डूब के जानो, झूम के गाओ || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

19 min
412 reads
डूब के जानो, झूम के गाओ || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

सुख सागर का शील है , कोई न पावै थाह

सुख सागर का शील है , कोई न पावै थाह

शब्द बिना साधू नहीं , द्रव्य बिना नहीं शाह ।।

~कबीर

आचार्य जी: दो तरफा प्रयोजन है यहाँ पर कबीर का, शब्द से। एक तो गहरी परीक्षा साधू की वो होती है जहाँ पर वो इतना मौन हो सके कि उसको सत्य सुनाई देने लगे। इतना मौन हो जाना, इतना मौन हो जाना कि सत्य ही सुनाई दे – वही अनहद की आवाज है।

और उसके बाद दूसरी परीक्षा होती है उस मौन को सतत कायम रखने की ताकि जो सुना है वो वचन रूप में सामने भी आ सके। एक क्षण, दो क्षण को तो ऐसे मौके हम में से बहुतों को मिलते हैं जब अकस्मात ही बात खुल जाती है, सत्य बिलकुल नंगा, बिलकुल स्पष्ट, हमारे सामने खड़ा हो जाता है; वो अनुकम्पा के क्षण होते हैं। अर्जित नहीं किया होता हमने उनको, बस मिल जाते हैं। मिल जाते हैं, और फिर खो भी जाते हैं। जैसे आए थे, अनायास, वैसे ही चले भी जाते हैं, अनायास। क्योंकि देने वाले ने देना चाहा था, पर स्वीकार करने की अभी हमारी तैयारी ही नही थी। तो, दिखता तो है, पर दिखता रहता नहीं। स्पष्ट तो होता है, पर वो स्पष्टता बड़ी क्षणभंगुर है।

सत्य की ठोकर लगती है, गिर भी पड़ते हैं, पर उठते हैं धूल झाड़ते हैं और आगे को चल देते हैं ऐसा अभिनय करते हुए कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। ये सबके साथ होता है। दुनिया में ऐसा कोई नही है जिसे गाहे बगाहे भी सत्य की झलक न मिलती हो, सत्य की आवाज न आती हो, सत्य की ठोकर न लगती हो। अगर कोई ऐसा हो जाएगा, तो फिर पागल ही हो जाएगा।

इसीलिये, अक्सर ये पूछना बहुत काम का होता है, किसी भी प्रश्न के जबाब में, ये पूछना बहुत काम का होता है, प्रश्नकर्ता से कि क्या वाकई तुमको पता नहीं है? क्योंकि यदा-कदा ही सही, थोड़ी ही देर के लिये सही, सच अपने आप को, खोलता तो है ही। जिस शब्द की बात कबीर साधू के लिये कर रहें हैं, उसको परम ने आरक्षित नहीं कर रखा है साधुओं के लिये। वो अनहद नाद तो सर्वव्यापक है, सुनाई सबको देता है। हर उसको जो सुनने के लिये राजी हो गया हो। और कोई पात्रता नहीं चाहिये। सिर्फ इतनी सी, कि आप राजी हो गए हों। कोई काबीलियत और नहीं चाहिये। कोई विशेष कान नहीं चाहिये। आपकी हाँ चाहिये कि सुनाई दे रहा है? अब सुनोगे? हाँ होगी, तो आगे सुनाई दे जाएगा।

अंतर क्या है एक साधारण गृहस्थ में, एक साधू में? साधू कह रहा है, “मुझे सुनना है। मैं प्रतिरोध नहीं खड़ा कर रहा। जो उपलब्ध है, वो मुझे चाहिये।” उसका किस्सा जीवन पर्यंत चलेगा। वो झलक मात्र से, संतुष्ट नहीं है। उसे और चाहिये। और, जिसे और चाहिये, उसे और मिलता है। जिसे और मिलता है, उसका फिर एक ही दायित्व रह जाता है कि जो मिला उसको बाँटे। ज्यों ही बाँटने की बात आती है, शब्द का दूसरा अर्थ प्रासंगिक हो जाता है।

पहला अर्थ वो था जिसमें बड़े गहरे अंदर डुबकी मारी थी और मौन को सुन पाए थे। वो थी बाहरी शोर, बाहरी कोलाहल से आंतरिक मौन की यात्रा। फिर एक दूसरी यात्रा भी शुरू होती है। ज्यों ही बाँटना प्रासंगिक हो जाता है, त्यों ही दूसरी यात्रा शुरू होती है। और ये यात्रा भी, कोई आसान नहीं है। पहली यात्रा है, बाहरी शोर से, बाहरी ध्वनियों से, बाहरी शब्द से, भीतरी मौन, भीतरी शब्द तक की यात्रा। और दूसरी यात्रा, जो बाँटने की यात्रा है — याद रखिये, पहली यात्रा पाने की यात्रा थी — वो शुरू होती है मौन से, और जाती है शब्द तक। और, ये भी कोई सहज नहीं है क्योंकि बहुत लोग हुए हैं जिन्होंने पाया तो है, पर बाँट नहीं पाए हैं।

और, क्योंकि यहाँ पर हममें से यहाँ काफी लोग ऐसे बैठे हैं जिन्होंने अपने ऊपर बाँटने की जिम्मेदारी भी ली है, तो वो इस बात को स्पष्ट समझें – जितना गहरा ध्यान, जितना समर्पण, जितनी रजामंदी ध्वनियों से खुद को काट करके मौन हो जाने के लिये चाहिये, ठीक उतना ही गहरा ध्यान और उतनी ही गहरी रजामंदी फिर उस मौन को वचन के रूप में प्रकट करने के लिये चाहिये। और, यदि आप में ये सामर्थ्य नहींं है कि आप अपने आतंरिक मौन को वचन के रूप में प्रकट कर सकें, तो आप गुरु नहीं हो सकतें।

गुरु की परिभाषा ही यही है – गुरु है ही वो जिसका मौन, शब्द रूप में उच्चारित होता हो, वही गुरु है। जो भी आप कहते हैं, वो दो जगहों से आ सकता है – या तो आपकी स्मृति से आ सकता है, या उस विराट शून्य से आ सकता है जिसे हम मौन कहते हैं। स्मृति से कोई भी पढ़ा लेगा, हर आम शिक्षक का यही काम है।

गुरु वो, जो जनता ही नहीं है कि उसे बोलना क्या है। वो इतनी गहरी श्रद्धा में, ऐसे समर्पण में है कि वो बस चुप हो जाता है। सर झुका देता है। और कहता है कि अब बहे जो बहना है। ध्यान रखिये, बड़ी हिम्मत का काम है ये। जब आप ध्वनियों से स्वयं को काट करके भीतर प्रवेश करते हैं, तो वहाँ कम से कम आपको अकेलेपन की सान्तवना मिलती है। जो भी कुछ होगा, उसपर कोई प्रश्नचिन्ह लगाने वाला नहीं है। जो भी कुछ होगा, उसे कोई देखने वाला नहीं है। जो हो रहा है, सो आपका है, आतंरिक है।

लेकिन, बड़ा साहस चाहिये, अहंकार की दृष्टि से कहूँ तो बड़ा दुस्साहस चाहिये एक भीड़ के समक्ष मौन हो जाने में। एक बंद कमरे में आप योग की कोई प्रक्रिया कर रहें हैं, आप ध्यानस्थ होना चाहते हैं, वहाँ आप कुछ भी करिये, नितांत निजी मामला है। आपके सम्मान को, आपकी छवि को कोई चोट लगने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन दूसरों के समक्ष। और याद रखियेगा, मन के लिये दूसरे सब कुछ होते हैं क्योंकि मन पलता ही दूसरों से है। लेकिन दूसरों के समक्ष अपने आप को ये अनुमति दे पाना कि जो होता हो सो हो, मैं अपने साथ कोई अस्त्र लेकर के नहीं आया हूँ। मैं बस प्रस्तुत हूँ। अब जो होता हो सो हो। ये साधू का ही काम है। कह रहें हैं कबीर:

शब्द बिना साधू नहीं..

दो तरफी बात है ये। पहले तो, साधू शब्द में, प्रवेश करना सीखे। वो, मौन की तरफ जाना है। और दूसरी बात, फिर उस मौन से वचन की तरफ आना भी सीखें। श्रद्धा की अगली ही सीढ़ी पर पैर रखे, पाने से नही डरा, अब ये उद्घाटित करने से भी नहीं डरूँगा कि मैंने पाया है। आदमी की मुश्किलें देखिये, पहले तो वो अपने आप को पाने की अनुमति ही नहीं देता।

हममें से ज्यादातर के लिये कितना मुश्किल होता है यहाँ आ पाना। वो हम क्या कर रहें हैं? हम अपने आप को पाने की ही अनुमति नही देते, भले उपलब्ध हो। हम लेंगे नहीं, हमें चाहिये नहीं, वो आपकी पहली दिक्कत थी।

अब मैं आपको बताए देता हूँ आपकी दूसरी दिक्कत क्या आएगी। कबीर ने पहले ही बता दिया है – पहली दिक्कत है पाना, अनुमति देना अपने आप को कि पा लूँ, और, दूसरी दिक्कत है अपने आप को ये अनुमति देना कि घोषणा कर दूँ कि पाया है। और मुश्किल है।

मैं दंभ की घोषणा की बात नहीं कर रहा हूँ। वो तो कोई कभी भी कर सकता है। आप बिना पाए भी चिल्ला दीजिये कि खूब पाया है, उसमें कुछ नहीं रखा है। पर, जिसने वास्तव में पाया होता है, ये उसके लिये भी एक चुनौती होती है, “राज खोल कैसे दूँ?” तो, आपके लिये पहले तो यहाँ आना मुश्किल होगा, फिर वापस जा के बताना मुश्किल होगा। जो दूसरी चुनौती है, वो ज्यादा बड़ी है।

श्रोता १: घोषणा करनी ही क्यों है? और, किसके लिये करनी है।

आचार्य जी: जिसके लिये जीवन भर करा है, उसके लिये नहीं करनी है। जीवन भर जो भी करा है, किसके लिये करा है?

श्रोता १: अपने स्वार्थ के लिये करा है।

आचार्य जी: ठीक। और वो सब एक घेरे में बंधे हुए हैं?

नाईजीरिया में सौ, दो सौ स्कूली लड़कियों को ‘बोको हराम’ वाले उठा ले गये हैं। उनके लिये तो कुछ करने को तत्पर नहीं हो? जीवन भर जो भी करा है, किसके लिये करा है? गिनती के पांच-दस, बीस लोगों के लिये, जो तुमसे सम्बंधित हैं। यानि, घूम-फिर कर के अपने लिये करा है। बस उनके लिये नहीं। या, ये कह लो कि मात्र उनके लिये नहीं। जब उनके लिये कुछ करा जाता है, जिनसे तुम्हारा रिश्ता ही अहंकार का है, तो किसी के लिये कुछ नहीं करा जाता, अपने ही लिये किया जाता है।

करता साधू भी दूसरों के लिये है, पर जिनसे कर रहा है उनसे उनका अहंकार का रिश्ता नहीं है। हमारे करने में हम मजबूत होते हैं। उसके करने में उसकी नामौजूदगी है।

बेटा, जब भरेगा तो दोनों हाथ उलीचने के अलावा और कोई विकल्प रह नहीं जाता है। तो, ये सवाल पूछो ही मत कि बाँटें क्यों? बाँटोगे नहीं तो फट जाओगे।

श्रोता २: पहले में अभी यह स्थिति है तो, दूसरा तो अपरिहार्य ही है। वो तो फिर, शब्द का मौन अवस्था से वापसी है।

आचार्य जी: अहंकार, फटना स्वीकार कर लेता है। नहीं, इसके अलावा भी एक और विकल्प है। अपरिहार्य नहीं है। आप सोच रहीं हैं कि जिसने पहला कदम रख लिया, वो अब दूसरा रखेगा ही रखेगा। दूसरा आवश्यक है, नहीं। एक अलग संभावना भी है। दूसरा नहीं रख सकता हूँ, इसीलिये पहले से भी पीछे हट जाऊँगा।

श्रोता २: दूसरा नहीं रखने की स्थिति में, पहले में भी बने रहना सम्भव नही है?

वक्ता : पहले में बने रहना संभव नहीं है। तो, पहले से भी पीछे हट जाऊँगा। आना बंद कर दूँगा। क्योंकि कब तक मुँह छुपा कर आता रहूँ? तो, या तो पहले के बाद दूसरा कदम भी रखा जाएगा। या, पहला बहुत दिन तक चलेगा नहीं। आप कब तक सीमा रेखा पर नाचते रहोगे कि न इधर के, न उधर के?

श्रोता २: तो हम भरें ही नहीं, जो उलीचने का प्रश्न उठे।

आचार्य जी: हाँ, पर ऐसा बहुत होगा कि संयोगवश, अनुग्रहवश, आप भर तो लिये पर बाँटने के क्षण में बड़ा खौफ आया। बाँटने को आप तैयार ही नहीं हो पा रहें हैं। वहाँ फिर यही होगा कि जो मिला भी है, वो भी वापस लौट जाएगा। जो दूसरे शब्द से डरेगा, वो पहले शब्द को भी खो देगा। दो शब्दों की बात करी है ना, हमने यहाँ पर? जो स्पष्ट करने से डरेगा, दूसरा शब्द क्या है? वचन। पहला शब्द क्या था? मौन। जो अपनी पहचान को छुपाएगा, जो स्पष्ट खड़ा हो कर के गर्जना नहीं कर पाएगा कि प्यार किया तो डरना क्या, हम नहीं छुपा रहें हैं, ये न सोचिये कि दबे छुपे उसका प्यार भी चल पाएगा, वो प्यार को भी खो देगा।

हम मंसूर की बात कर रहे थें। मंसूर को उसके गुरु ने बड़ा कहा कि तू ये सब क्यों बोलता रहता है, ये तुझे मार देंगे। वो तब भी बोलता रहा। पागल तो नहीं था? इतनी अक्ल तो उसमें भी थी कि बोलूँगा ‘अनलहक’ तो मार दिया जाऊँगा। पर बोलता रहा। क्योंकी बोलोगे नहीं तो खो दोगे।

बोलने का अर्थ है, जीवन में उतारना। बोलने से ऐसा लगता है कि मात्र वचन की बात हो रही है। बात को आगे बढ़ा कर देखो, तो मात्र वचन की नही, मनसा, वाचा, कर्मणा, तीनों की बात, हो रही है। बात समझ रहे हो? जो पता जाएगा पर उसको प्रकट करने से, उद्घाटित करने से, उतारने से खौफ खाएगा, उसे जल्दी ही दिखाई देगा कि उसका पाना भी बंद हो गया है। अब उसे मिल भी नही रहा है।

इसीलिये शिष्य को, एक हद के बाद देना ही नहीं चाहिये। पहले ठीक से परख लेना चाहिये कि जो मिल रहा है, वो इसके जीवन में उतर भी रहा है कि नहीं। यदि उतर ही नहीं रहा तो देना फिजूल है। और मत दो इसे। इसको अपच ही होगा और देने से।

और, जो बात मैं आपसे कह रहा हूँ कि अपने शिष्य को देखिये, ठीक उसी तरीके से वो परम हम सब को देखता है। “मैं तो दे रहा हूँ। पर क्या इनमें अनुग्रह का इतना भी भाव है कि जो मिल रहा है उसको संसार के सामने खोल कर के कह सकें कि मुझे मिला है, और ठीक ठीक कह सकें कि मिला है और उसने दिया है।

हमारी बड़ी विचित्र हालत है। हमें कोई छोटा सा तोहफा दे दे, हमें कोई दिक्कत नहीं होती है पूरे संसार के सामने स्वीकार कर लेने में कि हमें मिला। आप अपना जन्मोत्सव मनाएँ, उसमें आपको तोहफे आएँ, आप खींच कर के उनकी फोटो फेसबुक पर लगा दोगे। ठीक, कोई दिक्कत नहीं। और, कोई हैसियत नहीं उन तोहफों की, पर आप लगा दोगे। और जो करोड़ों अरबों का तोहफा, आपको मिलता है उसका जिक्र आप कभी नहीं कर पाओगे। कर ही नहीं सकते। करते समय, हाथ काँपेंगे। बड़ी मुश्किल हो जाएगी।

और फिर यहीं पर होता है कि दूसरा नहीं कर पा रहे हो, तो अब पहला मिलना भी बंद। किसी से आपको नया पजामा मिल जाए, आप खुल कर के स्वीकार कर लोगे दुनिया से कि धन्यवाद। और नाम बता दोगे कि रमेश चौहान साहब से मुझे नया पजामा प्राप्त हुआ। बड़े उदार हैं ये। बड़ी अनुकम्पा है इनकी, “नया पजामा”। और, दुनिया आ कर कहेगी, “ठीक। देखो इस आदमी में, खूब कृतज्ञता भरा हुआ है। कोई इसे पजामा भी देता है, तो ये बता देता है सबको कि मुझे पजामा मिला नया।” बता देते हो आप।

लेकिन अगर किसी से आपको नया जन्म ही मिल रहा हो, तो आपकी हिम्मत नहीं है कि इस बात को उद्घाटित कर दो। कर ही नहीं सकते। खौफ खा जाओगे। और फिर आगे का मिलना बंद। जो पुराना ही मिला, वो तुम्हारे वचन में नहीं उतरा। तुम दो बोल नहीं कह पाए। अब और कैसे पाओगे?

श्रोता ३: आचार्य जी, मुख्यत: हमें डर किस चीज का है? किस चीज का खौफ खाएँगे?

आचार्य जी: तुम बताओ।

श्रोता ३: जो मिला है, वो चला ना जाए।

आचार्य जी: उसका होता तो फिर तो खुल के बोलतीं, खुल के गातीं?

श्रोता ४: आचार्य जी, नये जन्म से आपका क्या तात्पर्य है?

आचार्य जी: नये जन्म से, नया जन्म।

श्रोता ५: जैसे ये अभी पूछ रही थी, उसका मतलब, वृत्ति हो सकती है? कि हम नहीं बताएँगे?

आचार्य जी: जब आँखे नयी हो जाएँ। जब कुछ ऐसा दिखाई देने लगे, जो पहले दिखाई ही नहीं देता था। वही नया जन्म है। जब कुछ ऐसा समझ में आने लगे। जो पहले समझ ही नहीं आता था। वही नया जन्म है। जब कुछ ऐसा प्रकट ही हो जाए, जो पहले था ही नहीं। वही नया जन्म है।

तो, व्यर्थ ही नहीं है कि संत, गाता है। वो हरी गुण, गाता है। इस आभार का, व्यक्त होना, बड़ा आवश्यक है, ये गाना बड़ाआवश्यक है। वो गा गा कर के और पाने की, पात्रता पैदा कर रहा है।

श्रोता ४: तुम दो और, और पाओ।

श्रोता ५: आचार्य जी, देने के लिये तो फिर ये भी देखना जरुरी होगा कि पाने वाला पात्र है या नहीं?

आचार्य जी: तुमको शांति मिली है, तुम्हारी आँखें खुल रही हैं, जहाँ उलझाव थे वहाँ अब सुलझन है, अगर है, तो बँटनी चाहिये। और, साफ-साफ ईमानदारी के साथ।

श्रोता ५ : दूसरों का अहंकार को क्यों स्वीकार करेगा?

आचार्य जी: तुम्हें जिसने दिया, उसने तुम्हारे अहंकार को क्यों स्वीकार किया? तुमने तो हजार बाधाएँ खड़ी की होंगी? जो कुछ कर सकती हो, सब करा होगा की किसी तरह न मिले। पर देने वाले ने फिर भी…वहाँ बच्चा रो रहा है, और इंजेक्शन लगा ही दो उसको।

मैं फिर कह रहा हूँ, “व्यक्त करके, स्पष्टतया कह कर के, आभार प्रकट कर के आप, उसको, परम को, देने वाले को कुछ नहीं दे देते। उसे, आपसे कुछ चाहिये भी नहीं। आप, अपना ही भला करते हो। बहुत अच्छा है की कबीर इस ओर हमारा ध्यान खींच रहें हैं।

शब्द बिना साधू नहीं..

और, बड़ा आसान होता अगर इसको ये मान लिया जाता की कबीर यहाँ पर शब्द का उसी अर्थ में प्रयोग कर रहें हैं जैसा हमेशा करते हैं, मौन। या राम। नहीं, उतना ही आशय नहीं है कबीर का। कौन है साधू? दोहरा लेतें हैं, एक बार। वो, जो पहले बाहर की आवाजों से, ध्वनियों से, वचनों से, आतंरिक मौन में, प्रवेश करना जानता हो, और फिर उसके बाद वो उस मौन को गाना भी जानता हो, वो ये न कह दे कि मुझे मिल गया। बस, हो गया, काफी है। मुझे क्या मतलब अब, दुनिया से। जिसने ये कह दिया कि मुझे मिल गया, काफी है, अब मुझे दुनिया से क्या मतलब, उसका क्या होगा?

श्रोता (सब एक साथ) – मिलनाबंद हो जाएगा।

आचार्य जी: उसको मिलाना बंद हो जाएगा।

पाओ और गाओ, बस ये है। इसके अलावा, जीने का और कोई तरीका नहीं है। पाते जाओ, गाते जाओ।

श्रोता ६: सर, ओशो ने, एक जगह बताया है कि जिन्होंने भी पाया, या तो बिलकुल मौन रह गए, या उन्होंने बाँटा। तो क्या जो मौन रह गए, उनका फिर छिन गया होगा, बाद में?

आचार्य जी: जिन्होंने पाया है, अगर वो बिलकुल ही मौन रह गए होते, तो तुमको कैसे पता चलता कि उन्होंने पाया है? थोड़ा सोचो ध्यान से। जिसे मिला, वो यदि बिलकुल ही मूक हो जाए, तो तुम कैसे जानोगे कि उसने पाया है? कोई भी कैसे कह पाएगा कि इसने पाया तो पर चुप हो गया। कैसे कह पाओगे?

श्रोता ७: मौन भी बोलता है।

श्रोता ८: हो सकता है, उनमें कुछ अलग दिखे?

आचार्य जी: उनके कहने के तरीके दूसरे हो जाते हैं। हमने कहा था ना कि वचन को, सिर्फ वचन न समझिएगा – मनसा, वाचा, कर्मणा, तीनों की बात हो रही है। कोई कारण होगा, कोई स्थिति होगी कि शब्दों से नहीं बहुत उद्घाटित कर पाएँ। पर उन्होंने जो पाया, वो उनके कर्मों में दिखाई दे रहा है। कर्म के माध्यम से दूसरों तक पहुँच रहा है। पहुँचना आवश्यक है। ये पक्का है कि जो पाएगा, उससे दूसरों तक पहुँचेगा ही पहुँचेगा। और, दूसरों तक क्या पहुँचेगा? ज्ञान नहीं, दूसरों तक उसका आभार पहुँचेगा। इतना ही काफी है।

दूसरों को ज्ञानी बनाने की आवश्यकता नहीं होती है। जो पाने की प्रक्रिया है, वही बाँटने की प्रक्रिया है। आप पाते हो सर झुका के, और आप बाँटते भी हो सर झुका के। आप और कह क्या पाओगे? जब बाँटोगे भी तो इतना ही तो कह पाओगे ना कि मैंने सर झुकाया और मुझे मिल गया। इसके अलावा और क्या है कह पाने के लिये? “मैंने सर झुकाया, मुझे मिल गया। तू सर झुका दे, तुझे भी मिल जाएगा।” इसके अलावा, और कुछ है भी नहीं कहने के लिये।

इसी बात को हजार ढंगों से कहा जाता है। ढंग बहुत हो सकते हैं। रमण महर्षि से किसी ने पूछा। और जिन दिनों में वो थें, उन दिनों में भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन भी चल रहा है। तमाम चारो तरफ सूखा, अकाल भी पड़ रहा है। हजार और तरीके की चीजें भी चल रहीं हैं। सामाजिक कुप्रथाएँ हैं। वो इनके विषय में कुछ करते ही नहीं दिखाई देते थें। आश्रम था उनका, उसी आश्रम में, रहे आते थें। हिलते ही नहीं थें।

किसी ने पूछा कि कुछ करते क्यों नही हैं? न तो आप व्याख्यान देते हैं आजादी पर। न आप कोई आन्दोलन खड़ा करते दिखाई देते हैं। दूसरों का हित नही करना चाहतें आप? और देखिये दूसरे लोगों को घूम घूम कर, पूरी दुनिया में इधर से उधर जा जा कर क्रांति की आग दहका रहें हैं। आप यहीं बैठे रहते हैं?

रमण ने कहा, “तुम्हें कैसे पाता कि यहाँ बैठे-बैठे ही मैं वो नहीं कर रहा जो मुझे करना है।” प्रकट तो होगा, प्रकट होने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। ऐसा होगा ही नहीं कि प्रकट न हो। कोई हो सकता है बिलकुल मूक हो जाए, उसके नाचने में प्रकट होगा। प्रकट तो होगा। प्रकट न होने की बस एक वजह हो सकती है, तुम डर जाओ। तुम्हारे आग्रह, तुम्हारे अनुग्रह पर भारी पड़ जाएँ। सिर्फ यही वजह हो सकती है।

तुम कहो कि मैं कैसे दिखा दूँ दुनिया को कि मुझे मिला? हमने कहा ना, छोटा मोटा तोहफा मिल जाए, वो स्वीकार कर लेना आसान होता है। वो दुनिया के सामने स्पष्ट कर देना आसान होता है कि मिल गया पजामा। पर इतना कुछ मिल गया है उसमें जो लेश मात्र भी अहंकार बचा होता है, वो बड़ा कंपता है। वो कहता है, “कैसे बोल दूँ, सबके सामने कि बिना पात्रता के ही किसी ने मुझे इतना दे दिया।” अहंकार तो पात्रता पर पलता है ना कि मेरे पास जो भी है, मेरा अर्जित किया हुआ है। ये स्वीकार कर लेने में कि नहीं, योग्यता तो कुछ नहीं थी मेरी, बस ऐसे ही बरस गया मेरे ऊपर, अहंकार बड़ा कंपता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories