धर्म का पता नहीं, पर कट्टरता पूरी है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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धर्म का पता नहीं, पर कट्टरता पूरी है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते, सर! वर्तमान में यह देखा जा रहा है कि धार्मिक कट्टरता बहुत दिखाई दे रही है। चूंकि मेरा जन्म एक धर्म विशेष में हुआ है, और इसके कारण मेरी एक धार्मिक पहचान भी है। और इस पहचान के कारण जो एक दूसरा धर्मविशेष है, उसकी धार्मिक कट्टरता के कारण मैं अपनेआप को बहुत असुरक्षित महसूस करता हूँ।

तो इससे जुड़े मेरे दो प्रश्न हैं। पहला यह है कि 'मैं अपनी सुरक्षा के लिए यदि किसी संगठन के एक सदस्य के रूप में काम करता हूँ, तो वह कहाँ तक सही है?' दूसरा प्रश्न यह है कि 'वर्तमान में जो धार्मिक कट्टरता है, उसका हम आध्यात्मिक दृष्टि से कैसे सामना करें, या किस प्रकार से इसको दूर करें हम?'

आचार्य प्रशांत: धार्मिक कट्टरता से आशय क्या होता है हमारा? धर्म का मतलब तो होता है— स्वयं को जानना, जीवन को जानना। और जानकर समझना कि जीना कैसे है। अपने अंधेरे को, भ्रम को, बन्धनों को पहचानना और इस तरह जीना कि अँधेरा रोशन हो जाए, बन्धन ढीले हो जाएंँ, मन मुक्ति की ओर बढ़े, यह धर्म है।

अगर यह धर्म की मूल और एकदम सीधी-सादी परिभाषा है, तो यह धार्मिक कट्टरता क्या चीज़ होती है? जैसे कि कट्टरता धार्मिक हो सकती है! यह बात हुई धर्म के बारे में।

अब कट्टरता की क्या परिभाषा है? कट्टर माने क्या? यदि कट्टर माने वह, जो पूरी तरह से धर्मनिष्ठ है, धर्म को ही समर्पित है; तब तो कट्टर होने में कोई बुराई नहीं है। क्योंकि धर्म माने क्या? धर्म माने वो, जो जीने का सबसे सही तरीक़ा है। जो आपको सोचना चाहिए, समझना चाहिए, और अपने जीवन के प्रत्येक कर्म में ध्यान रखना चाहिए, सो धर्म है।

और अगर कट्टरता का मतलब है, धर्म को पकड़कर चलना, धर्म से चिपककर चलना, तब तो कट्टरता में कोई बुराई ही नहीं है। लेकिन अगर कट्टरता का कुछ और ही मतलब है, तो वो धार्मिक नहीं हो सकती। तो जब आप कहते हो धार्मिक कट्टरता, तो इन दोनों शब्दों में से ज़ोर किस पर है? इन दोनों शब्दों में से केंद्रीय कौन है? इन दो में से हाईलाइटेड कौन है? यदि धार्मिक है, तो कोई समस्या नहीं है। फिर उसको कट्टरता बोलो, बिगोट्री बोलो, फ़ण्डामेंटलिज़्म बोलो, कोई समस्या नहीं।

लेकिन अगर धार्मिक कट्टरता में मूल है, केंद्रीय है कट्टरता, और धर्म उसके साथ एक दुम की तरह, एक पुच्छल्ले की तरह जोड़ दिया गया है; तो फ़िर तो बड़ी गड़बड़ हो गई। फ़िर तो इसका मतलब है कि जीवन का केंद्र होना चाहिए था धर्म को, और केंद्र बना दिया कट्टरता को।

मैं बात को सुलझा पा रहा हूँ, या और उलझ गई?

जब हम कहतें हैं धार्मिक कट्टरता, तो हम किसको प्रमुख मान रहें हैं, धर्म को या कट्टरता को? अगर धार्मिक कट्टरता कहते हुए, कोई धर्म को प्रमुख रख रहा है, तो कोई बुराई नहीं हो गई न। क्योंकि धार्मिक तो जो भी चीज़ होगी, अच्छी होगी। धार्मिक कर्म अच्छा होगा, धार्मिक सम्बन्ध अच्छा होगा, धार्मिक संवाद अच्छा होगा। कुछ करें न करें, अगर करना या अकरना धार्मिक है, तो अच्छा ही होगा। जो कुछ भी धर्म के केंद्र से हो रहा है, वह शुभ ही होगा।

तो धार्मिक कट्टरता में भी अगर वास्तव में केंद्र पर धर्म ही बैठा है, तो बहुत अच्छी बात है धार्मिक कट्टरता। अगर आपकी कट्टरता, या जो भी है, अगर उसके केंद्र में सचमुच धर्म बैठा है तो कोई आपत्ति नहीं। फ़िर तो हम ये तक कह सकतें हैं कि 'हमारे ज्ञानी और ऋषि, और संत भी कट्टर ही थे।' कोई समस्या नहीं, अगर कट्टरता के केंद्र में बैठा हो धर्म।

लेकिन जब हम कहें, धार्मिक कट्टरता, और उसके केंद्र में बैठी हो कट्टरता, और धर्म उसके साथ बस यूँ ही जुड़ा हुआ हो एक सेवक की तरह; तो बड़ी समस्या हो जाएगी। फ़िर आदमी कट्टर है, और अपनी कट्टरता की चाकरी में लगा रखा है उसने धर्म को।

ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। एक बात है कि मैं धार्मिक हूँ, और मैं इतने हठ से धार्मिक हूँ - इसको धृति बोलते हैं। मैं इतने हठ से धार्मिक हूँ, मैं इतने प्रेम से, इतनी ज़िद से, इतने संकल्प से धार्मिक हूँ - कि मुझे धर्म से मेरे कोई डिगा नहीं सकता। तो इसको तो हम कह देंगे, धार्मिक कट्टरता। अगर ये है आपकी कट्टरता, तो बहुत अच्छी बात है। इसके केंद्र में क्या बैठा है?

हम बहुत बातें दोहराएँगे। ज़रूरी है दोहराना, क्योंकि एक बार में, कई बार नहीं पकड़ते हम।

धार्मिक कट्टरता के केंद्र में अगर सचमुच धर्म बैठा है, तो बहुत अच्छी बात है। हम कह रहें हैं, जीवन में आप कुछ भी कर रहें हों, उसके केंद्र में अगर धर्म बैठा है, तो वो ठीक ही होगा; वह ठीक लगे चाहे न लगे। लेकिन आपकी धार्मिक कट्टरता के केंद्र में अगर कट्टरता बैठी है, और कट्टरता को किसी तरह से जायज़ ठहराने के लिए, उसे वैध बनाने के लिए, उसे नैतिक एक चेहरा देने के लिए, आपने उस पर धार्मिकता डाल दी है, तो बड़ी गड़बड़ हो गई न अब?

आमतौर पर जो धार्मिक रूप से कट्टर लोग होतें हैं, वो कैसे होतें हैं? क्या वो सचमुच धार्मिक होतें हैं? अगर वो सचमुच धार्मिक हैं, तो कोई तकलीफ़ की बात ही नहीं, बल्कि शुभ है यह बात। लेकिन अगर वो कट्टर हैं, और कट्टरता के ऊपर बस धार्मिकता का आवरण चढ़ा रखा है, तो यह बहुत ख़तरनाक बात है। क्योंकि ऐसी कट्टरता अहंकार मात्र है—व्यक्तिगत अहंकार।

'मैं श्रेष्ठ हूँ, मेरा जीवन श्रेष्ठ है, मेरी बातें श्रेष्ठ हैं, मेरे विचार श्रेष्ठ हैं, मैं सबसे आगे रहूँगा। मैंने कुछ बोला है, तो ठीक ही होगा। मेरा सबकुछ श्रेष्ठ है। मेरा चेहरा सबसे अच्छा है, तो मेरा धर्म भी सबसे श्रेष्ठ है।' धर्म नहीं सबसे श्रेष्ठ है, 'मेरा' धर्म सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि वो 'मेरा' है। ये हुआ कट्टरता को केंद्र पर रखना।

कट्टरता केंद्र पर है, और वो अपनेआप से सम्बंधित जो कुछ है, उसको श्रेष्ठ ही बोले जा रही है। मेरे बच्चे सबसे श्रेष्ठ हैं; भले ही दिखाई देता हो कि स्कूल में बिलकुल फिसड्डी हैं, लेकिन फ़िर भी कहना यही है कि 'मेरे बच्चों से श्रेष्ठ कौन हो सकता है?'

'मेरे दादा जी! अरे! उनको पूरा प्रदेश जानता था। बड़े-बड़े ज्ञानी और सेठ, और नेता उनके दरवाज़े पर आया करते थे खड़े होने।' और यह बात हमेशा करी जाती है दादाओं-परदादाओं के बारे में, क्योंकि जब दादा-परदादा का समय आ जाता है तो इस बात की जांच-पड़ताल करने का कोई तरीका बचता नहीं; कुछ भी बोल सकते हो।

अतीत को गौरवान्वित करना बड़ी सुरक्षित चाल होती है, क्योंकि कोई पीछे जाकर के जाँच तो सकता नहीं न, कि तुम्हारे परदादा जी की हक़ीक़त क्या थी। और बात यह भी नहीं है कि परदादा जी से बहुत प्रेम है, या सम्मान है। मेरे परदादा हैं न, मेरे पूर्वज हैं, तो उन्हें श्रेष्ठ होना ही होगा क्योंकि मैं श्रेष्ठ हूँ।

कल तक मैं एक प्रांत में रहता था, उस प्रांत से अच्छा कौन हो सकता है? आज मैं दूसरे प्रांत में हूँ, उससे अच्छा कौन हो सकता है? कल तक मुझे एक ब्रांड पसंद था, वो श्रेष्ठतम था; उसके लिए मैं भिड़ जाता था लोगों से। आज मुझे दूसरा ब्रांड पसंद है, आज वो श्रेष्ठतम हो गया; उसके लिए मैं भिड़ जाऊँगा।

बात इसकी नहीं हैं कि पहला ब्रांड बेहतर था या दूसरा ब्रांड बेहतर है। बात इसकी है कि मेरा' ब्रांड है न! तो ऐसे ही मेरे पूर्वज, मेरा देश, और मेरा धर्म। धर्म से कोई लेना-देना नहीं। पूछो तो इन्होंने चार धार्मिक किताबें न पढ़ रखीं हों। मेरा है, तो इसलिए श्रेष्ठ है।

यही व्यक्ति अगर किसी कारण से धर्म-परिवर्तन कर ले, तो जो अगला धर्म होगा वो श्रेष्ठ हो जाएगा। फ़िर जो पिछले वाले थे, उनको मारना शुरू कर देगा। ये जब तक एक मौहल्ले में है, ये उस मौहल्ले के दबंग गैंग का हिस्सा होगा। और जब ये दूसरे मौहल्ले में चला जाएगा, तो ये कोई बड़ी बात नहीं कि वो अपने पिछले मौहल्ले वालों को ही पीटना शुरू कर दे।

कुछ आ रही बात समझ में?

ये व्यक्ति किसी देश का हिस्सा हो, उस देश का किसी वजह से दुर्भाग्यवश बंँटवारा हो जाए, तो पहले जिन शहरों को अपना बोलता था, आज बोलेगा कि इन शहरों पर बम गिरा दो। बात इसकी नहीं है कि वो शहर अच्छे से बुरे हो गए; बस वो शहर पहले मेरे थे, अब मेरे नहीं रहे।

कुछ भी दुनिया में न अच्छा है न बुरा है, अहंकार के लिए बस अपना और पराया है। अच्छे और बुरे को देखने की तो तमीज़ उसे होती ही नहीं। और अच्छे और बुरे को वाक़ई जानने के लिए एक निष्पक्षता चाहिए, एक तटस्थता चाहिए। वो निष्पक्षता अहंकार के लिए संभव ही नहीं है।

अच्छा और बुरा वास्तव में शुभ और अशुभ का पर्याय होगा न? सार और असार का पर्याय होगा न? अच्छा और बुरा सत् और असत् का पर्याय होगा न? सार और असार का भेद जानने के लिए क्या चाहिए सबसे पहले? विवेक।

अच्छे और बुरे का अंतर जानने को ही विवेक कहते हैं। साधारण भाषा में उसे अच्छा-बुरा कह देतें हैं। अध्यात्म की भाषा में उसे सत् और असत् बोल देंगे। सार और असार बोल देंगे। शुभ और अशुभ बोल देंगे। वो जानने के लिए विवेक चाहिए और विवेक अहंकार के पास होता नहीं। तो अच्छे और बुरे का भेद वो जान सकता नहीं, लेकिन फ़िर भी वो यही बोलता रहता है कि मेरा सबकुछ अच्छा है, और उसका अच्छा नहीं है; तो वह कैसे बोल देता है? जब वह वास्तव में जानता ही नहीं है कि क्या अच्छा क्या बुरा, तो वह बोल कैसे देता है? वो किसी को श्रेष्ठ और किसी को हीन जान कैसे लेता है? वो कुछ नहीं जानता। उसे कुछ जानने की ज़रूरत नहीं है।

अहंकार को जब फ़ैसला करना हो; क्या ऊँचा क्या नीचा, क्या अच्छा क्या बुरा, उसे कुछ जानने की ज़रुरत नहीं होती। उसे बस ये देखना होता है- क्या मेरा है, क्या नहीं।

उसके सामने आप रख देंगे—ये रखा है (गिलास) और ये रखा है (रूमाल)। बताओ इसमें से क्या अच्छा है क्या बुरा है? क्या ऊँचा है क्या नीचा है? क्या श्रेष्ठ है क्या हीन है? वो इनके पास जाकर के जाँच-पड़ताल करने का श्रम करेगा ही नहीं। उसे कुछ नहीं करना। वह कुछ नहीं जानना चाहता। वो बस ये पूछेगा, ये बता दो कि इन दोनों में से मेरा कौन सा है? जो मेरा है, वो ऊँचा है; जो मेरा नहीं है, वो नीचा है। बात ख़त्म! उसे कुछ नहीं जानना। ये है कट्टरता, जो धार्मिक चेहरा पहनकर बैठ जाती है।

कट्टर आदमी सिर्फ़ अपने धर्म को ही ऊँचा नहीं बोलेगा। उसके हिसाब से उसका पच्चीस साल पुराना स्कूटर भी आज के जंबो जेट से बेहतर है। ये बात वो हो सकता है खुलकर न बोल पाए, लोग भद्द पीट देंगे। पर दिल ही दिल में वो जानता है अच्छे से, कि बजाज मेरा पच्चीस साल पुराना, बोईंग पर भारी पड़ रहा है। उसको पूरा भरोसा है। उसके पास वो आँखें ही नहीं कि ज़रा दूर होकर, ज़रा निष्पकक्ष, निरपेक्ष होकर पूछ पाए कि सचमुच क्या अच्छा होता है, क्या बुरा। और सचमुच क्या अच्छा है क्या बुरा, इसी को जानने को धर्म कहते हैं।

तो वो कट्टरता जो अहंकार केंद्रित है, कभी धार्मिक हो ही नहीं सकती। कभी नहीं हो सकती।

तो धार्मिक कट्टरता का एक ही वाज़िब अर्थ हो सकता है, कि कोई धार्मिक है और अपने धर्म पर अडिग है। तब हमें धार्मिक कट्टरता से कोई समस्या नहीं। बिलकुल कोई समस्या नहीं। लेकिन निन्यानवे प्रतिशत मामलों में जिसको हम धार्मिक कट्टरता बोलते हैं, उसमें कट्टरता-कट्टरता खूब होती है; धर्म बिल्कुल नहीं होता। और धर्म होता भी है, तो हमने कहा, दुम की तरह होता है। कट्टरता के पास सौ दुमें होतीं हैं, वो सबको हिलाती रहती है। उनमें से एक दुम का नाम है- धर्म। क्योंकि कट्टर आदमी हमने कहा, उसके लिए सिर्फ़ उसका धर्म ही सर्वश्रेष्ठ नहीं है, उसका पुराना बजाज भी सर्वश्रेष्ठ है।

उससे पूछो कुछ भी उसके बारे में, कहेगा- 'हाँ! अभी परदादा जी मेरे! हाँ, सबसे ऊँचे वही थे। गाँव? अरे! हमारे गाँव से बेहतर कोई गाँव है! स्विट्ज़रलैंड में ऐसा गाँव नहीं मिलेगा। ये अलग बात है कि उसके गाँव में हर पाँचवें साल में प्लेग फैलता है, इतना गन्दा है।

यहाँ कट्टरता है, जो अपनी हर चीज़ को ऊपर रखना चाहती है क्योंकि वो अपनी है, अपनी, मेरा। उसे धर्म से कोई मतलब नहीं, बिलकुल कोई मतलब नहीं। उसके लिए एक ही चीज़ मायने रखती है— मैं। तो फ़िर वो धर्म के साथ भी ज़बरदस्त खिलवाड़ करता है। वो धर्म को हमने कहा, अपने सेवक की तरह इस्तेमाल करता है। वो धर्म का भी जान-बूझकर विकृत अर्थ करता है ताकि धर्म भी उसकी मान्यताओं पर, उसके अहंकार पर खरा उतर सके। वो यह नहीं कहता, 'मैं धर्म पर चलूँगा', वो कहता है, 'धर्म मेरे अनुसार चले।' ये है सामान्य कट्टरता। ये कट्टरता धार्मिक कहाँ से हो गई? ये तो धर्म को भी हम कह रहे हैं, अपना नौकर बनाकर रखती है।

आप देख नहीं रहें हैं, धर्म के नाम पर कैसा-कैसा दुष्प्रचार होता है? लोग पुराने श्लोक उठा लेते हैं, और उनके ऐसे अर्थ कर रहें हैं जिनका श्लोक से कोई सम्बन्ध ही नहीं। संस्कृत ज़्यादातर लोगों को आती नहीं। तो आज की जो मान्यता है, आज की मान्यता को सही साबित करने के लिए पुराने श्लोकों का विकृत अर्थ किया जाता है। ये है कट्टरता, जो धर्म को अपनी दुम की तरह इस्तेमाल करती है।

इस आदमी को धर्म भी प्यारा नहीं है। इस आदमी को जीवन में कुछ भी प्यारा नहीं है। इसको सिर्फ़ एक चीज़ प्यारी है। क्या? अहंकार, मैं। धर्म के भी जो हिस्से इसके ‘मैं’ पर आघात करतें हैं, ये उन हिस्सों को त्याग देता है।

अब इससे बड़ी रोचक स्थिति पैदा हो गई! क्योंकि धर्म का तो पूरा का पूरा काम ही है ‘मैं’ पर आघात करना। और एक कट्टर आदमी धर्म को इस्तेमाल करना चाहता है अपने नौकर की तरह; जबकि धर्म अगर आपके जीवन में होगा तो आपके मालिक की तरह होगा, आपके नौकर की तरह नहीं हो सकता। लेकिन इस आदमी को धर्म को अपने नौकर की तरह रखना है - मालिक है अहंकार, और नौकर है धर्म - तो फिर ये धर्म के साथ भी क्या करेगा? निश्चित रूप से वो सिर्फ़ कुछ हिस्सों को ही नहीं ख़राब करेगा धर्म के; वो धर्म को पूरा का पूरा ही तोड़-मरोड़ देता है। वही हो रहा है।

गीता का उल्टा अर्थ कर देगा, और जितनी भी धाराओं के जितने भी ग्रन्थ हैं, उनके उलटे-पुलटे अर्थ किये जाएँगे। या उसमें से सिर्फ़ चुन-चुन कर वो बातें उठाई जाएँगी, जो अपने आज के अहंकार को अनुकूल पड़ती हों। बाकी सब बातों को पीछे छोड़ दिया जाएगा। जो चीज़ कभी हुई ही नहीं, उसको प्रचारित किया जाएगा। जो बातें सचमुच हुईं, उनको दबा दिया जाएगा।

उनको क्यों दबा दोगे? उनको दबा इसलिए दोगे क्योंकि जो पुराने ऊँचे लोग थे, जिनसे धर्म की धाराएँ बहीं, उन्होंने तुम्हारी आज की मान्यताओं के अनुसार तो जीवन जिया नहीं कभी। लेकिन तुम्हारे लिए सत्य सर्वोपरि नहीं है, तुम्हारे लिए तुम्हारी मान्यता, तुम्हारा रिवाज़—वो सर्वोपरि है। तो तुम क्या करते हो फ़िर? तुम उन पुराने लोगों की भी फ़िर झूठी कहानियाँ, झूठा इतिहास लिखते हो। कहते हो, वो बिल्कुल वैसे ही जी रहे थे जैसा आज हम चाहतें हैं कि वो जीयें। फ़िर वो सचमुच कैसे थे, इस बात को छुपाने की पूरी कोशिश की जाती है।

समझ में आ रही है बात?

आज ही कहीं पढ़ रहा था, किसी ने फ़ॉरवर्ड करा कि ये देखिये! आजकल ये प्रचार चल रहा है। तो उसमें वो समझा रहे थे कि कृष्ण ने गोपियों के कपड़े इसलिए चुराए थे, ताकि समाज में संस्कृति का पतन न हो। कैसे? बोले, ये गोपियाँ गड़बड़ कर रही थी न, खुले में नहा रहीं थीं। अब कृष्ण तो चलिए सदाचारी व्यक्ति हैं, पर कोई लुच्चा-लफंगा, गुंडा आ जाता तो? और खुले में नहा रहीं हैं सब, और कपड़े अपने अलग रख दियें हैं, और सब घुसी हुईं हैं सरोवर में नग्न। तो कृष्ण ने उनको सबक देने के लिए चुराए कि 'देखो महिलाओं! सुशील, सदाचारी, सावित्री रहो। ये खुले में नहाना बिलकुल ठीक नहीं है।' ये है कट्टरता, जो धर्म को अपने सेवक की तरह इस्तेमाल करती है।

किन्हीं कारणों से इतिहास की धारा में चलते-चलते और बहुत सारे प्रभाव सोख करके, और बहुत सारी ठोकरें खाकर के, और बहुत दूषित होकर के, आज आपकी एक संस्कृति बन गई है। और आप चाहते हो कि उसी संस्कृति को सत्य मान लिया जाए। तो पुरानी भी जितनी बातें हैं, उन सब बातों को आप उसी संस्कृति के साँचें में ढाल रहे हो। ये है कट्टरता, जिसको धर्म से कोई लेना-देना नहीं। तो धार्मिक कट्टरता क्या है इसमें?

वास्तव में धार्मिक रूप से कट्टर तो वो व्यक्ति हुए जिन्होंने सच्चाई को पूरा जीवन समर्पित कर दिया, कई बार जान भी दे दी। उनको कहो कि वो कट्टर थे।

एक दफ़े मैंने फ़ण्डामेंटलिस्ट शब्द पर बोला। मैंने कहा, बहुत प्यारा शब्द है न। फ़ण्डामेन्टल माने- मूल, बुनियादी। उसमें क्या बुराई हो सकती है? अगर आप वाक़ई अपना जीवन मूल से सम्बंधित होकर जी रहें हैं, तो आपका जीवन बहुत हरा-भरा रहेगा। ठीक वैसे, जैसे जो वृक्ष अपने मूल से जुड़ा हुआ रहता है, वो हरा-भरा रहता है। रहता है न? तो फ़ण्डामेंटलिस्ट होना गलत कैसे हो सकता है?

लेकिन आप जिनको आज बोलते हो फ़ण्डामेंटलिस्ट, वो फ़ण्डामेंटालिस्ट हैं ही नहीं। क्योंकि उनको वास्तव में धर्म के फ़ंडामेंटल्स से, माने मूल बातों से, माने मूल सिद्धांतों से, माने मूल सरोकारों से, उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। उनको तो बस झंडा ऊँचा रहे हमारा! हमारा जो भी झंडा है, 'हमारा' ही सबसे ऊँचा रहेगा। मेरा हरा झंडा हो, मेरा पीला झंडा हो, मेरा सफ़ेद झंडा हो, मेरा भगवा झंडा हो, 'मेरा' ही झंडा सबसे ऊँचा रहे।

ये तो फ़ण्डामेंटलिज़्म है भी नहीं, ये तो वही है—कोरा, खोखला, अति प्राचीन, पाश्विक अहंकार। उसे अपने से जुड़ी हर चीज़ को ऊँचा बोलना है; इसलिए नहीं कि वो चीज़ ऊँची है, इसलिए क्योंकि वो चीज़ उसकी है।

और वो चीज़ अगर वास्तव में ऊँची हो गई - जोकि वो है। धर्म कि यदि बात करें तो, धर्म वास्तव में बहुत ऊँचा होता है - वो चीज़ अगर वास्तव में वो पकड़ना चाहे, तो उसकी पकड़ में आएगी भी नहीं; क्योंकि ये व्यक्ति स्वयं बहुत नीचा है। लेकिन इसे उस चीज़ को पकड़कर रखना है - वो भी स्वयं को प्रमुख बनाकर, स्वयं को प्रधान बनाकर - तो ये कभी ऐसा भी नहीं करता कि वो चीज़ जितनी ऊँची है, उतना ऊँचा ख़ुद भी उठ जाए। उस चीज़ को पकड़ने के लिए भी वो स्वयं ऊँचा नहीं उठता, उस चीज़ को नीचे गिराता है।

तो जिनको आप धार्मिक रूप से कट्टर लोग बोलते हो, ये तो धर्म को भी बर्बाद करते हैं ताकि धर्म इनकी मुट्ठी में रह सके।

समझ में आ रही है बात?

ये अब तीसरी-चौथी बार दोहरा रहे हैं, लेकिन समझना ज़रूरी है।

एक कट्टर आदमी होगा जो धर्म से सम्बंधित रहने के लिए अपनेआप को धर्म की ऊँचाइयों पर ले जाएगा- यह एक आदमी है। और दूसरा होगा जो धर्म से सम्बंधित रहने के लिए, धर्म को अपनी निचाईयों पर गिरा लेगा—यह दूसरा आदमी है। हम कह रहें हैं, हज़ार में से नौसौ-निन्यानवें लोग दूसरी श्रेणी के होते हैं। उन्हें स्वयं नहीं ऊँचा उठना, वो अपने तल पर धर्म को गिरा लेते हैं; और फ़िर उसी तरह के धर्म का वो प्रचार करते हैं। और यदि वो पाएँ कि कहीं पर वास्तविक धर्म का अनुष्ठान हो रहा है, तो उनको तकलीफ़ भी फ़िर बहुत होती है।

तो इसीलिए ये जो धार्मिक रूप से कट्टर आदमी है — एक और रोचक बात - ये वास्तविक धर्म का दुश्मन बन जाएगा। इसका मतलब यह नहीं कि अगर एक कट्टर मुसलमान है, तो वो हिन्दू धर्म का दुश्मन बन जाएगा। न! मैं कह रहा हूँ कि 'वो अपने ही धर्म का दुश्मन बन जाएगा।' क्योंकि उसके अनुसार और उसकी सुविधा में तो धर्म का वही संस्करण है, जो उसकी ही निचाई का है। अगर कहीं धर्म का कोई ऊँचा रूप चल रहा है, तो वो ऊँचा रूप उस धार्मिक आदमी के लिए ख़तरा है। ये उस ऊंँचे रूप को ख़त्म करेगा।

समझ में आ रही है बात?

इस प्रकार की कट्टरता - उदाहरण के लिए - जब बढ़ी पाकिस्तान में, अफ़ग़ानिस्तान में, तो वहाँ पर अन्य धर्मों के लोग तो वैसे ही नहीं थे। उन सबको मार दिया था, भगा दिया था। बहुत छोटी तादात में बचे थे वहाँ पर हिन्दू और सिक्ख। तो उन्होंने क्या किया? उन्होंने सब सू़फ़ियों का मार-मूरकर फ़िर ख़त्म कर दिया। क्योंकि सूफ़ियों का जो धर्म है, वो इन कट्टरपंथियों के धर्म से ऊपर का है।

अब सूफ़ी किसी अन्य धर्म के अवलम्बी नहीं हो गए, वो भी इस्लामी ही हैं; लेकिन उन्हें सूफ़ियों से भी समस्या थी। क्योंकि सूफ़ी इस्लाम के उस संस्करण पर नहीं चल रहे थे, जिसपर ये चलना चाहते थे।

तो ऐसा भी नहीं कि उन्हें अपने धर्म से भी प्रेम हो, उन्हें अपने धर्म के भी उस रूप से प्रेम है, जो उनके तल का हो। उससे ऊँचे तल का उन्हें अपने धर्म में भी कोई मिलेगा, तो उसको भी मार डालेंगे। और यह बात ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ मुसलामानों और इस्लाम पर लागू होती है, सब पर लागू होती है।

प्र: लेकिन आचार्य जी, मैं जो दूसरी श्रेणी के लोग हैं, उनकी बात नहीं कर रहा। वो तो जैसे आप व्यक्त कर रहे हैं, वैसे ही हैं। लेकिन मैं अपनी बात कर रहा हूँ कि उनकी ये जो अंधविश्वास है, धर्मांधता है, इसके कारण मुझे असुरक्षा महसूस हो रही है। अगर सीधे कहें तो मुझे जान का ख़तरा लग रहा है। तो ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए?

उनमें तो चेतना नहीं है, धर्मांध हैं वो तो, जड़बुद्धि हैं, लेकिन इस अवस्था में मैं अपने जीवन की रक्षा के लिए क्या करूँ? यदि इस अवस्था में मैं भी एक सात्विक भाव से एक संगठन बनाता हूँ, या संगठन का हिस्सा बन जाता हूँ, तो क्या ये सही है?

आचार्य प्रशांत: यह थोड़ा पता नहीं। हो सकता है कि आपकी कुछ स्थिति हो, मैं उसके विवरण जानता नहीं विस्तार से। पर जान का ख़तरा लग रहा है; ये थोड़ा-सा सुनने में मुझे विचित्र लग रहा है। भारत में मुझे नहीं लगता कि ऐसी स्थिति है, और है भी तो बहुत जगहों पर नहीं, कहीं इक्का-दुक्का ऐसा होगा। मुझे तो जान का ख़तरा लगेगा तो मैं सौ नंबर डायल करूँगा। मैं उसमें संगठन और ये सब काहे को करूँगा भाई?

कुछ बातें हैं, जो इस देश में अच्छीं हैं आधारभूत रूप से। उनमें से एक है इस देश का संविधान। दूसरे हैं यहाँ के क़ानून, जो कि सब संविधान के नीचे ही आतें हैं। हाँ, उन क़ानूनों का पालन न होता हो, वो अलग बात है। व्यवस्था सुचारु रूप से न चलती हो, वो अलग बात है। लेकिन अगर मैं ये सलाह देने लग जाऊँ कि जो भी व्यक्ति कहीं पर भी असुरक्षित महसूस कर रहा है, वो एक प्राइवेट मिलिशिया बना ले; तो यह तो बड़ी गड़बड़ बात हो जाएगी।

और इस तरह का कार्यक्रम चल चुका है पहले। बिहार में खूब चला था। वहाँ पर तथाकथित ऊँचे वर्गों की एक सेना होती थी, और तथाकथित नीचे वालों की एक सेना होती थी, और वो आपस में दनादन फायरिंग करते रहते थे। मुश्किल से अभी पंद्रह-बीस साल पहले तक की बात है।

है कोई बिहार से? स्मरण है न?

छत्तीसगढ़ में, झारखण्ड में, अभी भी वो चल ही रहा है, जहाँ पर जो लोग अपनेआप को ख़तरे में महसूस कर रहे थे, या वंचित महसूस कर रहे थे, उन्होंने अपनी सेना ही बना ली। अब जो-जो लोग कहें कि 'हमें अपने मौहल्ले में ख़तरा लग रहा है।' वो अपने-अपने गुट या सशस्त्र सेनाएँ बनाने लग जाएँ, तब तो चल चुका देश।

या आपको अगर ख़तरा लग रहा है, तो पुलिस किसलिए है? क़ानून व्यवस्था किसलिए है? कुछ अगर करना भी है, तो धरना प्रदर्शन करके या ज़ोर-आज़माइश करके, क़ानून व्यवस्था ठीक करने का प्रयास किया जाएगा न?

मैं यह सलाह कैसे दे दूँ कि 'चलो! सब लोग सशस्त्र रूप से संगठित हो जाओ, हथियार उठाओ।' ये सलाह देते ही तो फ़िर मेरे देश का क्या होगा? कैसे बचाएँगे उसके सौ टुकड़े होने से? और यह चीज़ बहुत जल्दी आतंकवाद में परिणित नहीं हो जायेगी, इसका क्या भरोसा है? क्योंकि जहाँ कहीं भी आतंकवाद शुरू होता है, शुरुवात उसकी ऐसे ही होती है, 'कि हम ख़तरे में हैं, इसलिए हमें हथियार उठाने पड़ेंगे।' कोई यह थोड़ी बोलता है कि 'हम हिंसक हैं, दूसरे को मारने के लिए हथियार उठा रहें हैं।'

जहाँ कहीं भी आतंकवाद फैला है, या विघटनकारी ताकतें खड़ी हुईं हैं, वहाँ यही बोलकर खड़ी हुई हैं न कि 'हमारे साथ अन्याय हो रहा है, हम ख़तरे में हैं; तो चलो हथियार उठाओ!' और फिर उन्होंने अपने अलग-अलग क्षेत्रों की, और अपने अलग देश की भी मांग कर दी है।

तो मैं इस मांग को अगर सुनने लग गया, तो फ़िर तो भारत देश ही ख़तरे में पड़ जाएगा।

ये मतलब विचित्र लग रहा है सुनने में! अब आप इसके विरुद्ध बहुत सारे तर्क दे सकते हैं, मुझे मालूम है। इस देश की अस्सी प्रतिशत आबादी को इतना बड़ा ख़तरा है? हम एक-प्रतिशत दो-प्रतिशत वाले अल्पमत अल्पसंख्यकों की बात नहीं कर रहें हैं, हम कह रहें हैं कि 'हर पाँच आदमी में से जो चार आदमियों का वर्ग है, उसे उस पाँचवें आदमी से बहुत बड़ा ख़तरा है।' तो ये जो चार लोग हैं, ये कह रहें हैं कि 'आओ गुटबंदी करें! आओ संगठित हो जाएँ! हथियार उठाएँ!' ये बात रोचक है। और, और ज़्यादा रोचक हो जाएगी अगर सच्ची हो।

मैं स्वीकार कर रहा हूँ कि मैं इन मामलों का विशेषज्ञ नहीं हूँ, कि मौहल्ला स्तर पर कौन किसका शोषण कर रहा है इत्यादि। लेकिन मैं यह कह रहा हूँ कि 'यदि यह बात सचमुच सही है, तो और रोचक हो जाएगी।' मैं उसमें ये भी जानना चाहूँगा कि 'वो पाँचवां आदमी कितना बलवान है कि चार-चार को?' बड़ा ज़बरदस्त होगा! बिलकुल रजनीकांत! कि चार खड़े रखें हैं, और चारों को धुन रहा है, धुन रहा है, धुन रहा है।

पाँच में से चार समझ रहे हो न? अस्सी प्रतिशत। और ये चार कैसे हैं, उन्हीं जैसे जिनको रजनीकांत धुनता है? उनकी शक्लें कैसी होतीं हैं? तो आप क्या बोलना चाहतें हैं, आपकी शक्ल उनके जैसी है जिन्हें रजनीकांत धुनता है? शर्म नहीं आती क्या ये बोलते हुए? कैसे लोग हो भाई? क्या हम इतने डर गए हैं? किससे डर गए हो? चार लोग डर गए हैं, एक पांँचवे आदमी से। कैसे हो?

नोआखली में दंगे हुए थे, महात्मा गाँधी वहाँ गए। और वहाँ पर यही हुआ था कि मुसलमानों ने हिंदुओं के घरों में आग लगा दी थी और उनको मार दिया था। और उस क्षेत्र से भगा दिया था, तो वो भाग गए थे। तो उसके बाद बोलतें हैं कि 'एक हिंदू होने के नाते, मैं आज साफ़-साफ़ कह रहा हूँ कि एक आम हिंदू कायर होता है और एक आम मुसलमान गुंडा होता है।'

ये सीधे-सीधे उनके शब्द हैं, उद्धृत कर रहा हूँ। (The common Muslim is a bully, and the common Hindu is a coward.) और फ़िर बोले आगे कि 'दोनों को शर्म आनी चाहिए। हिंदू को शर्म आनी चाहिए कि वह इतना कायर क्यों है। और मुसलमान को शर्म आनी चाहिए कि वह इतना गुंडा क्यों है।' महात्मा गांँधी के शब्द हैं।

अध्यात्म कायरता सिखाता है क्या? तो ये कायरता कहाँ से आ गई?

'असुरक्षित महसूस करता हूँ' (हँसते हुए)। वो भी तब जबकि दुनियाभर के सारे हिंदू एक ही देश में सघनता से मौजूद हैं। और कहीं ऐसा होता कि ये जो सौ, एकसौ दसकरोड़ हिंदू हैं दुनिया में, ये अस्सी देशों में बिखरे हुए होते, और हर देश में इनकी तादात दो-प्रतिशत पांच-प्रतिशत दस-प्रतिशत पंद्रह-प्रतिशत होती, तब ये क्या करते?

जहाँ ये अस्सी-बयासी प्रतिशत हैं, वहाँ तो ये कहते हैं, हम बड़े असुरक्षित हैं, बड़े असुरक्षित हैं। और कहीं पाँच-दस प्रतिशत होते तो क्या करते? कुछ नहीं होता। जहाँ पर एक-प्रतिशत हो, दो-प्रतिशत हो, वहाँ के तो तुम प्रधानमंत्री बनकर बैठ रहे हो। ऋषि सुनक! और जहाँ अस्सी-बयासी प्रतिशत हो, वहाँ कहते हो बड़ा ख़तरा है।

कैसे हो गया ख़तरा? या तो यह ख़तरा काल्पनिक है, और अगर काल्पनिक नहीं है तो बात और ख़तरनाक है। या तो यह ख़तरा सिर्फ़ एक कल्पना है, और अगर कल्पना नहीं है तो बड़ी कायरता है। ये कायरता क्यों है भाई? ये गीता का देश है न? हमारे पूज्य कृष्ण हैं न? तो जहाँ मूल बात ही यही थी कि लड़ जाना है— युध्यस्व! वहाँ ये कायरता कहाँ से आ गई कि हम अस्सी-बयासी प्रतिशत हैं, लेकिन फ़िर भी डरकर काँपे जा रहें हैं बिलकुल?

मुझे मालूम है, इसपर बहुत सारा प्रतिवाद आ सकता है। कहेंगे, देखिए! हम उस मौहल्ले की बात कर रहें हैं, जहाँ मामला अस्सी-बीस का नहीं है, पचास-पचास का है। हम बात कश्मीर की कर रहें हैं, देखिए क्या हुआ था हमारे साथ! हम बात केरल की कर रहें हैं।

अरे! आप कहीं की भी बात कर रहे हों, इंसान तो इंसान है न? एक-प्रतिशत दो-प्रतिशत भी बहुत होता है। सिख गुरुओं का देश है न यह? उनको भूल गए? वो कभी भी बहुमत में थे क्या? बहुमत में थे क्या? लेकिन वीरता कभी संख्याएंँ नहीं गिनती। वीरता तो कहती है, 'सवा लक्ख से एक लड़ाऊंँ।' और आप अस्सी-प्रतिशत होकर भी घबराते हो।

चलिए अस्सी नहीं हो, पचास-पचास हो। चलिए पचास भी नहीं हो, आप जहाँ रहते हो वहाँ आप तीस-प्रतिशत ही हो। सत्तर-प्रतिशत आपको लगता है कि आपके दुश्मन बैठें हैं सारे। तो तीस-प्रतिशत भी तो बहुत होता है। काहे को डर रहे हो? तीस-प्रतिशत कम होता है क्या? आप तीस-प्रतिशत होकर के घबरा रहे हो, और जिनसे घबरा रहे हो वह पंद्रह-बीस प्रतिशत हैं, तब भी आपके अनुसार वो आप पर चढ़े आ रहें हैं।

अध्यात्म मन को एक सहज साहस देता है। सहज साहस आक्रामक नहीं होता। सहज साहस में एक निर्भयता होती है, हिंसा नहीं। मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि 'सहज साहस में तो करुणा आ जाती है, कम्पैशन; झूठा आत्मविश्वास नहीं।' एक शांत, मौन, सहज साहस। जिसे कोई ज़रूरत नहीं है किसी दूसरे को अपना दुश्मन मानने की। और अगर कोई उस पर आक्रमण करता भी है, तो कहता है, ठीक है! बिना डरे सामना कर लेंगे।

आध्यात्मिक आदमी को न तो आप हिंसक पाओगे, कि वो दूसरे पर आक्रामक हो रहा है; न आप उसे डरा हुआ पाओगे। न वो डरता है, न वो डराता है। पर हम ऐसे लोग हैं, जो डरे हुए भी हैं और डराते भी हैं। डरे हुए हैं, तो फिर इसीलिए कोई अत्याचारी आकर के हमारा शोषण कर जाता है। और इतिहास में कितनी ही बार, बाहर से अत्याचारी आए और हमारा शोषण कर गए। क्योंकि हम डरे हुए लोग हैं।

और डरे हुए क्यों हैं? क्योंकि धरती भले ही ये कृष्ण की हो, पर कृष्ण की गीता से हमने कोई मतलब नहीं रखा। और जहाँ गीता नहीं है, वहाँ डर तो होगा न? तो हमारा शोषण भी हुआ, और हमने शोषण किया भी खूब है। हमने किसका शोषण किया किसका खूब? हमने अपने ही धर्म भाईयों का शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

बाहर वाले आकर के आपका शोषण करते रहे, तो आपने पलटकर के कहा कि 'मेरे ही घर के अंदर जो मेरे छोटे भाई-बहन हैं, जो कमज़ोर हैं, मैं उनका शोषण कर दूंँगा।' वाह!

और जिसको आप एक आम हिंदू सांस्कृतिक परिवार बोलते हो, उसकी आज भी लगभग यही दशा रहती है, कुछ अपवादों को छोड़कर। डरपोक से होंगे, घर-घुसने से होंगे। जो घर के मर्द लोग होंगे, वो ऐसे ही होंगे। बाहर वाला कोई आकर के ज़रा सा भी डांट दे, तो तुरंत घर के अंदर छुप जायेंगे। कहेंगे, 'आक्रमण हो गया, हम पर आक्रमण हो गया। खिड़की दरवाज़े बंद करो रे!' (हाँफने लगेंगे)।

लेकिन घर में ही जो कमज़ोर लोग होंगे, उनपर चढ़कर बैठेंगे। यही तो है न? और घर के ही उन कमज़ोर वर्गों को कभी हम कह देतें हैं, महिला है। कभी हम कह देतें हैं, नीची जात का है। जिनसे लड़ लेना चाहिए, उनसे लड़ने की हिम्मत नहीं; तो सारी दबंगई और सारी मर्दानगी किस पर दिखा दी? अपने ही भाईयों पर दिखा दी। उन्हीं का शोषण करते रहे, उन्हीं पर चढ़कर बैठ गए। उनके लिए हम बड़े दबंग निकले। और जिससे लड़ लेना चाहिए था, उसके सामने मैदान छोड़-छोड़ कर भागते रहे।

एक के बाद एक बर्बर, हिंसक, जाहिल और ज़ालिम दोनों, इस किस्म की सेनाएँ आती रहीं, और भारत को लूटती रहीं। और कुछ अपवादों को छोड़कर हम कभी उनका डटकर सामना नहीं कर पाए; परास्त करना तो दूर रहा।

सारी चौधराहट हमारी निकली किस पर? कि गाँव में उनका कुआंँ अलग बना दो, उनका मंदिर अलग बना दो, उनका शमशान अलग बना दो। इस चीज़ में हम बड़े हुनरमंद और बड़े ताकतवर निकले। वाह! क्या हुनर दिखाया!

आप ऐसे घर की कल्पना कर पा रहें हैं, जो एक औसत हिंदू सांस्कृतिक घर है, जहाँ बहुत एकदम सबकुछ सांस्कृतिक हिसाब से होता है, और उतना ही वहाँ डर भी है? अब ये मुझे तर्क मत देने लग जाइयेगा कि 'हमारा घर ऐसा नहीं है।' आपका घर ऐसा नहीं है, तो बधाई हो आपको। मैं खुद चाहता हूँ कि ऐसा घर किसी का न हो।

और यह मेरे लिए भी बहुत अफ़सोस की बात है कि इस तरह के बहुत घर होतें हैं, मैं उन घरों की बात कर रहा हूँ। एकदम सांस्कृतिक, वहाँ पर जो पिताजी और दादाजी हैं वो एकदम कड़क - और आमतौर पर जो टायर-टू टायर-थ्री सिटीज़ होती हैं, थोड़े छोटे शहर, और कस्बे और गाँव, वहाँ पर इस तरह के घर थोड़े ज़्यादा पाए जाते हैं। मेट्रोज़ में नहीं मिलेंगे इतने - तो पिता जी, दादा जी एकदम कड़क।

लेकिन छोटा शहर है, वहाँ पर सब ये दबंग और बाहुबली, और गुंडे किस्म के लोग भी मिलते हैं। यह सब चलता है छोटे शहरों में- भैयाजी दबंग! ये आपको बैंगलोर में थोड़ी मिलेंगे भैयाजी दबंगई करते हुए। कि पान चबा रखा है और खुल्ली जीप में बैठे हैं, एक टांग बाहर लटका रखी है, इधर उधर पीक मार रहें हैं। यह सब छोटे शहरों में ही रहता है, खासतौर पर उत्तर भारत में। तो इस तरह के दबंग जब आ जाते हैं, तो घर के पिताजी और दादाजी की क्या हालत होती है? 'आइए भैयाजी! आइए भैयाजी! चाय पियेंगे! का पियेंगे?'

अब भले ही वो जो दबंग आया है, वो अंदर आकर के भैयाजी की लड़की छेड़ जाए; पिताजी की, दादाजी की हिम्मत नहीं पड़ेगी कि वहाँ कुछ कर पाएँ। क्योंकि भाई वो शहर के, मौहल्ले के बाहुबली हैं न! उनके सामने मुंँह नहीं खुलेगा।

भैयाजी आए - और पिताजी-दादाजी वैसे घर के अंदर बड़े खूँखार हैं, लेकिन भैयाजी आए - और घर में आकर के घर की बेटी को छेड़ गए। पिताजी दादाजी कुछ नहीं कर पाएँगे। लेकिन जब वो चले जाएँगे वहाँ से भैयाजी, तो उसी बेटी को लगेंगे पीटने। कहेंगे कि तू सामने काहे आई? तू ही छीनाल है। और सामने आई थी तो पूरा परदा करके आती, एकदम पूरा ढककर आती। तेरा थोड़ा सा गला दिख रहा था न, इसीलिए भैयाजी उत्तेजित हो गए।

और मैं इतना बता दूंँ, इस घर में संस्कृति के लिए स्थान हो सकता है; उपनिषदों के लिए नहीं होगा, वेदांत के लिए और गीता के लिए नहीं होगा। हाँ, संस्कृति के लिए वहाँ पूरा स्थान होगा। एकदम संस्कारी घर होगा यह। जितनी भी उच्च संस्कार की चीज़ें हैं, सब वहाँ पाई जाएँगी। शुचिता का पूरा ध्यान रखा जाएगा। कोई भी तथाकथित गलत काम वहाँ नहीं होता होगा। सब रोज़ नहाते होंगे। एकदम धुले कपड़े पहनते होंगे। नियत समय पर पूजा-अर्चना, आराधना करते होंगे।

जितने भी संस्कारी तत्व हैं, वो सब वहाँ पाए जाएँगे। बस वहाँ आप ये नहीं पाएँगे कि दो लोग बैठकर के गीता को वास्तव में समझने का प्रयास कर रहें हैं। वो वहाँ आपको नहीं मिलेगा। और उसका नतीजा फिर यही होता है कि जब कोई बाहर से दबंग आता है, तो आप यह भी नहीं कर पाते कि अपनी बेटी की सुरक्षा भी कर पाएँ। और कायरता इतनी सघन कि फिर उसके जाने के बाद, पीटते भी आप-अपनी बेटी को ही हैं। और यही हुआ है।

देश के जिन हिस्सों पर सबसे ज़्यादा आक्रमण हुए, उन्हीं हिस्सों में आप पाएँगे कि महिलाओं का दमन आज सबसे ज़्यादा है।

ये मैं कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं सुना रहा था अभी। ये जो मैं कहानी बता रहा था, ये एकदम सांकेतिक थी। जो लोग जीवन को थोड़ा समझतें हैं, और जिन्हें इतिहास की कुछ समझ है, वो बिल्कुल पहचान गए होंगे।

सेक्स रेशिओ एट बर्थ जानते हैं न क्या होता है? कि बच्चे पैदा हो रहें हैं, तो उसमें लड़के और लड़की का अनुपात क्या है। वो देश में किन हिस्सों में एकदम कम है? ठीक उन्हीं हिस्सों में, जहाँ से वो बाहर वाले भैयाजी आए थे और खूब पीटे थे। पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा। इन्हीं जगहों पर सबसे ज़्यादा जो घर की लड़की है, उसका शोषण हुआ।

आप दक्षिण में जाइए, तो वहाँ की संस्कृति बहुत उदार है। दक्षिण भारत में, उत्तर भारत की अपेक्षा बहुत खुली, साफ़, और उदार संस्कृति है। आप बैंगलोर चले जाइए, पुणे चले जाइए, बंबई चले जाइए। वहाँ आप रात में तीन बजे भी पाएँगे कि लड़कियाँ आराम से अपनी पसंद की पोशाकें पहनकर सड़क पर घूम रहीं हैं, कोई उन्हें रोकने-टोकने वाला नहीं है।

और वहाँ, जो आप ये उत्तर भारतीय हिंसा होती है, वो भी नहीं पाएँगे। और जो उत्तर भारतीय ये जो ग्लांस होती है, कि कपड़े छेदकर के शरीर में घुस जाए; वो भी आपको दक्षिण में नहीं मिलेगी।

या मैं कल्पना कर रहा हूँ दक्षिण के शहरों के बारे में? कोई रहा है इन शहरों में, जिनकी बात करी मैंने? ठीक बोल रहा हूँ कि ग़लत?

यहाँ आप ज़रा ग़ाज़ियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, यहाँ तक कि दिल्ली में भी, या गुडगाँव में, आप रात में दो-तीन बजे टहलते हुए सड़क पर सुरक्षित अनुभव कर सकतीं हैं? बल्कि यहाँ पर तो कोई अगर लड़की हो और युवा हो, और सड़क पर टहल रही हो, तो दो-चार आकर के बगल में गाड़ी रोक देंगे, और पूछेंगे कि 'ऐ! रेट बता अपना।'

और आप बंबई चले जाइए, वहाँ आप देखेंगे कि यहाँ तो कुछ और ही है। लड़कों से ज़्यादा लड़कियाँ आराम से अपना टहल रही हैं। और वो जो जिन कपड़ों में टहल रही होती हैं, वो कपड़े पहनने की तो हिम्मत कर ही नहीं सकती है उत्तर की लड़की। उसने पहने नहीं हैं कपड़े, कि जितने पहने भी हैं उतने भी उतर जाएँगे। आसपास के सारे जो गिध्द हैं, सब आकर के नोच लेंगे। और इल्ज़ाम भी उसी लड़की पर लगाएँगे। कहेंगे कि 'यह है ही ऐसी, तभी तो ऐसे घूम रही थी। हमने कुछ ग़लत क्या किया?'

अध्यात्म आपको वो साहस देता है, जो आपको बड़े-से-बड़े दुश्मन के सामने निर्भीक बनाता है, और छोटों और कमज़ोरों के प्रति बहुत शांत और सहिष्णु बना देता है। आप ऐसे हो जाते हो कि सामने कोई मौत की तरह भी खड़ा हो, तो उसके सामने झुकोगे नहीं। और सामने कोई बिलकुल लाचार और दयनीय और कमज़ोर हालत में भी हो, तो आप उसका शोषण करोगे नहीं।

तब आपके सामने अगर कोई लाचार हालत में खड़ा हो, तो वह आपके लिए शोषण का नहीं कर्तव्य का अवसर बन जाता है। आप कहते हो, इस समय पर मौका तो मुझे मिला है, पर मौका मुझे ये नहीं मिला है कि मैं इसका शोषण कर दूँ; मौका मुझे यह मिला है कि मैं इसके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करूंँ। हाँ, यह है मौका। कोई मिल गया है कमज़ोर, अब यह मेरी ज़िम्मेदारी है।

और कायर, और अधार्मिक आदमी की पहचान यह होती है कि कोई मिल गया दबंग और बलशाली तो तुरंत उसके सामने हें-हेें-हें-हें! और जहाँ कोई कमज़ोर दिखा, उसपर चढ़कर बैठ जाओ। कोई बड़ा देश आक्रमण कर रहा हो, तो उसको जवाब देने की हिम्मत नहीं है; तो अपने ही देश में जो कमज़ोर वर्ग हैं, उनका कर डालो पूरा शोषण।

और शोषण करना है किसी का, तो पहले ये बताना पड़ेगा न, कि वही नालायक हैं। हम थोड़ी उसको मारने गए थे, वही आया था पहले हमको मारने। और मैं यहाँ किसी समुदाय का पक्ष लेकर नहीं बोल रहा हूँ। निश्चित रूप से नालायकी हर वर्ग में होती है। और मैं यह मानने को भी तैयार हूँ कि जो इस देश का अल्पसंख्यक है, हो सकता है कि वो ज़्यादा हिंसक हो बहुसंख्यक की अपेक्षा। ऐसा बिलकुल संभव है कि वहाँ शिक्षा कम हो, कट्टरता ज़्यादा हो, हिंसा ज़्यादा हो। ऐसा बिलकुल संभव है, मानता हूँ। लेकिन वहाँ जो है, सो है; मैं पूछ रहा हूँ कि 'हममें क्या है कि चार एक से डरे पड़ें हैं?'

यह जो बात बोली है, यह चुभेगी बहुत लोगों को। हो सकता है यहाँ पर आप बैठे हैं, आप लोगों को फ़िर भी स्वीकार हो जाए, क्योंकि यहाँ आमने-सामने बैठकर बात हो रही है। माहौल अभी यहाँ ऐसा है कि आप ध्यान से सुन पा रहें हैं, और सदभावना से समझ पा रहें हैं; यही बात जब छपकर लोगों तक पहुंँचेगी, तो बहुत तर्क आएँगे। और मैं नहीं कह रहा हूँ कि 'वो तर्क सब गलत होंगें।'

मैं कह रहा हूँ, मैं जो केंद्रीय बात कह रहा हूँ, वो समझे या नहीं? मेरे तर्कों को मत काटो। कोई भी तर्क काटा जा सकता है। मेरे भी सारे तर्क काटे जा सकतें हैं, पर जो मैं केंद्रीय बात कह रहा हूँ, वो समझे कि नहीं समझे? अध्यात्म आदमी को निर्भीक बना देता है। अपने जीवन में यदि आप भय पाएंँ, तो उसकी एक ही वजह होगी—सांस्कृतिक हैं आप, आध्यात्मिक नहीं हैं।

और संस्कृति भी बल्कि ऐसी पकड़ रखी है, जो अध्यात्म की कोई ज़रूरत ही नहीं मानती। वो कहती है, संस्कृति तो है न, वो काफ़ी है। और जब तक आप सांस्कृतिक बने रहेंगे और अध्यात्म से दूर रहेंगे, तब तक यह डर और आतंक मन में बना ही रहेगा।

मैं चाहता नहीं था यह सब बोलना, इसीलिए मैंने आपके प्रश्न के इस हिस्से का उत्तर नहीं दिया था। जो ज़्यादा सारगर्भित बात थी, वो मैंने पहले बोल दी थी। पर आपने दोबारा पूछा, तो मुझे बोलना पड़ा।

देखिए! जिससे कोई लेना-देना नहीं होता है न, आदमी उसके बारे में फ़िर कुछ बोलता भी नहीं है। इस राष्ट्र से प्रेम है, और गीता से प्रेम है; और आप सब अपनेआप को इसी राष्ट्र का बोलतें हैं, और गीता का बोलते हैं, इसलिए आपसे कुछ बातें कह देता हूँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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