दो पल का उत्साह नहीं, लंबी पारी चाहिए

Acharya Prashant

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दो पल का उत्साह नहीं, लंबी पारी चाहिए

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैं आपको दस महीने से सुन रहा हूँ, और मुझमें बहुत परिवर्तन आया है। पहले मेरा शरीर बहुत दुर्बल था, साइनस (नाक की एक बीमारी) की समस्या थी। मैंने पिछले पाँच वर्षों में किसी भी प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा या कार्यक्रम में भाग नहीं लिया क्योंकि साइनस से मुझे बहुत डर लगता था। लेकिन आपके शरीर संबंधित सूत्रों का पालन करने के पश्चात मुझे बहुत राहत मिली, और मैं बाहर निकला। और जो भी काम अब आता है, मैं उसे करता हूँ। साइनस को केंद्र में रखकर कोई भी निर्णय नहीं लेता हूँ। पिछले दो महीने से मैं मार्शल आर्ट्स की कक्षा से भी जुड़ा हूँ और उसमें ग्रीनब्लैट हाँसिल किया है।

आपसे मिलने के बाद मेरा मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी बहुत सारा परिवर्तन हुआ है। एकाग्रता बहुत बढ़ी है, और जीवन को बुद्धि के अनुसार नहीं बल्कि सूत्रों के अनुसार जीना चाहिए, इस निष्कर्ष पर मैं पहुँचा हूँ। इसके लिए मैं आपका बहुत धन्यवाद करता हूँ। आचार्य जी, मैं चाहता हूँ कि आपके साथ रहकर, संस्था में रहकर कुछ सीख सकूँ और कुछ सहयोग कर सकूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: (स्वयंसेवकों की तरफ इशारा करते हुए) मुझे नहीं लगता है आज किसी ने खाना खाया यहाँ पर। नई जगह है, और कल रात सब देर तक जगे हुए थे। जवान लोग हैं, बीच (समुद्र तट) पर घूम रहे थे, खा रहे थे, पी रहे थे। आज उठे हैं, उसके बाद से तैयारियाँ ही कर रहे हैं। देखने में ऐसा ही लग रहा होगा कि छोटी-मोटी तैयारियाँ हैं, पर गोआ है, भाई। टेबल क्लॉथ (मेज़पोश) भी इधर-उधर आसानी से नहीं मिलता, जाना पड़ता है। बैठे हैं मज़े में, कोई खाने-पीने की तो सोच भी नहीं रहा होगा; ऐसे ही, उदाहरण आया, तो बोल दिया।

बहुत, बहुत ज़्यादा अलग है संस्था के भीतर जीवन, एकदम अलग केंद्र से संचालित होता है। आम लोगों के लिए कल्पना कर पाना भी मुश्किल है। आप जिन चीज़ों को महत्व देते हैं, उनको हम ज़रा कम महत्व देते हैं। हम जिन चीज़ों को महत्व देते हैं, वो आपके लिए अकल्पनीय हैं। और आपने जैसी कल्पना कर रखी होगी संस्था की, वैसा भीतर जीवन बिलकुल भी नहीं है। तो संस्था के भीतर का जीवन न तो वैसा है जैसा आप जी रहे हैं, और न वैसा है जिसकी आप कल्पना करते हैं। तो फिर कैसा है? (हँसते हैं)

भाई, आपके पास दो चीज़ें हैं; एक वैसा जीवन जो आप जी रहे हैं, और एक वो कल्पना जो आपके मन में होगी संस्था के बारे में। जब आप कह रहे हैं कि साथ आना चाहते हैं, रहना चाहते हैं, तो निश्चित रूप से कुछ तो आपने विचार, कल्पना करा ही होगा। भीतर वैसा तो नहीं ही है जैसा एक आम संसारी का, गृहस्थ का जीवन होता है, पर वैसा भी नहीं है जैसा कि आप सोचते हैं कि होता होगा।

इसलिए मैं तो सलाह दिया करता हूँ कि बहुत उत्सुकता ही ना दिखाई जाए। जो एकदम गंभीर लोग हों, उनकी बात अलग है—और हो सकता है कि तुम गंभीर हो, उस बात का मैं सम्मान करता हूँ। लेकिन ज़्यादातर लोग ताँक-झाँक इत्यादि में ही रुचि रखते हैं। उनके लिए ये भी एक यूँ ही गॉसिप (गपशप) का मसला होता है, "कैसे रहते हो, क्या चलता है भीतर?"

जैसे रहते हैं वैसे तुम रह नहीं पाओगे, और जो चलता है वो तुम समझ नहीं पाओगे। पर उसके बारे में कुछ आधी-अधूरी दो-चार बातें सुन ली, तो किस्से ज़रूर खूब बनाओगे। इससे अच्छा क्या है? कि कुछ पूछो ही मत। ताँक-झाँक की कोशिश ही मत करो क्योंकि ताँक-झाँक करोगे, तो दीवारें ऊँची नहीं हैं, और ना किसी का कुछ छुपाने का इरादा है। ताँक-झाँक करोगे तो बहुत कुछ पता चल जाएगा, लेकिन जो पता चलेगा उसका अर्थ क्या है, वो आप जान नहीं पाएँगे। और वो आपकी कल्पनाओं से, आपके सिद्धांतों और आदर्शों से मेल खाएगा नहीं, तो आपको झटका-सा लग जाएगा। आप कहेंगे, "ऐसा तो हमने नहीं सोचा था।"

अगर संस्था वैसी ही होती जैसा आप चाहते हैं कि वो हो, तो क्या वो आपकी मदद कर पाती? आपके काम आ पा रही है इसीलिए क्योंकि आपके विचारों से ज़रा हटकर है, आपके जीवन से ज़रा हटकर है, है न? पानी में कोई हो, तो उसको सहारा कौन देगा, दूसरा आदमी जो पानी के ही अंदर है या दूसरा कोई ऐसा जो हटकर तट पर खड़ा हुआ है?

ये कोई पल-दो-पल के उत्साह की बात नहीं होती कि संस्था में आ गए—संस्था को भी हटाओ—कि कोई नया जीवन शुरू कर लेंगे। उस तरह का पल-दो-पल का उत्साह तो सभी दिखाते हैं कभी-न-कभी अपनी ज़िंदगी में, नहीं? अनायास प्रेरणा उठी, जोश आया और कुछ संकल्प ले लिया; ऐसा सभी ने किया है कभी न कभी कि नहीं किया है? फिर या तो वो संकल्प निभाया नहीं जाता, टूट जाता है, और अगर उसको निभाते हो तो रोज़ खून का घूँट पीकर निभाते हो। ऐसे नहीं होता है यहाँ।

ऐसे आते हैं किसी भी महत चीज़ की ओर जैसे नदी सागर की ओर आती है। एक झटके में नहीं पहुँच जाती, बड़ी लंबी यात्रा करके पहुँचती है धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, और फिर सागर बन जाती है। और यात्रा के दौरान नदी भी बदलती रहती है। वो यात्रा ही ऐसी है जो नदी को बदलते-बदलते अंततः सागर बना देती है।

तो ये बात अचानक उठे जोश की नहीं है कि किसी तरह के नए जीवन में प्रवेश करना है—वो नया जीवन कैसा भी हो सकता है—या संस्था में प्रवेश करना है। जीवन परिवर्तन के लिए एक, जिसको मैं कहता हूँ ‘ठंडी ऊर्जा’, शाश्वत उत्साह चाहिए। एक भीतर ऐसी हार्दिक प्रेरणा चाहिए जो दसों साल थमे नहीं, कमे नहीं, मिटे नहीं। गर्म जोश में वो बात होती ही नहीं है। गर्म जोश के खिलाफ तो सावधान रहा करिए। वो फ़िल्मी होता है।

"मैं आज तुम्हारे सर पर हाथ रखकर कसम खाता हूँ, इस साल के अंत तक कम-से-कम बीस करोड़ इकट्ठा कर लूँगा और तुम्हारे बाप से तुम्हारा हाथ माँग लूँगा।" "भाग बरखा भाग!" ये गर्म उत्साह है। ये पल भर की ऊष्मा है, अभी ठंडी पड़ जानी है।

ये लंबी यात्रा है, ये मैराथन की तरह है। इसमें ज़ोर से नहीं दौड़ते, पर इसमें दौड़ते ही रहते हैं, दौड़ते ही रहते हैं। इसमें जीतता वो नहीं है जो तेज़ दौड़ा, इसमें जीतता वो है जो रुक नहीं गया। शुरुआत करो, छोटे से शुरुआत करो, पहाड़ी नदी की तरह शुरुआत करो, फिर देखो कि कितनी दूर तक बहने का मन है। समझ रहे हैं?

विचार से जो ऊर्जा उठती है वो अकस्मात् होती है और इसीलिए क्षणिक होती है। बोध से जो ऊर्जा उठती है उसमें सातत्य होता है, कॉन्स्टेंसी (निरंतरता)। उसमें ऐसा नहीं होगा कि आप एक फ़िल्मी नज़ारा खड़ा करके कहेंगे कि, "ये कर दूँगा वो कर दूँगा, ऐसा है वैसा है, जल्दी से पलट दूँगा, छक्का मार दूँगा।" छक्का मारना आलसी लोगों का काम होता है। वो ये कर ही नहीं सकते कि गेंद पर गेंद खेलते जाएँ और दौड़-दौड़कर रन बटोरते जाएँ, तो वो खड़े हो जाते हैं और बल्ला घुमाना शुरू कर देते हैं कि, "छक्का मार दूँगा!"

(कुछ समय पहले चल रहे क्रिकेट खेल के उपलक्ष में बोलते हुए) आज दो विकेट जल्दी गिर गए। अच्छा चल रहा था सब, सत्तर के आसपास दोनों विकेट गिर गए। उसके बाद प्रति ओवर एक रन से भी कम की दर पर रन बनाए हैं रहाणे और पुजारा ने।

अध्यात्म कुछ-कुछ ऐसा ही है। खड़े रहना पड़ता है। महत्वपूर्ण ये नहीं है कि छक्का मार दिया कि नहीं, महत्वपूर्ण ये है कि तुम्हारा स्टंप नहीं उखड़ना चाहिए—और स्टंप उखड़वाने का एक तरीका ये भी होता है कि छक्का मारो। (हँसते हैं) नहीं भी उखड़ रहा होगा तो उखड़ जाएगा।

हम फ़िल्मी बहुत हैं। उत्साह वाले गाने सुन लेंगे, मोटिवेशन (प्रेरणा) वाली कोई किताब पढ़ लेंगे, और ऐसा लगेगा कि बस अब करके ही दिखा देंगे, और थोड़ी देर में फुस्स…

मैं तुमको हतोत्साहित नहीं कर रहा, वही बात कह रहा हूँ जो एकदम आरंभ में कही। पहले बात करो और कोई छोटी-सी शुरुआत करो। बहुत काम हैं संस्था के। वास्तव में तो ज़िम्मेदारी बनती है पूरे समुदाय की कि मदद किया करें—छोटे काम कोई अपने इधर हाथ में ले, कोई उधर हाथ में ले ले। दिन के आधे घंटे का काम, एक घंटे का काम, कर दो भाई, सब ऑनलाइन ही है। जिन्हें करना है वो करते भी हैं, (एक श्रोता की तरफ इशारा करते हुए) इनसे पूछो। उनका पता भी नहीं चलेगा लोगों को, अपना चुपचाप बैठे पीछे से करते रहते हैं। अब आप वो तो कर नहीं रहे जो आप कर सकते हो सहजता से—दिन का आधा घंटा ही दे दो संस्था को—और कहते ये हो कि, "मैं पूर्ण रूपेण जुड़ना चाहता हूँ, ये करना चाहता हूँ, वो करना चाहता हूँ।"

तुम छोटी शुरुआत तो करो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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