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धन बढ़ रहा है, मन सड़ रहा है

Acharya Prashant

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धन बढ़ रहा है, मन सड़ रहा है

प्रश्नकर्ता: क्या भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज की दिन-प्रतिदिन हो रही दुर्गति का कारण घरों से आध्यात्मिक ग्रंथों का विलुप्त होना है?

आचार्य प्रशांत: हाँ, बिलकुल। देखिए, अगर हम बड़े प्रचलित अर्थों में अर्थव्यवस्था की बात करें तो भारतीय अर्थव्यवस्था की दुर्गति हो नहीं रही है। किसी अर्थशास्त्री से पूछेंगे तो वो कहेंगे कि दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से है भारत। और खासतौर पर पिछले तीस सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था तेज़ी से आगे बढ़ी है, प्रति व्यक्ति आय में इज़ाफ़ा हुआ है, गरीबों की संख्या और अनुपात दोनों कम हुए हैं। इस तरह की बातें हमें बताई जाएँगी। लेकिन इतना काफी नहीं है। बात को थोड़ा और गहरे में समझना होगा।

अर्थव्यवस्था माने क्या? व्यक्ति किसी चीज़ को मूल्य देता है, और वो जो चीज़ें होती हैं उन्हीं से अर्थव्यवस्था बनती है। या व्यक्ति किन्हीं सेवाओं को, सर्विसेज को मूल्य देता है और इन्हीं गुड्स (वस्तुओं) और सर्विसेज (सेवाएँ) की कुल कीमत और आदान-प्रदान से अर्थव्यवस्था चलती है, है न?

अब चीज़ों की और सेवाओं की कोई मूलभूत कीमत तो होती नहीं है। नहीं होती न? उनको मूल्य देता कौन है? कौन तय करता है कि पत्थर के एक टुकड़े की कीमत दो लाख रूपए होनी चाहिए? कौन तय करता है कि ज़मीन के एक टुकड़े, एक प्लॉट की कीमत एक करोड़ होनी चाहिए, क्योंकि वो जो प्लॉट है वो किसी बड़े बाजार, या शॉपिंग मॉल , या पॉश एरिया के निकट है, ये कौन तय करता है? क्या उस प्लॉट की मिट्टी में कुछ ख़ास है? क्या उस प्लॉट में खुदाई करें तो कोई हीरे-मोती निकलेंगे? उस प्लॉट की इतनी कीमत कैसे हो गयी? वो मूल्य किसने लगाया? वो मूल्य आपने और हमने लगाया।

तो अर्थव्यवस्था में जो चीज़ें होती हैं, गुड्स एंड सर्विसेज , उसमें किस चीज़ को कितना मूल्य दिया जा रहा है ये उन चीज़ों पर नहीं, हमारी जो आतंरिक मूल्य व्यवस्था है, वैल्यू सिस्टम है, उस पर निर्भर करता है।

अब यहाँ अध्यात्म का प्रवेश होता है। क्या हमें वाकई पता है कि दुनिया में कौनसी चीज़ कितनी मूल्यवान है? कैसे पता होगा, सवाल को आगे देखो। मूल्यवान किसके लिए होती है कोई चीज़? मेरे लिए होती है न। मेरे सामने ये पेन पड़ा है, ये रिकॉर्डर पड़ा है, मैं हूँ जो इनका मूल्य लगा रहा हूँ न? ये कागज़ पड़ा हुआ है, ये माइक भी है। मैं हूँ जो इनका मूल्य लगा रहा हूँ। और मैं किसी चीज़ का कोई मूल्य क्यों लगाऊँ? मूल्य की परिभाषा क्या है? मूल्य की परिभाषा है: किसी चीज़ को पाने के लिए मैं जो दाम चुकाने को तैयार हूँ उसे कहते हैं उसका मूल्य।

मैं किसी चीज़ को पाने के लिए कुछ क्यों दूँ भाई! (सामने रखी कागज को उठाकर बताते हुए) मैं इस कागज़ के टुकड़े को पाने के लिए सौ रुपए क्यों दूँ बताइए? मैं तभी दूँगा न जब मुझे लगेगा कि मैं जरूरतमंद हूँ, ग़रज़मंद हूँ। मैं अधूरा हूँ इस कागज़ के बिना। मुझे चाहिए ये और इसके बदले में तुम सौ रुपय माँग रहे हो, लो न भाई, ले लो।

तो मेरी जो अपनी आत्म छवि या आत्म परिभाषा है वो तय करती है कि मैं इस रिकॉर्डर को, इस माइक को, इस कुर्ते को, इस कलम को मैं कितनी तवज्जो दे रहा हूँ, कितनी कीमत, कितना मूल्य दे रहा हूँ। ठीक?

अब अगर मुझे पता ही न हो कि मैं कौन हूँ, तो फिर मुझे यह भी नहीं पता कि मुझे वास्तव में चाहिए क्या। अगर आदमी को आत्मज्ञान नहीं है तो वो क्या नहीं जानता? कि ‘मैं कौन हूँ?’ वो नहीं जानता ‘मैं कौन हूँ?’ तो फिर उसे ये भी नहीं पता कि उसे ज़रूरत किस चीज़ की है। जब वो नहीं जानता उसे ज़रूरत किस चीज़ की है तो किसी भी अंड-बंड चीज़ की वो बहुत ऊँची कीमत लगा सकता है। और किसी भी असली, महत्वपूर्ण चीज़ को हो सकता है वो कौड़ियों के मोल भी लेने को तैयार न हो। और यही हो रहा है अर्थव्यवस्था में।

अध्यात्म और अर्थव्यवस्था का अन्तर्सम्बन्ध समझिए। अर्थव्यवस्था में चीज़ें मूल्य पर चलती हैं। उदाहरण के लिए अगर आप देखते हैं कि शेयर मार्केट में सब शेयरों का मूल्य बढ़ता ही जा रहा हैं, बढ़ता ही जा रहा है, तो सम्भावना यही होती है कि अर्थव्यवस्था आगे ही बढ़ रही होगी, वरना मूल्य कैसे बढ़ रहा होता चीज़ों का।

मूल्य लगाने वाले हम। हमें क्या पता भी है कि कौनसी चीज़ की कितनी कीमत है? क्या हमें पता है? जब हमें नहीं पता कि कौनसी चीज़ की कितनी कीमत लगानी है तो अर्थव्यवस्था में ज़बरदस्त विकृतियाँ आती हैं। जो चीज़ें मूल्यवान हैं उन्हें कोई पूछने वाला नहीं होता, और जो चीज़ें बिलकुल धूल, कचरा बराबर हैं वो चीज़ें करोड़ों में बिक रही होती हैं।

तो जो लोग, जो देश आध्यात्मिक नहीं होंगे वहाँ आप पाएँगे कि भले ही अर्थव्यवस्था कई ट्रिलियन डॉलर की हो गयी है, पर वो जो ट्रिलियन डॉलर मूल्य है वो बहुत बेहुदा चीज़ों का लगाया जा रहा है। पचास ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था में क्या रखा है? आप और मैं और शेष विश्व ये महसूस करना शुरू कर दे, मान लीजिए, कि वहाँ नीचे जो कचरा पड़ा है वो बड़े काम की चीज़ है। मान लीजिए पूरे विश्व को कोई दिमागी कीड़ा लग जाए, हम सब बिलकुल ही दिमागी तौर पर दिवालिए हो जाएँ, बिलकुल बेवकूफ बन जाएँ। और हम यह फैसला कर लें आपस में, हम सबको एक ऐसी बीमारी लग गयी है कि हममें एक आपसी धारणा, एक आपसी सहमति आ गयी है कि जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या है? कचरा।

अब अचानक ये पाया जाता है कि वो जो सारा कचरा है वो मेरे ही मुल्क में, मेरे ही पिछवाड़े पड़ा हुआ है, तो अचनाक दुनिया का सबसे अमीर देश कौन हो जाएगा? मैं हो जाऊँगा। मैं एक देश हूँ, (श्रोतागण की ओर इशारा करते हुए) आप एक देश हैं, आप एक देश हैं, आप एक देश हैं और हम सब लोग भीतर से बिलकुल मूर्ख, पागल, विक्षिप्त हुए पड़े हैं। हमने जीवन के कचरे को जीवन का वैभव मान रखा है, मान लीजिए, ठीक है?

और फिर खोज होती है, खुदाई होती है और मैं, जो एक देश हूँ, मेरे पिछवाड़े में दस किलो कचरा निकलता है। दस किलो कचरा निकलता है तो मैं क्या कहलाने लग जाऊँगा? दुनिया का सबसे समृद्ध राष्ट्र। और ये बात सिर्फ मैं नहीं कह रहा, ये बात सब मानेंगे। चूँकि सब मानेंगे, इसीलिए जो बात मैं कह रहा हूँ स्थापित हो जाएगी, कि ‘हाँ साहब, ये तो दुनिया के सबसे समृद्ध राष्ट्र हैं क्योंकि इनके पास बहुत सारा है।’ क्या बहुत सारा है? कचरा।

और जो असली अमृत होगा जीवन का वो हो सकता है कहीं और हो, और उस अमृत का कोई लेनदार नहीं, उसका कोई कद्रदान नहीं, उसका कोई मूल्य लगाने वाला नहीं, तो अर्थव्यवस्था की दृष्टि से वो देश क्या कहलाएगा? अविकसित, पिछड़ा हुआ। उसको कहेंगे “ये तो गरीब मुल्क है, गरीब मुल्क है।” अरे भई, किस आधार पर गरीब है ये तो बताओ? तुम कहते हो तुम अमीर देश हो। तुम किस आधार पर अमीर हो, ये बताओ। तुम्हारे पास ऐसा क्या है जो मूल्यवान है?

और अगर इस बात का विवेकपूर्ण आँकलन किया जाए कि जो देश अपने-आपको समृद्ध कहते हैं उनके पास ऐसा क्या है जिसको वो अपना धन, अपना वैभव माने बैठे हैं, तो बड़े चौकाने वाले परिणाम सामने आएँगे। क्योंकि, फिर भूलिए नहीं, बुनियादी बातें हम अक्सर भूल जाते हैं, वो जो चीज़ है जिसको मैं मूल्य दे रहा हूँ, जिसको मैं बोल रहा हूँ कि यह फलानि चीज़ सौ करोड़ की है, वो सौ करोड़ की चीज़ उतने मूल्य का किसके लिए है? मेरे लिए है न। माने मेरे लिए, मेरे जीवन में उसकी इतनी उपयोगिता होनी चाहिए कि मैं उसकी खातिर सौ करोड़ खर्च कर दूँ। क्या वास्तव में मेरे जीवन में उसकी इतनी उपयोगिता है? यह सवाल हम पूछते नहीं।

वास्तव में वो चीज़ अगर मेरे जीवन में आ जाए, तो क्या मुझे मेरे सब तनाव से, भय से, आतंरिक खोखलेपन से, सूनेपन से, अकेलेपन से मुक्ति दिला देगी? नहीं, दिला तो नहीं देगी। तो फिर वो सौ करोड़ की है क्यों? आप कह रहे हो “साहब ये चीज़ सौ करोड़ डॉलर की है।” मैं कहता हूँ “ठीक है, मैं सौ करोड़ डॉलर दे रहा हूँ इस चीज़ के लिए, लीजिए।” वो चीज़ आ गयी अब मेरी ज़िन्दगी में। उसके आने से क्या मेरा अंतर्दाह शमित हो गया?

भीतर लपटें अभी भी लगी ही हुई हैं, धुआँ अभी भी उठ ही रहा है, सपने अभी भी खौफनाक ही आते हैं, अकेलापन काटने को दौड़ता है। हिंसा, ईर्ष्या, मोह, कामना पीछा छोड़ नहीं रहे हैं, तो फिर उस सौ करोड़ की चीज़ से मुझे मिला क्या? क्या लाभ हुआ मुझे उस सौ करोड़ की चीज़ से? पर वो चीज़ तो मेरे पास आ गयी है पर उससे लाभ मुझे हुआ नहीं, तो क्या उस चीज़ की कीमत सौ करोड़ होनी भी चाहिए थी? नहीं। वो चीज़ दो कौड़ी की है पर मैं अपने अज्ञान में उस पर ठप्पा लगा रहा था सौ करोड़ का। तो जहाँ अज्ञान है वहाँ अर्थव्यवस्था में ज़बरदस्त विकृतियाँ होंगी। जो चीज़ बिलकुल पाने लायक नहीं है वो चीज़ लाखों में बिक रही होगी, और जिन चीज़ों का बहुत मूल्य है उन चीज़ों का, मैंने कहा, कोई लेनदार नहीं होगा।

अगर आदमी ज्ञान के आधार पर चल रहा है तो वो किन चीज़ों को मूल्य देगा अर्थव्यवस्था में? वो उन चीज़ों को मूल्य देगा जिनके पाने से उसके जीवन में वास्तविक शान्ति आती होगी।

भई, भौतिक पदार्थों का हमारे जीवन में कुछ योगदान तो है ही न। और अर्थव्यवस्था भौतिक पदार्थों पर ही चलती है, भौतिक पदार्थों को ही मूल्य देती है। कौनसी चीज़ है जिसको पाने के लिए मुझे धन खर्च करना चाहिए? वो कौनसा पार्थिव, भौतिक, भोग्य पदार्थ है जो मेरे पास होना चाहिए, जिसके ख़ातिर मैं कहूँ कि “लीजिए साहब, इतना धन लीजिए, पर ये चीज़ मुझे दे दीजिए।” मुझे उस चीज़ पर पैसा खर्च करना होगा जो चीज़ मुझे मेरे आतंरिक बंधनों से छुटकारा दिलाती हो।

एक सही अर्थव्यवस्था में सही चीज़ों का मूल्य होगा। एक गलत अर्थव्यवस्था में बेहूदी, भद्दी, कचरा चीज़ों का बहुत ज़बरदस्त मूल्य होगा। दुनिया की अभी जो पूरी अर्थव्यवस्था है वो ऐसी ही है।

सबसे ज्यादा महंगी चीज़ों की ओर देखिए और अपने-आपसे पूछिए कि कोई इस चीज़ के लिए करोड़ों क्यों खर्च करना चाहता है। तो आपको समझ में आएगा वो आदमी बीमार है। उसको पता ही नहीं है कि कौनसी चीज़ पर खर्च करना चाहिए, कौनसी चीज़ पर नहीं। वो चीज़ का मूल्य नहीं जानता क्योंकि वो अपना मूल्य नहीं जानता। वो अपने-आपको नहीं जानता तो उसे पता ही नहीं है उसे चाहिए क्या, तो वो किसी भी चीज़ का मूल्य कर रहा है।

इसी तरीके से आपने कहा है कि क्या समाज की दुर्गति का कारण आध्यात्मिक ग्रंथों का विलुप्त होना है। समाज पर भी एक तरीके से वही बात लागू होती है जो अर्थव्यवस्था पर लागू होती है। समाज क्या है? लोग एक दूसरे से सम्बंधित होते हैं। हम कैसे तय करते हैं कि हमें किससे संबंधित होना है, कैसे संबंधित होना है? हम कैसे तय करते हैं कि हम जो समाज बना रहे हैं उसके नियम-कायदे क्या होंगे? हम कैसे तय करते हैं कि हमारा नेता कौन होगा? ये सब बातें हमें कैसे पता? हमसे सम्बंधित कोई भी बात हम निश्चित कर पाएँ उसके लिए पहले आवश्यक है कि पहले हमें हमारा पता हो न। उदाहरण के लिए अगर मैं नहीं जानता कि मैं वास्तव में कौन हूँ और मेरी आत्यंतिक ज़रूरत क्या है, आवश्यकता क्या है, तो क्या मैं यह जान पाऊँगा कि चुनाव में मुझे किस नेता को वोट डालना चाहिए? तो हो गयी न समाज की दुर्गति।

जैसे आत्मज्ञान के अभाव में अर्थव्यवस्था विकृत हो जाती है, ठीक वैसे ही, समझने में और आसान होना चाहिए कि, आत्मज्ञान के अभाव में समाज भी विकृत हो जाएगा। मुझे नहीं पता होगा, उदाहरण के लिए, कि मुझे कौनसी शिक्षा लेनी चाहिए। तो पढ़े जा रहे हैं, पढ़े जा रहे हैं। क्यों पढ़े जा रहे हैं? वो सब पढ़ रहे हैं तो हम भी पढ़ रहे हैं, या कुछ और करने को जीवन में नहीं था तो हम पढ़ने बैठ गए। और सालों साल बिता दिए पढ़ने में। और ये सामाजिक गतिविधि ही है न, शिक्षा का आदान-प्रदान? ऐसे ही होगा फिर। नौकरी कोई कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं आप वो नौकरी? अब नौकरी सब समाज में ही हो रही है न। आप वो नौकरी क्यों कर रहे हैं? पता नहीं। सब नौकरी कर रहे हैं। पेट तो चलना ही होता है। घर पर पत्नी है, बच्चे हैं तो हम भी नौकरी कर रहे हैं।

विवाह किया क्यों? एक सामाजिक संस्था है न विवाह। विवाह किया क्यों? हम नहीं जानते, सब करते हैं हमने भी कर लिया। उम्र हो गयी थी। मानसिक, शारीरिक ज़रूरतें थीं, विवाह कर बैठे। अब ऐसा समाज कैसा होगा, उसमें किसको शान्ति मिलने वाली है, वहाँ किसका कल्याण होने वाला है? भई, ले-देकर समाज व्यक्तियों का ही तो समूह है न। और व्यक्ति ही अगर अपने प्रति अँधेरे में है, तो समाज की दुर्गति तो होगी ही। व्यक्ति अपने प्रति अँधेरे में न रहे इसलिए आध्यात्मिक ग्रन्थ होते हैं।

प्रश्नकर्ता ने बिलकुल ठीक संकेत किया है कि ये जो अवनति हो रही है उसका कारण ही यही है कि हम अध्यात्म से, आध्यतमिक ग्रंथों से दूर, दूर और दूर होते जा रहे हैं। समस्त विश्व को, खासकर भारत को, इस समय एक आध्यात्मिक क्रांति की आवश्यकता है। और किसी भी चीज़ से ज़्यादा हमें आध्यात्मिक क्रांति की ही आवश्यकता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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