ध्यान कहाँ करना सही? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

12 min
234 reads
ध्यान कहाँ करना सही? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: सुबह ध्यान करने के लिए जाते हैं पहाड़ी पर, अच्छा रहता है, सुबह ध्यान होता है। शाम को भी जाते हैं। फिर बीच में ऑफिस से आने‌ के बाद, दोपहर में एक घंटा घर पर बैठे तो उस तरह का नहीं हो पाता।

आचार्य: तुम कह रहे हो कि जब वातावरण अनुकूल होता है तभी ध्यान हो पाता है।

प्र: जी, ध्यान ऐसा होता है कि पता नहीं चलता है कि हम कहाँ हैं। शुरू में संगीत लगाते हैं फिर बंद करके हो जाता है। लेकिन फिर दिन में उस तरह बैठने से नहीं होता।

आचार्य: तुमने ख़ुद ही तय कर लिया न। जब तुम एक विशेष क्रिया करके ध्यान लगाते हो तो तुम अपनेआप को ही ये बताए दे रहे हो न कि मेरा ध्यान तो इस क्रिया के माध्यम से ही लगेगा।

जब तक वैसा माहौल होगा, वैसा संगीत होगा, वो जगह होगी, पहाड़ी होगी तभी मेरा ध्यान लगेगा। तो जब वो जगह छूटती है, वो समय, वो संगीत छूटता है, तो तुम्हारा ध्यान भी छूट जाता है।

जो लोग किसी तरीक़े से ध्यान करते हैं, उन बेचारों को ये कठिनाई आएगी-ही-आएगी। उनका ध्यान अब तरीक़े पर आश्रित हो गया न। बल्कि तरीक़ा ध्यान को उन तक लेकर आ रहा है, तो ध्यान छोटा, तरीक़ा बड़ा हो गया।

प्र: जो सुबह-शाम हो रहा है और रस और आनंद मिल रहा है, वो दिन में क्यों नहीं हो रहा? ये समझ नहीं आ रहा।

आचार्य: समझाया तो। सुबह-शाम आनंद मिल रहा है न?

प्र: जी ।

आचार्य: तो सुबह-शाम मिल जाता है। तुमने सुबह और शाम बाँध तो दिये हैं आनंद के लिए। तुम ख़ुद ही आनंद को निरंतर कहाँ बना रहे हो? तुमने उसके लिए तो खाँचे बना दिये हैं न। तुमने उसके लिए समय बाँध तो दिया।

प्र: चाह रहे हैं कि वो सुबह-शाम न रहे, अहर्निश रहे।

आचार्य: अगर चाहते हो कि सुबह-शाम न रहे, अहर्निश रहे, तो सुबह-शाम जो करते हो, करना बंद कर दो।

प्र: सुबह-शाम में भी नहीं रहे?

आचार्य: हाँ, यही भूल करता है मन। मन को लगता है कि जान लगा कर, ज़ोर लगा कर एक घंटे पा लेता हूँ। किसी तरीक़े से उस एक घंटे को तेईस घंटे में भी विस्तारित कर दूँगा। पूरा जान लगाता हूँ, पूरी ताक़त लगाता हूँ सब कुछ कर लेता हूँ, तब जाकर किसी तरह शांति मिलती है। और हमें तो शांति ऐसे ही मिलती है न, पूरी जान लगाकर। थोड़ी सी मिलती है।

फिर हम कहते हैं कि जो थोड़ी सी देर को चीज़ मिली है वो लगातार कैसे रहे। और अनुभव वही रहता है जो आपका (श्रोता को सम्बोधित करते हैं) है कि थोड़ी देर को मिलती है फिर चली जाती है। थोड़ी देर को नहीं मिलती, वो 'थोड़ी ही' देर को मिलती है। तुम्हें लगता है कि वो थोड़ी देर को आयी है। नहीं, वो थोड़ी देर को आयी है और ये शर्त रखकर आयी है कि 'थोड़ी ही' देर को आऊँगी और उसके बाद नहीं रहूँगी।

तो एक घंटे की वो शांति अपने साथ ये शर्त लेकर आती है कि तेईस घंटे की अशांति रहेगी। तुम्हारा ध्यान सिर्फ़ उस एक घंटे की शांति पर रहता है तो तुम्हें लगता है चीज़ बढ़िया थी, एक घंटे की शांति मिली। तुम्हें ख़्याल ही नहीं आता कि तेईस घंटे की अशांति भी इसलिए मिली क्योंकि वो जो शांति थी वो घंटे भर वाली थी। जो चीज़ तुम्हारी अशांति का कारण है तुम उसे शांति समझकर पकड़े हुए हो।

जो चीज़ तुम्हारी अशांति का कारण है तुम उसे ही शांति समझ के पकड़े रहते हो कि जैसे कोई पुरुष अपनी पत्नी के लिए दुनिया भर के कुकर्म करे दिन भर, चोरी करे, घूस खाये, झूठ बोले, चालाकी करे, धोखा दे, किसी से प्रेम न रखे। ये सब वो किसके लिए कर रहा है? पत्नी के लिए; कि पत्नी को सुख दूँगा, पैसा दूँगा, ज़ेवर दूँगा। और दुनिया भर से फिर दुरदुराया जाए। जब दुनिया के प्रति उसका व्यवहार झूठ का, धोखे का, भ्रष्टता का रहेगा तो दुनिया भर से वो दुरदुराया जाएगा, जहाँ जाएगा वहीं गाली खाएगा, लात खाएगा। और दुनिया भर से पिट-पिटा कर जब वो लौट कर आये पत्नी के पास तो पत्नी के आँचल में उसे बड़ी शांति मिले, ख़ूब शांति मिले। पत्नी कहे आओ-आओ। और वो क्या सोच रहा है कि पत्नी के साथ उसको मिलती है?

श्रोतागण: शांति।

आचार्य: जबकि पत्नी ही कारण है उसकी सारी अशांति का। और उसको ग़लत भी नहीं लग रहा। क्योंकि उस एक घंटे में जब पत्नी के साथ होता है, शांति तो मिलती है। पर वो ये नहीं देख रहा कि पत्नी के साथ मिली शांति और जो बाक़ी तेईस घंटे उसको अशांति मिलती है, वो दोनों एक हैं। ये जो एक घंटे की शांति है, इसी की ख़ातिर वो तेईस घंटे की अशांति बर्दाश्त करता है। इस एक घंटे की शांति के कारण ही तो उसने अपना जीवन तेईस घंटे की अशांति से भर रखा है।

प्र: आध्यात्मिक लोगों से सुना है, जैसे ओशो को एक‌ बार सुना है कहते हुए, उन्होंने कहा, ‘आप एक घंटे से ही शुरू करो फिर वो एक घंटा आपके चौबीस घंटे के जीवन पर फैल जाएगा’।

आचार्य: जो वो चाह रहे हैं वो एक भोले मन की चाहत है। और वो चाहत भोले लोग ही पूरी कर पाते हैं। उन्होंने कहा कि तुम्हें एक घंटे अगर स्वाद मिलेगा तो तुम उत्सुक हो जाओगे कि बाक़ी तेईस घंटे भी ये स्वाद क़ायम रहे।

ये बात उन्होंने अपनी ओर से बिलकुल ठीक कही, लेकिन ये बात लागू सिर्फ़ ज़रा भोले लोगों पर होगी। कि कोई कहे कि मुझे थोड़ी देर को मिला, निरंतर भी वही अवस्था रहनी चाहिए। वैसा होता नहीं है न।

एक फ़ोन कंपनी आई, उन्होंने नया-नया एक ऑफ़र निकाला। वो ये था कि हमारा सिम लो, पहले हफ़्ते जितनी बात करो सब मुफ़्त और जितना डेटा प्रयोग करो वो भी सब मुफ़्त। और देखो हमारे डेटा की क्या बढ़िया स्पीड है, हमारा नेटवर्क कितना बढ़िया है। उनकी उम्मीद क्या थी? लोगों को एक हफ़्ते अगर स्वाद लग गया तो लोग कहेंगे, वाह! डेटा की क्या स्पीड है, नेटवर्क भी कितना बढ़िया है। और फिर लोग उनका सिम हमेशा के लिए आगे भी इस्तेमाल करेंगे।

ये जो योजना थी ये बुरी तरह से विफल रही, फ़्लॉप रही। लोग भोले नहीं हैं, लोग सरल नहीं हैं। लोगों ने क्या किया? एक हफ़्ते बाद वो दूसरा सिम ले लेते। एक हफ़्ते मुफ़्त में इस्तेमाल किया और फिर मुफ़्त ले लिया।

लोग क़ीमत नहीं देना चाहते। तो ओशो तो कह रहे हैं कि तुम्हें एक घंटे चस्का लगेगा तो तुम तेईस घंटे करने के लिए व्याकुल हो जाओगे। तेईस घंटे तुम ध्यान में रह सको इसके लिए क़ीमत देनी पड़ती है। लोग क़ीमत नहीं देना चाहते।

ध्यान की विधि में कोई क़ीमत नहीं देनी पड़ती, ध्यान की विधि में तो कोने में बैठ गये, आसन जमाया और ध्यान लग गया। लेकिन अगर चौबीस घंटे ध्यान में रहना है तो क़ीमत देनी पड़ती है न। जीवन बदलना पड़ता है, ढर्रे बदलने पड़ते हैं, अहंकार गिरता है, रुपए-पैसे से भी क़ीमत अदा करनी पड़ती है, सब कुछ बदलता है।

लोग क़ीमत नहीं देना चाहते हैं तो इसलिए जो चीज़ मुफ़्त मिल रही होती है उतना ले लेते हैं। और उतना ही बार-बार फिर लेते रहते हैं। एक घंटे वाला ध्यान ठीक है उसमें बहुत क़ीमत नहीं देनी पड़ती बल्कि स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।

एक घंटे अपना पहाड़ पर बढ़िया ताज़ी हवा खाओ, ध्यान भी लग गया, थोड़ी शांति भी मिल गई। और शांति तो मिलती है, एक घंटे वाले ध्यान में भी कुछ शांति तो मिल ही जाती है। लेकिन चौबीस घंटे वाले ध्यान की बात दूसरी है। उसमें निरंतर शांति रहती है। लेकिन फिर उसमें क़ीमत बड़ी देनी पड़ती है।

छोटे शहरों में जाओ तो वहाँ ठेले वाले होते हैं, वो मूँगफली रखे होंगे और पाँच-दस तरह की नमकीनें रखे होंगे। और वहीं कस्बे के जो बेरोज़गार दबंग होंगे, पैंतीस (उम्र) के पहले वैसे भी वहाँ काम करना शान के ख़िलाफ़ होता है न। तो पैंतीस तक तो आप यूँही बस सड़कों पर घूमते हो छुट्टे साँड की तरह। तो उसके (ठेले) पास जाएँगे, ‘ये दिखाओ ज़रा टेस्ट कराओ, स्वाद चखाओ’। तो थोड़ा इसको भी चखेंगे फिर थोड़ा उसको भी चखेंगे। चखेंगे वो ख़ूब, क़ीमत किसी की नहीं अदा करेंगे।

ध्यान की विधियाँ ऐसी ही होती हैं। ध्यान की विधियाँ निर्मित की गई थीं तुम्हें स्वाद देने के लिए। पर गुरुजन, ये थोड़ी चाहते थे कि तुम चख के आगे बढ़ जाओ। वो क्या चाहते थे? कि अगर स्वाद अच्छा लगे तो ख़रीदो। पर तुम बहुत चालाक लोग हो। तुम उतने सरल और भोले लोग हो नहीं, जितना कोई ओशो चाहता होगा कि तुम सरल और भोले रहो। तुम बहुत चालाक हो,‌ तुम चखे ही जाते हो जीवन भर।

जैसे कि कोई रोज़ उसके पास जाए और रोज़ कहे कि टेस्ट कराओ और दस चीज़ें टेस्ट करें इतने में वो आधा किलो टेस्ट कर गया। आधा किलो वो स्वाद लेने-लेने में हज़म कर गया, आधे किलो नमकीन का तो स्वाद ही ले गया।

प्र: और वो टेस्ट ही फिर तड़प से रोक देता है उसकी।

आचार्य: तुम्हें पता है कि अगले दिन फिर जाएँगे, फिर मुफ़्त मिल जाएगा, क़ीमत क्या अदा करनी है।

प्र: सत्र के बाद से छोटी-छोटी आवाज़ भी बहुत स्पष्ट सुनाई देती है। नॉर्मली सुनता हूँ तो मुझे नहीं लगता कि इतनी क्लैरिटी से कभी सुनाई देता है, इसका कारण?

आचार्य: जब शांति होती है, मौन होता है तो छोटी आवाज़ें भी साफ़ सुनाई देने लगती हैं। कहते हैं न नक़्क़ार-ख़ाने में तूती की आवाज़ सुनाई देती है क्या। भीड़-भाड़ वाली सड़क पर इंजन का शोर है, लोगों की आवाज़, हॉर्न बज रहे हैं, वहाँ तुम्हें चिड़िया का चहचहाना सुनाई देगा क्या?

प्र: हर समय इस अवस्था में रहा जा सकता है?

आचार्य: हर समय वो होता है। जो एक दूसरी चीज़ है, जो ज़रूरी नहीं है कि हर समय रहे। जो हर समय रह भी नहीं सकती। उसको हम अपने ऊपर लाद लेते हैं। जैसे मिट्टी है। सामने देखो मिट्टी कहाँ है?

प्र: घाँस के नीचे।

आचार्य: घाँस कभी है कभी नहीं। मिट्टी हमेशा है। बारिश हुई, घाँस आ गई। बारिश गयी, जाड़े आएँगे घाँस ज़रा पीली पड़ेगी, गर्मी आएगी घाँस गायब भी हो जाएगी। मिट्टी हमेशा रहेगी न।

प्र: तो सामान्यतः विचार जो है वो घाँस की तरह काम करता है।

आचार्य: मन के मौसम। समझ रहे हो? ( प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हैं) नमकीन चखो और कभी-कभार ख़रीद भी तो लो। क़ीमत भी तो अदा करो।

तुम्हारा ही बयान है कि स्वादिष्ट है। अगर स्वादिष्ट है तो ख़रीद भी तो लो भाई, अगर एक घंटे का ध्यान स्वादिष्ट लगता है तो थोड़ा उसको बढ़ा भी दो, क़ीमत भी अदा करो। जीवन ऐसा बनाओ कि ध्यानमग्न रहे।

और ऐसा हुआ था कि फिर मूँगफली वाले ने एक दिन थोड़ा सा ताना कस दिया, ‘भैया रोज़-रोज़ चखते ही रहोगे, कभी ख़रीदोगे भी?’ तो भैया ने क्या किया? उन्होंने चखना भी बंद कर दिया, बोले, 'चखते हैं तो यह ताना कसता है, बोलता है रोज़-रोज़ चखोगे कभी ख़रीदोगे भी। तो ले अब चखेंगे भी नहीं।'

यह न कर देना कि आचार्य जी ने कहा कि एक घंटे के ध्यान से कुछ नहीं होता तो अब हम एक घंटे का भी ध्यान नहीं करेंगे।

ऐसे भी बहुत आये हैं, कहते हैं आप विधियों के ख़िलाफ़ हैं, तो पहले हम विधियों के द्वारा ही कुछ ध्यान कर लेते थे अब हम वो भी छोड़ रहे हैं। मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम विधि के माध्यम से जो ध्यान कर लेते थे उसको छोड़ दो। मैं कह रहा हूँ तुम उसको अपने पूरे दिन पर व्यापक कर दो। छोड़ने को नहीं बढ़ाने को कह रहा हूँ।

यह ऐसी बात है कि मैं बहुत भूखा हूँ और कोई मुझे एक रोटी लाकर दे, मैं बोलूँ एक रोटी लाये हो तो वो बोले लाइए वापस दे दीजिए। भाई, मैं एक रोटी लौटाना नहीं चाह रहा, मैं चार रोटी और माँग रहा हूँ।

पर ये तुर्रेबाज़ी भी ख़ूब देखी होगी, किसी को एक रोटी दो और वो बोले एक रोटी दे रहे हो, तो बोले वापस दे दो। यह कुबुद्धि मत चलाना, ये कुतर्क मत करना।

प्रवेश के लिए, आरंभ के लिए विधियाँ ठीक हैं। मेरी शिक़ायत उनसे है, जो बहुत लंबे समय तक विधियों पर ही अटके रह जाते हैं, चखते ही रह जाते हैं। कभी पूरा भोजन करते ही नहीं। मैं उनसे शिक़ायत रखता हूँ। समझे!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
Categories