दूसरों को सिद्ध करने की ज़रुरत क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

9 min
167 reads
दूसरों को सिद्ध करने की ज़रुरत क्यों? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: पहले मैं तुमसे सवाल पूछूँगा: दूसरों के सामने अपने को सही सिद्ध करना ज़रूरी क्यों हैं?

श्रोता १: सर, अगर कोई कुछ गलत कह रहा है, तो बुरा लगता है।

वक्ता: बुरा क्यों लगता है?

श्रोता १: सर, हम सही हैं, फिर भी गलत बन जाते हैं।

वक्ता: तुम सही हो अगर, तब तो बिलकुल भी बुरा नहीं लगाना चाहिए।

श्रोता १: सर, बुरा क्यों नहीं लगेगा?

वक्ता: सीमा, मेरी बात समझो।

*(वक्ता जानबूझ कर प्रश्नकर्ता का गलत नाम लेते हैं। गलत नाम लेने पर सब हँसते हैं*। *प्रश्नकर्ता आरज़ू स्वयं भी हंसती है*।)

अरे! उसे बुरा नहीं लगा, वो हँस रही है। वो भ्रमित थोड़े ही हो गयी, उसे बुरा थोड़े ही लगा कि “मैं तो आरज़ू हूँ, मुझे सीमा क्यों बोला?”

और वो हँसी क्यों? उसको जब पता है कि वो आरज़ू है — जब उसे पता है — तो मैं उसे कुछ भी बोलूँ तो उसे बुरा लगेगा क्या?

श्रोतागण: नहीं लगेगा।

वक्ता: क्यों नहीं लगेगा?

श्रोता १: सर, वो तो ठीक है, पर…

वक्ता: अरे! तुम्हें बुरा लगना चाहिए, मुझे गाली दो, मारो या रोओ कि “मुझे तमन्ना बोल दिया, मुझे सीमा बोल दिया!”…

*(वक्ता अब एक दूसरे श्रोता की ओर उन्मुख होकर एक मिथ्या वक्तव्य देते हैं)*देखो, कल जब तुम बाइक चला के जा रहे थे, पुलिस ने तुमको पकड़ के अंदर कर दिया था, याद है न तुमको?

(सब हँसते हैं)

अरे! हँस रही हो, मैंने सरासर इल्ज़ाम लगा दिया तुमपर, और मैंने कहा कि ये बाइक चलता हुआ जा रहा था और पुलिस से पिटा था। तुम हँस कैसे सकते हो? तुम्हें तो मेरी मिथ्या बातों को, व्यर्थ बातों को, गंभीरता से लेना चाहिए।

श्रोता २: सर, वो इसलिए हँस रही है क्योंकि उसे पता है कि ये सारी बातें झूठी हैं।

अच्छा उसे कोई सड़क पर मिले जो उसको कोई बुलाये कि “सुनील, इधर आना”…(सब हँसते हैं)

श्रोता २: सर, ये ध्यान ही नहीं देगी।

वक्ता: ध्यान ही नहीं देगी न? बुरा तो नहीं मान सकती? या कहेगी कि “मैं सिद्ध करती हूँ आज कि मै सुनील भी नहीं हूँ और लड़का भी नहीं हूँ”, ऐसा करेगी क्या वो? साबित तुम कब करना चाहते हो? जब तुम्हें खुद ही शक होता है खुद पर। जब पक्का-पक्का जानते हो, तब मन में साबित करने का ख्याल ही नहीं आता।

चुप रह जाओगे, हँसने लग जाओगे कि “ये पगला है, जो मुझपर शक कर रहा है”।

श्रोता १: सर, लेकिन अभिभावकों को समझाना हो तो कैसे समझाएँ?

वक्ता: वो भी आकर तुमको बोलें कि “अब्दुल्ला, इधर आओ”, तो क्या बुरा मानने लग जाओगी? (हँसती है)

क्यों? पेरेंट्स हैं, बुरा मानो! शायद सही ही बोल रहे होंगे।

श्रोता ३: बुरा तो तब लगता है, जब शक होने लगता है कि शायद ये सही ही कह रहा है।

वक्ता: शक होने लगता है न? शक हो कि शायद ये सही ही बोल रहा है। दाढ़ियाँ बहुतों के पास होती हैं, पर कौन अपनी दाढ़ी में तिनका ढूँढने लग जाता है?

श्रोतागण: जो चोर होता है।

वक्ता: जो चोर होता है।

तो किसी के कुछ कहने पर तुम्हारे मन में असर तब ही होगा जब तुम्हारे मन में अपने ऊपर संदेह होगा। अगर तुम्हें पक्का-पक्का पता हो अपना, तो दुनिया कुछ कहती रहे, तुम पर असर नहीं पड़ सकता। दुनियावाले कोई भी हो सकते हैं: शिक्षक होसकते हैं, माँ-बाप हो सकते हैं, दुनिया के सबसे बहादुर, विद्वान लोग हो सकते हैं, पर तुम्हें अंतर पड़ेगा नहीं।

समझे कुछ विलिअम्स? क्यों विलिअम्स? (फ़िर गलत नाम लेते हैं)

कैसे पड़ेगा अंतर? जब पता ही है, तब शक क्या बात — बेकार, बल्कि हँसोगे। हाँ, अगर प्रेम है शक करने वाले से, तो कहोगे, “सामने वाला कल्पनाओं में जी रहा है, चलो मैं इसकी कुछ मदद कर दूँ”। पर वो मदद इसलिए नहीं होगी कि तुम डर गएहो, तुम्हें बुरा लग गया है।

वो मदद इसलिए होगी क्योंकि तुम्हें प्रेम है उससे और तुम चाहते हो कि उसका कुछ भला हो जाये।

इन दोनों बातों में बहुत अंतर है। मैं तुम्हें दो वजहों से समझा सकता हूँ। पहली ये कि तुम समझे, तो मुझे बल मिल गया कि “देखो, मेरे जैसा सोचने वाले न पंद्रह-बीस और लोग हैं”, और अब मैं दावा कर सकता हूँ कि “देखो, मेरे पास बीस का दल है”।ये मेरा स्वार्थ हुआ, अब मैं तुम्हे यहाँ समझने नहीं आया हूँ, मैं अब यहाँ एक गुट बनाने आया हूँ, एक दल खड़ा करना है मुझको।

दूसरा समझाना ऐसा हो सकता है कि मुझे फ़र्क नहीं पड़ता कि मेरे पास पाँच समर्थक हैं या पचास, मुझे प्रेम है तुमसे इसलिए चाहता हूँ कि कुछ बाँट दूँ।

इन दोनों मनोस्थितियों में बड़ा अंतर है।

माँ-बाप अगर समझ नहीं पा रहे हैं, तो उनको बेशक समझाओ, पर दुखी हो करके नहीं, प्रेम में समझाओ। वैसे समझाओ जैसे एक शिक्षक अपने एक छात्र को समझता है, “बेटा! तू नासमझ है समझ”।

इसमें कोई अहंकार नहीं है कि “माँ-बाप को नासमझ कैसे बोल दें?” इसमें कोई अहंकार नहीं है।अगर कोई नासमझी कर रहा है, तो कर रहा है। अब वो चाहे माँ हों, चाहे बाप हों, क्या अंतर पड़ता है? और अगर तुम्हें प्रेम हैं, तो तुम्हारा दायित्व है कि तुमउनको समझाओ कि “आप भूल में हैं”। जब कोई भूल में होता है, तो कष्ट पाता है न? क्या तुम चाहते हो कि माँ-बाप कष्ट पाएँ?

नहीं चाहते हो न कि माँ-बाप कष्ट पाएं, क्यों समांथा? (फ़िर गलत नाम लेते हैं) अब समांथा बिल्कुल नहीं चाहती कि माँ-बाप कष्ट पाएँ, तो फिर समांथा का क्या दायित्व है? कि माँ-बाप को समझाए। लेकिन निशा,(गलत नाम) बेटी हो करके माँ-बाप कोकभी नहीं समझा पाएगी क्योंकि जब तक तुम बेटी हो, तब तक वो माँ-बाप रहेंगे और माँ-बाप और बेटी का रिश्ता कभी शिक्षक-छात्र का नहीं हो सकता।

तुम्हें बेटी होने से हटना पड़ेगा, उन्हें माँ-बाप होने से हटना पड़ेगा। जीसस ने कहा है कि बड़े से बड़ा मसीहा भी अपने गाँव में कभी नहीं पूजा जाता। क्यों? क्योंकि उस गाँव के लोग कहतें हैं कि “ये! इसको तो हम जानतें हैं, अपना ही छोकरा है, ये हमेंक्या बताएगा?” वैसे ही माँ-बाप अपनी बेटी से नहीं समझेंगे। क्यों? “ये! जबसे पैदा हुई है, हमने देखा है, नंगी घूमती थी, ये हमको बताएगी, आज की छोकरी? मेरी बिल्ली मुझी से म्याऊँ?”

तो जब तक बेटी हो, तब तक माँ-बाप की मदद नहीं कर पाओगी। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आज जाकर बोल दो कि “मैं आज से तुम्हारी बेटी नहीं”। अर्थ का अनर्थ मत कर देना। तुम्हारा भरोसा नहीं कुछ भी। (हँसी)

श्रोता ३: सर, मेरी बिल्ली मेरे से म्याऊँ करें तो चुप हो जाएँ?

वक्ता: मन का तर्क ये ही उठता है कि मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊँ कैसे कर सकती है।

श्रोता ३: अगर वो फ़िर भी ऐसा ही बोलें तो मैं क्या कहूँ?

वक्ता: तुम कहो कि “मैं बिल्ली हूँ ही नहीं”। (हँसते हैं)

“न मैं म्याऊँ कर रही हूँ, न बिल्ली है, न म्याऊँ हैं। मैं वो हूँ ही नहीं जिसकी आप कल्पना कर रहे हो, आपने मेरी एक छवि बना रखी है, मैं वो छवि थोड़े ही हूँ। मैं तो जीता जगता सत्य हूँ, मुझे समझो।”

“बेटे की छवि छोड़ो कि ‘मेरा नन्हा वाला बेटा मुझसे बात कर रहा है’। उस बेटे को छोड़ो, अभी तुम्हारे सामने एक इंसान खड़ा है, जो एक बात कह रहा है, कृपा करो और उस बात को बात की तरह समझो”। तो फिर तुम सब समझा लोगे।

तो पहली बात: तुम इस बात पर ध्यान ही मत दो कि “मुझे किसी को कुछ सिद्ध करना है” क्योंकि हम आम तौर पर जब सिद्ध करना चाहते हैं, तो इसलिए करना चाहते हैं क्योंकि हम आहत हो जाते हैं और आहत होने का कोई कारण ही नहीं है, आहततुम तभी होगे, जब तुम्हें अपने ऊपर शक होगा।

अब जब अमन (फ़िर गलत नाम लेते हैं) को अपने ऊपर शक ही नहीं है, तो वो आहत कैसे होगा? जब अपने ऊपर शक ही नहीं है, तो आहत होने का सवाल ही नहीं पैदा होता न? उसको अच्छे से पता है कि वो सीरीना है, नहीं होगी आहत, पक्का-पक्कापता रखो, फिर आहत नहीं होओगे।

दूसरी बात: तुमने कहा कि समझाएँ कैसे? समझाओ, बेशक समझाओ, पर प्रेम में समझाओ, स्वार्थ और डर में नहीं। प्रेम बड़ी ताकत और निर्भयता देता है, समझा लोगे। बेशक समझाओ।

प्रेम पूरी कोशिश करता है दूसरे को देने की, दूसरे की भलाई हो, प्रेम हमेशा ये ही चाहता है। प्रेम कहता है, “मेरा कुछ नुकसान होता हो तो हो जाये, जो मेरा नुकसान हो सकता है, वो कोई छोटी चीज ही होगी अहंकार से सम्बंधित। तो वो छोटी चीज़ जाती भी है तो जाये, तेरा भला होना चाहिए”।

पूरी कोशिश करो समझाने की, पर आहत हो करके नहीं। समझाओ और जब न समझें तो रोने मत लग जाओ, तब भी हँसो कि “मैंने समझाया तो बहुत, पर आप समझे नहीं”। इस बात पर भी हँसो।

(हँसते हैं)

~ -‘संवाद’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories