प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, थोड़े समय के लिए हम लोग पूरी तत्परता के साथ और ईमानदारी के साथ कुछ कर रहे होते हैं, और साथ-साथ ये भी होता है कि ज्ञान भी कम होता है और क्षमता भी कम होती है, तो प्रक्रिया धीमी होती है और फिर ऐसा भी हो जाता है कि अभी कम-से-कम तत्परता तो थी, फिर वो भी थोड़ा भटक जाता है आदमी, या ईमानदारी कहीं इधर-उधर हो जाती है तो ये एकदम ही शून्य हो जाता है। तो इसमें फिर निराशा भी आ जाती है कि अब दोबारा शून्य से शुरू करना पड़ेगा। और अभी आपके आने से पहले वही आलस वाला वीडियो चलाया था, पर ऐसे सोचने में भी आलस होता है, जैसे सोचने का भी मन ना कर रहा हो।
आचार्य प्रशांत: हाँ तो सोचना भी एक श्रमसाध्य काम है। हाथों की कसरत की तरह दिमाग की कसरत भी कोई हल्की चीज नहीं; लगता है, करना पड़ेगा। इस करने का तो देखो कोई विकल्प है ही नहीं, हम यहाँ कितनी भी बात कर लें।
ये आपने कर लिया कि आप यहाँ तक आए, ये आपने कर लिया कि आपने चर्चा में भाग लिया, ये आपने कर लिया कि आपने बात पर विचार किया। लेकिन इसके बाद भी ये आपको ही करना है कि इसको ज़िंदगी में उतार लिया। करने का तो साहब कोई विकल्प होता ही नहीं है, एकदम नहीं होता।
प्र: इसमें जैसे बुरा भी तो लगता रहता है बीच-बीच में।
आचार्य: लगता है तो लगे, क्या करें? कलेजा बड़ा होना चाहिए, बुरा लगता रहता है बीच में।
देखो आप यहाँ बैठे हुए हो। सात बज गए? तो सात बजे एक वीडियो प्रकाशित हुआ होगा। नौ बजे एक और हो जायेगा। यहाँ आने से ठीक पहले दिखा रहे थे मुझे, मैं उस पर अपना जो भी टिप्पणी करनी थी कर रहा था। कर ही रहे हैं, हर आदमी कर रहा है। और यहाँ से उठते ही, जैसे ये कर रहा हूँ फिर वो करूँगा। और एक बात कहिए; आप जब कहते भी हैं कि आप नहीं कर रहे तो भी आप उस वक्त कुछ तो कर ही रहे हो न? इससे अच्छा वही कर लो जो सही है, कि नहीं? हर पल किसी-न-किसी कर्म में ही तो बीत रहा है, तो कुछ और ही कर लो न।
देखिए, आध्यात्मिक जिज्ञासा हो चाहे कोई सांसारिक योजना हो, कोई व्यापार की योजना हो सकती है बहुत बड़ी—आध्यात्मिक जिज्ञासा हो चाहे सांसारिक योजना हो, दोनों मे शुरू-शुरू में बहुत सारे सवाल-जवाब रहते हैं। जैसे यहाँ यह चर्चा हो रही है, यह संवाद हो रहा है, व्यापार की योजना होगी तो ब्रेनस्टॉर्मिंग (विचार-विमर्श) होगा, लेकिन वो सब शुरू-शुरू में ही होता है बस। उसके बाद तो बस एक बात बचती है: जान लगा के कर पा रहे हो कि नहीं कर पा रहे हो। अब सवाल-जवाब की कोई बात नहीं। अब तो एक ही चीज़ पूछी जाएगी, "कर रहे हो या नहीं कर रहे हो?" बाकी सारे सवाल-जवाब बिलकुल फालतू हो जाते हैं। प्रश्न बस एक है, "कितना किया, कहाँ तक पहुँचें?"
जैसे कहीं किसी दफ्तर में कोई नया लड़का आए, उसका शुरू-शुरू में चार-पाँच दिन या हो सकता है महीने भर भी ओरियंटेशन (दिशा-निर्देशन) किया जाए। उसमें कितनी बातें होती हैं, बातें ही बातें होती हैं। उसको स्लाइड दिखाई जा रही है, उसको नियम-पुस्तिका दी जा रही हैं पढ़ने के लिए, एक के बाद एक आकर के लोग उसे प्रशिक्षण दे रहे हैं। ये सब कब होता है? शुरू-शुरू में। महीने के बाद एक ही सवाल पूछा जाता है, क्या? "करा कि नहीं करा? कितना करा?"
तो चाहे सांसारिक व्यापारी हो, चाहे आध्यात्मिक साधक हो सवाल तो साहब एक ही बचना है, क्या? "करा कि नहीं करा?" बाकी सब तो वाचारम्भण है। वाचारम्भण मतलब समझते हो? ज़बान का बतोलापन, बकबक-बकबक, जिव्हा प्रमाद, ज़बान के मज़े। अध्यात्म ज़बान के मज़े लेने का नाम है? करके दिखाना पड़ता है।
बहुत अच्छा तुम्हें घर बनाना हो और तुम बड़ा वाला आर्किटेक्ट (वास्तुकार) ले लो, वो भी तुम्हें अधिक-से-अधिक क्या दे देगा? वास्तुकार क्या दे देगा? मेज पर लाकर नक्शा रख देगा। उसके बाद तो सवाल एक ही है, क्या? "काम कितना किया?" बनाना तो तुम्हें है, बनाओं। बनाने में तो तकलीफ होंगी ही; ईंट उठानी पड़ती है, छत डालनी पड़ती है। तो घूम-फिर करके अध्यात्म भी सीधे-सीधे मजदूरी का काम है। और जो मजदूरी के लिए तैयार नहीं हैं, ना वो संसार में आगे बढ़ सकता है व्यापारी की तरह, ना वो अध्यात्म में आगे बढ़ सकता है साधक की तरह। एकदम ज़मीनी बात बोल दी।
जो आलसी है, जिसको श्रम करने की आदत नहीं है, मेहनत से घबराता है, वो न इस दुनिया में कहीं आगे पहुँच सकता है, न इस दुनिया के पार पहुँच सकता है। तो अध्यात्म भी उतनी ही मेहनत माँगता है जितना कोई संसारी काम। पर संसारी काम में मेहनत मात्र लगती है, अध्यात्म में मेहनत के पीछे बोध होना चाहिए, अंतर इतना ही है। संसार में बोध नहीं भी है मेहनत भर है तो भी तुम्हें नतीजे मिल जायेंगे।
ज़्यादातर जो सफल लोग हैं दुनिया में, बोध वगैरह पर नहीं सफल हुए हैं। वो मेहनत वगैरह पर और बुद्धि पर सफल हो जाते हैं, बुद्धि होती है बोध नहीं होता। अध्यात्म में बोध तो है सबसे ऊपर, सर्वोपरि, लेकिन बोध भर से नहीं काम चलेगा। आलसियों के लिए अध्यात्म में कोई जगह नहीं। और बार-बार असफलता मिलेगी, चोट मिलेगी। तुम जिन भी चीज़ों को जीतना चाहते हो वो चीज़ें गिर-गिर कर फिर उठेंगी, पलट-पलट कर वार करेंगी। जब तुमको लगेगा कि फलाने आंतरिक दुश्मन को तुमने मिटा दिया वो फिर से खड़ा हो जायेगा, राख से फ़ीनिक्स (एक ऐसा काल्पनिक पक्षी जो अपनी ही राख से दोबारा जन्म लेता है) की तरह।
संसार में तो ये होता है कि तुमने घर बना दिया तो घर बन गया। अध्यात्म में क्या होता है? अध्यात्म में जो पहले से अंदर बने होते है घर उनको तोड़ना पड़ता है। ईंट-पत्थर का घर तो एक बार बन गया तो बन गया और एक बार टूट गया तो टूट गया। ये जो अंदर वाले होते हैं न, ये बड़े ज़ालिम किस्म के होते हैं। इनको एक बार तोड़ दो, ये फिर से खड़े हो जाते हैं, जैसे पुरानी यादें। तुम सोचते हो भुला दी, और जैसे ही तुम कहते हो, "मैंने भुला दिया!" ठीक उसी पल में तुम्हें याद होता है, नहीं तो तुम कैसे कहते कि तुमने भुला दिया? समझ में आ रही है बात? तो मेहनत लगती है, दिल भी टूटता है, हौसलेबाज लोगों का काम है।
पंडित नहीं बनना, मजदूर बनना है। समझ आ रही है बात? पहाड़ तोड़ने जैसा है काम।
लेकिन संसारी कोई काम आप उठाओ उसमें दो-चार बार असफलता मिल जाए तो आपको ताज्जुब ही नहीं होता। आप कहते हो यह तो संसारी काम था असफलता तो मिलेगी। अध्यात्म में असफलता मिल जाती है तो आप कहते हो “अरे ऐसा क्यों हो गया? हमने तो सब कुछ किया था, हुआ नहीं काम। लगता है ऐसा कुछ होता ही नहीं; हम ये छोड़े दे रहे हैं।”
दुनिया में तो तुम नहीं छोड़ देते। तीन साल के नुन्नू को लेकर गये थे प्रवेश कराने। पाँच स्कूलों ने मना कर दिया तो क्या बोला कि, "अब यह अनपढ़ ही रहा आए पूरी जिंदगी"? ऐसा करा क्या? करा क्या? तब तो छठे में भी जाकर खड़े हो गए। वहाँ पर गिड़गिड़ा रहे हो “ले लो, ले लो, नुन्नू को ले लो।” और अपना भी साक्षात्कार दे रहे हो, श्रीमती जी का भी साक्षात्कार हो रहा है, पूछा है, "नुन्नू क्यों पैदा करा है?" तब तो नहीं कहते कि हमारे ज़मीर पर चोट लगती है, हम नहीं करेंगे और। तब तो नुन्नू के बाद नुन्नी भी आती है, फिर स्कूलों का चक्कर लगाना शुरू कर देते हो। अध्यात्म में असफलता मिल जाती है तो कहते हो “नहीं-जी हमने तो बहुत कोशिश की थी देखिए।”
लोग आते हैं ऐसे कहते हैं, “आचार्य जी, आपसे पहले देखिए सबसे पहले तो हम गये थे कृष्णमूर्ति जी के पास”—पुराने लोगों की बात है, वो साठ-सत्तर वाली जो उम्र के होते हैं—”उसके बाद हमने कुछ साल जी देखिए ओशो जी के यहाँ भी बिताए हैं, उनके बाद हमने आपको पाया है। आते तो हैं आपके पास लेकिन अपने अनुभव से आपको बता रहे हैं कुछ होता नहीं है।”
(श्रोतागण हँसते हैं)
फिर मैं नुन्नू के बारे में पूछता हूँ तो उनको बुरा लग जाता है।
जैसे वहाँ लगे रहते हो एक के बाद एक असफलताओं के बावजूद दुनिया में, वैसे ही इसमें भी लगे रहो एक के बाद एक चोट खाने पर भी। छोड़ने का नहीं है। और आपको यह दे किसने दी सांत्वना कि यहाँ जल्दी से हो जाना है काम? ये मुगालता पाल कैसे लिया?
“आचार्य जी, तीन महीने से उपनिषद् समागम कर रहे हैं अभी तक हुआ नहीं।” भई क्या चाहते थे? क्या हो जाए कि हो नहीं रहा जल्दी से? कि तीन महीने बीत गए। तीन महीने! भग्ग! ऐसे को मैंने बोल रखा है अपंजीकृत कर दो, स्थायी रुप से निरस्त कर दो। क्या है कि इनका दूसरों से भी सम्पर्क होगा ये उनको भी बताएँगे, कि तीन ही महीने में हो जाना चाहिए और तीन महीने में ना हो तो निराश हो जाओ। और ये थोड़ी बोलोंगे कि, "तीन महीने भी हमने कोशिश नहीं करी।" ये बोलोंगे उपनिषदों में ही खोट है, इस आचार्य में ही खोट है। तीन महीने में भी कुछ हुआ नहीं।
ये तीन महीने का आँकड़ा तुमने पकड़ कैसे लिया? इतना सस्ता तुमने समझ रखा है मुक्ति को, तीन महीने में मिल जाएगी? कि तीन ही महीने में। नुन्नू को तीन महीने बाद स्कूल से बाहर क्यों नहीं निकाला? “तीन महीने हो गये तुझे स्कूल जाते।” और वो इतना नालायक कि ए माने अम्ब्रेला (छाता) बोलता है।
(श्रोतागण हँसते हैं)
उसको क्यों नहीं निकालते? और उसको नहीं निकालते तो तुम क्यों निकल गए उपनिषद समागम से? इसलिए कि नुन्नू को तो बोल देते हो तीन ही साल का है। अपनी असली उम्र नहीं देख रहे चेतना की, तुम भी तो तीन ही साल बराबर हो। जितना समय उसे लगना है न पढ़ाई पूरी करने में, उतना ही समय आपको भी लगना है। हौसला मत तोड़िए जल्दी और ना ये उम्मीद रखिए कि तीन महीने में काम हो जाना है।
असल में हम बहुत छोटा समझते हैं। हम सोचते हैं बहुत छोटी सी चीज़ है जल्दी से हो जाएगी। कोई अल्प-अवधि के कुछ कोर्स की तरह है, फट से कर लेते हैं। और बाहर निकल कर बोलेंगे, फेसबुक पर लिख देंगे, "उपनिषद्-विद…" कोई मिलेगा उसको (खुद की ओर इशारा करते हुए) बोलेंगे, "श्वेताश्वतर, और तुम?" "मुण्डक!" लोग कहेंगे, “बड़ा आकर्षक है, अनोखा है, कैसी-कैसी बातें करता है। अभी-अभी तुमने क्या कहा? श्वेताश्वतर।” कितना अच्छा लगता है कि तुम जो शब्द बोल रहे हो दूसरे उसको उच्चारित भी नहीं कर पा रहे। उसकी ज़बान में गाँठ लग गई श्वेताश्वतर बोलने में ,और तुम करके बैठे हो श्वेताश्वतर उपनिषद्।
हम समझते ही नहीं हम कितने पानी में है, गहराई कितनी है हमारी बीमारी की। हम सोचते हैं जल्दी से उपचार हो जाएगा। यही तो अहंकार है न। हमें पता ही नहीं है हम कितने बीमार हैं। कैंसर का रोगी जैसे कोई बोले, “तीन महीने तो हो गए, अभी कितनी बैठके लगेंगी?”
ज़्यादातर हमारी समस्या निकल रही है इस सब को सामान्य मान लेने से। आप अभी यहाँ से बाहर निकलोगे आप सड़क को देखोगे, ट्रैफिक को, आप अभी खाना खाने जाओगे, आप वह जो कुछ देखोगे आप उसको सामान्य मानते हो, इसलिए आपको पता नहीं चलता कि कितना गड़बड़ है सबकुछ। जब तक आपको ये सब कुछ ही अति-असामान्य नहीं लगने लगता, जब तक आपको साफ-साफ नहीं दिखाई देने लग जाता कि यहाँ जो कुछ हो रहा है ये सब गलत है, गड़बड़ है, तब तक आप नहीं जानोगे कि दुनिया कितनी भयानक बीमारी में जीती है। आप मान लेते हो वो तो ठीक ही है। ठीक ही नहीं है आप बिलकुल कद्रदान भी हो जाते हो; "नहीं, बहुत बढ़िया चल रहा है! देखो ये चीज़ कितनी अच्छी है!" फिर लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, “इस आदमी को कुछ अच्छा ही नहीं लगता ये हर चीज़ की निंदा करता है।”
भई, मेरी मजबूरी है। कोई पागल है उसकी कुछ हरकतों की तारीफ करूँ क्या? बोलो! किसी का खोपड़ा बिलकुल ही उल्टा हुआ है, वह कुछ काम अच्छे करेगा क्या? या वह जो कुछ करेगा सब गलत होगा? तो मेरी मजबूरी है कि जो कुछ भी चल रहा है, जो कुछ हो रहा है मुझे उसको आईना दिखाना पड़ेगा। आपको यह सब कुछ जब तक भयावह नहीं लगता तब तक आपको अपनी स्थिति का भी पूरा जायज़ा नहीं मिलेगा। और आप यही कहते रहोगे कि, "तीन महीने में मेरा हो जाना चाहिए था!"
यहीं खिड़की पर खड़े हो जाइए मेरे साथ, मैं आपको सौ चीज़ें ऐसी दिखाऊँगा जो चूँकि आपको अब सामान्य लगने लगी हैं इसीलिए आपको अखर नहीं रही हैं, आपको चुभ नहीं रही हैं, नहीं तो बहुत-बहुत गलत है, नहीं होना चाहिए। आते-जाते लोगों के चेहरे देखिए, उनकी बातें सुनिए, उनके इरादे देखिए। और ये अपनी बात नहीं कर रहा क्योंकि अपनी बात करना जरा मुश्किल होता है न। हममें खोट है यह सुने तो चुभता है, तो दूसरों को ही देख लीजिए। जब तक आपको नहीं दिखाई देता कि कितना भयानक है ये सब कुछ, तब तक आप वैसे ही बने रहेंगे जैसे सब हैं, जैसे दुनिया चल रही है।
और दो तरीके हमने निकाले हैं जो कुछ चल रहा है उसको सामान्य मानते रहने के, बल्कि उसको वैसा ही चलाने के। पहला अभिव्यक्त किया जा सकता है उस मुहावरे में जिसे हम कहते हैं; रिमेन पॉजिटिव (सकारात्मक रहो)। और दूसरा जिसे हम कहते हैं; डोंट-जज (मत आँको)।
रिमेन पॉजिटिव का अर्थ है; अच्छाईयाँ देखो न। और डोंट जज का मतलब है; बुराई दिख भी जाए तो चुप रह जाना, बुराई को बुराई बोल मत देना। इन दोनों चीज़ों ने मिलकर के आपको मजबूर कर दिया है इस पूरे भयानक माहौल को भी सामान्य मानने के लिए। और ये दोनों बिलकुल हैवानियत के जुमले है। पहला; रिमेन पॉजिटिव या बी पॉजिटिव , दूसरा; डोंट जज * । और जो कोई ये ज़्यादा बात करता हो * डोंट जज और बी पॉजिटिव समझ लीजिए वो तगड़ा प्रतिनिधि है शैतान का।
डोंट जज का मतलब समझते हो न? जो चल रहा है, चलने दो। न तो दूसरे को बताओ उसके मुहँ पर कि सच्चाई क्या है, न खुद सुनो। क्योंकि दूसरे को बताओगे तो दूसरा भी बताऐगा तुम्हें। तो जितनी घिनौनी ज़िंदगी जी सकते हो जियो, और दूसरे को बोलो, "डोंट जज मी (मुझे मत आको)।"
बी पॉजिटिव बोल कर के तुम वहाँ पर अच्छाई देखना चाहते हो जहाँ है नहीं। और डोंट जज बोल कर के तुम वहाँ बुराई को नहीं देखना चाहते जहाँ है। इन दोनों ने सत्यानाश कर रखा है पूरी दुनिया का।
*बी निगेटिव एंड जज रिगोरसली * (नकारात्मक रहें और सख्ती से मूल्यांकन करें)। हर पल मूल्यांकन करें और ईमानदारी पूर्वक करें। समझ में आ रही है बात? जैसे आप दूसरों का मूल्यांकन करते हैं वैसे ही खुद का भी मूल्यांकन करें। और अपने मूल्यांकन में, अपने आँकलन में ईमानदार रहें।