भी तरीके की, तो उसमें एक बात हमेशा छुपा जाते हो कि किस तरीके से आप आश्रित हो। और जो आश्रित है, वह अपना फायदा तो निकाल ही रहा है न। जब दूसरे से अपना फायदा निकाल रहे हो, तो दूसरा फिर तुम्हें अपने इशारों पर नचाए या तुम्हारे जीवन पर दबाव बनाए, तो तुम्हें ताज्जुब क्यों होता है? और अगर तुम आश्रित नहीं किसी पर तो कोई तुम पर दबाव बना नहीं सकता।

अगर तुम्हारे जीवन में भय है, दबाव का अनुभव है, पाते हो कि दूसरों के समक्ष मजबूर हो जाते हो, तो तलाशों कि किस तरीके से तुम दूसरों पर आश्रित हो। आश्रित नहीं होते तो कोई तुम्हारे ऊपर हुक्म नहीं चला सकता था और अपनी आश्रयता को जितना कम करोगे, मुक्ति उतनी गहराएगी। और क्या होती है मुक्ति?

जिसका रोटी, कपड़ा, मकान, खाना-पीना, नाम, पहचान सब दूसरों से आता हो, उसका परमात्मा से क्या लेना देना? तुझे तो जो कुछ मिल रहा है, वह कभी इससे मिल रहा है, कभी उससे मिल रहा है, कभी उससे मिल रहा है, कभी उससे मिल रहा है, तू पचास चीजों के लिए पचास लोगों पर अवलंबित है, परमात्मा से क्या लेना देना, सत्य से क्या लेना देना? सत्य सिर्फ उसके लिए है जो किसी के सहारे न खड़ा हो; जिसको सिर्फ उसका (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) सहारा हो। और अगर तुम्हारे पास पचास सहारे हैं, तो तुम दो तरफा नुकसान भुगतोगे। पहली बात तो यह कि जो तुमने जो पचास सहारे खड़े किए हैं, ये तुम्हें कुछ भी मुफ्त नहीं देने वाले। यह तुम्हें जो कुछ भी देंगे, उसकी कीमत दोगुनी वसूलेंगे। दूसरी बात, अगर तुम दुनिया के सहारे हो तो उसके (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) सहारे से चूक जाओगे। दोनों तरफ से मारे गए तुम।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, लेकिन यह हर नौकरी में ऐसा है।

आचार्य प्रशांत: क्योंकि तुम्हें हर जॉब में जाकर किसी-न-किसी पर टिक जाना है।

प्रश्नकर्ता: छोटी नौकरी भी होगी, तब भी हो जाता है।

आचार्य प्रशांत: कम-से-कम निर्भर रहो। और मैं जब कह रहा हूँ कि निर्भर मत रहो तो मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि जाकर लड़ लो सब से। ये अर्थ नहीं लगा लेना कि, “अब हमें किसी पर निर्भर नहीं रहना है, लठ कहाँ है!” निर्भर न रहने का अर्थ है कि ये नहीं होना चाहिए कि कोई तुमसे बोले की, “मैं तेरी जिंदगी से जा रहा हूँ, या तुझे अपने घर से बेदखल कर रहा हूँ”, और तुम्हारी साँस ऊपर-की-ऊपर, नीचे-की-नीचे रह जाए। दिल लगे कि छाती से बाहर कूद आएगा।

किसी को अपने अंतरजगत पर स्वामित्व मत दे दो कि बैठे हो—बैठे हो और फोन में दो-चार नंबर ऐसे हैं कि अगर वहाँ से कॉल आ गई तो उछल पड़ते हो कि, “अरे बाप रे! अब क्या होगा?”। कोई इतना तुम्हारे लिए भारी न हो जाए, इतना महत्वपूर्ण न हो जाए। गहरे-से-गहरा, बड़े-से-बड़ा महत्व सिर्फ एक को दो, बाकी सब ठीक है। बाक़ियों से कोई लड़ाई झगड़ा नहीं करना है—न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। बाकियों से तो व्यवहारिक रिश्ता है; आत्मिक रिश्ता एक से है।

अगर तुम्हें पता होता है कि तुम नहीं निर्भर हो किसी पर, तो तुम्हें लड़ना इत्यादि नहीं पड़ता, दुनिया खुद ही तुमसे ज़रा संभल कर रहती है। कोई खुद ही नहीं तुमपर धौंसपट्टी करने आता है। जिसको तुम कुछ दे नहीं रहे हो, बताओ, उसपर धौंस कैसे चलाओगे? सड़क पर एक आदमी चला जा रहा है, उसका तुम कॉलर पकड़कर बोलो, “आज से मेरे घर मत आना!” वो एकदम अवाक, “मैं तेरे घर आता कब हूँ?” उसी से तो कुछ छीनोगे न, जिसको तुमने कुछ दिया है? किसी से कुछ लो ही मत, तो छीनने का भय भी नहीं रहेगा। और अगर किसी से कुछ लो, तो फिर उसे समुचित तरीके से लौटा भी दो—एहसान मत रखो अपने ऊपर। क्योंकि एहसान जैसा कुछ होता नहीं। तुमने अगर किसी से पाँच इकाइयाँ ली हैं और लौटाई दो ही इकाइयाँ हैं, तो बाकी तीन भी तुम लौटाओगे, सूद समेत, छुपे हुए तरीकों से।

ये दुनिया, इतनी बड़ी दिलवाली नहीं है कि ये किसी को कुछ भी मुफ्त दे दे। मुफ्त सिर्फ एक दरबार से आता है, ऊपर से। इस दुनिया से तो जो कुछ भी मिलेगा, उसे सूद समेत लौटाना पड़ेगा। तो ज़रा सोच समझ के, संभल के ग्रहण किया करो। इतनी आतुरता में न रहा करो कि कुछ मुफ्त मिल रहा है और जाकर के ले आए। कुछ नहीं मुफ्त मिलता यहाँ। और, देखते नहीं हो, मुफ्ती का लालच दिखाकर कैसे लूटा जाता है तुमको? मुफ्त, मुफ्त, मुफ्त—पहुँच जाते हो और फिर पता चलता है, मुफ्त तो कुछ होता ही नहीं। बल्कि उसको अपना सगा मानना जो तुम्हें चीजों के सही दाम बता दे। जो बोले कि मुफ्त दे रहा हूँ, उससे ज़रा बचकर रहना। क्योंकि मुफ्त कोई कुछ नहीं देता। कहीं ज़्यादा भला वह आदमी है जो तुमको पहले ही बता दे कि फलानी चीज़ है जिसका इतना दाम है, साफ-साफ भाई तुम्हें पहले ही बता देते हैं कि इतना दाम है—खुली किताब है, साफ सौदा है। जहाँ साफ सौदा हो, उधर को जाना। लेकिन याद रखना, दुनिया में होते सौदे ही हैं, अनुग्रह सिर्फ ऊपर से आता है।

जितना लिया हो, कम-से-कम उतना लौटाओ, और हो सके तो उससे ज़्यादा लौटा दो। अपने दामन पर दाग मत लगने दो। किसी का ज़रा भी कर्ज अपने ऊपर मत रखो, अगर आज़ादी प्यारी हो तो। और नहीं तो अगर, इस-उस के, जिस-तिस के दबाव में और भय में जीना है, तो दुनिया भर से लिए चलो। इसीलिए, अध्यात्म सिखाता है कि बालकों, अपनी माँगे और ज़रूरतें कम रखो। जितना माँगोगे, उतना ज्यादा बंधन में जीना पड़ेगा। और समस्त अध्यात्म का लक्ष्य क्या है? मुक्ति। तो, तुम्हारी माँगे, मुक्ति के रास्ते में बाधा बन जाती हैं। कम-से-कम माँगों, ताकी मुक्ति आसान रहे। इसलिए, सादगी पर, सरलता पर, मितव्ययिता पर इतना ज़ोर रहता है अध्यात्म में।

जो तुम पढ़ते हो न कि फकीर दो कपड़ों में काम चला लेते थे—एक लोटा, एक टाठी, एक डंडा—ज़िंदगी चल जाती थी। वैसा नहीं था कि वो इससे ज़्यादा कमा ही नहीं सकते थे। बेशक कमा सकते थे। ज़रूरतें बढ़ाएँगे तो खुद ही फसेंगे। मैं तुमसे नहीं कह रहा हूँ कि तुम्हारे पास एक थाली और एक लोटे के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए, बस इतना समझा रहा हूँ कि सतर्क रहना, कि कितना माँग रहे हो दुनिया से। दुनिया किसी की नहीं होती। जो जितना मांगता है, उसको उतना लूटती भी है फिर।

प्रश्नकर्ता: मुझे तो जानकर दे देते हैं कि ले लो।

आचार्य प्रशांत: अरे बाप रे! ये तो बड़े-से-बड़ा धोखा होता है। “जानेमन बस ले ही लो ये हार, तुम्हारे लिए लाए हैं, बड़े प्यार से”, अब दी जा रही है ‘प्यार की दुहाई’ लेकिन जैसे ही मौका आता है ‘तकरार’ का, वैसे ही तुरंत याद दिलाया जाता है, “वो हार, जो घूम रही हो न पहनकर, साढ़े-छह लाख का है”। और दिया कैसे गया था? “जानेमन तू ले ले, और तू नहीं लेगी तो दिल टूटेगा मेरा, मेरे लिए ले ले जानू!”

प्रश्नकर्ता: बात तो ऐसे ही करते हैं मेरे साथ।

आचार्य प्रशांत: और तुम्हें कुछ समझ में नहीं आता?

प्रश्नकर्ता: मुझे बाद में लगता था कि ये पंगे में फँस गया मैं।

आचार्य प्रशांत: अरे! तुम तो गोलू हो बिलकुल।

प्रश्नकर्ता: मैं सही बोल रहा हूँ, आपके सामने क्या छुपाना, यही तो समस्या है, इसी को तो ठीक करना है।

आचार्य प्रशांत: मुफ्त में भी हार मिल रहे हों तो सावधान रहना, वह उस वक्त मुफ्त में दिया जा रहा है, बाद में सब गिना जाएगा। और सब कुछ सूद समेत वापस करना पड़ेगा, सब चुकाओगे। ऐसे नहीं चुकाओगे तो वैसे चुकाओगे।

प्रश्नकर्ता: वो मैं चुका भी रहा हूँ।

आचार्य प्रशांत: और जिन्हें सूद चाहिए होता है, वो तो बहुत उत्सुक रहते हैं देने के लिए। जो सूदखोर हो, जो साहूकार हो, जो कैपिटलिस्ट हो—उसके लिए ये बड़ी भयानक स्थिति होती है, अगर उसका पैसा खाली पड़ा हुआ है। वो तो चाहता ही है कि किसी-न-किसी को दे दूँ क़र्ज़ पर। उसको कहता है फिर कि “अब पैसा इन्वेस्ट हो गया। अब उस पैसे पर सूद आने लगेगा। अब ब्याज आने लगेगा।” तो वह तो तुम्हारा सत्कार कर के, तुमसे आग्रह कर के कहेगा कि, “ले लो, ले लो, ले लो, ले लो”। और जब ‘ले लोगे’, तो फिर तुमसे माँगेगा ब्याज, कि, “चलो, ब्याज दो”। ले मत लेना।

प्रश्नकर्ता: अब आगे से नहीं लूँगा।

आचार्य प्रशांत: बस! बाजार को देखा करो, सब वहीं से सीख सकते हो। बेचने वाला हमेशा क्या कहता है?—“अभी ये ले जाइए, बाद में देते रहिएगा”। ऐसा ही होता है न? “अभी आप ले जाइए बस। आपकी ही दुकान है, बाद में देते रहिएगा।” बस एक बार तुम ले लो, उसके बाद देखो। अब उसको पता है कि तुमने वस्तु से नाता जोड़ लिया है, अब चीज़ से तुम्हारा मोह हो गया है, अब वो तुम्हारा स्वामी है, अब पेलेगा। कोई कितना भी लुभाए, कुछ भी करे, अपनी ज़रूरतें कम-से-कम रखो। बड़े बूढ़े बता गए हैं—“संतोषम परमम सुखम”। शिव को बोलते हैं ‘आशुतोष’—जल्दी से थोड़े में संतुष्ट। बहुत चाहिए ही नहीं। और कोई ज़बरदस्ती तुम्हारे सर पर बहुत मूंड ही जाए, रख ही जाए, कि लो, तो साफ बता दो कि—“अपनी मर्जी से रख रहे हो, बदले में कुछ मत माँगना”। पहले ही बता दो।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब अपनी मर्जी से किसी ने रखा है, जैसे माँ-बाप ने जन्म दे दिया, उस समय तो बोलने के लायक हम थे नहीं, तो अब बोल रहे हैं कि अगर तुम्हें ऐसे ही जाना था तो इतना बड़ा करके क्या फायदा हुआ।

आचार्य प्रशांत: तुम बोलना, “हमने कहा था?”

प्रश्नकर्ता: तो वो पहले की बात हो गई।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो बस यही बोलो। बोलो, “मुझसे पूछ कर तुमने मुझे बड़ा किया था?” बल्कि जब यह दावा किया जाए कि अगर तुम्हें ऐसा ही हो जाना था तो हमने तुम्हें इतना बड़ा क्यों किया, तो, इससे तो उनकी पोल खुलती है। नीयत का पता चलता है कि प्रेम भाव से नहीं बढ़ा कर रहे थे। बछिया दुहनी थी, इसलिए उसे चारा खिलाया जा रहा था। ज़रा बड़ी होगी तो दूध देगी।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, तुलना बहुत करते हैं कि उनका बेटा ये हो गया, उनका बेटा वो हो गया, तू कहाँ रह गया।

आचार्य प्रशांत: तो बोलो कि, "उनके थे ऐसे बेटे। तुमने क्या किया? किसी फैक्ट्री का माल खराब है तो माल का दोष है या फैक्ट्री का? कमाल है! मैंने थोड़ी ही जना है खुद को, काम तुम दोनों का, दोष मेरे ऊपर आ रहा है। बल्कि मैं जवाब माँगता हूँ, मुझे ऐसा क्यों पैदा किया?”

प्रश्नकर्ता: बात तो सही है आपकी। कर बहुत कुछ सकता हूँ लेकिन एक सुविधा क्षेत्र में रखा हुआ है खुद को। पर अब यह चीज़ तोड़ूँगा। उनकी वजह से बहाना नहीं करूँगा।

आचार्य प्रशांत: बस यह मत बताना कि शिविर में सीखा था ये सब, अगले में नहीं आ पाओगे।

प्रश्नकर्ता: कृष्ण जी का भक्त हूँ, थोड़ी-थोड़ी चालाकी भी करनी आती है।

आचार्य प्रशांत: बस, यही चाहिए। (मुस्कुराते हुए)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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