धर्म क्या है? || (2017)

Acharya Prashant

5 min
692 reads
धर्म क्या है? || (2017)

प्रश्नकर्ता: धर्म क्या है?

आचार्य प्रशांत: हमारे लिए धर्म क्या है, वो मैं बता देता हूँ। हमारे लिए धर्म का इतना ही अर्थ है- मंदिर चले जाना या मस्जिद चले जाना, कोई किताब है उसको पूजनीय मान लेना, कुछ त्यौहार हैं, उन त्यौहारों को मना लेना, और कुछ रस्में बना दी गईं हैं, जिनका पालन करना। उन रस्मों में यह भी शामिल है कि क्या ठीक है और क्या नहीं। तो एक प्रकार की नैतिकता है। हमारा धर्म इसके आगे और कुछ नहीं है। पर क्या यही सच्ची धार्मिकता है? कि कुछ त्यौहार मना लिए, दशहरा, होली, दीवाली मना लिया, कुछ संस्कारों का पालन कर लिया, गीता या क़ुरआन की पूजा कर ली। क्या इसी का नाम धर्म है? कुछ उचित और अनुचित को मान लिया, क्या उसी का नाम धर्म है? या धर्म कुछ और है?

धर्म का अर्थ है लगातार हर पल ये जानना, हर पल ये जानना कि मेरे लिए सही क्या है। धर्म का अर्थ है प्रतिपल जागृत रहना। इस वक़्त तुम पूरे ध्यान में हो और जान रहे हो, तो तुम धार्मिक हो। यहाँ पर ऐसे भी लोग हैं जिनका मन विचलित है। वह गहराई से अधार्मिक व्यक्ति है। धर्म का अर्थ है, पूरे तरीके से अपने संपर्क में रहना। धर्म का अर्थ है, लगातार-लगातार जो नकली है उससे बचे रहना। बात समझ में आ रही है?

तुम्हें कुछ रस्में दे दी गईं हैं, इनको मानने से धर्म नहीं होता है। तुम्हें कुछ देवी-देवता के नाम बता दिए गए हैं, वह धर्म नहीं है। आतिशबाजी करना, रंग लगाना, वह धर्म नहीं है। क़ुर्बानी देना भी धर्म नहीं है। ये सब तो आनी-जानी बातें हैं। ये धर्म नहीं है। यदि धर्म जीवन जीना सिखाता है, तो इसका अर्थ ये है कि धार्मिकता हर पल की होनी चाहिए क्योंकि जीवन हर पल है। या जीवन रुक-रुक कर है? जीवन हर पल है, तो धर्म भी हर पल है। और हर पल ये जानना कि ये सब क्या है, ये माझरा क्या है, इसी का नाम धर्म है। कोई भी धर्म किसी-न-किसी परम की बात ज़रूर करता है, द अल्टीमेट , सर्वोच्च। कभी इसको ब्रह्म कहते हैं, कभी विशुद्ध चेतना। पर नाम कुछ भी दिया जाए, कहीं-न-कहीं किसी परम का नाम होता है।

परम जानते हो? ऊँचा, ऊँचे से भी ऊँचा। उस ‘ऊँचे से ऊँचा’ का अर्थ समझते हो क्या होता है? उस ‘ऊँचे से ऊँचा’ का अर्थ है कुछ ऐसा जो सबसे से मुक्त है। ऊँचा कौन? जो सबसे से मुक्त है, वही उच्च कहलाता है। तो धर्म का अर्थ है मुक्ति। और वह जो ऊँचे-से-ऊँचा है, वह सबसे अछूता है; बिलकुल निर्लिप्त। जिस क्षण में तुम निर्लिप्त हो, उस क्षण में तुम बिलकुल परम ही हो।

और इसमें इतना ताज्जुब की क्या बात है? सुना नहीं है क्या तुमने? ‘जहाँ ज़र्रा-ज़र्रा चमकता है नूर-ए-इलाही से’। ज़र्रे-ज़र्रे में वही है। इसमें ताज्जुब की क्या बात है? तुम ज़र्रे से कुछ हट कर तो नहीं हो। तुमने कैसे मान लिया कि तुम उसे से कुछ अलग हो? क्या उससे अलग कुछ भी है? तुम्हारी भाषा में उसे ‘अव्वल’ बोलते हैं। जो परम है, जो अव्वल है, जो मालिक है, क्या उससे अलग कुछ भी हो सकता है? और हिन्दुओं की भाषा में उसे साफ-साफ आत्मन ही बोल देते हैं। अब ‘आत्मन’ माने क्या होता है? ‘आत्मन, मैं, मैं। मैं ही तो हूँ, और कौन है’?

उससे अलग कुछ भी नहीं है। जब ज़र्रे-ज़र्रे में वो समाया है, तो क्या तुम्हारे भीतर नहीं है वो? या तुम शैतान हो? जब ज़र्रे-ज़र्रे में तुम समाए हुए हो, तो तुम उससे अलग कैसे हो? हाँ, आदमी के साथ एक दिक़्क़त है। आदमी ये मान कर बैठ जाता है कि मैं उससे अलग हूँ। यही सब से बड़ी अड़चन है। ये जो परम है, वह तुमसे अलग बिलकुल भी नहीं है। लेकिन ये कितनी मुसीबत की बात है। ‘हम! छिछोरी हरकतें करते हैं, हम परम हैं? ये कैसे हो सकता है? परम वहाँ कोने में बैठकर बीड़ी पी रहा है। ये कैसे हो सकता है?’ बिलकुल ठीक बात है। क्षण में तुम बीड़ी पी रहे हो, उस क्षण में तुम परम नहीं हो। तुम हो नहीं ही। जब तुम्हें साफ-साफ याद है, तब तुम हो।

जान रहे हो, तो हो। नहीं जान रहे हो, तो नहीं हो। इस जानने का अर्थ है- परम, *अल्टीमेट*। उसी का नाम है धर्म। जानना, साफ-साफ जानना। जो साफ-साफ जान रहा है, वो वही हो गया। और जो नहीं जान रहा, वह कुछ भी नहीं जान रहा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories