‘धर्मो रक्षति रक्षितः' यदि सच है, तो इतने महापुरुष मारे क्यों गए?

Acharya Prashant

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‘धर्मो रक्षति रक्षितः' यदि सच है, तो इतने महापुरुष मारे क्यों गए?
धर्म आपके शरीर की रक्षा थोड़ी करेगा। रक्षा शब्द की जब बात आती है तो ये समझना पड़ेगा कि आपको बड़ा ख़तरा क्या होता है। ख़तरे के संदर्भ में ही रक्षा शब्द का कुछ अर्थ है ना। ख़तरा हो तभी रक्षा की बात होती है। ख़तरा ही नहीं तो रक्षा शब्द अर्थहीन है। हाँ तो सबसे पहले तो ये जानना पड़ेगा कि हमें ख़तरा क्या है? एक मनुष्य को सबसे बड़ा ख़तरा क्या है? क्या मृत्यु? क्या किसी इंसान को सबसे बड़ा ख़तरा ये होता है कि उसका शरीर गिर जाएगा, मृत्यु हो जाएगी — ये होता है? किसी इंसान को सबसे बड़ा ख़तरा ये होता है कि मृत्यु आने से पहले वो मुक्त नहीं हो पाएगा। ये होता है ख़तरा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी हम कहते हैं “धर्मो रक्षति रक्षितः” कि जो धर्म की रक्षा करते हैं धर्म उनकी रक्षा करता है। लेकिन हमारे जितने भी धर्म रक्षक रहे हैं, जितने भी महापुरुष रहे हैं उनकी हत्या समाज के गलत ताकतों के हाथों ही हुई है। चाहे वो बुद्ध हो, ईशु हो या अन्य महापुरुष। तो फिर ऐसा क्यों होता है कि धर्म उनकी रक्षा नहीं कर पाता।

आचार्य प्रशांत: धर्म आपके शरीर की रक्षा थोड़ी करेगा। रक्षा शब्द की जब बात आती है तो ये समझना पड़ेगा कि आपको बड़ा ख़तरा क्या होता है। ख़तरे के संदर्भ में ही रक्षा शब्द का कुछ अर्थ है ना। ख़तरा हो तभी रक्षा की बात होती है। ख़तरा ही नहीं तो रक्षा शब्द अर्थहीन है। हाँ तो सबसे पहले तो ये जानना पड़ेगा कि हमें ख़तरा क्या है? एक मनुष्य को सबसे बड़ा ख़तरा क्या है? क्या मृत्यु? क्या किसी इंसान को सबसे बड़ा ख़तरा ये होता है कि उसका शरीर गिर जाएगा, मृत्यु हो जाएगी — ये होता है? किसी इंसान को सबसे बड़ा ख़तरा ये होता है कि मृत्यु आने से पहले वो मुक्त नहीं हो पाएगा। ये होता है ख़तरा।

जो बहुत देहाभिमानी होगा, वो ये कहेगा कि बड़े से बड़ा ख़तरा मृत्यु है। जो थोड़ा भी समझदार हो, वो कहेगा मृत्यु ख़तरा नहीं है। मृत्यु तो तथ्य है जो टाला नहीं जा सकता। ख़तरा ये है कि जीवन रहते जीवन मुक्त नहीं हो पाए, ये होता है ख़तरा। अगर ये है ख़तरा तो अब बताओ रक्षा किसको बोलेंगे? कि इस ख़तरे से बच गए, जीवन मुक्त हो गए। अगर ख़तरा ये था कि ज़िन्दगी मिली पर ज़िन्दगी मुक्ति में नहीं जी पाए तो फिर रक्षा भी यही हुई ना, कि जीवन से मुक्ति मिल गई। जीवन मुक्त हो गए, ये काम धर्म करता है।

जो लोग अपने धर्म को पहचानते हैं, धर्म का मार्ग उन्हें जीवन मुक्त बना देता है। ये है “धर्मो रक्षति रक्षितः” — धर्म आपकी रक्षा करेगा, माने ये नहीं कि जैसे नानी, दादी लोग बच्चे के काला टीका लगाती थी कि अब इसकी रक्षा हो जाएगी। धर्म कोई गंडा तावीज़ है कि रक्षा करेगा शरीर की? वो एक चलती थी ना वो मुगली घुट्टी 555, एक और चलती थी 108 साल की बुढ़िया की घुट्टी ये बच्चे को पिलाओ उसकी रक्षा हो जाएगी। धर्म वो है क्या कि बच्चा एकदम तंदुरुस्त बैठा हुआ है क्योंकि धार्मिक है पर पता नहीं मतलब बच्चा मोटा ताज़ा एकदम ऐसे गोल-गोल हो तो उसका धार्मिकता से कोई हम पुराना संबंध जोड़ ही लेते हैं, धर्म आपके शरीर की नहीं रक्षा करने वाला।

धार्मिक लोगों को शरीर की बहुत परवाह वैसे भी नहीं रह जाती, तो वो क्यों कहेंगे कि धर्म मेरे शरीर की रक्षा करें। जो सचमुच धार्मिक हो गया शरीर उसके लिए एक संसाधन हो जाता है कि शरीर का इस्तेमाल कर रहा हूँ मुक्ति तक पहुँचने के लिए। वो शरीर की रक्षा थोड़ी करेगा। संसाधनों की रक्षा एक सीमा तक ही करी जाती है, उसके आगे तो संसाधन खर्च किया जाता है। संसाधन खुद मिटाया जाता है। उपयोग कर- कर के मिटाया जाता है ना संसाधन।

गाड़ी में पेट्रोल डला होता है। अब इसलिए होता है कि आप उसका इंश्योरेंस कराएँ पेट्रोल का? गाड़ी में पेट्रोल इसलिए होता है कि पेट्रोल जले। हाँ, सही मार्ग, सही मंज़िल की तरफ जले पर है तो जलने के लिए ही। तो वैसे ही रक्षा का अर्थ शरीर को बचाना नहीं होता।

रक्षा का अर्थ होता है आपको जो सबसे बड़ा ख़तरा है उससे आपको बचा दिया गया। अहंकार के सामने सबसे बड़ा ख़तरा यही है कि वो बचा ही रह गया। तो उस ख़तरे से बचाने का अर्थ है कि — अहंकार को मिटा देता है धर्म। अतः “धर्मो रक्षति रक्षित:।”

आप यदि धर्म का मार्ग चुनेंगे तो धर्म आपको मिटा देगा और जीवन भर बंधन में रहते इस ख़तरे से आप रक्षित हो जाएँगे ये है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी इसमें मेरा एक प्रति प्रश्न है कि जैसे हो सकता है कि यदि मेरी देह की बात हो तो शायद उसको बचाना इतना महत्त्वपूर्ण ना हो। पर जब हम महापुरुषों की बात करते हैं तो उनकी देह के वजह से या उनके उपस्थित होने की वजह से काफी सारे लोगों की सहायता हो रही होती है। तो ऐसे में इस चीज़ को किस तरह देखना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: और सहायता कर पाए इसीलिए तो वो अपनी देह को क़ुर्बान भी करते हैं ना। कोई महापुरुष ऐसा नहीं होता जो यदि चाहे तो अपनी देह को बचा ना ले, कोई नहीं होता। वो चाहे तो अपनी देह को बचा सकते हैं। समाज उनकी देह को नहीं मार देता। महापुरुष स्वयं अपनी स्वेच्छा से ये निर्णय करते हैं कि इस देह की क़ुर्बानी देना, इसकी बलि देना, इसकी आहुति देना अब आवश्यक हो गया है ताकि मेरा काम आगे बढ़ सके। इस देह को अब अगर बचाया तो मेरे ही काम के लिए घातक हो जाएगा इस देह का बचना। समाज ने उनको नहीं मारा। उन्होंने अपनी स्वेच्छा से निर्णय किया कि मैं मरूँगा।

सुकरात का बहुत सम्मान था, क्रांति हो गई ग्रीस में, नई सत्ता आ गई। वो आम लोगों की सत्ता थी उसमें सब सैकड़ों बैठ गए — आमजन, उनको ज्ञान की कोई कदर नहीं थी। तो उन लोगों ने निर्णय कर लिया कि सुकरात को जेल में डाल दो और इसने हमारे सब जवान लड़कों को भड़काया है और जो हमारे पुराने रस्मो रिवाज़ चल रहे थे, उनके ख़िलाफ़ हवा बनाई है। इसको मार दो। लेकिन उसके बाद भी सुकरात का बहुत आदर था।

बार-बार जाकर के उन्होंने बोला सुकरात को आप बूढ़े हैं। हम आपको मारना नहीं चाहते। बस दो-तीन शर्तें हैं। आप उनका पालन कर दीजिए और प्रमुख शर्तें ये थी कि एक तो आप चुप रहोगे और दूसरे आप देश छोड़ के चले जाओ, ताकि आप यहाँ की युवाओं को भ्रष्ट ना कर पाओ। तो सुकरात की जान कोई ग्रीस ने थोड़ी ली थी, सुकरात ने स्वयं अपनी जान दी थी।

वो बोले नहीं। अब अगर मैंने अपने आप को बचाया तो इन सब लड़कों को मैं क्या मुँह दिखाऊँगा? इनको तो मैंने सदा बोला कि “सत्य सबसे ऊपर है” और अब जब घड़ी आई है तब मैं कहूँ “सत्य नहीं शरीर सबसे ऊपर है।” तो फिर तो मैंने इन सबको धोखा दिया ना, प्लेटों वग़ैरह सब थे। बोले इनको तो फिर मैंने धोखा दिया। तो मुझे अपने शरीर को बचाना ही नहीं है। ये एक सोचा समझा निर्णय था कि मुझे अपने शरीर को नहीं बचाना है। ये कोई दुर्घटना नहीं हो गई, ये कोई समाज नहीं चढ़ बैठा था। वही बात दूसरे लोगों पर भी लागू होती है। सबको ये मौका ये विकल्प दिया गया था।

मंसूर-अल-हिलाज मत बोल अनल हक़ चुप हो जा। वो बोलते ही गया, बोलते ही गया। बोलते पहले एक राजा थे वहाँ पर वो स्वीकार करते गए थे फिर वहाँ भी सत्ता बदली। तो जो नया राजा आया बोला हम नहीं मानते इसको, ये जो है ये विधर्मी है और ये बिल्कुल कुफ़्र कर रहा है। इसको खत्म करो। वो भी कई बार चेतावनियाँ दी गई चुप हो जाओ क्योंकि ऊँचा आदमी है, ज्ञानी है ये तो सबको पता था। इतनी आसानी से उन्हें नहीं कोई मारना चाहता था। चेतावनी दी गई। चुप हो जाओ। नहीं चुप होना। नहीं चुप होना। तो फिर वो विभक्त सत्याकांड हुआ जो सब जानते हैं बड़ा प्रचलित है।

यही बात अन्य लोगों के साथ भी लागू होती है। वो चाहते तो अपना जीवन बचा सकते थे। वो चाहते तो अपना जीवन बचा सकते थे। नहीं बचाया। ये जानबूझ के ये सोचा समझा निर्णय है। गांधी को गोडसे मार सकता था क्या? यहाँ पर कोई साधारण आदमी भी होता है, तो उसके लिए 810 पुलिस वाले खड़े कर दिए जाते हैं। और राष्ट्र का सर्वोच्च नेता यूँही बैठा हुआ है कोई भी घुस करके आया, कोई चेकिंग नहीं, कुछ नहीं। खड़े होकर गोली मार दी, सामने बैठा लिया गोली मार दी। गांधी चाहते तो अपने आप को बचा सकते थे। सिक्योरिटी बस रखनी थी अपने लिए। पुलिस क्या? वो कहते फौज खड़ी कर दो तो पूरी एक बटालियन खड़ी कर दी जाती उनकी सुरक्षा के लिए।

वो बोले मुझे बचाना ही नहीं है अपने आप को। ज़िन्दगी भर सड़कों पर यूँ ही चलूँगा असुरक्षित जनता के बीच। अब मैं जनता से अपने आप को नहीं बचाने वाला, तो मारे गए। नहीं तो उन्हें कौन मार सकता था? मरना भी एक तरह से गांधी की स्वेच्छा से हुआ है। तो ये नहीं है कि समाज ने जान ले ली — उन्होंने अपनी जान दे दी। वो चाहते तो समाज के कहे अनुसार चल सकते थे। जिन महापुरुषों की आप बात कर रहे हो वो सब के सब चाहते तो समाज के कहे अनुसार चलते उनकी जान बच जाती। ये उनका निर्णय था कि नहीं जिएँगे तो अपनी शर्त पर और जान देना कई बार जरूरी हो जाता है इसलिए जान दे रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: लेकिन यदि आचार्य जी इस पूरे घटनाक्रम को मैं एक थर्ड पर्सन की तरह देखता हूँ तो वहाँ तो मुझे कहीं ना कहीं धर्म की हार दिखाई देती है। कि जो आवाज एक तरह से सशक्त थी कोई सही बात लोगों में प्रसारित कर रही थी अब वो खत्म हो गई।

आचार्य प्रशांत: वो खत्म हुई इसीलिए वो बात आगे बढ़ पाई सीज़र डेड इज़ मोर पावरफुल देन सीज़र अलाइव। सीज़र की मौत हुई तो सीज़र की ताकत कई गुना बढ़ गई, जूलियस सीज़र। जीसस के साथ वो नहीं हुआ होता जो हुआ है तो ईसाइयत नहीं आगे बढ़ी होती। पूरी ईसाइयत इसी पर आश्रित है। रिपेंटेंस, एटोनमेंट। जीसस सफर्ड फॉर अस गॉड सेंट ह ओन सन टू रिडीम अस ऑफ आवर सिंस। नहीं तो एक साधारण से वहाँ के लड़के जैसे थे। नौजवान वो अपना सड़कों पर फिरते रहते थे। गढ़रिए शेफर्ड ही तो थे।

बहुत लोग थे भी नहीं उनकी सुनने वाले। उनकी बात इतनी आगे बढ़ी ही नहीं होती। अगर सूली और सलीब का काम नहीं हुआ होता तो। तो कई बार अपनी जान दी जाती है ताकि अपना मिशन आगे बढ़ सके। भारत में ऐसे उदाहरण कम मिलेंगे क्योंकि भारत थोड़ा प्रौढ़ परिपक्व और समझदार देश रहा है हमेशा से। तो हमने अपने ज्ञानियों की भरसना भले कर ली हो लेकिन आमतौर पर उनको मारा नहीं है।

ये मार ही देने वाले उदाहरण ज़्यादा पश्चिम से मिलेंगे, अरब से मिलेंगे। भारत सहिष्णु रहा है। यहाँ हमें जिनकी बात नहीं भी पसंद आई है, हमने कहा है बात को कहने का हक़ तो तुम्हें तब भी है। हम अगर मारने पर आते तो बुद्ध और महावीर भी नहीं हो पाते क्योंकि वो जो बात कह रहे थे वो तो सतही तौर पर वेद विरुद्ध भी थी। और उस समय वैदिक ही धर्म था और कहा जाता है कि ये देखो ये दोनों अधार्मिक बातें कर रहे हैं, इनको मार दो पर भारत ने नहीं मारा। उनको भी ज्ञानी ही मानकर सम्मान दिया। बल्कि बुद्ध को तो कह दिया कि ये विष्णु के अवतार ही हैं। तो भारत का रवैया दूसरा रहा है, उदार रहा है, सहिष्णु रहा है।

यहाँ जो भी कोई आया है ज्ञान की बात करने, भले ही उसकी बात से हम सहमत ना हों, पर हमने उसको आदर दिया है। वो अब बदल रहा है, बहुत हद तक बदल गया है।

प्रश्नकर्ता: एक आखिरी प्रति प्रश्न इसमें करना चाहूँगा कि, ये शायद लोकोक्ति ज़्यादा है, किसी शास्त्र पर आधारित नहीं है। पर लोग इसे इस तरह कहते हैं कि जीसस कोई क्रिश्चियन नहीं थे, क्रिश्चियनिटी उनके बाद आगे आई। तो हमेशा कहा जाता है कि जो चीज़ पहले एक ज्वलंत ज्वाला थी, जीसस के जीवित रहने तक, वो उनके जाने के बाद एक निष्प्राण कर्मकांड बन के रह गई। और वो सेम अलग-अलग महापुरुषों के लिए भी कही जाती है। तो यदि महापुरुष ही चले गए और उनके बाद जो उनके पीछे बच जाता है, उसको लोग निष्प्राण ही कहते हैं।

आचार्य प्रशांत: अब वो एक तरह का ट्रेड ऑफ़ है। बाद में कुछ तो बचा ना, और वो अपनी ज़िन्दगी बचाए रह जाते तो बाद में कुछ भी नहीं बचता। बाद में कुछ तो बचा, पर ज़िन्दगी बचा लो तो फिर तो कुछ भी नहीं बचेगा। जब उन्होंने अपनी ज़िन्दगी बचा के रखी हुई थी, तो उनको क्या मिल रहा था, बताओ? तो इतने बड़े शहर में 11 कुल उनको सुनने वाले थे।

वो कोई सभा करें, तो सोचो, ऐसे विज़ुअलाइज़ करो — सभा कर रहे हैं, 11 जने बैठे हैं। या विज़ुअलाइज़ भी क्या करना है, लास्ट सफ़र, वो पेंटिंग तो देखी है ना? वो कुल वहाँ पर बैठे हुए हैं, 11 जने। या आज की भाषा में कहूँ, तो जीसस का यू-ट्यूब चैनल है और 11 फॉलोअर हैं। ये उनकी हालत थी। और वो 11 में भी उनको बेचने कौन निकला था? 11 में से ही एक था वो — जुडास। ये उनकी हालत थी।

तुम बताओ, वो अपनी ज़िन्दगी बचा के क्या करते? जब तक उन्होंने ज़िन्दगी बचा रखी थी, 11 जने मिले थे। उसमें भी एक जुडास था, और बाकी भी सारे ऐसे थे कि जब जीसस को यातना दी जा रही थी, वो इधर-उधर जाकर कहीं बैठे हुए थे, छुपे हुए थे। उनकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि कुछ करें। उन्होंने ये भी नहीं करा कि "हमारे गुरु को मार रहे हो तो उससे पहले हम मरेंगे।" तो सब इधर-उधर हो गए थे।

जब पड़े हुए थे, बिल्कुल एकदम मरने को तैयार, अधमरे होकर के, तब भी उनको जो उठाने-बचाने आई, वो एक लड़की थी। ये सब जो उनके पुरुष शिष्य थे, ये तो तब भी नहीं आए, डर के मारे। डर के मारे या जो भी उनकी और बात रही हो। ये तो उनकी हालत थी जब तक उन्होंने अपनी ज़िन्दगी बचा रखी थी। तो उनको दिख रहा था ना कि ये ज़िन्दगी बचाए-बचाए कुछ हासिल होगा नहीं। जब तक मैं बचा हुआ हूँ, मेरा संदेश आगे पहुँचेगा नहीं।

एक और भी बात होती है — देखो, जब आप एक नई चेतना ला रहे होते हो ना, तो उसमें साथ में ये भी सिद्ध करना ज़रूरी होता है कि पुरानी वाली गड़बड़ है। नहीं तो पुरानी क्यों छोड़ी जाए? यहूदी कार्यक्रम तो चल ही रहा था। पूरा जो मिडिल ईस्ट था, उसमें पुराना यहूदी कार्यक्रम तो मस्त चल रहा था। राजा वग़ैरह भी उसी को मानते थे, और ऐसी कोई बड़ी तात्कालिक दिक्कत भी नहीं आ रही थी यहूदी पंथ पर चलने से।

अब जीसस एक नई बात लेकर आए हैं। उस नई बात को स्थापित करने में ये सिद्ध करना बहुत ज़रूरी होता है ना कि पुरानी बात गड़बड़ है। आम आदमी मानना नहीं चाहता कि पुरानी बात गड़बड़ है। वो अगर अधिक से अधिक मानता है, तो इतना ही कि आपकी नई बात अच्छी है और पुरानी बात भी अच्छी है। "ये नया बंदा तो बढ़िया है, लेकिन पुराने लोग भी बढ़िया हैं।"

अब ये कैसे प्रमाणित किया जाए कि पुराने लोग बढ़िया नहीं हैं? बहुत गड़बड़ हैं। उसके लिए एक कन्फ्रन्टेशन की मुठभेड़ की स्थिति लानी पड़ती है, और ये दिखाना पड़ता है कि देखो, तुम्हारे पुराने लोग इतने हिंसक हैं कि इन्होंने मेरी जान ले ली, तब जाकर के जनता का भ्रम टूटता है। नहीं तो जनता इसी में रह जाती है कि पुराने लोग भी अच्छे हैं। पुराने लोग कितने क्रूर हैं और बर्बर हैं, ये कैसे प्रदर्शित हो? ये ऐसे ही प्रदर्शित किया जाता है कि देखो, ये तुम्हारे पुराने लोग — इनके सामने जाकर मैंने सच बोला, तो इन्होंने मेरी जान ले ली।

अब चेत जाओ, अब तो जागो, अब तो समझो कि तुम्हारे ये पुराने लोग और पुरानी परंपरा और पुरानी व्यवस्था कैसी है कि एक सच बोलने वाले आदमी की जान ले लेती है। क्या अभी भी तुम पुरानी परंपरा पर चलना चाहते हो? ये प्रश्न फिर खड़ा होता है। वरना कैसे दिखाया जाए, कैसे समझाया जाए किसी को, कि तुम जिनको बहुत प्रेम देते हो, जिनको पूजते हो, जिनको अच्छा मानते हो — वो वास्तव में बहुत बुरे लोग हैं? कैसे बताया जाए? क्योंकि उन्हीं के साथ उम्र बीती है, उन्हीं को हमेशा अच्छा माना है। दिल टूटता है ये स्वीकार करने में कि वो अच्छे नहीं, बहुत-बहुत गड़बड़ हैं। तो प्रमाण लाना पड़ता है फिर, और इससे बड़ा प्रमाण नहीं होता कि देखो, तुम्हारे पुराने लोगों ने क्या किया है मेरे साथ।

फिर एक झटके में पुरानी व्यवस्था टूट जाती है। फिर पुरानी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह हो जाता है। अहंकार सब कुछ बचा के चलना चाहता है। वो कहता है कि अतीत के मेरे मोह भी बचे रहें, और वर्तमान में सत्य मिल रहा है, उसको भी ले लूँ। अतीत के जो मेरे रिश्ते-नाते और मेरी धारणाएँ थीं, वो भी सकुशल रहें, और अगर अभी कोई नई रोशनी, नई चेतना आ रही है, तो मैं वो भी ले लूँ। वो दोनों तरफ ऐसे रख के चलना चाहता है—कुछ भी क्यों छोड़ूँ? कुछ भी क्यों छोड़ूँ? इसको भी ले लो, उसको भी ले लो, सब चलेगा।

मेरा पुराना स्वार्थ भी चलना चाहिए और नया परमार्थ भी चलना चाहिए और नया वाला मिल नहीं सकता जब तक पुराना स्वार्थ छोड़ोगे नहीं। तो पुराना स्वार्थ छुड़वाने के लिए कई बार एक उदाहरण रचना बहुत ज़रूरी हो जाता है। कई बार तो उदाहरण सचमुच रचे जाते हैं। नहीं तो आप नहीं छोड़ोगे, आप कभी भी नहीं, लंबे समय तक नहीं छोड़ोगे। आप कहोगे, हाँ बिल्कुल ठीक है, एकदम नई क्रांति आई है, मैं उसके साथ हूँ। लेकिन फिर भी — अंकल जी नमस्ते। पूरी नई क्रांति में डूब जाऊँगा, सराबोर हो जाऊँगा, लेकिन फिर भी अपने पुराने तौर-तरीके नहीं छोड़ूँगा — अंकल जी नमस्ते।

और जब तक तुम अंकल जी को नमस्ते करे जा रहे हो, तब तक गीता समझ में आनी नहीं है। पर अंकल जी नमस्ते छूटना नहीं है। अंकल जी नमस्ते छुड़ाने के लिए फिर ज़रूरी हो जाता है कि ऐसी स्थिति पैदा की जाए, जिसमें अंकल जी आचार्य जी को गोली मार दें। तब तुम्हारा "अंकल जी नमस्ते" छूटेगा। वरना तुम मानोगे नहीं कि अंकल जी इतने बर्बर हैं कि वो गोली मार सकते हैं। नहीं, अंकल जी तो बहुत अच्छे हैं, बचपन से गोद में खिलाया है। तो प्रमाण देना पड़ता है फिर कि अंकल जी अच्छे नहीं हैं—देखो, ऐसे हैं अंकल जी।

आप देखते नहीं हो, आप कैसे बिल्कुल संतुलन बना के चलते हो? "साँप भी मर जाए..." लोकबुद्धि है भाई, लोकबुद्धि है। मुक्ति भी मिल जाए और भुक्ति भी ना छूटे। स्वर्ग भी मिल जाए और मरना भी ना पड़े। सारे स्वार्थ पुराने — बिल्कुल ले चलेंगे। आदतें पुरानी — बिल्कुल वही हैं। और साथ ही साथ अध्यात्म में भी आ गए अटेंडेंस लगाने। भाई, जब हर जगह हमने लूट मचा रखी है, तो राम नाम की लूट भी क्यों न लूटे?

ऐसे नहीं चलता। चुनाव करना पड़ता है, कुछ छोड़ना पड़ता है। और उस छोड़ने के लिए कई बार फिर आखिरी विधि यही बचती है कि समझाने वाला अपनी जान ही दे दे, वरना तुम छोड़ोगे नहीं। संतुलन ही बना के चलोगे — 50-50। आचार्य जी भी ठीक हैं, अंकल जी भी ठीक हैं, दोनों अपनी-अपनी जगह ठीक हैं। ये "अपनी-अपनी जगह" क्या होता है? यही है ना लोकतर्क — "अपनी-अपनी जगह देखिए, दोनों ठीक हैं।"

माने कुल मिला के बात ये है कि मैं नौबत नहीं आने दूँगा कुछ भी छूटने की। एक्यूम्युलेटिव होती है ईगो — उसे संग्रह करना है। कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता। पुराना छोड़े बिना उसे नया चाहिए, बंधन छोड़े बिना उसे आज़ादी चाहिए।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बस एक आखिरी बात — जैसे आप ये कह रहे थे कि उदाहरण रचना पड़ता है, या जो गुरु है, या जो महान व्यक्ति है, उसको ऐसा करना पड़ता है, तो सुनने में ऐसा लग रहा है कि वो ख़ुद सिचुएशन क्रिएट कर रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: वो भले ख़ुद क्रिएट न कर रहा हो, लेकिन उसको दिख रहा होता है कि क्रिएट हो रही है, और वो रोकता नहीं है। एक बड़ा वर्ग है जो कहता है कि जीसस को पता था कि जुडास बेईमानी, विश्वासघात कर रहा है। उन्होंने रोका नहीं। उन्होंने खुद रचा नहीं, पर उनको पता था ये सब हो रहा है। उन्होंने कहा कि मैं आज रोक भी दूँगा, तो कल नहीं रोक पाऊँगा। और अगर हो रहा है तो शुभ ही हो रहा है। होने दो। हो रहा है, तो होने दो।

ये लगभग ऐसे समझ लो कि जैन संलेखना जैसी बात है। आप आत्महत्या नहीं कर रहे हो, पर आप जान रहे हो कि मृत्यु आ रही है, और आप उसे आने देते हो। ऐसा नहीं कि आपने गोली मार ली है, या कोई गोली खा ली है, या ज़हर खा लिया है। पर आप जान रहे हो कि अब मैं भोजन नहीं कर रहा हूँ, तो मृत्यु तो आएगी ना। मैं जो कर रहा हूँ, इससे मृत्यु आनी है, और आप उसे आने देते हो।

क्योंकि आप कहते हो — और अब कोई विकल्प बचा नहीं है। मैं जो कर रहा हूँ, इसका नतीज़ा यही होना है कि मरूँगा, शरीर जाएगा, पर बताओ विकल्प क्या बचा है अब? और अगर विकल्प हो, तो बताओ, करते हैं।

श्रोता: आचार्य जी, भगत सिंह जी का भी तो नहीं हुआ?

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिल्कुल अच्छा उदाहरण अभी आया है। कह रहे हैं, भगत सिंह भी तो चाहते, तो अपनी जान बचा सकते थे ना? मात्र भगत सिंह नहीं, भगत सिंह तो प्रमुख, ऊँचा नाम है ही, उनके अलावा भी दर्जनों ऐसे क्रांतिकारी थे, जो यदि माफ़ी माँग लेते या मुखबिर बन जाते, तो उनकी जान ही नहीं बचती — अरे, उनको पद भी मिलता, पैसा भी मिलता।

अंग्रेज कई बार, चूँकि ये लड़के होते थे, और ये पढ़े-लिखे लड़के होते थे। अंग्रेज कई बार इनको प्रलोभन देते थे कि सरकारी खर्चे पर इंग्लैंड भेजेंगे और तुम्हारे मास्टर्स करवाएँगे। बहुत बड़ी बात होती थी उन दिनों कि सरकारी खर्चे पर लंदन भेज के मास्टर्स करवाएँगे हम तुमको। बस ये क्रांति वग़ैरह का रास्ता छोड़ दो, मुखबिर बन जाओ, तो बहुत अच्छी बात। नहीं तो कम से कम माफ़ी माँग लो, बस माफ़ी माँग लो, इतना पर्याप्त है। वो चाहते तो अपनी जान बचा सकते थे। ये सब क्रांतिकारी चाहते तो सब अपनी जान बचा सकते थे।

वास्तव में अगर आप देखो, तो चलती तो नियम-कायदे पर ही थी। वो यूँ ही किसी को नहीं मार देते थे कि क्रांतिकारी है, तो ऐसी फर्ज़ी मुठभेड़ में गोली मार दो। भगत सिंह का भी मुकदमा साल भर से ज़्यादा चला है। पूरी कार्रवाई होती थी। दोनों तरफ के वकील खड़े होते थे, तर्क-वितर्क होता था, फिर फ़ैसला दिया जाता था। उसकी अपील भी होती थी, सब होता था। तो ऐसा नहीं कि अंग्रेज रक्त-पिपासु थे और कह रहे थे कि इनको गोली मारनी ही मारनी है। मारनी ही मारनी है। वो भी कहते थे कि अगर कोई तरीका निकले कि ये अपनी तरफ आ जाए, तो इसको अपनी तरफ कर लो। मारने में क्या लाभ है?

पर उन्होंने कहा, "नहीं, जान देना ही सही है।" और भगत सिंह ने तो बहुत साफ-साफ लिखा है। बोले, "अगर जी गया, तो मेरे बारे में कुछ न कुछ कहानियाँ फैलेंगी और उनमें मेरे चरित्र के कुछ दोष सामने आएँगे। अभी मेरी कोई उम्र नहीं है, 22–23 साल, अभी तो मेरी बड़ी एक ओजपूर्ण छवि है जनता के सामने। पूरा मीडिया ट्रायल लंबा चला था ना, तो अख़बारों में इसको बहुत कवरेज मिली थी। देश भर में जवान लोगों में लहर छा गई थी। जो पढ़ सकते थे उन्होंने पढ़ा, बाकियों ने सुना कि ये सब हो रहा है।"

तो बोले, "अभी बिल्कुल उज्ज्वल छवि है मेरी। जिऊँगा तो दागदार हो जाऊँगा। लेकिन अभी अगर मैं अपने प्राणों की आहुति दे दूँ, तो फिर मैं सदा के लिए मिसाल बन जाऊँगा। जीने में नुकसान है, मरने में फायदा है। राष्ट्र हित में जीने में नुकसान हो जाएगा, और राष्ट्र हित में फायदा ये है कि मर जाऊँ।"

तो ये एक सोचा-समझा निर्णय होता है कई बार कि अपना काम अगर बढ़ाना है, सफल करना है, चेतना लानी है, क्रांति लानी है, तो अब और कोई विकल्प नहीं है। शरीर की क़ुर्बानी देनी पड़ेगी। और ऐसा नहीं कि शरीर से कोई समस्या है, इसलिए शरीर को मार डाला। जब तक ज़रूरी लगा और जब तक संभव लगा, तब तक शरीर को बचाया भी जाता है। लेकिन एक आख़िरी घड़ी आ जाती है जब शरीर को बचाना ना संभव होता है, ना लाभप्रद होता है। तब शरीर को छोड़ दिया जाता है।

प्रश्नकर्ता: जो बात हुई कि गांधी जी का ये निर्णय था, उनको सुरक्षा तो सरदार वल्लभ भाई पटेल दे देने को उन्होंने कहा था कि "आप ले लीजिए, खबरें हैं कि आपकी हत्या हो सकती है।" तो ओशो साहब को जब मैं पढ़ रहा था, तो ओशो साहब ने दूसरा तर्क किसी और लहजे में समझाने के लिए दिया था कि महात्मा गांधी ने अपना महात्मा पंथ बचा लिया। और अगर सुरक्षा ले लेते तो हत्या नहीं होती, तो अपने तो महात्मा बन गए, और गोडसे को नीचे गिरा दिया। चेतना उसके नीचे गिरा दी।

आचार्य प्रशांत: जीवन के रास्ते, बड़े-बड़े विचित्र होते हैं। दूसरे पर टिप्पणी करो, तो ऐसा लगता है कि सब सुलझा हुआ है और आप देख सकते हो कि दूसरे को ऐसे चलना चाहिए था, वैसे चलना चाहिए। तो कहते हैं ना कि एवरीबॉडी इज़ वाइज़ इन हाइंडसाइट।

ओशो को खुद क्यों जेल जाना पड़ा? और फिर कहानी तो यही है कि जेल में ही जो उनके साथ व्यवहार हुआ, और खाना-पीना, उससे ही उनकी पॉयज़निंग हुई। अगर ख़ुद को बचाना हमेशा संभव होता, तो ओशो ने ख़ुद को क्यों नहीं बचाया? नहीं होता हमेशा संभव ख़ुद को बचाना। और अगर संभव होता भी है, तो हमेशा वर्णनीय नहीं होता, हमेशा वांछित नहीं होता कि खुद को बचाओ। कई बार होता है कि हाँ, ऐसा कर लो तो बच जाओगे, लेकिन आप कहते हो शर्त बहुत कड़ी है, दाम बहुत ऊँचे हैं। नहीं बचाऊँगा ख़ुद को।

गांधी तो फिर भी ख़ुद को बहुत बचा गए, 80 के लगभग हो गए थे। ओशो तो 60 तक भी अपने आप को नहीं बचा पाए। तो दूसरे की ज़िंदगी देखो तो हमेशा वही — द बेनिफ़िट ऑफ़ हाइंडसाइट।

प्रश्नकर्ता: उसमें एक चर्चा और आती है कि ओशो साहब ना बॉडी शैडो गार्ड्स रखने लगे थे। तो सरदार लोगों ने पूछा था, “आप तो डरपोक हैं कि आप तो गार्ड रखने लगे? आप मृत्यु की बात करते हैं कि मृत्यु कुछ नहीं होती!” तो उन्होंने कहा था, “भाई, मैं नहीं डरा हूँ, तुम लोगों को मूर्खता करने से रोकना है।” तो बिल्कुल, बिल्कुल सही तर्क है ये। बिल्कुल सही तर्क है। बहुत ज़रूरी होता है पावर प्रोजेक्शन, ताकि दूसरा कुछ ऐसा ना कर दे जिसमें वो दूसरा ही मारा जाए। जिसके पास ताक़त हो, ये उसकी ज़िम्मेदारी है, कर्तव्य है कि वो अपनी ताक़त का कुछ प्रदर्शन भी करके रखे। अपने आप को प्रदर्शित नहीं करके रखेगा, तो दूसरे की जान चली जाएगी।

उदाहरण देता हूँ — साँप नीचे आप चल रहे हो, घास-फूस में छुपा बैठा है, खुद को प्रदर्शित नहीं कर रहा, तो क्या होगा? आप जा रहे हो, क्या करोगे? उस पर पाँव रख दोगे। तो जान किसकी गई? आपकी। गए ना आप? और यही साँप तना बैठा हो, फन फैलाए हो, तो किसकी जान बचेगी? आपकी। साँप की ज़िम्मेदारी है कि अगर तुम्हारे पास ज़हर है, तो अपना प्रदर्शन करके रखो, नहीं तो दूसरे की जान जाएगी। बात दूसरे को डराने की नहीं है। बिल्कुल उल्टी बात है। दूसरे की जान बचाने के लिए ज़रूरी है कि साँप अपना फन फैला के रखे। नहीं तो कोई भी बच्चा-वच्चा जाएगा, कहेगा ऐसी रस्सी पड़ी है, खेलते हैं इससे। साँप के लिए ज़रूरी है कि वो दिखा के रखे कि उसमें कितनी ताक़त है, ताकि कोई उसके पास ना आए। आप साँप के पास जाओगे, आपकी ही जान जाएगी।

तो जो हम विनम्रता का एक सस्ता आदर्श बना के रखते हैं, कि ताक़त कितनी भी हो, उसका प्रदर्शन नहीं करना चाहिए — वो गड़बड़ चीज़ है। ताक़त है तो प्रदर्शन कर दो, नहीं तो दूसरा समझेगा तुम में ताक़त नहीं है। दूसरा आकर के छेड़खानी करेगा और उसकी जान चली जाएगी।

प्रश्नकर्ता: यही वाला तर्क फिर गोडसे में नहीं लगेगा? इसका रीजन दूसरा हो जाएगा?

आचार्य प्रशांत: नहीं, वहाँ पर भी वही है ना कि आप जिन आदर्शों को लेकर के 80 साल तक जिए हो, अपने आख़िरी दिनों में आप खुद ही उनका उल्लंघन करोगे, तो कौन फिर आगे आपके पदचिन्हों पर चलेगा?

आप दांडी यात्रा की तस्वीर देखते हो अक्सर, ठीक है? वो टेढ़ी कमर के साथ झटपट-झटपट चलते चले जा रहे हैं, एक उन्होंने लठ पकड़ रखा है। सबने वो तस्वीर देखी है कि नहीं देखी है? अब उसमें आप सोचो, साथ में 20 ब्लैक कैट कमांडो भी हैं। अब वो तस्वीर कैसी हो जाएगी? कैसी हो जाएगी? कुछ बचा गांधी का? गए।

जेड प्लस सिक्योरिटी लगी हुई है। आपने गोलमेज़ वार्ता की तस्वीर देखी है लंदन में? बड़ा सा गोल मेज़ है, उसमें सब बैठे हुए हैं। भाई, लंदन ठंडी जगह है। वहाँ सब बैठे हुए हैं, सूट-बूट डट करके। और गांधी कैसे बैठे हैं? धोती-कुर्ता, नंगा फकीर — कुर्ता भी नहीं। नंगा फकीर बैठा है। और वही आपको दिखाई दे कि गांधी भी बैठ गए हैं बहुत डट-बट करके, और एकदम — “लाओ भाई, ऊनी कुछ कोट, नहीं तो कम से कम मोटा शॉल ही ले के आओ, दो-चार कंबल-वंबल डाल दो।” लेगेसी खत्म हो जाएगी।

और लेगेसी तो भविष्य की होती है। वर्तमान में भी चर्चिल के जो होश उड़े थे, वो भी ना उड़ते। बहुत गाली दी थी चर्चिल ने — “ये तो अनसिविलाइज़्ड आदमी है, इतनी ऊँची कॉन्फ़्रेंस में आकर के नंगा बैठ गया है!” पर चर्चिल का गरियाना ही बता रहा था कि चर्चिल पे असर पड़ गया है। ज़बरदस्त, ज़बरदस्त असर पड़ गया है। इतना असर पड़ गया था कि उसके बाद चर्चिल हर साल-दो साल में खबर आती थी कि पूछ रहे हैं — “गांधी अभी मरा कि नहीं मरा? कब मरेगा?” गांधी बिल्कुल, एकदम, सर में घुस रहे थे चर्चिल के।

प्रश्नकर्ता: बाद में वो ज़िंदा बच गए थे, तो उस डॉक्टर को भी उन्होंने बोला कि “मुझे विश्वास नहीं है ये बुड्ढा बच कैसे गया, एक महीने के बाद अनशन करने के बाद।”

आचार्य प्रशांत: भारत में जब भारी अकाल पड़ा, और अकाल भी इसीलिए पड़ा क्योंकि यहाँ के जो रिसोर्सेज़ थे, वो ब्रिटेन के वॉर एफर्ट में लग रहे थे।

जब भारी अकाल पड़ा और बताया गया कि भारत में इतने लोग मर रहे हैं, इतने लोग मर रहे हैं, तो चर्चिल ने कहा — “देन व्हाइ इज़ण्ट गांधी डेड?” जब इतने मर ही रहे हैं भारत में, तो गांधी काहे नहीं मर रहा? इस हद तक असर पड़ता है इस तरह के संदेशों का, प्रतीकों का।

तो उसी चित्र में उत्तर है। वो जो दांडी मार्च का है, उसमें सोच लीजिए कि गांधी हैं और 40 ज़ेड-प्लस सिक्योरिटी वाले लगे हुए हैं — वो जैसे होते हैं, ब्लैक सूट पहन करके और काला चश्मा लगाकर — वो सब गांधी के साथ चल रहे हैं। कुछ बचेगा? ख़त्म सब।

प्रश्नकर्ता: सर, एक इस पर फॉलो-अप था कि एक लाइन कहीं मूवी में देखा था और पढ़ा था — “नॉलेज विदआउट पावर मेक्स वन सीनिकल।” अब ट्रेड-ऑफ़ करते हैं। नॉलेज को अगर पावर मुझे चाहिए, तो सर्टन नॉलेज को मैं ट्रेड-ऑफ़ करता हूँ। सोर्स ऑफ नॉलेज को ट्रेड-ऑफ़ क्यों करूँ पावर गेन करने के लिए?

आचार्य प्रशांत: सोर्स ऑफ नॉलेज से क्या आशय है? कौन-सा वाला नॉलेज? वो वाला, ये वाला — कौन-सा?

प्रश्नकर्ता: मतलब जो भी बड़े लोग होते हैं, वे एक टाइम के बाद इन ऑर्डर टू एस्टैब्लिश जो भी ज्ञान है, जो भी धारा है, पंथ है — वो पावर चाहिए। उसके लिए, चाहे वो इमेज का पावर हो, चाहे वो किसी भी संसार का — तो वो ट्रेड-ऑफ़ करते हैं। और ट्रेड-ऑफ़ नॉलेज का तो थोड़ा बहुत हो ही रहा होता है — वो सोर्स ऑफ नॉलेज यानी ख़ुद का ही कर देते हैं। तो इसकी ज़रूरत क्यों आ पड़ती है?

आचार्य प्रशांत: क्योंकि बात ये नहीं है ना कि सोर्स ऑफ नॉलेज बचा कि नहीं। जो सोर्स ऑफ नॉलेज है, वो तो इतना नॉलेज दे गया कि अब सोर्स ना भी बचे तो भी बहुत है। बात सोर्स के छोर पर अटकी हुई नहीं है। बात स्टूडेंट के छोर पर अटकी हुई है। सोर्स ने तो हो सकता है 40 किताबें लिख दी हों। स्टूडेंट एक भी पढ़ने को राज़ी नहीं है। तो सोर्स फिर कह सकता है कि मैं अपनी बलि दे देता हूँ — अगर उससे स्टूडेंट पढ़ना शुरू कर देगा।

अगर मैं जीता रह गया तो मैं 40 की जगह 50 लिख दूँगा अधिक से अधिक। अरे, जब तूने 40 में ही एक नहीं पढ़ी, तो 50 और लिख के क्या मिल जाएगा मुझे? सोर्स ने तो पहले ही बहुत कुछ दे रखा था। स्टूडेंट के छोर पर समस्या थी ना — वो लेने को नहीं राज़ी था। तो सोर्स फिर अपनी आहुति देता है, स्टूडेंट का मन खोलने के लिए ताकि सोर्स की बात उसमें प्रवेश कर सके।

सोर्स अगर जीता भी रह जाएगा, तो 40 में 10 किताब और बढ़ा देगा — 50 कर दिया। कुछ होगा उससे फ़ायदा क्या? आगे की 10 किताबों में भी वही बात कहेगा, जो पीछे 40 में कही थी। तो और 10 साल जी करके कुछ नहीं मिलना। पर अगर ज़िन्दगी के 10 साल छोड़ के सुनने वाले के मन में प्रवेश करा जा सकता है, उसकी लिसनिंग को, उसकी ग्राह्यता को खोला जा सकता है, तो फिर प्रणोत्सर्ग करना ज़्यादा फ़ायदे की बात होती है।

प्रश्नकर्ता: वो सीनिसिज़्म से आगे की बात है। उसमें सीनिकल कुछ नहीं है।

आचार्य प्रशांत: नहीं, यहाँ ये जो आपने कोटेशन बोली है, उसमें जो नॉलेज है भी, वो नॉलेज बाहरी नॉलेज है। वो उस नॉलेज के लिए बोली गई है।

प्रश्नकर्ता: इसको भगवान श्री इस तरह भी कह सकते हैं कि सोर्स तो नॉलेज एक्सप्रेशन और भी खोज लेगा। लेकिन जो खिला है — मतलब जो सामने आया है — तो उसका ऑप्टिमम यूटिलाइज़ेशन फिर वो सोर्स देख लेता है। इसको ऐसे कह सकते हैं —

(आचार्य जी हाँ में सिर हिलाते हुए।)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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