प्रश्नकर्ताः मैं जो अच्छा काम करता हूँ न, मेरे दो कारण हैं। एक तो मेरे पास कुछ और करने को है नहीं। मैं करूँ तो करूँ क्या? दूसरा है, भगवान में मेरा विश्वास है। तो मुझे लगता है मैं नहीं कर रहा, रामजी मेरे हाथों से करा रहे हैं। पर एक बड़ा मॉडर्न व्यू प्वाइंट (आधुनिक दृष्टिकोण) है। भगवान में तो अब लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है, तो अब एक तरफ़ आपको दिखता है कि भई दुनिया तो खत्म होने वाली है। ग्लोबल वार्मिंग (भूमंडलीय ऊष्मीकरण) हो रही है, पानी खत्म हो रहा है। सॉइल इरोज़न (मिट्टी का कटाव) हो रहा है, सबकुछ हो रहा है। तो एक कहीं पर यूथ (युवा) में एक निहिलिज़्म (विनाशवाद) सा आ जाता है कि यार फिर कुछ भी क्यों करना है, क्यों करनी है अवेयरनेस (जागरूकता)?
आचार्य प्रशांतः नहीं, दुनिया कल तो नहीं खत्म हो रही न! आज तो हो न। मुझे डॉक्टर बता दे कि तुम मरने वाले हो, मेरा आखिरी एक महीना है। तो उस आखिरी एक महीने में मैं कत्लोआम शुरू कर दूँगा? लोगों का खून पीना शुरू कर दूँगा? और मुझे पक्का बता दिया है डॉक्टर ने कि साहब एक महीने ही आप जियोगे। कुछ हो गया अन्दर टर्मिनल कैंसर (अन्तिम स्तर का कैंसर) कुछ है। तो उस महीने में ही मैं ज़रा कुछ एक अपने किसी आन्तरिक बिन्दु के प्रति तो जवाबदेह हूँ न! कि भाई, आखिरी एक महीना है तो क्या कर रहे हो ये, जाकर चोरी, डकैती, हत्या ये शुरू कर दोगे क्या? आखिरी एक महीना भी है तो आपके घर में आपका कोई पालतू प्यारा जानवर है आप जाकर उसका खून पी जाओगे! कि ये तो मेरा आखिरी एक महीना है तो इससे आगे तो मेरा अब कोई मतलब रहना नहीं है। तो इसका खून पीते हैं बढ़िया, ये तो नहीं करोगे न!
तो जहाँ तक निहिलिज़्म की बात है या तो तुम ये कह दो कि मैं अभी खत्म हो गया! सबकुछ खत्म हो गया। तो फिर ठीक है कुछ मत करो क्योंकि तुम अब बचे ही नहीं, तो क्यों करोगे? लेकिन अगर तुम ये भी मान रहे हो कि साहब अभी आपके पास दस-बीस-चालीस साल हैं कुछ भी करने के लिए, भले ही जो लड़ाई है, वो एक हारी हुई लड़ाई हो। लेकिन फिर भी आपको अभी चालीस साल तो हैं न लड़ने के लिए तो आप जूझिए। पूरी जान लगाकर जूझिए और विकल्प क्या है आपके पास।
प्रश्नकर्ताः और एक बड़ा मॉडर्न व्यू प्वाइंट ये है कि भाई, हर किसी की खुशी अलग होती है। उसको अख्तियार करने का तरीका अलग होता है। अब मुझे लगता है कि सरासर गलत है। मुझे लगता है कि बिना सर्विस के और कोई तरीका नहीं है हैप्पी (खुश) होने का। आपका इस बारे में क्या मत है?
आचार्य प्रशांतः ये तो बहुत जानी हुई और मानी हुई और पुरानी बात है। ये तो, इसमें मेरा आपसे कोई मतभेद हो ही नहीं सकता। ये तो बात बहुत सीधी है। हम जिसको कहते हैं इंडिविजुअल या पर्सनल हैप्पीनेस (व्यक्तिगत खुशी) वो बहुत बड़ा झूठ है और इसीलिए तो हमारी हैप्पीनेस ऐसे चुटकी बजाते ही फिर सैडनेस (दुख) बन जाती है। क्योंकि हमारे लिए हैप्पीनेस का मतलब ही होता है कि ये जो ‘मैं’ ये एकदम फूल के कुप्पा हो जाए। और इधर-उधर किसी से कोई मतलब नहीं, ठीक है।
अब वो बात बनेगी नहीं क्योंकि ये जो आप अपना इंडिविजुवलाइज्ड पर्सनल (व्यक्तिगत) ‘मैं’ मान रहे हो। अब ये मैं थोड़ा सा वेदान्त की तरफ़ चला गया। वो अपनेआप में एक झूठी चीज़ होती है। उसको ज़्यादा फुलाने से कुछ मिलने वाला है नहीं। तो इसीलिए ये पुराने लोगों ने, बड़े लोगों ने ये बात हजारों सालों से समझाई है कि तुम जो अपने लिए व्यक्तिगत खुशी तलाश रहे हो, वो पहली बात तो तुम्हें मिल नहीं सकती। दूसरी बात अगर मिल गयी धोखे से तो उसके नतीज़े बहुत भयानक होते हैं। वो अपने साथ बड़ी तबाही लेकर के आती है। तो एक ही तरीका है कि कुछ ऐसा करो जिससे तुम्हारी अपनी चेतना ऊपर उठे और दूसरों का कल्याण हो, यही आनंद है। ये जो चीज़ है ये खुशी और आनंद के भेद की बात है। दुनिया धीरे-धीरे ऐसी होती जा रही है कि इसको आनंद पता ही नहीं है। उन्हें हैप्पीनेस पता है। हैप्पीनेस बहुत छोटी, बहुत उथली बात होती है। हैप्पीनेस तो ऐसे ही मिल जाएगी कि अपने हाथों से जानवर की गर्दन मरोड़ी और उसे खा गये, उसमें भी मिल जाएगी।
आनंद चीज़ दूसरी होती है। आनंद कई बार आ जाता है इसमें कि भूखे बहुत थे पर रोटियाँ दूसरों में बाँट दी। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आनंद का सिर्फ़ यही तरीका है कि भूखे रहो लेकिन अन्तर समझाने के लिए उदाहरण दे रहा था। इसको लोकल लेवल (स्थानीय स्तर) पर मत देखिएगा। ये मेरा आपको सुझाव रहेगा। ये कोई एक कम्पार्टमेन्टलाइज़्ड (बँटे हुए), आइसोलेटेड (पृथक) चीज़ नहीं है, इंसान का जानवर के प्रति हिंसक होना। ये हमारी पूरी आन्तरिक व्यवस्था का एक लक्षण है। जो हमारे भीतर बीमारी लगी हुई है न। ये उसका बस एक सिम्प्टम (लक्षण) है, क्या? कि हम जानवरों को तरीके-तरीके से सताते रहते हैं। कहीं कोई कुत्ते उबाल कर खा गया। कहीं किसी ने ज़िन्दा ऑक्टोपस अपना ठूँस रखा है। तो हमारे भीतर जो घुन लगा हुआ है वो बस एक तरीके से अभिव्यक्त करता है अपनेआप को लेकिन उसकी अभिव्यक्ति की, उसके एक्स्प्रेशन (अभिव्यक्ति) के पचास तरीके और भी हैं। तो ये तो एक क्लासिकल बात होती है कि डोन्ट ट्रीट द सिम्प्टम्स (लक्षणों का इलाज न करें)।
एक इंसान ज़बरदस्त रूप से माँस भक्षक है। ये सिर्फ़ उसके भीतर जो उसको बीमारी लगी हुई है उसका सूचक है। तो आप सिर्फ़ माँस भक्षण को मिटाने की कोशिश करेंगे तो आप बहुत सफल नहीं हो सकते। आपको उसके भीतर जो बीमारी ही है उसको ही हटाना पड़ेगा। जब उसको हटाओगे आप तो सारे फिर जो सिम्प्टम्स हैं, लक्षण हैं वो एक साथ मिटेंगे। उसमें माँस भक्षण भी आता है। उसमें लगातार डरे रहना भी आता है। उसमें जो ये हाइपरलेटिव एम्बिशन (अतिशियोक्त्पिूर्ण महत्वाकांक्षा) होती है न, एकदम छत फाड़कर महत्वाकांक्षा जो निकलती है, वो भी आता है। उसमें दुनिया की पचास तरह की बेवकूफ़ियाँ आती हैं। जो वही सब जो शास्त्रीय तौर पर बीमारियाँ बताई गयी थीं। मद, मोह, काम, क्रोध, मात्सर्य, भय, लोभ ये सब एक साझे केन्द्रीय, सेन्ट्रल बिन्दु से निकलती हैं भीतर जो बीमार है। वहीं से ये सब चीज़ निकलती है कि इंसान जानवर को देख रहा है उसे बस कह रहा है आ हा हा, मज़ा आ गया! अब इस पर मसाला छिड़क कर मैं इसको खा जाता हूँ। ये भीतर की बीमारी का सूचक है। वो बीमारी हटानी है हमें, ये सब जानवरों का जो हम शोषण करते हैं वो अपनेआप हट जाएगा।
प्रश्नकर्ताः तो मतलब अभी हम इंसान बने नहीं हैं। हममें इंसान बनने का पोटेंशियल (सामर्थ्य) है। और जो हमारे पास जो फैकलटीज़ हैं, हमने उसको अन्दर के जानवर को और ज़्यादा पावरफुल (शक्तिशाली) बनाया है, बज़ाय कि हम उसको काबू में लाएँ, कर्ब (नियन्त्रण) करें।
आचार्य प्रशांतः देखिए साहब, जानवर तो हम पैदा ही होते हैं। जानवर तो हम पैदा ही हो रहे हैं न। ये जो छोटा बच्चा पैदा होता है और ये जो जानवर का बच्चा पैदा होता है आप इनको बस साफ़-साफ़ देख लें, आब्ज़र्व (निरीक्षण) करें। उसमें आपको बहुत अन्तर नज़र आएगा नहीं। तो जानवर तो हम होते ही हैं, इंसान हमें बनाने का जो काम होता है वो अध्यात्म का होता है। वो हमें इंसान बनाता है। खेद की बात ये है कि हमने अध्यात्म को ही बहुत दूषित कर दिया।
उसमें तरह-तरह की गन्दी मिलावट कर दी। तो इसीलिए आज जो इंसान हमारे सामने आ रहा है वो नब्बे प्रतिशत जानवर ही है। लेकिन बहुत खतरनाक जानवर है, क्यों? क्योंकि उसके पास बुद्धि है और जो सदियों से इकट्ठा किया हुआ वैज्ञानिक ज्ञान है, साइंटिफ़िक नॉलेज है वो है। तो आप ऐसे समझ लीजिए कि एक खूँखार, वहशी, जानवर, दरिन्दे के हाथ में साइंस (विज्ञान) और टेक्नोलॉजी (तकनीक) की शक्ति भी आ गयी है। तो वो क्या करेगा उस पॉवर (शक्ति) का?
वो उस पॉवर से दुनिया के लिए कोई हितकर काम तो करेगा नहीं। तो तरीके-तरीके से विध्वंसक, डिस्ट्रक्टिव काम कर रहा है। हमने पूरी पृथ्वी ही बर्बाद कर दी। अब हम कह रहे हैं कि साहब हमें जाना है मंगल ग्रह पर बसना है, बेवकूफ़ियाँ बता रहे हैं। ये हम क्या कर रहे हैं? हम यही तो जानवरों वाली हरकत है ये।
प्रश्नकर्ताः बात फिर वही संस्कारों की आ जाती है। और खुशी किसी को खाने में नहीं है। खुशी किसी को बचाने में है। और खुशी शायद बाकी सबको यही दो बातें याद दिलाने में है।
आचार्य प्रशांतः और ये चीज़ रोज़-रोज़ याद करनी पड़ती है। ये चीज़ बहुत गहराई से समझनी पड़ती है। हमारे भीतर जो पशु बैठा हुआ है वो, उसी को माया भी बोलते हैं, वो इतनी हल्की चीज़ नहीं है कि उसको आप दो सूत्र बता देंगे, दो कमान्डमेन्ट्स (आज्ञा) दे देंगे और वो चुप हो करके बैठ जाएगा शान्ति से, ऐसा नहीं है वो। वो बहुत ज़बरदस्त है। वही साँस लेता है। वही इधर-उधर फिरता है। वही इधर-उधर देखता रहता है कि कहाँ क्या मिल जाए कि हड़प लूँ।
तो उसको इंसान बनाना एक पूरी ज़िन्दगी का उद्यम है। एक लाइफ़लांग प्रोजेक्ट (आजीवन परियोजना) है। लगातार उसमें लगे रहना पड़ता है। और जो व्यक्ति अपनी पशुता को नहीं पहचानता और अपने भीतर के जानवर को मर्यादित करने के लिए कोई मेहनत नहीं करता। फिर उसकी सज़ा ये है कि वो जानवर की तरह जीता है और जानवर की तरह ही मरता है। अफ़सोस की बात ये है कि सज़ा सिर्फ़ उसको नहीं मिलती। उसके साथ-साथ पूरी दुनिया को मिलती है, वो फिर पूरी दुनिया को तबाह करता है।