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देवी की इतने अनेक रूपों में क्यों आराधना की जाती है? क्या एक ही रूप पर्याप्त नहीं है? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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देवी की इतने अनेक रूपों में क्यों आराधना की जाती है? क्या एक ही रूप पर्याप्त नहीं है? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

आचार्य प्रशांत: इसी में और हमें यह समझना होगा कि अगर नमित ही होना था तो देवी के एक रूप को भी नमित हो सकते थे, पर देवी के अलग-अलग रूपों की बात क्यों हो रही है? उसके पीछे भी गहरा मनोवैज्ञानिक कारण है, समझेंगे। अब जैसे देवता कह रहे हैं, “या देवी सर्वभूतेषु वृत्ति रूपेण संस्थिता,” और फिर कह रहे हैं, “या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता।” और ऐसे कह करके कई रूपों में देवी का नमन करते हैं। इतने अलग-अलग रूपों क्यों नमन करते हैं? आपको पूछना चाहिए, “क्यों, एक रूप को क्यों नहीं कर सकते थे?”

मन चूहे जैसा होता है। उसको एक तरफ भागने से रोको तो तत्काल क्या करता है? ज़रा दूसरी दिशा में भागता है। उधर भी ज़रा रोको तो क्या करेगा? तीसरे दिशा में भागेगा। तो जितनी दिशाएँ हो सकती थीं मन के भागने की, देवता उन सारीं दिशाओं को अवरुद्ध कर रहे हैं। समझ में आ रही बात?

तो कहा कि बुद्धि देवी हैं, तो मन कह सकता है कि ठीक है, “देवी बुद्धि हैं तो मैं वृत्ति तो हो सकता हूँ न। अच्छा नहीं, तो कम-से-कम बुरा तो हो सकता हूँ न मैं।” समझो बात को। देवताओं ने कह दिया, “या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता,” वो देवी सब भूतों में, सब प्राणियों में बुद्धि रूप से स्थित हैं। तो अब वहाँ अहंकार का पत्ता कट गया। कहा कि अरे! बुद्धि तो देवी के हाथ चली गई, तो क्या कहेगा? “अच्छा, बुद्धि तो अच्छी चीज़ थी न, वो देवी को दे दी, वृत्ति तो बुरी चीज़ है न, वह मुझे दे दो। हम इतने में ही खुश रह लेंगे, भाई।” और अहंकार ऐसा ही है। उसे थोड़ा सा भी कुछ दे दो, वो उससे बचा रह जाता है।

तुम किसी को अच्छा-अच्छा बोल दो, उसमें भी अहंकार जागृत होगा, तुम किसी को बुरा-बुरा बोल दो, उसमें भी अहंकार जागृत होगा। कोई बोले, “मैं बहुत धनी हूँ,” यह भी बड़े अहंकार की बात है। कोई बोले, “मैं महा-निर्धन हूँ,” यह भी बड़े अहंकार की बात है।

तो जैसे ही तुमने कहा, “या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता,” अहंकार चूहे को मौका मिल गया, बोलेगा, “ठीक है। बुद्धि देवी को बँट गई, हमारे हिस्से कुछ गंदी वाली बातें तो आई होगी न, निकृष्ट कोटि की कुछ चीज़ें तो हमारे लिए बची होंगी न। तो वृत्ति हमें दे दो।” लेकिन देवता अभी हार खाए हुए हैं, चोटिल हैं, अभी उनका ध्यान ज़रा ऊँचा है, तो उन्होंने मन के लिए वहाँ पर भी बाधा लगाई, अवरुद्ध किया, बैरियर लगाया, कहा, “नहीं। या देवी सर्वभूतेषु वृत्ति रूपेण संस्थिता।” समझ में आ रही बात?

तो मन ने कहा कि अब तो फँस गए। तो चूहा अब इंतजार कर रहा है कि किधर को भागें। तो देवताओं ने कहा, “या देवी सर्वभूतेषु शांति रूपेण संस्थिता,” फिर कहा, “या देवी सर्वभूतेषु क्षांति रूपेण संस्थिता।” शांति और क्षांति, क्षांति माने क्षमा। तो फिर से कुछ उच्च तल के गुण देवी से संबंधित कर दिए गए, कि देवी सब प्राणियों में शांति और क्षमा बनकर स्थित हैं। तो अहंकार ने कहा, “ठीक है, कुछ छोटी-मोटी मलिन बातें तो हमारे लिए छूट ही गई होंगी।” अहंकार ने कहा, “ठीक है, शांति और क्षांति देवी के साथ, तो ऐसा करो भ्रान्ति हमारे लिए छोड़ दो। शांति देवी के लिए, तो भ्रान्ति, भ्रान्ति माने भ्रम, भ्रान्ति हमारे लिए छोड़ दो।” तो देवताओं ने कहा कि यह तो चूहा फिर से एक रास्ता पा गया भागने का, इसे तो घेरना है। तो उन्होंने कहा, “नहीं। या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।” समझ में आ रही बात?

तो देवी ही हैं जो शांति हैं और देवी की है जो भ्रान्ति भी है। अब अहंकार का दम घुट रहा है, वो कह रहा है, “तुम सब कुछ ही ले जाओगे, कुछ तो छोड़ दो, एकाध रास्ता है जहाँ से हम निकल कर भागे, बचे रह जाएँ।” “नहीं, कुछ भी नहीं छोड़ेंगे तुम्हारे लिए, प्रकृति में जो कुछ भी है, सद्गुण, अवगुण, सत-रज-तम, सब देवी ही हैं। तेरे लिए कुछ नहीं है। तू क्या हैं? तू मिथ्या है, तू है ही नहीं।”

जो कुछ नहीं है पर अपने-आपको कुछ समझता है, उसी को तो अहंकार बोलते हैं। जो है ही नहीं, पर होने का दावा करता है, उसको ही तो अहंकार बोलते हैं। और वो होने का दावा कैसे करता है? जो है, उसके साथ जुड़ करके। अहंकार को जुड़ने का अवसर मत दो, वो मर जाएगा।

देवता इस वक्त यही उपाय लगा रहे हैं, वो अहंकार को जुड़ने का अवसर नहीं दे रहे हैं। वो कह रहे हैं, “जिस-जिस चीज़ से तू जाकर जुड़ता था, हम तुझे वहाँ से काट देंगे, क्योंकि हर वो चीज़ वास्तव में देवी के अधीन है, तेरी है ही नहीं, तू क्यों जा रहा जुड़ने?” अहंकार कह रहा है, “मुझे भी जुड़ना है, मुझे भी जुड़ना है।” “नहीं, तुम्हें नहीं जुड़ना है, तुम तो अनधिकृत रूप से घुसे चले आ रहे हो, तुम बाहर निकलो। तुम्हारी हस्ती ही अवैध है। प्रकृति पूर्णरूपेण देवी की है; देवी ही प्रकृति हैं। तो प्रकृति के किसी भी तत्व से अहंकार को क्यों अनुमति दी जाए संबंध बनाने की। हम नहीं देते।”

तो ये जो इतनी सारी बातें बोली गई हैं, मान लो बीस, पच्चीस या चालीस, इनको बीस, पच्चीस या चालीस नहीं मानना है, इनको अनंत मानना है। बीस का आँकड़ा बीस का आँकड़ा नहीं, वो अनंत की ओर इशारा करता है, बहुत सारे। अब सब कुछ तो ग्रंथ में लिखा नहीं जा सकता न, तो समझने वाले को इशारा काफ़ी है कि जो कुछ भी प्रकृति में है, उसको देवी के साथ जोड़ना। वह देवी का है, वह प्रकृति मात्र का है। वह अहंकार का नहीं है। तुम क्यों जुड़ रहे हो उसके साथ? और अहंकार जीता ही ऐसे है कि प्रकृति में किसी भी चीज़ को पकड़ लिया, उसके साथ जुड़ गया।

किन-किन चीज़ों को पड़ता है अहंकार जो प्रकृति में है? शरीर को पकड़ लेगा, किसी सामान को पकड़ लेगा, किसी विचार को पकड़ लेगा, किसी भावना को पकड़ लेगा, नाम-पहचान को पकड़ लेगा, ज्ञान को पकड़ लेगा। यह सब क्या है जिनको अहंकार पकड़ता है? यह प्राकृतिक है, अहंकार नहीं भी हो तो भी ये होंगे। ये प्राकृतिक हैं, इनकी अपनी हस्ती है, पर अहंकार की हस्ती सिर्फ़ तब है, जब वो उनको पकड़ लेता है। वो न पकड़े इनको तो अहंकार नहीं बचेगा, पर ये बचे रहेंगे। समझ में आ रही है बात?

शरीर के साथ तुम्हारा जुड़ाव नहीं है तो भी शरीर नष्ट नहीं हो जाएगा, बल्कि और अच्छे से चलेगा। पर तुम्हारा अगर शरीर से तादात्म्य नहीं है तो अहंकार नष्ट हो जाएगा। शरीर की तो फिर भी अपनी एक सत्ता है, अहंकार की तो सत्ता भी शरीर पर आश्रित है। समझ में आ रही है बात?

इसी तरीके से विचार हैं। ज़रूरी नहीं है कि विचारों में ‘मैं’ का पुछल्ला लगा ही हुआ हो। ज़रूरी नहीं है कि विचारों के ऊपर ‘मैं’ की रक्षा करने का बोझ हो ही। ज़रूरी नहीं है कि सब विचारों के केंद्र में अहम् ही बैठा हुआ हो। विचार हो सकते हैं बिना अहम् के बोझ के भी, उसी को तो निर्विचार बोलते हैं, कि विचार है, पर विचारक कोई नहीं। और वास्तव में विचार के लिए अहम् रूपी विचारक का होना बिल्कुल आवश्यक नहीं है। विचारों की अपनी सत्ता है, विचारक की कोई सत्ता नहीं होती। विचारक की सत्ता एक झूठी कहानी है जो विचारों पर आश्रित हैं। विचारक को हटा दो, विचार मिट नहीं जाएँगे, बल्कि शुद्ध हो जाएँगे। विचारों के शुद्ध हो जाने को ही निर्विचार कहते हैं। समझ में आ रही बात कुछ?

तो यह जो पूरी कथा है, इसमें जो कुछ भी हो रहा है, उसकी गहराई में जाए बिना अगर सिर्फ़ उसके ऊपर से गुजरते रहोगे, फिसलते रहोगे, तो कुछ समझ में नहीं आएगी बात कि यह चल क्या रहा है।

जो कुछ हो रहा है, उसके मूल तक पहुँचे, बहुत सीखने को मिलेगा, बहुत यहाँ पर धनराशि बैठी हुई है लुटने को तैयार। उसको लूटने वाला, समेटने वाला, मूल्य देने वाला चाहिए।

सतह पर नहीं है लेकिन, ये जितने हीरे-मोती हैं यहाँ पर, ये थोड़ा सा खोदने पर या गोता मारने पर उपलब्ध होते हैं। ऊपर-ऊपर से पाठ करके निकल जाओगे तो इतनी नवदुर्गा आईं और बीत गईं, वैसे ही इस बार की नवदुर्गा भी बीत जाएँगी, कोई लाभ नहीं होगा आपको। ध्यान दो तो लाभ बहुत है। स्पष्ट हो रहा है?

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