प्रश्नकर्ता: ये आपकी क्लैरिटी ऑफ थॉट बहुत है। ये जो है न, मतलब कभी-कभी ऐसा लगता है न कि, कितना पढ़ना पड़ेगा, कितना समझना पड़ेगा — टू हैव दैट।
आचार्य प्रशांत: पढ़ने का तो वक्त ही नहीं मिलता।
प्रश्नकर्ता: आप पढ़ते तो हो, बोले रात को।
आचार्य प्रशांत: मैंने कहा था, रात में दो काम होंगे — व्यक्तिगत समय मिला तो पढ़ लेंगे हम, और नहीं तो आप दिन भर की जो सब धूल थी, वो रात में साफ करेंगे।
ज़्यादातर तो समय धूल साफ करने में चला जाता है। पढ़ना मेरा लगभग 8 साल से, जो मेरी पढ़ने की गति थी, वो 20% रह गई है। नहीं तो मेरी ज़िन्दगी में एक समय ऐसा था जब मैं महीने में चार-चार, पाँच-पाँच, शायद छह-सात-आठ किताबें भी निपटा रहा था। तो अभी लगभग 3000 किताबें हैं मेरी लाइब्रेरी में, और ये इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि उनमें से अभी कई सौ किताबें ऐसी हैं जो कई सालों से पढ़ी हैं, पर मैं उनको पढ़ नहीं पा रहा हूँ।
तो आप लोगों की सेवा में आने का एक व्यक्तिगत रूप से जो मुझे दुष्प्रभाव झेलना पड़ा है, और बड़ी मुझे उसकी कई बार कचोट रहती है — कि मेरी रीडिंग कम हो गई है, समय नहीं निकाल पाता। कई बार पढ़ने बैठो, तभी कोई आ जाएगा — "आचार्य जी, ये बता दो!" ख़ुद नहीं आएगा तो मैसेज कर देगा कि "फलानी चीज़ है," और जितने डिपार्टमेंट्स हैं, सबको ही जवाब देना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता: बट फिर फ़ायदा भी तो है, आपके थ्रू कितने ऐसे लोग हैं जो आपने भी शुरू किया।
आचार्य प्रशांत: व्यक्तिगत लाभ से कहीं बेहतर है कि आपकी सेवा कर दी जाए। इसीलिए पढ़ना थोड़ा पीछे की बात हो जाती है।
दूसरों को क्या दोष दे दूँ? अपने डिसिप्लिन की भी बात है। मैं चाहूँ तो कर सकता हूँ। कहीं न कहीं मेरे डिसिप्लिन की कमी है।
प्रश्नकर्ता: अध्यात्म।
आचार्य प्रशांत: वही है — किसी को क्या बोले? अपनी थाली में छेद है।
प्रश्नकर्ता: पर सर, वो अच्छा भी तो है। क्योंकि कॉन्स्टेंटली आपको भी पता है, इतना जानने के बाद भी
आचार्य प्रशांत: देअर इज़ जस्ट सो मच टू नो। मतलब, क्लाइमेट ही इतना बड़ा क्षेत्र है कि अगर मैं उतना पढ़ पाता, जितना सचमुच पढ़ना ज़रूरी है, तो मैं शायद आपको और बेहतर तरीके से कह पाता, फिर लोगों तक बात और बेहतर तरीके से पहुँच पाती। तो ये गुनाह तो मैंने किया है कि मैं जितना पढ़ना चाहिए, उतना नहीं पढ़ रहा हूँ।
प्रश्नकर्ता: मेरे साथ एक चीज़ होती है, आचार्य जी — जैसे चार बार कुछ चीज़ें पढ़ ली। और एक तो काम भी ऐसा है न कि आप छोड़ नहीं सकते उस चीज़ को। चार चीज़ें पढ़ीं, अब है तो इंसान ही, पढ़ के बोर हो गए। समझ में आया कि, "अरे यार, दिस इज़ गेटिंग टू मच टू माई हेड, एंड देन यू वुड वांट टू रिलैक्स योरसेल्फ।” तो 20 मिनट के लिए कुछ अच्छा देख लिया, कुछ ऐसा मतलब, कुछ भी। कभी-कभी होता है कि दूसरा ही दिखा दे।
आचार्य प्रशांत: नहीं, देखिए, ज़्यादा बड़ी समस्या ये नहीं होती कि एक राह पर चलते-चलते थक गए और अब रिलैक्स करना है। हम ये एक समस्या मानते हैं — कि एक राह पर चले और बड़ी मेहनत कर दी तो थकान हो गई। हम उस थकान को समस्या मानते हैं।
तो हम किताब का इस्तेमाल करते हैं थकान दूर करने के लिए कि मैं अपनी राह पे चला और इतना चला, इतना श्रम हुआ कि थकान हो गई, तो अब मैं किताब ले रहा हूँ रिलैक्स करने को।
मेरे देखे, थकान समस्या नहीं है। मेरे देखे, समस्या है गलत राह। कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम जिस राह पर इतनी मेहनत करके चल रहे हो, वो राह ही तुमने गलत चुन ली है?
तो मैं किताब रिलैक्स करने के लिए नहीं पढ़ता। मैं किताब इस बात का मूल्यांकन करने के लिए पढ़ता हूँ — कहीं राह ही तो गलत नहीं हो गई? किताब एंटरटेनमेंट नहीं है कि वो आपको रिलैक्स कराए। किताब वो होनी चाहिए जो आपके सामने आईना बन के आए, जो आपको बताए कि देखो, चल क्या रहा है तुम्हारे साथ, जिससे तुम नावाकिफ हो, अनभिज्ञ हो गए हो।
प्रश्नकर्ता: ज्ञान जितना ले सकते हो आप उसमें।
आचार्य प्रशांत: भीतर झांकना है। बाहर का ज्ञान तो गूगल आया, बहुत सुलभ हो गया। अब तो लीजिए चैटजीपीटी है, कितना ज्ञान चाहिए आपको, सब मिल जाएगा बाहर का ज्ञान। लेकिन जो भीतर का ज्ञान है, वो आपको — आपके अलावा कोई नहीं दे सकता।
वो मेहनत तो स्वयं आपको ही करनी पड़ेगी अपनी ईमानदारी से कि, "सच बताओ, चल क्या रहा है? यहाँ क्या बैठा है? लालच बैठा है? डर बैठा है? मोह बैठा है? क्या बैठा है भीतर?" मुझे देखना पड़ेगा।
वो ईमानदारी — श्री कृष्ण कहते हैं — निर्मम ईमानदारी। "निराशी निर्ममो भव"— वो निर्मम ईमानदारी ख़ुद ही दिखानी पड़ेगी।
प्रश्नकर्ता: मेरी एक दोस्त पूछती है कि, अगर तुमको कभी इस वक्त के जहाँ जब तुम पैदा हुए हो“इफ यू वेर गिवन अ चॉइस इन द लास्ट से, हाउ मेनी इयर्स टू बी बॉर्न” — हाइपोथेटिकल है बिल्कुल—कि कभी इस पॉइंट के अलावा, कभी और पैदा होने का मौका मिलता, तो आप कब चाहते कि यार, मेरे को ये काल देखना था, ये टाइमफ्रेम में * आई शुड हैव लिव्ड एंड बीन बॉर्न? डू यू थिंक लाइक दैट?*
आचार्य प्रशांत: एक जन्म में ही बड़ी मशक्कत लग जाती है जानने के लिए कि आप पैदा नहीं हुए हो। आदमी एक और जन्म की कल्पना करे, तो इससे बड़ा बंधन क्या होगा?
ये जो आपको जन्म मिला है, ये जानने के लिए मिला है कि आप जन्मे नहीं हो, आप अजात हो। उसको ही आत्मा बोलते हैं, आप अजात हो, नहीं जन्म हुआ है।
आप सागर की एक लहर की तरह हो। उसमें जन्म क्या है? लेकिन सोचते होगे — "आप खास हो, कि भीतर कोई बैठा हुआ है जो जीव है।" तो आप अपने आप को "जीवित" बोलते हो, कि "भीतर कोई जीव बैठा हुआ है।"
तो आध्यात्मिक मुक्ति का उद्देश्य ही यही मानते हैं कि आप जान लो कि आप जीवित नहीं हो। उसी को कहते हैं "जीवन-मुक्त" होना। आप जीवित नहीं हो। आप बिल्कुल वैसे ही हो जैसे प्रकृति में कुछ भी और है — नदी, झरने, पहाड़।
बस भीतर एक अहंकार है जो कहता है कि "मैं अलग हूँ, मैं विशिष्ट हूँ, मैं यूनिक हूँ।" हम उस अहंकार के मिथ्यात्व को जानना ही अध्यात्म है। तो जब आप पूछोगे—"कोई और जन्म या पुनर्जन्म?"—हम तो कहेंगे, जब यही जन्म नहीं है, तो अगला-पिछला जन्म कहाँ से आ गया? कहते हैं न, कि "अगले जन्म में क्या होगा?" अरे, इस जन्म में ही कुछ नहीं है, तो अगले में क्या होगा? हमारा यही जन्म नहीं है, अगला कहाँ से हो जाएगा? तो ये सब जो है, इसे मैं "लोकधर्म" बोलता हूँ — जो रूढ़िवादी, मूर्खतापूर्ण धर्म होता है, जिसका आम लोग व्यवहार करते हैं — उसको मैं लोकधर्म बोलता हूँ।
ये सब लोकधर्म में चलता है — "अगला-पिछला जन्म।" जो वास्तविक धर्म है, वेदांत, श्रुति — वो तो समझाता है कि पुनर्जन्म का एक बहुत नाज़ुक, बहुत ख़ास, बहुत बारीक मतलब होता है। पुनर्जन्म का मतलब ये नहीं होता कि तुम्हारा कोई पिछला जन्म था और अब तुम पैदा हुए, अगला जन्म होगा, और फिर एक दिन तुम जाओगे और कहीं जाकर तुम्हारी आत्मा को कहीं पे विराम मिल जाएगा। ये सब नहीं होता।
पुनर्जन्म का अर्थ होता है कि प्रकृति है। श्री कृष्ण कहते हैं गीता में — "गुणा गुणेषु वर्तन्ते।" पूरी गीता आपको यही समझाने के लिए है कि तुम प्रकृति मात्र हो। एक लहर आती है, गिरती है, अगली लहर खड़ी हो जाती है, यही पुनर्जन्म है। इसका मतलब ये नहीं कि पिछली लहर का पुनर्जन्म हुआ और वो अगली लहर बन गई।
तुम प्रकृति मात्र हो। एक पत्ता गिरता है वृक्ष से, दूसरा पत्ता उस पर आ जाता है। इसका मतलब ये नहीं कि जो पत्ता गिरा है, वही अगला पत्ता बन गया। ये पुनर्जन्म का असली सिद्धांत है। पर लोकधर्म ने पुनर्जन्म के सिद्धांत को समझा कुछ नहीं। क्योंकि धर्म को हमने ज्ञान से तो बिल्कुल अलग कर दिया है ना, तो पुनर्जन्म इतनी बढ़िया बात है, लेकिन हमने उसके सिद्धांत को ना समझ के उसको बिल्कुल विकृत कर डाला।
देखिए ना, आप बुद्धिजीवी हैं, फिर भी ये पूछ रहे हैं — *”गिवन अ चांस, व्हाट वुड यू लाइक टू बी बॉर्न एज?” माय आंसर इज़ — यू नो व्हेन एंड व्हाट?” जो भी है, पर उसमें एक बिलीफ है कि *देअर इज़ समथिंग कॉल्ड ‘टेकिंग अ बर्थ एल्सव्हेयर, * ये सब है। तो उसमें ये तो है ही नहीं, देखिए आप भी कॉलोनाइज़्ड हैं, आप अपने आप को ‘रैशनल थिंकर’ बोलते हो, अपने आप को बुद्धिजीवी बोलते हो, लेकिन लोकधर्म आपके भीतर भी बैठा हुआ है।
आप जिन बाबाओं की निंदा कर रहे हो, उन बाबाओं का प्रोपेगेंडा आपके भीतर भी घुस गया है, ये बात हमें पता ही नहीं है। इसी बात को जानने को, कि हम पूरी तरह से कंडीशन्ड हैं — इसी को आत्मज्ञान कहते।
प्रश्नकर्ता: जैसे मैं मेडिटेट नहीं करता — कोई भी। लोग कहते हैं ना — मेडिटेट करो, लाइक मेडिटेशन इज़ अ गुड वे टू स्टार्ट।
आचार्य प्रशांत: आप मेडिटेट नहीं करते?
आचार्य प्रशांत: मेडिटेट इन द सेंस कि कभी 15 मिनट कर लिया, अच्छा लगता है, बट वही है कि रेगुलरली नहीं कर पाता।
आचार्य प्रशांत: तो आप ये घंटे भर से क्या कर रहे हो?
प्रश्नकर्ता: ये मेडिटेशन है? मतलब ये तो काम है। मैं ऐसे ऐज़ अ डाउट पूछ रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: अरे, नाम दिया जाए तभी मानेंगे क्या कि मेडिटेशन है? यही मेडिटेशन है।
प्रश्नकर्ता: लेकिन जैसे ट्रेडिशनली।
आचार्य प्रशांत: ट्रेडिशन को आग लगाइए।
प्रश्नकर्ता: तो बेसिकली अगर जैसे कहते हैं ना कि "15 मिनट करो, शांत रहो, अंतर्मुखी रहो।"
आचार्य प्रशांत: अगर कोई अच्छी चीज़ है तो 15 मिनट करें? इतनी अच्छी चीज़ है? हमसे कहा जाता है ध्यान प्राणों से भी ऊँची बात है। इतनी ऊँची बात है तो 15 मिनट आए ज़िन्दगी में? 24 घंटे क्यों ना आए?
अगर ध्यान में सचमुच वो मूल्य है जो बताया जाता है, तो वो मूल्य मुझे 24 घंटे चाहिए, 7 दिन चाहिए, 365 दिन चाहिए — ये ध्यान है, यही ध्यान है।
अपनी अनुपस्थिति को ही ध्यान कहते हैं। और अपनी अनुपस्थिति के प्रति निष्ठा को ही, समग्र प्रयास को ही ध्यान की विधि कहते हैं।
तो हम जो ये कर रहे हैं अभी वार्तालाप — ये ध्यान की विधि है — मेथड ऑफ मेडिटेशन। और जो आप मुझे सुन रहे हैं, उसके कारण आप अगर थोड़ा मिट पाए, थोड़ा अनुपस्थित हो पाए, तो फिर आप ध्यानस्थ हो गए।
प्रश्नकर्ता: पर आपने ट्रैवल इतना जो किया है... जनरली मानते हैं — मैंने भी नोटिस किया। ट्रैवलिंग आपको एक सेंस में, पता नहीं, वो डिफ़ाइन नहीं कर पाया मैं, लेकिन वो ग्रो तो कर देता है। एक पर्सनैलिटी डेवलपमेंट — जस्ट बाय सीइंग डिफरेंट थिंग्स, मीटिंग डिफरेंट पीपल।
आचार्य प्रशांत: मैं तो जहाँ गया वहाँ एक ही चीज़़ देखी। तो डिफरेंट थिंग्स कहाँ से देखें?
प्रश्नकर्ता: जो कि क्या है?
आचार्य प्रशांत: क्लाइमेट चेंज, अज्ञान, मूर्खताओं के अलग-अलग रूप। अलग-अलग चीज़ क्या, मैं भारत से बाहर गया, मैंने वहाँ भी वही चीज़ देखी। ऊपर-ऊपर चीज़ें बदलती रहती हैं, भीतर तो वही अहम वृत्ति है ना, तो मैं क्या बोलूँ कि उससे मुझे ग्रोथ मिली?
और दूसरा, ये इंटरनेट का ज़माना, दूसरे किताबों से मेरा सहचर्य, तो उसमें फिजिकली मैं जाकर के देखूँ कि क्या चल रहा है, ये कोई बहुत ज़रूरी नहीं होता। यहाँ गोवा में मछली ज़्यादा काट रहे हैं, उन्हें मछली के दर्द का नहीं पता। हैदराबाद में बकरा ज़्यादा काट रहे हैं, उन्हें बकरे के दर्द का नहीं पता। मैं उसमें क्या अंतर करूँ, लोग तो सब जगह एक जैसे ही हैं।
और जहाँ ना मछली काट रहे हैं, ना बकरा काट रहे हैं — उदाहरण के लिए राजस्थान में, गुजरात में, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में — वहाँ वे और तरीकों से हिंसा कर रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: शोषण कर रहे हैं वे तो।
आचार्य प्रशांत: वहाँ अपनी बेटियों को ही काट रहे हैं। भारत की आबादी से 5 करोड़ लगभग महिलाएँ गायब हैं, वो सब उत्तर भारत से गायब हैं। जबकि वहाँ माँस कम खाया जाता है।
ये बड़ी गजब बात है, भारत के जिन इलाकों में जीव हत्या सबसे कम होती है, वहाँ भ्रूण हत्या सबसे ज़्यादा होती है। जहाँ जीव हत्या जितनी कम है, जैसे कि हरियाणा — बहुत वेजिटेरियन है, पंजाब भी वेजिटेरियन है, राजस्थान भी वेजिटेरियन है, उत्तर प्रदेश के भी जिले ज़्यादातर दक्षिण की अपेक्षा ज़्यादा शाकाहारी हैं — पर सबसे ज़्यादा भ्रूण हत्या उन जगहों पर होती है जहाँ शाकाहार सबसे ज़्यादा चलता है।
तो हिंसा तो हिंसा है। मैं जहाँ जाता हूँ, हिंसा ही देखता हूँ, उसके रूप-रंग बदलते रहते हैं। ये मछली काट रहे हैं, बकरा काट रहे हैं, केरल चले जाओ तो वहाँ गाय भी काट रहे हैं — ठीक है। उत्तर में चले जाओ तो वहाँ पे कम काट रहे हैं, लेकिन वे बेटियाँ काटते हुए लाज नहीं आती।
प्रश्नकर्ता: पर ये बहुत बेहतरीन एनालोजी आपने बताई मुझे।
आचार्य प्रशांत: ये भी अभी ताज़ा-ताज़ा ही आई है, आज से पहले कहीं नहीं, मुझे भी नहीं पता थी।
प्रश्नकर्ता: ये आपने बोलते-बोलते बोला कि हाँ, ऐसा है? तो अभी सोचो, कोई कोरिलेशन आपको लगता है कि क्यों हो सकता है ऐसा?
आचार्य प्रशांत: हिंसा तो हिंसा है ना। आदमी हिंसक है, यहाँ एक तरीके से हिंसा करेगा, वहाँ दूसरे तरीके से हिंसा करेगा। घर में एक तरह से हिंसा करेगा, दफ़्तर में दूसरे तरीके से हिंसा करेगा। दफ़्तर में वो अपने चपरासी का शोषण करेगा, घर में आके बीवी-बच्चों का शोषण करेगा।
जो धार्मिक है, वो धार्मिक तरीके से शोषण करेगा। जो अपने आप को नास्तिक बोलता है, वो दूसरे तरीके से शोषण करेगा। शोषण तो सभी करेंगे। जब तक भीतर ज्ञान नहीं है, तब तक व्यक्ति हिंसक तो रहेगा ही रहेगा। अहिंसा के रूप, रंग, तरीके अलग हो सकते हैं।
प्रश्नकर्ता: ये फिर क्या, इननेट क्वालिटी है जो अंदर रहती है लोगों के? जब तक आप एक कॉनशसनेस में नहीं रहो या हमें अपने आप को करेक्ट करते रहना है?
आचार्य प्रशांत: हिंसा का अर्थ ही है, कुछ ऐसा करना जो तुम्हें चैन और मुक्ति की ओर नहीं ले जा सकता —बयही हिंसा है। हिंसा का प्रारंभिक संबंध, केंद्रीय सरोकार दूसरे के प्रति आपके व्यवहार से नहीं है कि मैंने आपको डांट दिया तो ये हिंसा है। हिंसा का केंद्रीय सरोकार स्वयं के प्रति ज्ञान से है — क्या मैं स्वयं को जानता हूँ? अगर मैं स्वयं को नहीं जानता, तो मैं जो भी करूँगा, अपने लिए गलत ही करूँगा।
उदाहरण के लिए, मैं बहुत स्थूल उदाहरण दे रहा हूँ ताकि समझ में आए — मैं अगर नहीं जानता कि मेरा वजन ज़्यादा है, तो मैं यहाँ बैठ के खूब खीर, पकड़ी और पूरी हलवा उड़ाऊँगा। हो गई ना हिंसा? क्योंकि मैं जान ही नहीं रहा हूँ कि मुझे कुछ बीमारी है। वो बीमारी क्या है कि मेरा वजन ज़्यादा है। हो सकता है, मेरे भीतर मधुमेह हो, पर मुझे पता नहीं अपनी बीमारी। जब मुझे अपनी बीमारी नहीं पता, तो मैं जो भी कुछ करूँगा, मेरे प्रति हिंसा ही होगा। समझ रहे हैं?
यही बात आत्मज्ञान की है। जब आप स्वयं को भीतर से नहीं जानते, तो आप जो करते हो, आपके प्रति हिंसा होता है। और सृष्टि का नियम ये है कि जो व्यक्ति अपने प्रति हिंसक है, वो स्वतः ही दूसरे के प्रति हिंसक हो जाता है। ठीक इसी तरह से इसकी ये है कि जो व्यक्ति अपने प्रति प्रेमपूर्ण है, वो बिना प्रयास करे दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण हो जाता है। उसे पता भी नहीं होता वो प्रेम में है, पर उसका प्रत्येक कर्म प्रेम का ही एक कृत्य बन जाता है, बिना उसके चाहे। और जो ज्ञानी नहीं है, वो कहे कितना भी प्रयास कर ले कि मुझे दूसरे के लिए प्रेम करना है, दिखाना है, प्रदर्शित करना है, वो प्रेम के माध्यम से भी हिंसा करेगा।
प्रश्नकर्ता: बस मेरा तो जो भी था, एक-एक वो मिला है। कि अगर ये इंटरव्यू मैं ख़ुद देखूँगा आई विल रिफ्लेक्ट अ लॉट, अच्छा ये है। इट्स बीन अ लर्निंग एक्सपीरियंस। कि हाँ दीज़ आर द थिंग्स व्हिच आई नो, आई डोंट नो दी आर थिंग्स आई कैन इंप्रूव ऑन। ये ऐसी चीज़ें हैं जो सीख सकते हैं। पर जो आपका कोर है, इट इज़ अ लिटिल डिफिकल्ट टू अंडरस्टैंड इनिशियली। या आप अध्यात्म के बारे में जब बात करते हो, ये है, एंड आपको तो रोज़ करना पड़ता होगा। और जब आप उसको कोर एसेंस में देखते हो, चार चीज़ें इंटरलिंक होती हैं। एक लेवल पे आता भी है दिमाग में थॉट कि फिर तो कोई किसी चीज़ का फायदा नहीं है। बट देन यू नो कि यार जब जो है तो है। कोर प्रॉब्लम हाउ एवर डोंटिंग इट मे सीम इट इज़ व्हाट इट इज़। तो वो एक चीज़ जो है, वो मैं सीखाऊँ।
आचार्य प्रशांत: ये चीज़ ऐसी है जिसको शायद शुरू करना मुश्किल लगता है क्योंकि हमारे पास हमारे पूर्वाग्रह होते हैं। प्री एकिस्टिंग कांसेप्ट्स होते हैं। पर अगर कोई थोड़ा सा नम्रता, श्रद्धा के साथ इसको थोड़ा समय और श्रम दे-दे, तो बहुत आसान हो जाता है। बल्कि हैरानी होती है कि सब चीज़ें इतनी जुड़ी हुई थी आपस में, और बस एक बटन से सारी बत्तियाँ जल जाती हैं, बड़ा आनंद आता है।
प्रश्नकर्ता: समझने में कि कैसे चलता है।
आचार्य प्रशांत: सब आसान हो गया ना? एक बटन से सब चलता है।
प्रश्नकर्ता: ठीक है तो फिर दो थोड़ा अपने उस चीज़ पे ध्यान दूँगा कि, क्या सोच रहा हूँ। एंड इन टर्म्स ऑफ़ ग्रीड। बट बहुत कोर भी है ना, इनेट फंसा हुआ है आपके अंदर।
आचार्य प्रशांत: उसको निकालने की जरूरत नहीं है। हम ये एकनॉलेज करने की जरूरत है कि फंसा हुआ है, उसको एक्शन में देखने की जरूरत है। आई जस्ट गॉट इट, एक्टिंग देखो, अभी वो काम कर रहा था, मैंने उसे देखा। हाँ, भीतर कोई था जो अपनी बात मनवाने के लिए दुराग्रह माने, झूठ बोलने को तैयार है। और मैंने अभी-अभी देखा, वो ये कर रहा है। मैंने अभी देखा, कि कोई सहायता के बहाने अपनी वासना पूरी करने के लिए लगा हुआ है। दिखा रहा है, सहायता कर रहा हूँ, ख़ुद को भी यही जता रहा है कि सहायता कर रहा हूँ। पर मैंने देखा कि पीछे का उसका मंसूबा जो है, वासना का है। ये ख़ुद को पकड़ना, अपने ही भीतरी ही चोर को पकड़ना, यही आत्मज्ञान है।
वो लगातार है, क्योंकि चोर को तभी तो पकड़ोगे जब वो काम कर रहा होगा। अब आप बैठ गए, हाँ चोर को पकड़ना है, तो कहाँ से पकड़ में आएगा? द थीफ कैन बी कॉट ओनली रेड हैंडेड एंड इन एक्शन।
प्रश्नकर्ता: आप अपने साथ भी होते हुए देखते हो, इन द डेली बेसिस।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल लगातार, एकदम। और जब नहीं हो रहा होता, मान लो कोई ऐसा अंतराल आ गया कि जब चल रहा है, तो उसके बाद ऐसे होता है जैसे आदमी नींद से उठा हो। पता चल जाता है कि अभी-अभी जो है, एक पीरियड था जिसका डाटा गायब है।
प्रश्नकर्ता: मतलब क्या? कैसे यू डोंट थिंक उसके बारे में।
आचार्य प्रशांत: थिंकिंग की बात नहीं है। सजगता का अर्थ कुछ नहीं होता, वो बस एक प्रकार की आजादी होती है। वो कैसे समझाऊँ, मैं उसको अनिवर्चनीय कहते हैं उसको ऐसे नहीं समझाया जा सकता।
प्रश्नकर्ता: अनिवर्चनीय, एक तो हिंदी भी बहुत अच्छी है आपकी।
आचार्य प्रशांत: उसके लिए कोई और शब्द अब मैं बोलूँ इनडिस्क्राइबल, तो वो थोड़ा।
प्रश्नकर्ता: ये भी अपने आप में कितना बड़ा कॉन्फ्लिक्ट है? नहीं कि मैं अनिवर्चनीय नहीं समझ पा रहा हूँ, मैं इनडिस्क्राइबल समझ जा रहा हूँ। जबकि मेरी कोर जो भाषा है, जो मातृभाषा है, जो मैं बोल के पढ़ा हुआ हूँ, सीखा भी नहीं हूँ — हिंदी है।
आचार्य प्रशांत: उसमें भी जो सही शब्द है, वो है इनफेबल। तो अगर मैं वो बोल दूँ, तो अंग्रेजी भी नहीं, हिंदी भी नहीं।
प्रश्नकर्ता: फिर तो वो और डाउट हो जाए।
आचार्य प्रशांत: तो फिर मुझे लोक भाषा से जो हिंग्लिश होती है, उससे कोई शब्द खोजना पड़ता है।