ध्यान देता है स्पष्टता || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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ध्यान देता है स्पष्टता || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

पञ्चस्रोतोम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां पञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम्‌। पञ्चावर्तां पञ्चदुःखौघवेगां पञ्चाशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः॥

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक ५)

अनुवाद: हम एक ऐसी नदी को जानते हैं जो पाँच स्रोतों वाली जल-धाराओं से युक्त है, जिसके पाँच उद्गम होने के कारण बड़ी उग्र और टेढ़ी-मेढ़ी होकर बहती है, जिसमें पाँच प्राण रूप तरंगें हैं, पाँच प्रकार के मानसिक स्तर जिनके आदि मूल (कारण) हैं। जो पाँच भँवरों वाली, पाँच दुःख रूप प्रवाहों के वेग वाली, पाँच पर्वों वाली और पाँच भेदों वाली है।

आचार्य प्रशांत: इसके बाद जैसे कि एक प्रतीक पर्याप्त ना पड़ा हो, एक दूसरे प्रतीक के माध्यम से संसार की व्यवस्था को समझाया गया है। दूसरा प्रतीक भी उतना ही शक्तिशाली है, सुनते हैं उसको; “हम एक ऐसी नदी को जानते हैं जो पाँच स्रोतों वाली जलधाराओं से युक्त है।”

‘नदी!’ जैसे जीवन-चक्र कहा जाता है, वैसे कई बार जीवन-सरिता भी कहा जाता है न? 'जीवन का प्रवाह' कहते हैं हम। जितना हम 'जीवन-चक्र' का उपयोग करते हैं मुहावरे के तौर पर, उतना ही हम उपयोग करते हैं 'जीवन-प्रवाह' का, कि, “ज़िंदगी का प्रवाह।“ तो कहा, “हम ऐसी नदी को जानते हैं जो पाँच स्रोतों वाली जलधाराओं से युक्त हैं।” ये जो पाँच स्रोतों वाली जलधाराएँ हैं, इनको माना गया है पाँच आपकी ज्ञानेंद्रियाँ, जिनसे आप संसार को ग्रहण करते हो। फिर, “जिसके पाँच उद्गम होने के कारण (पाँच उद्गम हैं) बड़ी उग्र और टेढ़ी-मेढ़ी होकर के बहती है।” पाँच उद्गम माने वो पाँच जगहें, वो पाँच तत्व जिनसे ये नदी प्रकट होती है, यानी पंचतत्व।

“पाँच प्राण रूप तरंगें हैं,” तो पाँच प्राण। “पाँच प्रकार के मानसिक स्तर जिनके आदि मूल कारण हैं। पाँच भँवर हैं, पाँच दुःख रूप प्रवाहों के वेग हैं, पाँच पर्व हैं और पचास भेद हैं।” तो कहा गया पाँच प्राण की तरंगें। पाँच भँवरें जो हैं वो पाँच तन्मात्राएँ हो गईं। पाँच दुःख हो गए - गर्भ, जन्म, रोग, जरा, मृत्यु। और जो पाँच विभाग हैं - अज्ञान, अहंकार, राग, द्वेष, भय। और अंतःकरण की पचास वृत्तियाँ उसके भेद हैं।

अभी ये कहना यहाँ पर कठिन है ज़रा कि ऋषि को जब यह दर्शन हो रहा है तो क्या वास्तव में चक्र या नदी उनके लिए इतने सुस्पष्ट संकेत लेकर के सामने आए हैं? नहीं, वास्तव में ऐसे दर्शन होते ही उनको हैं जो बात को लगभग पूरा समझ चुके होते हैं, और जिन्हें अब बस एक हल्का-सा इशारा चाहिए होता है पूर्ण ज्ञान के लिए। वो उनको हल्का-सा इशारा मिल गया, उनकी बात बन जाती है। हाँ, जो उनको अनुभव हुए होते हैं, जिस छवि का उन्होंने दर्शन किया होता है, उस छवि का जब वो वर्णन करते हैं तो वो सुनने वालों के लिए और उपयोगी हो जाती है जब उस छवि की समुचित व्याख्या कर दी जाए, जैसे कि इन श्लोकों में की गई है; ये पाँच क्या हैं ये बता दिया, पचास क्या, ये भी बता दिया, तीन क्या, ये भी बता दिया, आठ क्या, ये भी बता दिया।

लेकिन जो यहाँ पर मूल बात है उस पर ध्यान दीजिएगा। मूल बात ध्यान देने लायक ‘ध्यान’ ही है; ये सब-कुछ ऋषि को दृष्टिगोचर हुआ है अपने ध्यान में। और ध्यान में जो चीज़ दिखाई देती है, बाद में आपको उसकी व्याख्या नहीं माँगनी पड़ती।

व्याख्या तो उन लोगों को देनी पड़ती है जिन्हें वो बात अभी समझ में आयी नहीं होती है, जिन्हें अभी उस चक्र का या उस प्रवाह का स्वयं दर्शन हुआ नहीं होता है। ऋषि स्वयं थोड़े ही गए होंगे किसी और के पास पूछने के लिए कि चक्र का अर्थ समझाओ, या नदी का जो प्रतीक है उसको स्पष्ट करो। उनको तो बस चक्र दिखा नहीं, नदी दिखी नहीं कि सब स्पष्ट हो गया।

आपको भी सब स्पष्ट हो जाएगा। जिसमें सब स्पष्ट हो जाता है उसको 'ध्यान' कहते हैं। कैसे स्पष्ट हो जाता है इसका कोई उत्तर नहीं होता, बस स्पष्ट हो जाता है। ध्यान कैसे आपको ज्ञान से भर देता है, या ध्यान में जो ज्ञान आपको उपलब्ध हो जाता है वो कहाँ से और कैसे आता है इसका कोई उत्तर नहीं होता, बस आ जाता है, यूँ ही आ जाता है।

प्रातिभ ज्ञान है, मेडिटेटिव नॉलेज ; किसी ने बाहर से बताया नहीं, किसी ने सिखाया नहीं, किसी किताब में लिखा नहीं था। बस आप ध्यान में बैठे या आप ध्यान में चले या आप ध्यान में बोले या जगे या सोए, और कुछ बात है जो बिलकुल आसमान की तरह साफ़ हो गई आपके सामने। आपको पूछने की आवश्यकता भी नहीं पड़ रही है कि ये जो बात सामने आयी ये कहाँ से आयी, और प्रमाण क्या है इसके सही होने का। आप किसी से प्रमाण नहीं माँगेंगे, आपको इतनी आश्वस्ति है उस बात के खरे होने की। ये होता है ध्यान से उद्भूत ज्ञान।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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