धूर्त जुलाहा और राजकुमारी || पंचतंत्र पर (2018)

Acharya Prashant

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धूर्त जुलाहा और राजकुमारी || पंचतंत्र पर (2018)

आचार्य प्रशांत: जिज्ञासा आई है, पंचतंत्र की एक कहानी है, उसको आधार करके प्रश्न भेजा है। कहानी मैं पहले सुना देता हूँ।

कहानी है कि एक जुलाहे को एक राजकुमारी के रूप से आसक्ति हो जाती है। वो जानता है, राजकुमारी है, उस तक उसके हाथ पहुँच नहीं सकते, तो निराश रहने लगता है। तो उसका एक दोस्त होता है। दोस्त कहता है, "मैं तरीका बता देता हूँ।"

तरीका लम्बा-चौड़ा है, संक्षेप में तरीका ये है कि जुलाहे को विष्णु का झूठा रूप देकर, विष्णु-सा ही वाहन तैयार करके, विष्णु जैसे ही अस्त्र, शंख इत्यादि दे करके राजकुमारी के पास भेज दिया जाता है, और तीर-तिकड़म से राजकुमारी को ये भरोसा दिला दिया जाता है कि वो जुलाहा नहीं है, विष्णु ही है। कहानी है।

तो राजकुमारी कहती है, "मेरे धन्यभाग! विष्णु पधारे। मैं आपकी क्या सेवा करूँ?"

जुलाहा कहता है, "अपना शरीर मुझे अर्पित कर दो।"

राजकुमारी मान जाती है। सामने विष्णु खड़े हैं, विष्णु का रूप, विष्णु जैसा आकर्षण, माधुर्य, तेज।

तो ये खेल चलता रहता है। एक दिन राजकुमारी ये सारा क़िस्सा राजा और रानी को बयाँ कर देती है। कहानी की बात! राजा और रानी को भी भरोसा आ जाता है कि वास्तव में विष्णु ही उनकी बेटी के पास आया करते हैं। तो राजा अपनी बेटी से कहता है कि "अब जब विष्णु ही हमारे संबंधी हो गए तो फिर तो हम पूरी दुनिया जीत सकते हैं।" तो राजा आसपास के पाँच-छह देशों से लड़ाई मोल ले लेता है—किस दम पर? इस बूते पर कि “मेरी बेटी के प्रेमी तो स्वयं विष्णु हैं। मुझे कौन हरा सकता है?”

अब वही होता है जो होना था – राजा की पिटाई।

यहाँ तक तो बात तार्किक लगती है कि राजा की पिटाई चल रही है। अब राजा की जब पिटाई होती है, तो राजा "हाय विष्णु! हाय विष्णु!" करता है और लगता है चिल्लाने कि "मैंने तो तुम्हारे बूते ये जंग छेड़ी थी।"

यहाँ पर कहानी कुछ ऐसा कहती है जो ज़रा अनूठा है। कहानी कहती है कि स्वर्ग में बैठे विष्णु ज़रा विचलित हो जाते हैं। वो कहते हैं कि "पूरी दुनिया में इस राजा ने ढिंढोरा पीट दिया है कि विष्णु के दम पर ये लड़ाई लड़ रहा है। अब अगर ये लड़ाई हार जाता है, तो नाम किसका ख़राब होगा? विष्णु का।" तो कहानी कहती है कि फिर विष्णु स्वयं उतरकर आते हैं और राजा को लड़ाई जिता देते हैं।

अब ये बड़ी अजीब, बड़ी अचकचाने वाली बात है कि शुरू से लेकर आख़िर तक धूर्तता का खेल चल रहा है। एक सिरे पर धूर्तता है, दूसरे सिरे पर मूर्खता है।

“और धूर्तता और मूर्खता के इस खेल को विष्णु क्यों प्रश्रय दे रहे हैं? वो क्यों पहुँच गए समर्थन देने, आशीर्वाद देने?” यही बात पूछी है।

समझना होगा दोनों बातों को। पहली बात – पंचतंत्र क्या है? दूसरी बात – ईश्वर या भगवान से क्या आशय होता है?

पंचतंत्र आदमी के मन का ख़ाका है, हमें व्यावहारिक ज्ञान में दीक्षित करने के लिए है। सत्य क्या है, पंचतंत्र को और विष्णु शर्मा को इससे कोई सीधा प्रयोजन नहीं है। उन्हें प्रयोजन है ये बताने से कि ये संसार कैसा है, आदमी की बुद्धि कैसी चलती है, दुनियादारी क्या है, व्यावहारिकता क्या है।

दूसरी बात – ईश्वर कौन?

सत्य और ईश्वर में भेद होता है। निराकार सत्य को, निर्मल, शुद्ध, पूर्णसत्य को ईश्वर नहीं कहते। ईश्वर है आदमी के मन की ऊँची-से-ऊँची उड़ान और सत्य है आदमी के मन का विलुप्त ही हो जाना। इन दोनों बातों में अंतर है, बहुत अंतर है।

तुम आदिशंकर से पूछोगे, तो वो कहेंगे, "ब्रह्म + माया = ईश्वर"। ब्रह्म और ईश्वर एक नहीं होते, बहुत अंतर है।

तो हमारे ईश्वर बहुत कुछ हमारे जैसे होते हैं। ब्रह्म हमारे जैसा बिलकुल नहीं है, पर ईश्वर हमारे ही जैसे होते हैं; तभी तो वो हमें पहचानते हैं, तभी तो वो हमसे संवेदना रखते हैं और तभी तो हम उनके सामने प्रार्थना करते हैं कि हमारी इच्छाओं की पूर्ति कर दो।

ब्रह्म तो तुम्हारी इच्छाओं की पूर्ति नहीं करने वाला, क्योंकि ब्रह्म के सामने इच्छा जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं। हाँ, ईश्वर के सामने तुम चले जाते हो, “हमारी इच्छाएँ, हमारी मुरादें पूरी करो।”

इच्छाएँ तुम्हारी वही पूरी कर सकता है जो इच्छाओं को समझता हो, जो इच्छाओं का ज्ञान रखता हो। जो इच्छाएँ पूरी करता हो, उसे स्वयं भी इच्छाधारी होना ही पड़ेगा, क्योंकि इच्छा को जानने का और कोई तरीका नहीं है। जहाँ इच्छा है ही नहीं, वहाँ इच्छा कैसे जानी जाएगी? इच्छा जानने के लिए इच्छा का अनुभव होना ज़रूरी है। इच्छा के अनुभव के ही तो दृष्टा हो जाओगे, तभी तो इच्छा को जानोगे।

इसीलिए भारत में, सनातन परम्परा में ईश्वर बड़े जीवंत हैं। देवी-देवताओं को देखो, वो तुम्हें बहुत कुछ तुम्हारे ही जैसे लगेंगे। उन्हें अतिउत्कृष्ट या परिपूर्ण बनाया ही नहीं गया है। वो भी रोते हैं, वो भी हर्षित होते हैं, उनकी भी आशाएँ होती हैं, वो भी डरते हैं, वो भी जीतना चाहते हैं, उनकी भी हार होती है, उन्हें भी ठेस लगती है, वो भी बदला लेना चाहते हैं, उन्हें भी आसक्तियाँ होती हैं।

इस कथा से यही समझना कि जिन देवताओं को तुमने गढ़ा है, वो तुम्हारे ही जैसे हैं। आदमी के सारे देवता ऐसे ही हैं।

देवता माने कौन?

जो ऊँचे सिंहासन पर बैठ गया, जिसे तुमने एक ऊँची पदवी दे दी।

विष्णु शर्मा तुम्हें समझा रहे हैं कि जिनको तुमने ऊँची-से-ऊँची पदवी भी दे दी है, उनके भीतर भी मोह, आशा-निराशा, ये सब विद्यमान हैं। देखो न, विष्णु क्या कहते हैं? विष्णु कहते हैं कि "अगर ये राजा हार गया, तो फिर तो इस संसार में मेरी पूजा-अर्चना ही बंद हो जाएगी।"

कहानी बड़ा मर्म रखती है। ये तुम्हें बता रही है कि परमसत्य को छोड़कर जो भी है, उसे प्रशंसा का, स्तुति का और निंदा का ख़्याल रखना पड़ता है। हम ऐसे ही हैं। जब हमारे देवता भी ऐसे हैं तो हमारा तो ऐसा होना पक्का है, और (हमारा) व्यवहार-बुद्धि इन बातों का ख़्याल रखे।

तुम जिसके भी सामने खड़े हो, अगर वो हाड़-माँस का बंदा है, तो प्रशंसा से पुलकित होगा और निंदा से चिंतित होगा। सीख सकते हो तो सीख लो।

और जैसा तुम कह रहे हो, तुम्हें अगर ये बात बहुत अखरती है कि “क्यों हम ऐसे हैं? क्यों हमारे आदर्श भी ऐसे हैं? क्यों हमारे देवता भी ऐसे हैं?” तो फिर तुमसे कौन कह रहा है कि वैसे ही रह आओ, जैसे तुम हो?

मानव और देवता तो सब एक हैं। जो कुछ साकार है, सब एक है। जो कुछ भी छवियों में क़ैद किया जा सकता है, जिसका नाम है, जो चलता है, फिरता है, जिसके बारे में कोई कहानी कही जा सकती है, वो सब एक हैं।

अगर तुमको ये कहानियाँ अखरती हैं तो तुमसे कौन कह रहा है कि तुम कहानी के धरातल पर ही जियो, उठ जाओ न। फिर छोड़ो तुम ब्रह्मा-विष्णु-महेश को; फिर जाओ सीधे परमसत्य की शरण में।

देवता उनके लिए हैं जो निष्काम भक्ति से अभी अछूते हैं। देवता की भक्ति करना माने सकाम भक्ति करना। जिन्हें अपनी कामनाओं की पूर्ति करनी हो, वो देवताओं के पास जाएँ।

और देवता माने कौन?

जो मानवता के उच्च सिंहासनों पर आसीन हैं।

सकाम भक्ति – जाओ देवताओ के पास। हाँ, निष्काम भक्ति अगर उठी है तुममें, तो फिर सीधे परमात्मा। सकामता अगर खल रही है तो शुभ संकेत है।

साधक की यात्रा में एक मोड़ आता है जिसके बाद उसे देवी-देवता भी अच्छे लगने बंद हो जाते हैं, जब वो सवाल उठाना शुरू कर देता है। वो अवतारों के जीवन-चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। वो पूछता है, "राम ने सीता को क्यों कहा कि जा वनवास, कि दे अग्निपरीक्षा?" वो पूछता है कि "कृष्ण ने क्यों भीष्म, द्रोण, दुर्योधन के प्रति छल किया?"

जब तुम्हारी बुद्धि इस तल के सवाल उठाने लगे, जब तुम्हें अवतारों के चरित्र में भी जो ज़रा-सी अपूर्णता होती है, वो भी अखरने लगे, तो समझ लेना कि तुम्हारा समय आ गया है कि अब तुम अवतारों से भी आगे चले जाओ, सीधे उसके पास जो अवतरित होता है।

लेकिन खेद की बात है कि आमतौर पर जिन्हें देवता भाने बंद हो जाते हैं, वो देवताओं के प्रति अपनी अरुचि को अध्यात्म से ही कटने का बहाना बना लेते हैं। वो कहते हैं, "देवताओं में दोष है माने अध्यात्म में दोष है। देखो न इंद्र को, कैसा कामुक है! और शंकर भगवान भी किसी को भी कोई भी वरदान दे देते हैं; फिर बाद में बखेड़ा खड़ा होता है। बाली को धोखे से मार दिया! विभीषण तो गद्दार था, उसे पदवी क्यों सौंप दी?" और इस तरह के प्रश्न बहुत उठे हैं।

और प्रश्नों का क्या ठिकाना, तुम किसी भी चीज़ पर प्रश्न उठाओ। बुद्धि है, कुछ भी पूछेगी! “वनवास गए, अपनी पत्नी को तो साथ ले गए—लक्ष्मण? उसकी पत्नी?”

भली बात। भली बात कि तुमको अब जहाँ ज़रा-सा भी दोष दिख रहा है, अपने अनुसार वो तुम्हें सुहा नहीं रहा है। पर अगर दोष दिख रहा है, तो अब तुम्हें देवत्व से आगे जाना होगा; देवत्व से वापस मत मुड़ जाना।

इंद्र के चरित्र में अगर तुम्हें खोट दिखाई दे रही है तो अब शिवत्व में प्रवेश करो। यह मत कह दो कि "छोड़िए! ये सब हमने पोथी-पुराण अब त्याग दिए हैं, अस्वीकार कर दिए हैं। बेकार की बातें हैं इनमें! ये कोई देवता हैं! ये जाकर ऋषि-मुनियों की बीवियाँ उठा लाते हैं।" नहीं।

कामना के पुतले हैं हम, और साधना की शुरुआत तो कामना से ही होती है न। मुक्ति की कामना भी है तो कामना ही।

साधना की शुरुआत तो कामना से ही होगी। साधना की शुरुआत अगर कामना से ही होगी, तो भक्ति भी शुरुआत में सदा कैसी रहेगी? सकाम। अगर भक्ति सदा शुरुआत में सकाम ही होगी, तो फिर वो भक्ति किसकी ओर प्रेरित होगी? देवताओं की ओर। तो देवताओं का यही मूल्य है, वो शुरुआत में सहायक होते हैं।

शुरुआत करने के लिए देवता भले, ईश्वर भला; उन्होंने शुरुआत तो करायी। अब तुम्हें और आगे जाना है तो उनके आगे जाओ, वापस मत मुड़ो; ये न कहो कि "ईश्वर में खोट है, मैं आगे नहीं जाऊँगा।"

और आदमी को ईश्वर से शिकायतें बहुत हैं। ख़ूब सवाल सुनते होगे, "अगर ईश्वर ने ये दुनिया रची है, तो इस दुनिया में इतना पाप क्यों है? अगर ईश्वर इंसाफ़ पसंद है, तो इस दुनिया में इतनी नाइंसाफ़ी क्यों है? ख़ुदा अच्छे लोगों को ही क्यों ज़्यादा तकलीफ़ देता है?"

तोहमत मत लगाओ, आगे बढ़ो।

ईश्वर सगुण होता है, और जहाँ गुण हैं, वहाँ तुम्हें दोष भी दिख ही जाएगा—गुण माने ही दोष। ब्रह्म निर्गुण होता है। जब तुम्हें दोषों से बड़ी आपत्ति होने लगे, तो फिर सीधे निर्गुण की शरण में जाओ। और कोई तरीका नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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