युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः। विहोत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥
जिसमें सभी ब्राह्मण आदि अपने मन तथा चित्त को लगाते हैं, जिनके निमित्त अग्निहोत्र आदि का विधान किया गया है, जो सभी प्राणियों के विचारों को जानते हैं, उन सविता देव की हम महती स्तुति करें।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २, श्लोक ४)
आचार्य प्रशांत: तो दो तीन बातें कही गई हैं। पहली बात, "जिसमें सभी ब्राह्मण आदि अपने मन तथा चित्त को लगाते हैं।" ब्राह्मण माने वो जो यदि ब्रह्मवेत्ता नहीं है तो कम-से-कम ब्रह्म का आग्रही है। ब्रह्म माने? पूरी सच्चाई। तो ब्राह्मण या तो वो जो पूरी सच्चाई से अवगत है, जो पूरी तरह सच्चा हो ही गया, या कम-से-कम वो उस पूरी सच्चाई का प्रार्थी है, आग्रही है कि मुझे पता तो चले।
तो "जिसमें सभी ब्राह्मण आदि अपने मन तथा चित्त को लगाते हैं।" तो ब्राह्मण वो जो उस एक सच्चाई तक पहुँचने के लिए प्रणबद्ध हो। ब्राह्मण वो नहीं जो ब्राह्मण घर में जन्म इत्यादि ले गया है या कुल के कारण अपने-आपको ब्राह्मण कह रहा है। ब्राह्मण वो जो सच तक पहुँचने की बड़ी प्रबल, बड़ी अकाट्य इच्छा रखता हो।
"जिसमें सब ब्राह्मण आदि अपने मन तथा चित्त को लगाते हैं, जिनके निमित्त अग्निहोत्र आदि का विधान किया गया है।" अग्निहोत्र माने यज्ञ। जिस अपनी अंदरूनी सच्चाई तक पहुँचने के लिए यज्ञ करने को कहा गया है, वो जो गहरी कामना जिसकी पूर्ति के लिए एक सच्चा साधक अपनी बाकी सब कामनाओं की बलि देने को तैयार हो जाता है, वो है सवितादेव, माने वो है अहम् वृत्ति। और उस अहम् वृत्ति को संबोधित करके कहा गया है कि वो तो प्राणियों के विचारों को जानते हैं। सविता प्राणियों के विचारों को जानते हैं।
विचारों को कैसे जानते हैं? क्योंकि तुम्हारे सारे विचार तुम्हारी वृत्ति की ही अभिव्यक्ति होते हैं। इसीलिए तो हमें पता नहीं होता है कि हमारे विचार कहाँ से आ रहे हैं। विचार बहुत गहरी जगह से आते हैं। हाँ, विचार जब आ जाता है तो आप विचार के साथ ज़रूर अपना नाम जोड़ कर कहने लग जाते हो 'मैंने ऐसा सोचा'। पर वास्तव में आपने कभी ये विचार नहीं करा था कि आप विचार करेंगे; विचार तो हो जाता है, हो जाता है न? कोई है ऐसा जो कह सके ईमानदारी के साथ कि वो इस खास तरह का या अमुक विशिष्ट विचार को आमंत्रित करता है तभी वो विचार आता है?
हाँ, विचार जब आ जाता है, उसके बाद फिर आप उस विचार को और बढ़ा सकते हो, उसको मोड़ सकते हो, दिशा दे सकते हो। फिर आप उस विचार के साथ कुछ खेल खेल सकते हो। पर विचार तो जैसे किसी बहुत अंधेरी और गहरी जगह से उठता है जिस तक आपकी पहुँच ही नहीं है। आप जानते ही नहीं कि आपको कोई विचार क्यों आ गया सहसा।
तो वृत्ति पहले होती है। चूँकि वृत्ति पहले होती है इसीलिए सविता के बारे में कहा गया है कि वो सभी प्राणियों के विचारों को जानते हैं। विचार वृत्ति को नहीं जान सकता है, लेकिन वृत्ति विचार को जानती है। वृत्ति से विचार आता है, विचार से कर्म आता है।
कर्म को बदलने के लिए विचार बदलने पड़ते हैं और विचार सिर्फ़ तब बदलते हैं जब वृत्ति का उन्मूलन हो जाए।
इसीलिए जो लोग सोचते हैं कर्मों पर नियंत्रण कर लेंगे बिना विचारों को बदले, वो असफल रहते हैं; और इसीलिए जो लोग सोचते हैं कि विचारों पर नियंत्रण कर लेंगे बिना वृत्ति को जाने, वो विचारों के साथ असफल रहते हैं।
और वृत्ति का उन्मूलन कैसे हो सकता है?
वृत्ति से भी गहरा जो है उसके पास जाकर। वृत्ति से भी गहरा जो है उसको आत्मा कहते हैं। आत्मा का ही दूसरा नाम प्रज्ञान या बोध है। तो वृत्ति का उन्मूलन तब होगा जब तुम वृत्ति का बोध कर लो।
कर्म को काटने के लिए कर्म से नीचे वाले तल पर जाना पड़ेगा, उसका नाम है? विचार।
विचार को काटने के लिए विचार से नीचे वाले तल पर आना पड़ेगा, उसका नाम है? वृत्ति।
वृत्ति को काटने के लिए वृत्ति से नीचे के तल पर जाना पड़ेगा, उसका नाम है? आत्मा, और आत्मा का ही दूसरा नाम बोध है। माने वृत्ति को काटने के लिए वृत्ति का बोध होना आवश्यक है। बोध निकटता में होता है; पास जाओगे, जान जाओगे। दूरी ही अज्ञान है। इसीलिए बात यहाँ पर लगातार हो रही है निकट जाने की, उपासना की।
वास्तव में, तुम अपनी वृत्ति के निकट जाना ही इसीलिए चाहते हो ताकि वृत्ति के पार निकल जाओ। पर पार निकलने की बात छोटा मुँह बड़ी बात है। इसीलिए वो बात यहाँ करी ही नहीं जा रही है। जो अभी निकट ही नहीं पहुँच पाया वो पार जाने की क्या बात कर रहा है! तो यहाँ बस विनम्रता के साथ निकट भर पहुँचने तक की बात हो रही है। और निकट पहुँचने के लिए फिर कहा जा रहा है, "उन सविता देव कि हम महती स्तुति करें।" इसको ऐसे पढ़ो कि सिर्फ़ उस एक देवता की स्तुति करनी है जो प्रथम है, बाकी किसी की स्तुति करनी ही नहीं है।
वो जो पहला है, जो प्रथम है उसकी स्तुति करो, और किसी की स्तुति करनी ही नहीं है। और याद रखो, जो पहला है, प्रथम है, उसको अगर तुम बहुत शास्त्रीय तौर पर कहना चाहोगे तो कह दोगे ब्रह्म है, आत्मा है।
लेकिन अगर ज़्यादा उपयोगी और व्यवहारिक तरीके से कहना है तो कहोगे कि पहला है अहम्, क्योंकि आत्मा को तो पहला भी नहीं बोल सकते। ब्रह्म को क्यों पहला बोल रहे हो? पहला बोलने के लिए कोई होना चाहिए जो एक-दो-तीन गिन रहा हो। और पहला बोलने के लिए पहले से पहले कुछ होना चाहिए, पहले के बाद भी कुछ होने की संभावना होनी चाहिए। या तो शून्य हो या दो हो या कम-से-कम शुन्य या दो की संभावना हो। जहाँ तक सत्य की बात है, वो प्रथम भी नहीं हो सकता। सत्य तो वहाँ है जहाँ गिनतियाँ और आँकड़े होते ही नहीं, संख्याएँ होती ही नहीं।
तो इसीलिए प्रथम अगर कोई है तो कौन है? अहम् है। तो यहाँ बात कही जा रही है कि उस प्रथम कि हमें स्तुति करनी है। उस प्रथम की। किसकी स्तुति करनी है? ये जीवन जीने का सूत्र बताया जा रहा है आपको। ज़िन्दगी तुम्हारी उपासना हो, पूजा हो, किसकी? 'पहले' की। और वो पहला कोई निराकार नहीं है, कोईं अदृश्य नहीं है, कुछ तिलिस्मी रहस्य जैसा नहीं है। वो पहला है तुम्हारे भीतर का उफान। प्रथम है तुम्हारी प्रथम इच्छा।
ये बात ही विचित्र है न? कि अगर वो हमारी प्रथम इच्छा है, तो हमें तो उसका पुरज़ोर एहसास होना चाहिए, क्योंकि भाई हमारी वो प्रथम और सबसे सशक्त, गहरी इच्छा है, तो हमें तो लगातार उसका अनुभव होता रहना चाहिए, जैसे छाती में आग जल रही हो। नहीं, यही तो माया है।
हमें हमारी ही केंद्रीय इच्छा पता नहीं। हम नहीं जानते। हम चाहते हैं, हम टूट कर चाहते हैं, पर हम जानते नहीं कि हम क्या चाहते हैं। चाह ना रहा हो, ऐसा कोई नहीं है, पर जान रहा हो कि क्या चाह रहा है, ऐसा भी कोई नहीं है।
यहाँ हर इंसान चाहत का मारा हुआ है, पर अंधी चाहत है जिसमें चाहने वाले को ही नहीं पता कि वो चाहता है। और चाहने वाले को जिस चीज़ का पता है कि चाहता है, वो चीज़ चाहने लायक नहीं है। जो चाहने लायक है, तुम जानते ही नहीं तुम उसे कितना चाहते हो। और जिनको तुम जानते हो कि तुम चाहते हो, वो चाहने लायक हैं ही नहीं। तो हमारे जानने और हमारे चाहने के बीच एक दरार है, वो पटती नहीं।
हमारी चेतना और हमारी वृत्ति एक साथ नहीं चल रहे। इसी दरार को तुम कह सकते हो आदमी के चेतन मन और अवचेतन मन के बीच की दरार या भेद। तुम चेतन तरीके से, कॉन्शियस तरीके से कुछ चाह रहे होते हो, और नीचे-नीचे जो तुम्हारा प्रसुप्त मन है वो कुछ और चाह रहा होता है। हमारे जानने में और हमारे चाहने में बड़ा अंतर है। जिसने इस अंतर को पाट दिया, वो योगी हो गया।
तो व्यावहारिक अर्थ में योग ये नहीं है कि मन और आत्मा का मिलन। व्यावहारिक अर्थ में योग फिर समझ लो कि तुम्हारी कामना और तुम्हारी वृत्ति का मिलन हो गया। योग हो गया फिर कि तुम्हारा जीवन तुम्हारी प्यास से मिल गया, ये योग है।
तुम अब ऐसे जी रहे हो कि तुम्हारा जीवन तुम्हारी ही प्राप्ति और पूर्ति की दिशा में अग्रसर है, ये योग है। जैसे कोई गाड़ी चली जा रही हो और गाड़ी की दिशा और गाड़ी की मंज़िल की दिशा एक हो गए हों। अब गाड़ी मंज़िल पर पहुँचेगी। मंज़िल सामने है लेकिन गाड़ी अकसर दाएँ-बाएँ चल रही होती है, ये वियोग है। योग क्या है? कि गाड़ी के चलने की दिशा और जिस दिशा में लक्ष्य है वो दोनों दिशाएँ अब एक हो गईं, एलाइन हो गईं, ये योग है।
तो ये ज़िन्दगी जीने का तरीका है कि 'कामना है पर अब वो कामना है जिससे अब मुझे वाकई कुछ मिल जाएगा। व्यर्थ कामनाओं में जीवन नहीं जा रहा। चल रहा हूँ, जान लगा रहा हूँ, इच्छाएँ हैं, जीवन सकाम है अभी भी, उद्देश्य हैं, निर्उद्देश्यता को नहीं प्राप्त हो गया। लेकिन घटिया उद्देश्यों के पीछे स्वयं को व्यय नहीं कर रहा।'
अब वो उद्देश्य है जिसको अगर पा लिया, तो आनंद-ही-आनंद। और नहीं पाया, तो कम-से-कम दुःख और सुख का एहसास नहीं है, क्योंकि समर्पण है लक्ष्य के प्रति।