आचार्य प्रशांत: नवदुर्गा का आरंभ हो चुका है और उचित ही है कि इस काल में हम पूरे ध्यान, पूरे समर्पण के साथ देवी-विषयक चर्चा करें। मैं संदर्भ को थोड़ा व्यापक रखना चाहूँगा ताकि हम बात को बिल्कुल मूल से समझ सकें और जितने भी लोग यहाँ उपस्थित हैं, सब से आग्रह रखूँगा कि एकदम साथ-साथ चलें, पूछते चलें, स्पष्टीकरण माँगते चलें। उससे आप लोगों को भी और बाद में भी जितने लोग इस चर्चा को देखेंगे और सुनेंगे, सबको सुविधा रहेगी।
तो ‘देवी’ शब्द जब हमारे कान में पड़ता है तो हमें सबसे पहले ध्यान आता है मंदिरों में जो हमने देवियों की मूर्तियाँ देखी हैं, जिनकी हमने उपासना करी है, आरतियाँ की हैं। पर देवी की उपासना जितना हम सोच सकते हैं, उससे कहीं ज़्यादा पुरानी है। मातृशक्ति में कुछ ऐसा रहस्य रहा है मानव चित्त का, देवी शक्ति, माँ, मातृदेवी या मातृशक्ति के प्रति कुछ ऐसा खिंचाव रहा है कि मानवीय चेतना के लगभग आरंभ से ही मनुष्य किसी-न-किसी रूप में मातृशक्ति का उपासक रहा है।
जो पुरापाषाण काल है, पेलियोलिथिक एज , जिसमें हमारा निन्यानवे प्रतिशत इतिहास है, अभी बारह-चौदह हज़ार साल पहले तक हम उसी काल में थे। पुरापाषाण काल, ओल्ड स्टोन एज , उसमें भी हम पाते हैं कि मनुष्य नारी शक्ति का उपासक रहा है। और अगर हम सिर्फ़ सीधे-सीधे विज्ञान और इतिहास की दृष्टि से देखें तो उस काल में तो कोई संगठित या व्यवस्थित धार्मिक परंपरा भी नहीं थी। मनुष्य की चेतना जैसे प्रकृति के गर्भ से बाहर आकर बस अपनी नन्हीं आँखें खोल ही रही थी। सनातन धर्म था पर कोई धार्मिक व्यवस्था या परंपरा नहीं थी।
देखिए, सनातन धर्म का संबंध किसी ग्रंथ, शास्त्र, समुदाय या संप्रदाय से नहीं होता, उसका संबंध तो चेतना मात्र से होता है। चेतना का चैन, विश्राम और मुक्ति के प्रति सहज, स्वाभाविक आकर्षण ही सनातन धर्म है।
वो तो तब था। लेकिन आप पूछेंगे यदि क्या कोई तब धर्म ग्रंथ थे, शास्त्र इत्यादि थे? तो उसका सत्यनिष्ठ उत्तर तो यही होगा कि नहीं थे। नहीं थे, लेकिन फिर भी मनुष्य की चेतना नारी की उपासना कर ही रही थी।
और मैं तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूँ, आपको एक आँकड़ा देता हूँ, शायद आपको थोड़ा आश्चर्य होगा। जो आज से पच्चीस-तीस हजार साल पुराने या पचास हज़ार साल पुराने भी गुहालेख मिले हैं, या गुहा चित्र मिले हैं या थोड़ा और इतिहास में आज के निकट आ जाएँ तो जो भित्ति चित्र मिले हैं, उनमें नारी प्रतीकों की संख्या पुरुष प्रतीकों की अपेक्षा दस गुना ज़्यादा है। और यह बात उन गुहा वासियों को, वो जो केव ड्वेलर्स थे, उन गुहा वासियों को किसी ग्रंथ ने नहीं सिखाई थी, किसी नैतिकता ने नहीं सिखाई थी कि स्त्रियों का सम्मान करो या स्त्रियों में कोई विशेष शक्ति है, उसका पूजन करो, नमित रहो। न, किसी ने सिखाया नहीं।
लेकिन मनुष्य की चेतना ही लगातार मातृशक्ति से कुछ आकर्षित भी रही है, कुछ डरती भी रही है। उसी के पास जाती है कि मुझे पाल लो, उसी के पास जाती रही है कि मेरे दुष्टों को संहार दो, मेरे दुष्ट शत्रुओं को। मुझे कष्टों से मुक्ति दो। और यह भी साथ-ही-साथ मानती रही है कि अगर मनुष्य पर कष्ट आया है तो इसलिए आया है क्योंकि मातृदेवी कुपित हो गई हैं।
तो वह जो मातृशक्ति है, उसी को मनुष्य ने अपने कष्टों का भी कारण माना है और कष्टों से छुटकारे का भी। और यह बात आज की नहीं है।
नवरात्रि का उत्सव आज है, पर मनुष्य की चेतना में नारी शक्ति के प्रति जो रहस्यात्मक आकर्षण है, वो मैं कह रहा हूँ, चेतना के आरंभ से ही है। कुछ आ रही है बात समझ में?
तो अगर वो जो पुरानी खुदाइयाँ होती हैं, जो पुराने सब हमको पुरातत्व प्रमाण मिलते हैं, आर्किओलॉजिकल एविडेंस , उसमें क्या होता है? उसमें जैसे जानवर की हड्डी ली गई, उस पर क्या करा? खुदाई करके कुछ बना दिया, या गुफा के अंदर पत्थर पर कुछ खुदाई करके बना दिया या सामान्य बाहर कोई पत्थर है, उस पर कुछ कर दिया। भाषा का विकास तो तब हुआ नहीं था पर संकेत चलते थे, प्रतीक चलते थे, वह भाषा का बिल्कुल प्राचीन, आरंभिक, प्राइमोर्डियल रूप था। और उसमें हम पाते हैं कि जो नारी प्रतीक हैं, वो बहुत ही ज़्यादा हैं। जबकि जो हमारी सामान्य दृष्टि है, वो यह कहेगी कि उस समय तो मनुष्य बहुत पाशविक हुआ करता था।
सभ्यता-संस्कृति का तो अभी आरंभ भी नहीं हुआ था तो उस पाशविकता के चलते मनुष्य को तो बस बाहुबल की पूजा करनी चाहिए थी। और बाहुबल तो स्त्रियों में कभी रहा नहीं। लेकिन उस समय भी मैं कह रहा हूँ कि जब सभ्यता बस जन्म लेकर करवट बदल रही थी, उस समय भी मनुष्य उपासक नारी का ही रहा है। जिसको आप ईश्वर मान लें या उस समय जैसे भी देखा जाता रहा हो, कोई ऊँची सत्ता, उसकी परिकल्पना अधिकांशतः फेमनिन रूप में थी, नारी के रूप में। तो यह तो हुई बहुत पुरानी बात।
फिर जो नियोलिथिक एज है, पेलियोलिथिक एज के बाद, जिसे नवपाषाण काल बोलते हैं, जो दस-बारह हजार साल पहले शुरू हुआ, उसमें भी यह बात आगे बढ़ती रही। हमें उसमें भी इसी तरह के चिह्न और प्रमाण देखने को मिलते हैं कि मनुष्य के मन में — उसको आप मातृत्व बोल दो, नारीत्व बोल दो, स्त्रीत्व बोल दो, फेमिनिटी बोल दो, जो भी बोल लो, उसके प्रति एक चुंबकीय आकर्षण था कि बात क्या है, बात क्या है। वह उसकी ओर, मैं कह रहा हूँ, आकर्षित भी होता था, उससे डरता भी था और अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए उससे वरदान भी माँगता था, उसके सामने झुकता भी था।
बड़ा ही एक जटिल सा रिश्ता है। इसको किसी एक दृष्टि से ही देखकर आप पूरा नहीं समझ पाएँगे। और उस रिश्ते की बात, उस संबंध की बात मैं आज भी इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि अपनी चेतना में आधारभूत रूप से हम आज भी हैं वही जो आज से पच्चीस हजार साल पहले या तीन लाख साल पहले हुआ करते थे। इसीलिए देवी विषयक चर्चा आज भी बहुत प्रासंगिक है।
क्या है हमारे भीतर जो हमें देवी की ओर आकर्षित करता है? हम जैसे-जैसे इस चर्चा में आगे बढ़ेंगे, एक-के-बाद एक तहें खुलती जाएँगी, बात स्पष्ट होती जाएगी। और मैं उम्मीद करता हूँ कि यह चर्चा मात्र चर्चा नहीं रहेगी। यह हमारी चेतना को वही ऊँचाई देने का माध्यम बनेगी जिसकी खोज में, जिसकी तलाश में मानव अपनी शुरुआत से आज तक रहा है।
तो मैंने कहा कि यूरोप हो, चाहे उत्तरी एशिया हो, यूरोप में बहुत जगहों पर खुदाइयाँ हुई हैं। और मैंने कहा कि वहाँ से हमें मातृशक्ति संबंधित प्रतीक मिलते हैं, पुराने फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, इटली और एशिया में रूस से। फिर हम और आगे बढ़ते हैं तो हम आते हैं जो हमारी आदिकालीन सभ्यताएँ थी उनकी ओर, और उनमें भी हम पाते हैं कि देवियाँ या गॉडेसेस लगातार अपना स्थान बनाए ही हुए हैं।
कभी-कभी ऐसा हुआ है कि जैसे-जैसे लहरें उठती हैं गिरती हैं न, वैसे किसी जगह पर किसी काल में देवियों को जो स्थान दिया जा रहा है, वो अचानक ऊँचाई पा गया हो और फिर ऐसा हो सकता है कि किसी सभ्यता, किसी काल में वो थोड़ा सा निचाई पा गया हो। तो यह सब ऊँचाई-निचाई, एब एंड फ्लो , यह चलता रहा है, लेकिन मातृशक्ति का महत्व निरंतर रहा है। ऐसा नहीं हुआ है कभी भी मानव के इतिहास में कि मातृशक्ति की संपूर्ण अवहेलना या उपेक्षा ही हो गई हो।
भारत की ओर अगर आएँ तो सबसे जो प्राचीन ग्रंथ है हमारा, जिसको हम मानवकृत भी नहीं मानते, अपौरुषेय कहते हैं—ऋग्वेद, ऋग्वेद में भी दसवें मंडल में आपको 'देवी सूक्त' और 'रात्रि सूक्त' मिलते हैं, एकदम आरंभ में ही। हम आरण्यकों की बात नहीं कर रहे हैं, हम उपनिषदों की बात नहीं कर रहे हैं, हम कह रहे हैं कि उनसे सबसे पहले ऋग्वेद में हमें और ये जो देवी सूक्त हैं, रात्रि सूक्त हैं, आप समझ ही गए होंगे कि ये पूरे तरीके से मातृशक्ति को समर्पित हैं। 'अहम् ब्रह्मास्मि' जो श्रुति का मूल वाक्य है, उपनिषदों का महावाक्य है, उसकी जैसे पहली उद्घोषणा ही उपनिषदों से पूर्व ही हो चुकी हो। तो ऋषि की पुत्री थीं 'वाक्' नाम से। उन्होंने विशुद्ध अद्वैत की अवघोषणा देवी सूक्त में कर दी है ऋग्वेद के दसवें मंडल में ही।
तो यह भी हम नहीं कह सकते हैं कि भारत में देवी उपासना हाल की बात है या वेदों के बाद के समय का सिद्धांत है, कांसेप्ट है। नहीं, ऐसा नहीं है। जैसे पूरी दुनिया में आरंभ से ही नारी शक्ति को पूजनीय महत्व दिया गया, वैसे ही ऋग्वेद में भी आरंभ से ही नारी शक्ति को महत्व दिया जा रहा है। समझ में आ रही है बात?
अब वेदों को ही आधार बना करके फिर हिंदू धर्म में संप्रदायों का उदय होता है वैदिक काल के बाद। ठीक है न? वैदिक काल भी कोई छोटा-मोटा नहीं था, एक हजार वर्ष से ज़्यादा समय का था वैदिक काल। वेदों की जो पूरी उत्पत्ति है और उनका जो पूरा विस्तार है, उन्होंने एक क्षण में नहीं पा लिया। तो यह जो अलग-अलग संप्रदाय आते हैं, ये कहने को सब अलग-अलग हैं लेकिन ये सब श्रुति को ही अपना पहला प्रमाण मानते हैं, ये सब वेदों को ही मूलभूत मान्यता देते हैं।
तो शैव हैं, वैष्णव हैं, स्मार्त हैं, शाक्त हैं, गाणपत्य हैं, महानुभाव संप्रदाय हैं, फिर थोड़ा और इधर निकट आ जाएँ तो दादूपंथी हैं, कबीरपंथी हैं। जो प्रमुख हैं, वो तीन माने जाते हैं। कौन-कौन से? शैव, वैष्णव और शाक्त। और तीनों की उत्पत्ति हैं वेदों से ही। इन तीनों की उत्पत्ति वेदों से ही है। तीनों अपने केंद्र पर सत्य के अलग-अलग रूपों को रखते हैं। तो शैव जैसा आप समझ ही रहे होंगे सत्य के शिव रूप को अपने केंद्र पर रखते हैं। वैष्णव सत्य के विष्णु रूप को अपने केंद्र पर रखते हैं। और शाक्त सत्य के नारी रूप को या शक्ति रूप को या देवी रूप को अपने केंद्र पर रखते हैं।
तो जैसे वेदों से ही शिव हैं और विष्णु हैं, वैसे ही वेदों से ही शक्ति भी हैं। अभी हम देवी सूक्त और रात्रि सूक्त की बात कर ही रहे थे, और इस चर्चा में आगे चलकर यदि समय रहा तो किसी स्थान पर हम देवी सूक्त और रात्रि सूक्त पर भी बात करेंगे। ये दोनों जो देवीसूक्त और रात्रिसूक्त हैं, ये ऋग्वेदीय भी हैं और तांत्रिक भी हैं, और अलग-अलग हैं दोनों। तो बड़ा रोचक रहेगा इन पर अलग-अलग चर्चा करना।
तो शक्ति की उपासना इस तरह से हिंदू धर्म में स्थान पाती है। कैसे पाती है? हमने कहा कि उसकी जड़ें, उसका मूल तो हमें देखने को मिल जाता है ऋग्वेद में ही और फिर वह आगे चल करके शाक्त संप्रदाय के रूप में पूरा विस्तार ग्रहण कर लेती है। जब वो शाक्त संप्रदाय में आती है प्रथा तो वह ऋग्वेद मात्र से अपनी प्रेरणा नहीं ग्रहण करती, फिर उसमें सांख्य दर्शन का प्रभाव भी साफ़-साफ़ दृष्टिगोचर होता है। ठीक है, हम उस पर आएँगे।
अब जो पूरा शाक्त संप्रदाय है, ये श्रुति को तो प्रमाण मानता ही है, श्रुति के अतिरिक्त किसको प्रमाण मानते हैं? ये है देवी भागवत पुराण, देवी उपनिषद्, जोकि उपनिषद् है लेकिन प्रमुख उपनिषदों में नहीं आता। तो इसलिए मैं उसको श्रुति से बाहर का बोल रहा हूँ; उसे श्रुति के भीतर का भी माना जा सकता है। इसी तरीके से मार्कंडेय पुराण शाक्त संप्रदाय का प्रमुख ग्रंथ है।
अब मैंने बात करी मार्कंडेय पुराण की, उसमें आता है देवी महात्म्य नामक अंश, उसी का एक हिस्सा है। उसी देवी महात्म्य नामक हिस्से को श्रीदुर्गासप्तशती के नाम से भी जाना जाता है। ठीक है। यह जो दुर्गा सप्तशती है, इसका शाक्त संप्रदाय में समझ लीजिए कि लगभग उतना ही महत्व है जितना वेदांत में श्रीमद्भगवद्गीता का। और शाक्त संप्रदाय बहुत बड़ा है, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, निश्चित रूप से बंगाल, असम, उड़ीसा, शक्ति की ही आराधना होती है यहाँ पर। अच्छा, ऐसा भी नहीं है कि अगर मैं कह रहा हूँ कि शक्ति की ही आराधना होती है तो इसका अर्थ यह है कि शिव की नहीं होती या विष्णु की, राम की, कृष्णा की, जो विष्णु के अवतार हैं, उनकी नहीं होती; नहीं, ऐसा नहीं है।
यह हिंदू धर्म का एक तरह का जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने कहा पॉलीसेंट्रिज्म़ है, जहाँ अगर शक्ति की उपासना हो रही है तो शक्ति बस आगे हैं, पर शक्ति के पीछे-पीछे शिव की भी उपासना हो रही है। क्योंकि शिव और शक्ति अलग-अलग तो चल नहीं सकते तो शक्ति आगे हैं, पीछे शिव भी हैं। शिव की भी उपासना हो रही है। और अगर शिव हैं तो शिव त्रिकुटी से तो अलग हो नहीं सकते, तो विष्णु भी साथ में हैं तो विष्णु की भी उपासना हो रही है। और विष्णु हैं तो विष्णु के अवतार हैं सब, राम हैं, कृष्ण हैं, उनकी भी उपासना हो रही है। तो उपासना सबकी हो रही है, पर आगे कौन हैं वहाँ पर? देवी।
आप अगर बंगाल जाएँगे तो ऐसा नहीं है कि बंगाल में शिव की बात नहीं हो रही है, बिल्कुल हो रही है, क्योंकि शक्ति, हमने कहा कि, बिना शिव के हो नहीं सकतीं। इसी तरह से आप बंगाल अगर जाएँगे तो ऐसा नहीं है कि वहाँ राम की बात नहीं हो रही है, हो रही है। लेकिन शिव से पीछे हैं, शिव स्वयं किसके पीछे हैं? शक्ति के पीछे।
इसी तरीके से आप अगर फिर वैष्णव संप्रदायों में पहुँच जाएँगे तो ऐसा नहीं है कि वे शक्ति को मान्यता नहीं दे रहे हैं, बिल्कुल दे रहे हैं। आप विष्णु के उपासक हों तो ऐसा कैसे होगा कि आप लक्ष्मी को मान्यता नहीं देंगे। देना ही होगा न? इसी तरीके से अगर आप शैव संप्रदायों में जाएँगे, मान लीजिए आप दक्षिण भारत चले गए बंगाल से उठकर, तो वहाँ शिव की उपासना है। पर आप शिव की उपासना कर रहे हैं और उमा की न करें, पार्वती की न करें, ललिता की न करें, यह तो संभव नहीं है न? तो वहाँ भी हो रही है।
बात बस इतनी सी है कि आपने किसको आगे रखा। तो यह जो तीनों संप्रदाय हैं, इसीलिए इनका आपस में कोई संघर्ष या टकराव रहा नहीं है। हाँ, अलग-अलग हैं और बीच-बीच में इतिहास में आप देखेंगे तो कुछ घर्षण भी होते रहे हैं लेकिन फिर भी इनमें एक परस्पर समन्वय रहा आया है। इसी तरीके से जो अन्य संप्रदाय हैं, उनमें भी क्योंकि ले-दे करके आधार, मूल, आखिरी बात तो वेद हैं न, और वेदों के प्रति निष्ठा सबकी है। कोई आपको हिंदू पूरी धारा में ऐसे लहर नहीं मिलेगी जो वेदों के ही विरुद्ध जाती हो, ठीक है न? और वेदों को ले करके मैंने बार-बार बोला है कि वेदो का मर्म हैं उपनिषद्।
कोई हिंदू आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो वेदांत का—वेदांत माने ब्रह्म सूत्र, उपनिषद् और गीता—कोई आपको हिंदू ऐसा नहीं मिलेगा जो कह दे कि मैं गीता को ही नहीं मानता। तो शक्ति के भी जो उपासक हैं, गीता को वो भी मानेंगे। बस वो मान लीजिए कि देवी महात्म्य को, दुर्गा सप्तशती को गीता के बराबर का स्थान दे देंगे। पर गीता को मानेंगे वो भी। वेदांत को सब हिंदू मानेंगे। बस अलग-अलग जगहों पर रहने वाले और अलग-अलग संप्रदायों को मानने वाले, अलग-अलग मान्यताओं का अनुसरण करने वाले इतना कर सकते हैं कि वो वेदों से उत्पन्न होने वाली अलग-अलग धाराओं में से किसी एक को चुन लें, यह हो सकता है। पर वो सारी धाराएँ हैं, उनकी गंगोत्री क्या है? सारी धाराओं की गंगोत्री हैं वेद ही।
तो हमने अभी बात करी देवी महात्म्य की, दुर्गा सप्तशती की। अभी तक जितनी बात हुई, उस पर कोई प्रश्न?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चर्चा में आपने यह बताया कि पुराने काल से ही चलता आ रहा है कि शक्ति की उपासना और उसी के अंश जो हैं हमें गुफाओं में भी देखने को मिले हैं, और ग्रंथ में भी देखने को मिले हैं और हर जगह। तो इसमें क्या यह कारण हो सकता है कि लिखने वाले पुरुष थे, इसी कारण से ही स्त्री को ही दिखाया गया?
आचार्य: देखो, जब मनुष्य एकदम नया ताज़ा था, उस समय पर इस तरह का भेदभाव नहीं था जैसा तुम आधुनिक समाज में देखते हो, लिंग भेद। तो उस समय पर अगर तुम सोचो कि पुरुषों को अपनी मान्यता या अपने आकर्षण की अभिव्यक्ति करने की छूट थी पर स्त्रियों को नहीं थी, तो ऐसी बात नहीं है। कौन किस पर पहरेदारी करता? यदि पुरुषों को यह आज़ादी थी कि वे गुहाओं पर अपने मन की लहरों के अनुसार, अपने चित्त के रुझान के अनुसार चित्र कुरेद सकते थे या चिह्न अंकित कर सकते थे तो स्त्रियों को भी थी।
तो ऐसा नहीं है कि उस समय पर जो आपको आधिक्य देखने को मिल रहा है नारी प्रतीकों का, वो इस कारण हैं क्योंकि जो प्रतीककार थे, वो पुरुष थे। इस तरह की चीज़ आधुनिक समाज में ज़्यादा देखने को मिलेगी। और जब मैं आधुनिक कह रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ वो पाषाण काल की अपेक्षा आधुनिक। तो जिसको आप मध्यकाल वगैरह भी बोलोगे, मैं उसको भी आधुनिक ही बोल रहा हूँ। जब हम पुरा-पाषाण काल को देखते हैं उसकी तुलना में तो वो सब चीज़ें बाद में आई हैं।
आप अगर आज भी जंगल में जाओ तो वहाँ आपको नर पशु और मादा पशुओं के अधिकारों में अंतर दिखाई पड़ता है क्या? ऐसा है क्या? तो वैसे ही जब आदमी एकदम नया-ताज़ा पैदा हुआ था, उस समय पर लिंग भेद कहाँ से आ गया? और अगर तुम यह भी कहो कि भाई, ज़्यादातर जो इस तरह के चिह्न, प्रतीक, चित्र थे, वो पुरुषों ने बनाए, तो भी तो तुम इस बात को समझो कि कम-से-कम जो नर है, जो पुरुष है, कम-से-कम—स्त्रियों में भी होगा निश्चित रूप से, आज आप देखते हो तो ऐसा है क्या कि शाक्त संप्रदाय में सिर्फ़ पुरुष ही पाए जाते हैं। ऐसा तो नहीं है न? स्त्रियाँ भी देवी की उतनी ही तन्मयता से उपासना करती हैं।
पर कम-से-कम पुरुषों के मन में आदिकाल से ही नारी रहस्य के प्रति बड़ा आकर्षण रहा है, जैसे वहाँ कुछ ऐसा है जो पुरुष ने समझने की बड़ी कोशिश करी है। मैंने कहा कि उसने पुरुष को पोषण भी दिया है, उसने पुरुष को जीवन भी दिया है, उसने पुरुष को डराया भी है और पुरुष को मृत्यु भी दी है। यहाँ पर जब मैं पुरुष कह रहा हूँ, अपने पिछले वाक्य में तो उससे आशय मात्र शारीरिक पुरुष से नहीं है, मैं चेतना की बात कर रहा हूँ। जो चेतना है, वो नर में भी पाई जाती है, मादा में भी पाई जाती है। मादा को भी जन्म कौन देता है? नारी ही तो देती है न? तो लड़का हो या लड़की हो, स्त्री हो या पुरुष हो, माँ तो दोनों के लिए जीवनदायिनी है, कि नहीं है? तो ऐसा नहीं है कि नारी में नारी शक्ति के प्रति आकर्षण कुछ कम होगा। इसका कोई प्रमाण न हमें आदिकाल में देखने को मिलता है, न आज देखने का मिलता है।