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देवी का रहस्य क्या? शक्ति का अर्थ क्या? || आचार्य प्रशांत, दुर्गा सप्तशती - तृतीय चरित्र (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: तो आज हम दुर्गा सप्तशती के तीसरे चरित्र में प्रवेश कर रहे हैं और पिछले चरित्र का और पिछले अध्याय का अन्त किसके वध पर हुआ था?

श्रोता: महिषासुर।

आचार्य प्रशांत: महिषासुर के वध पर हुआ था, तो महिषासुर का वध हो गया था और देवता लोग प्रसन्न हो गये थे और देवताओं ने फिर आकर के एक स्वर में देवी की आराधना करी थी और आभार व्यक्त करा था और देवी ने पूछा था, ‘क्या चाहिए भाई?’ तो उन्होनें कहा था कि अभी तो जो चाहिए था वो तो मिल ही गया, हाँ इतना ज़रूर दे दीजिए कि आगे कभी आपकी आवश्यकता पड़ेगी, आपको स्मरण करेंगें तो आप सहायता अवश्य करेंगी, तो देवी ने कहा था, ‘ठीक है! तथास्तु!’

तो जैसा देवताओं का हाल है, जैसा देवत्व का चलन है, बहुत दिन तक देवताओं का सुख-चैन और स्वर्ग चला नहीं। उनको फिर से आ गये दूसरे दैत्य सताने और इस बार देवताओं ने अपना राज-पाट और अधिकार किनके हाथों खोया?

तीसरे अध्याय के जो केन्द्रीय दैत्य हैं, अधर्म की जो केन्द्रीय सत्ता है, उसका नाम है, ‘शुम्भ और निशुम्भ।’ बड़ा विस्तृत चरित्र है ये, तीसरा चरित्र। अभी मैंने तीसरा अध्याय बोल दिया था और पाँचवे अध्याय से लेकर के तेरहवें तक जाता है, तो इसमें शुम्भ-निशुम्भ के अतिरिक्त और न जाने कितने उपद्रवी दैत्यों-राक्षसों का उल्लेख आएगा, जहाँ सम्भव होगा हम उनकी चर्चा कर देंगें, पर सबकी बात करना बहुत आवश्यक नहीं है, सप्तशती की जो केन्द्रीय विषय-वस्तु है, हम उस पर ज़्यादा ध्यान देंगे। तो पहली बात तो ये कि अभी-अभी तो देवताओं को अभय किया गया था महिषासुर से, ये फिर क्यों हो गया कि वो अपना राज-पाट गॅंवा बैठे? ये पहला विचारणीय प्रश्न है, क्यों हो गया, बताओ?

श्रोता१: ये शायद, जैसा आपने कल समझाया था कि जो माया हैं उनका बुद्धि पर प्रभाव जो होता है वो वैसा भी हो सकता है कि आप उनके आगे नमित हो जाऍं और दूसरा ये भी होता है कि आप उस बहाव में इस तरह बैठ जाते हैं कि आप थोड़े अहंकारी हो जाते हैं, आपको लगता है कि आप ही आख़िरी सत्ता हैं, तो शायद इसी जुगत में कि…

आचार्य प्रशांत: सनातन बोध ने, न देवत्व को आख़िरी माना, सुख को माना ही नहीं, न स्वर्ग को माना। देवता बस एक अर्थ में बेहतर हैं दानवों से, एक ही अर्थ में बेहतर हैं अन्यथा देवों और दानवों में समानताएँ ही ज़्यादा हैं। किस अर्थ में बेहतर हैं? कि देवता जब पीटे जाते हैं, अपना वैभव और ऐश्वर्य गँवाते हैं तो फिर सीधे जाकर के श्रीहरि के चरणों में लौट जाते हैं, दानव ऐसा नहीं करते, हालाँकि दानवों ने भी तप करा है और कभी शिव की, कभी विष्णु की भक्ति करी है, इसके बहुत उल्लेख आते हैं लेकिन फिर भी देवों की आस्था ज़्यादा है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिकुटी में।

बस यही अन्तर है दोनों में, अन्यथा ये दोनों ही अपनी-अपनी सीमाओं में और अपने-अपने गुणों में बॅंधे हुए हैं और जो कुछ भी गुणों में आबद्ध होगा उसका कभी-न-कभी अन्त आएगा, वो सीमित होगा, प्रकृति में सबकुछ सीमित है, देवता भी प्रकृति के भीतर हैं और दानव भी प्रकृति के भीतर हैं। ठीक वैसे, जैसे दानवों का राज सदा नहीं चल सकता, वैसे ही देवों का भी नहीं चल सकता और इसीलिए मैं कह रहा था कि सनातन में देवत्व आख़िरी बात नहीं है।

दैवीयता और दानवीयता दोनों से मुक्ति आख़िरी बात है, स्वर्ग सबसे ऊँची चीज़ नहीं है, स्वर्ग से भी जो पार निकल गया, जो स्वर्ग और भोग की आकांक्षा से भी मुक्त हो गया, वो सबसे उत्तम है। तो देवता चूँकि प्रकृति की व्यवस्था के अन्तर्गत ही हैं, इसीलिए उनमें भी वो सब गुण-दोष हैं जो प्रकृति में पाये जाते हैं, कहीं भी अन्यथा।

तो इसीलिए उन्हें कितनी भी बार बचाया जाए, सहारा दिया जाए, वो बार-बार दुख को प्राप्त होते ही हैं। जो कोई स्वर्ग का सुख भोगेगा, उसे कालचक्र में दुख और पराजय और यातना ये भी भोगने ही पड़ेगें और वही चीज़ देवताओं के साथ भी होती है बार-बार।

तो ख़ैर अब शुरुआत होती है तीसरे चरित्र की। तो तीसरे चरित्र का उद्घाटन कैसे होता है?

पर्दा उठता है और हम पाते हैं कि देवता लोग सब पहुँचे हुए हैं हिमालय पर और वहाँ गंगा किनारे देवता लोग, देवी की स्तुति और स्मरण कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं, जो कह रहे हैं वो बड़ा अर्थपूर्ण है, उसमें सीखने को बहुत कुछ है, समझना। कह रहे हैं कि हम उस देवी की आराधना करते हैं जो सब जीवों के भीतर “शक्ति” बनकर वास करती है, हम उस देवी की आराधना करते हैं जो सबके भीतर “बुद्धि” बनकर वास करती है, जो “स्मृति” बनकर वास करती है।

इसी श्रृंखला में और इन्हीं शब्दों में देवी को, देवता दर्जनों बार सम्बोधित करते हैं, कभी कहते हैं, वो “शान्ति” बनकर वास करती है, “कान्ति” बनकर वास करती है, “क्षान्ति” बनकर वास करती है, क्षान्ति माने क्षमा। “भ्रान्ति” बनकर भी वास करती है, भ्रान्ति माने भ्रम। “बुद्धि” बनकर वास करती है, “स्मृति” बनकर वास करती है, “तृष्णा” बनकर वास करती है, “वितृष्णा” भी बनकर भी वास करती है, “वृत्ति” बनकर वास करती है।

तो जितने तरीक़ों से हो सकता था सम्भव, वो देवी को सम्बोधित करते हैं और इस प्रकार वो देवी का स्तवन करते हैं, अब इसमें प्रश्न है मेरा एक, इतने तरीक़ों से देवी को स्मरण करने से क्या संकेत मिलता है हमें? क्योंकि देखो भाई दुर्गा सप्तशती है, बात पौराणिक है, वहाँ जो कुछ भी कहा जा रहा होगा, उसमें निहित जो सांकेतिक अर्थ है उसको पकड़ना बहुत ज़रूरी होता है, तो देवता ये भी तो कह सकते थे कि हम यहाँ पर आये हैं और देवी की या शक्ति की उपासना करते हैं, इतना ही पर्याप्त होता, इतने भिन्न-भिन्न तरीक़ों से क्यों सम्बोधित करते हैं देवी को?

श्रोता१: क्या इस वजह से कि हम अपने जीवन में जो अलग-अलग परिस्थितियाँ देखते हैं और उसमें देवी हमें बार-बार याद आती रहें, हमें उनका स्मरण बना रहे?

आचार्य: हाँ, ये ठीक है। ऐसे समझो कि देवी माने प्रकृति, जो कुछ भी प्रकृति में नहीं है, मैंने तुरन्त उसे किसका स्थान दे दिया? प्रकृति से अलग, प्रकृति के अतिरिक्त तो एक ही चीज़ है न? और उसका क्या नाम है? “पुरुष”, “आत्मा”, “सत्य!” तो माने मैंने जिस भी चीज़ को कह दिया कि ये नहीं है प्रकृति के अन्तर्गत, मैंने उसको सत्य मान लिया, तो फिर बहुत आवश्यक है न कि जो कुछ है उसे प्रकृति की ही श्रेणी में रखा जाए? ताकि कहीं भूलवश मैं किसी को भी सत्य न मान बैठूँ, तो इसीलिए जो कुछ भी सम्भव हो सकता था, जितना देवताओं को याद आया, जितनी बातें भी कल्पित की जा सकती हैं या दृश्यमान हो सकती हैं, जिन भी वस्तुओं का, स्थूल चाहे सूक्ष्म विषयों का मन विचार कर सकता है, उन सबको जैसे सूचीबद्ध करके कह दिया जा रहा है कि देवी ये तुम ही हो! तुम ही हो देवी जो अन्न बनकर उगती हो और तुम हो देवी जो जीवों में क्षुधा बनकर वास करती हो, ये सब तुम ही हो। क्योंकि अगर मैंने याद नहीं किया और अगर मैंने साफ़-साफ़ बोला नहीं, स्वीकार नहीं किया कि अन्न प्रकृति ही है, तो गड़बड़ हो जाएगी, मैं कहीं अन्न को सत्य न समझने लग जाऊँ, बड़ी भारी भौतिकता हो जाएगी, पदार्थवाद हो जाएगा।

तो इस समूचे ब्रह्मांड को और इसके अन्तर्गत सभी वस्तुओं और विषयों को एक करके देवता कह रहे हैं, ‘जो कुछ भी है सब तुम ही हो, नर तुम ही हो, नारी तुम ही हो, हाथी तुम ही हो, चींटी तुम ही हो, पर्वत तुम ही हो, नदी तुम ही हो, सूरज तुम ही हो, चाँद तुम ही हो, मेरी हीनता भी तुम ही हो, मेरी वृद्धि भी तुम ही हो, तुम ही स्मरण कराती हो, तुम ही भुला देती हो, जो कुछ भी हो रहा है देवी वो तुम-ही-तुम हो, तुम्हारे अतिरिक्त कुछ नहीं है। ये बड़ी ऊँची बात है, ऊँची बात इसलिए है क्योंकि अगर तुम इस पूरे जगत को एक साथ, इकट्ठे ही प्रकृति नहीं जान लोगे, तो तुम जगत के ही एक हिस्से को फिर सत्य समझने लगोगे, जैसे ये सामने मेज़ रखी है, ये इसका पूरा जो है क्षेत्र है, ऊपर सतह। मुझे इस पूरे-के-पूरे को जानना है कि ये मेज़ की ही सतह है, अगर मैंने इसमें से थोड़ा भी हिस्सा छोड़ दिया और उस थोड़े से हिस्से को छोड़कर मैंने बाक़ी सारे हिस्से को इंगित करके कहा कि ये मेज़ की सतह है, तो छोड़ा हुआ हिस्सा मेरे हिसाब से क्या हो गया? वो मेज़ नहीं है, जबकि है वो मेज़ ही। और मैं उसे मेज़ न मानकर न जाने क्या मान लूँगा! ये भूल नहीं होना चाहिए और ये भूल पूरी दुनिया के दर्शनों ने करी है, उन्होंने किसी विचार को ही सत्य मान लिया है।

इस मामले में जो सनातन धारा है, कहती है कि जो कुछ भी काल के प्रवाह में है, जो कुछ भी प्रकृति के अन्तर्गत है वो सब एक जानो, वो कभी उठा था, कभी गिरेगा, कभी आया था, कभी जाएगा। भारत अकेला रहा है जिसने ये भी माना है कि ये स्वर्ग-नरक भी मिट जाने हैं, प्रलय में इनका भी नाश हो जाना है, ये सब जो देवता घूम रहे हैं इनकी भी मृत्यु होनी है, ये भी कोई अजर-अमर नहीं हैं, एक दिन ये भी नहीं रहेंगें।

ये कहकर के हमने बड़ी परिपक्वता दर्शायी है, हमने कह दिया है कि हमने जो भी छवियाँ निर्मित कर ली हैं भले ही वो देवताओं की ही क्यों न हों, वो भी सत्य नहीं हैं, क्योंकि तुमने अपने द्वारा निर्मित एक छवि को यदि सत्य मान लिया तो तुम न जाने कौन-कौनसी नयी-नयी आकर्षक छवियाँ रचते रहोगे, उन्हें ही सत्य मानते रहोगे, उन्हें ही पूजते रहोगे और अपने लिए दुख का निर्माण करते रहोगे।

तो भारत ने समूचा मानस क्षेत्र लिया, मेज़ की पूरी सतह, मेज़ की सतह को हम क्या मान रहे है? मन का पूरा विस्तृत विचार क्षेत्र और पूरे को एक इकट्ठा करके उसको एक नाम दे दिया, पूरे को एक धागे से बाँध दिया, समूचे ब्रह्मांड को ही जैसे एक धागे से बाँध दिया हो और उसका क्या नाम दे दिया? प्रकृति या देवी। और फिर उसके सामने सिर झुका दिया क्योंकि हैं तो हम भी उसके अन्दर ही न? उसके अन्दर हैं और सिर इसलिए झुका रहे हैं कि देवी मुक्ति भी तुम ही दोगी! ये और परिपक्वता का लक्षण है। मान लिया कि सबकुछ प्राकृतिक है, मान लिया कि माया है, मान लिया कि मिथ्या है, लेकिन हम जैसे जी रहे हैं, हमारे लिए तो नहीं हैं माया, हमें तो यही सही लगता है, हमें सच्चा लगता है ये सबकुछ जिसके मध्य जी रहे हैं, लेकिन जिसके मध्य जी रहे हैं उसी से कष्ट भी पाते हैं, उसे दुत्कारकर या नकारकर या मिथ्या कहकर कुछ मिलेगा नहीं, तो उससे मुक्ति भी चाहिए तो उसी का इस्तेमाल करना होगा। देवी की माया से मुक्ति चहिए तो देवी से ही मुक्ति माँगो! ‘हे देवी! तुम ही माया हो, तुम ही मुक्ति हो, माया से तुमने हमें ग्रसित कर ही रखा है, अब मुक्ति का वर भी दे दो!’ तो इस प्रकार, देवता सब देवी की आराधना करते हैं और ये बड़े प्रचलित मन्त्र हैं, “या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता”, सुना होगा। तो इसी क्रम में और बहुत सारे मन्त्र हैं।

श्रोता१: ये मन्त्र दुर्गा सप्तशती से ही हैं?

आचार्य: हाँ, दुर्गा सप्तशति से ही हैं और ये सब देवता खड़े हुए हैं वहीं। फिर से आपदा आ गयी है, खड़े हुए हैं और देवी से गुहार मार रहे हैं और तरीक़े-तरीक़े से देवी का आह्वान कर रहे हैं तो ये सब मन्त्र वहाँ से आते हैं। “बुद्धि रूपेण संस्थिता”, “शक्ति रूपेण संस्थिता”, “क्षुदा रूपेण संस्थिता”, मातृ रूपेण संस्थिता”, ये सब। फिर क्या होता है? देवताओं ने इतना आग्रह करा, तो देवी प्रकट हुईं, अब देवी यहाँ पर कई चरणों में प्रकट होती हैं, तो पार्वती देवी, कहते हैं वहाँ जहाँ देवता हिमालय में गंगा किनारे आराधना कर रहे थे देवी की, वहीं पर वो स्नान करने के लिए आयीं। अब वही देवी तो देवी हैं, देवी एक ही हैं, अलग-अलग नामों से हैं।

वही देवी हैं महिषासुर वध के उपरान्त जिनकी स्तुति हुई थी और तब स्तुति करी थी, फिर भुला दिया था। जब भुला दिया था तो राज-पाट गँवा दिया था। तो देवी आयीं और देखा कि अब ये फिर समय और मुसीबत के मारे खड़े होकर के मुझे याद कर रहे हैं, तो मुस्कुराकर बोलती हैं, ‘अरे देवताओं तुम लोग कौन हो? और यहाँ क्या करने आये हो?’ (आचार्य जी हॅंसते हुए) यहाँ हिमालय पर बियाबान में खड़े होकर के प्रार्थना कर रहे हो, कौन हो तुम लोग? जैसे जानती न हों। तो देवता बोले, ‘अरे! हम समय के, मुसीबत के मारे हुए हैं, ये नये राक्षस पैदा हो गये हैं उपद्रवी, इन्होंने सब लूट-लाट लिया।

तो फिर कहानी ऐसे है कि पार्वती जी की देह से पहले शिवा देवी निकलती हैं, फिर उसमें से अम्बिका देवी आविर्भूत होती हैं और अम्बिका देवी के बारे में है कि वो शुभ्रा हैं बिलकुल, शुभ्र-वर्णा! माने गोरी। तो जो पार्वती जी का गोरापन है वो एक देवी के रूप में प्रकट हो जाता है, गोरापन प्रकट हो जाता है तो पार्वती जी हैं वो काली रह जाती हैं। जब वो काली रह जाती हैं तो उनको एक अलग नाम दे देते हैं, ‘कालिका’ और पहाड़ों में उनकी कालिका देवी के नाम से फिर पूजा होती है। तो ख़ैर अब जो देवी प्रकट हुई हैं कौन हैं? अम्बा! और अम्बा देवी, कैसी हैं? शुभ्रा और अपूर्व सुन्दरी! और वो वहीं विचरण करने लग गयीं पहाड़ों में, देवी एक ही हैं। ये बस अलग-अलग नामों से उनका सम्बोधन है।

ये जो तीसरा चरित्र है ये महा सरस्वती जी, माने देवी का जो सतोगुणी रूप है उसको समर्पित है। तो अम्बा देवी वहाँ विचरण करने लग गयीं, तो शुम्भ-निशुम्भ नाम के अब ये जो दो भाई हैं, दैत्य। अब इनका उपद्रव चल रहा है, आजकल! वही महिषासुर के वंशज हैं, तो बाप-दादा मारे गये, लेकिन जो उपद्रव है वो नहीं मारा गया। बीज बचा रहा उपद्रव का, तो उस बीज से ये दोनों पैदा हो गये हैं। तो अब इनके दो घूम रहे हैं सेवक, भृत्य और यथा राजा तथा प्रजा। जैसे ये दोनों शुम्भ-निशुम्भ लम्पट हैं बिलकुल, भोगी! वैसे ही उन्होंने सब रखे होंगे अपने कर्मचारी भी! तो ये दोनों भी वैसे ही हैं।

तो ये देखते हैं कि एक अति सुन्दर स्त्री है वो वहाँ पर्वत पर अकेले घूम रही है, तो ये आ गये बिलकुल आवेश में। ये आवेश में आ गये और जाकर के अपने इन्होंने राजा को भी उतना ही आवेश दिला दिया। राजा भी उत्तेजित! दास ने बताया कि दुनिया की सब ऊँची-से-ऊँची चीज़ें आपके पास हैं, वो आपने इन्द्र का ऐरावत हाथी पकड़ा हुआ है, वो आपके पास है, आपने चन्द्रमा को पकड़ लिया है, आपके पास कामधेनु है और आपके पास कल्पवृक्ष है और आपने फ़लाने राजा को मारकर के उससे फ़लाना मोती रखा हुआ है और आप गये थे और वो फ़लाना सम्राट था उसकी सबसे बड़ी तलवार भी आप छीन लाये थे, वो भी आपके पास है। और ये महल है बड़े-बड़े सोने-चाँदी-हीरे से जगमगाते हुए, ये भी आपके पास हैं, ये सब आप के पास हैं, तो वो जो अपूर्व सुन्दरी है, वो आपके पास क्यों नहीं है? तो फिर तो कमी रह गयी है आपके यहाँ!

और ये सुनना नहीं है कि राजा महाराज हो गये उत्तेजित! बोले, ‘जाओ और लेकर के आओ, कहना हमने बुलाया है!’ दोनों ने सोचा कि भई जैसे ही बताएँगें, कोई आम स्त्री है कि राजा तुम्हें बुला रहे हैं अपने यहाँ, तो बिलकुल गदगद हो जाएगी और प्रसन्न होकर के ख़ुद ही चली आएगी। इन्होंने जाकर जैसे ही बताया कि वो बुला रहे हैं, बोलीं, अरे वाह! ये तो मेरे सौभाग्य की बात है कि मुझे इन दोनों जैसे प्रतापी योद्धाओं ने याद किया। लेकिन मैं क्या करूँ मैं तो अल्पज्ञ हूँ, आधी बुद्धि की हूँ! देवी स्वयं कहती हैं अपने विषय में। और मैंने एक प्रण उठा रखा है, क्या?

बोलीं, यही है कि जो मुझे युद्ध में हरा देगा, मैं तो उसी को पति स्वीकार करूँगी।’ तो दूतों को क्रोध आ गया, बोले, अरे! इतने बड़े प्रतापी योद्धा जिन्होंने स्वर्ग-नर्क और सारे लोक जीत रखे हैं, ये तुझसे युद्ध करने आएँगें! अभी बताते हैं! और ये गये वहाँ पर और वहाँ बताया। अब कहानी है, चल रही है कहानी। तो उनको दैत्यों को गुस्सा आ गया, उन्होंने अपना एक छोटा-मोटा पहले कोई योद्धा भेजा कि भाई नारी है उसको क्या कोई छोटा-मोटा भी ऐसे ही पकड़कर खींच लाएगा। तो कहते है कि आये तो देवी ने बस हम्म… का स्वर करा ज़ोर से, वो इतने में ही मर गया। (हँसते हुए) उसके इतने में ही प्राण निकल गये।

तो ये दोनों बिलकुल खौफ़ में आकर के भगे! भयभीत होकर के राजा से बोले, ‘वो तो मर गया! उस औरत ने मार डाला उसको।’ तो फिर, ये उन्होंने फिर अपना एक और भेजा धूम्रलोचन नाम का सेनापति कि तुम जाओ, अब ये थोड़ा ऊपर के तल का योद्धा है, इसको भेजा कि जाओ उसको लेकर के आओ। तो समझो कि ऐसे हमारे होते हैं विवाह-प्रस्ताव। अब जब जिसको भेजा गया, उसको कहा गया है कि बलपूर्वक लेकर आना, बाल पकड़कर, झोटा पकड़कर घसीटते हुए लेकर आना और उसके आस-पास कोई खड़ा हो तो उसको मार देना! चाहे वो यक्ष हो, गन्धर्व हो, कोई हो। हम कौन हैं? जिन्होंने इन्द्र को जीत लिया है, त्रिभुवन को जीत लिया है और हमारे प्रस्ताव को वो एक साधारण सी नारी ठुकरा रही है, हम नहीं मानते।

अब देवी किसका प्रतीक हैं? ये जो पूरी बात है, ये इशारा किधर को कर रही है? देवी प्रतीक किसका हैं? प्रकृति का प्रतीक हैं। और प्रकृति को ये जो राक्षस हैं, ये क्या करना चाहते हैं? भोगना चाहते हैं, कोई प्रेम तो हो नहीं गया उन्हें देवी से। तो राक्षस की परिभाषा हमें यहाँ मिल गयी, ‘जो प्रकृति को भोगना चाहे, जिसे प्रेम नहीं है प्रकृति से, भोगने को आतुर है, उसको राक्षस कहते हैं। और यही नहीं जो प्रकृति को बचाने खड़ा होगा, उसका विरोध करेंगे, उसको मार भी डालेंगे। तो साफ़-साफ़ कहते हैं कि इनको बचाने के लिए नर, देव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर कोई भी खड़ा हो, उसकी हत्या कर देना और सहज मान जाए तो ठीक है, नहीं तो घसीटकर ले आना।

अज्ञानी के, अधर्मी के प्रेम-प्रस्ताव ऐसे ही होते हैं। हम सब का, अधिकांश लोगों का प्रेम ऐसा ही होता है, उसमें मिठास तभी तक है जब तक स्वार्थ सिद्धि हो रही है, जो तुम चाह रहे हो वो सामने वाले से मिल गया तो प्रेम है, नहीं मिल रहा तो ज़बरदस्ती करेंगे, नहीं मिल रहा है तो कटुता आ जाएगी। नहीं मिल रहा और अगर ताक़त चला सकते हैं दूसरे पर, तो ताक़त चला देंगें।

अक्सर हम पाते हैं कि सम्बन्धों में एक प्रकार का संतुलन होता है, एक स्थायित्व होता है, कोई पक्ष दूसरे पर ज़बरदस्ती नहीं कर रहा होता, ताक़त नहीं चला रहा होता। उसकी वजह ये नहीं होती कि दोनों में प्रेम है, उसकी वजह ये होती है कि दोनों में बल का संतुलन होता है। किसी के पास इतना बल होता ही नहीं है कि दूसरे पर चढ़ बैठे और जब एक के पास इतना बल होता है कि दूसरे पर चढ़ बैठे, तो वैसा ही व्यवहार करता है जैसा यहाँ पर शुम्भ-निशुम्भ कर रहे हैं।

जो कोई सत्य के सामने नमित नहीं है, जिस किसी में देवी, माने प्रकृति के प्रति सद्भाव और आस्था नहीं हैं, वो राक्षस ही है न? वो जी किसलिए रहा है? वो जी ही रहा है बस, प्रकृति के दोहन और शोषण के लिए। जैसे कि हम हर आम आदमी आज जी रहा है। पिछली बार हमने कहा था, आम आदमी ही तो महिषासुर है। कितने महिषासुर गिनें? तब तो महिषासुर एक था, जिससे आम जनता संतप्त थी। आज महिषासुर ने ऐसी घिनौनी और अकाट्य चाल चली है कि उसने हर आदमी को महिषासुर बना दिया है। महिषासुर कौन है? हम परिभाषा दोहरा रहे हैं तीसरी-चौथी बार। जो कोई सत्य के सामने झुकता न हो, और शान्ति पाने के लिए प्रकृति का उत्पीड़न करता हो, क्योंकि शान्ति दो जगह से मिल सकती है, आप सत्य के सामने झुक जाओ तो शान्ति मिल जाएगी और अगर तुम्हें शान्ति सत्य से नहीं मिल रही है तो तुम शान्ति कहाँ से लूटना चाहोगे? कि प्रकृति का भोग कर लें, ये नोंच लें, खसोट लें इससे हमें शान्ति मिल जाएगी, जो ऐसा करे वही तो राक्षस है, तो आज आम आदमी ही राक्षस है। समझ में आ रही है बात?

और इसीलिए इस दुनिया में प्रेम हमें दिखाई नहीं पड़ता, जो प्रेम हमें दिखाई भी पड़ता है, वो उसी कोटि का होता है, जैसा यहाँ पर अभी तुम पा रहे हो, शुम्भ-निशुम्भ का प्रेम-प्रेम-प्रस्ताव। ये ऐसा प्रेम-प्रस्ताव है इनका कि जाओ सेनापति और सीधे-सीधे माने तो ठीक है, नहीं तो घसीटकर ले आओ! ये प्रेम करेंगे कि बलात्कार करेंगे, इनकी नियत क्या है? ऐसे ही हर आम आदमी है।

बस हमने अपनेआप को धोखा दे रखा है, जो हमारे भीतर की पशुता है, दरिंदगी है और जो हमारा भोगी और बलात्कारी मन है, उसको हमने ज़रा सम्माननीय और सुन्दर आभूषण जैसे शब्द पहना दिये हैं, हमने झाँसा देने वाली परिभाषाएँ गढ़ ली हैं, हम प्यारे दिखाई देने वाले विशेषण ले आते हैं, हम वासना को स्नेह का नाम दे देते हैं, हम बन्धन को कर्तव्य का नाम दे देते हैं, हम इन्द्रियगत आकर्षण को प्रेम का नाम दे देते हैं, हम बल प्रयोग को प्रणय निवेदन का नाम दे देते हैं। हम ख़रीद-फ़रोख़्त को, लेन-देन को, क्रय-विक्रय को, प्रेम-योग का नाम दे देते हैं। दो प्रेमी हैं, वो आपस में आकर मिल गये हैं। हुआ क्या है सचमुच? एक समझौता! एक व्यापारिक अनुबन्ध हुआ है, तो ये करके हम अपनेआप को झाँसा दिये रहते हैं, ताकि हमें पता न चलने पाये कि हम राक्षस लोग हैं।

जो हम कर रहे हैं अगर उसको हम सीधे-सपाट, नंगे शब्दों में अभिव्यक्त कर दें, तो बड़ी कुरूप और गन्दी सच्चाई सामने आ जाएगी न? उससे हमारे सम्मान और अहंकार को ठेस पहुॅंचेगी। तो हमने क्या करा है कि हमने अपनी गन्दगी को ही सुन्दर शब्दों से आभूषित कर दिया है कि करो गन्दगी उसको नाम अच्छा सा दे दो! जैसे शादियों में होता है न! कि नहीं जी, हमें तो कुछ नहीं चाहिए, बस शादी ऐसी हो कि दोनों परिवारों का सम्मान जो है वो बना रहे। सीधे-सीधे मुँह से बोलो न! पैसाखोर हो, लड़का बेचने आये हो, पर वैसे बोल देंगे तो गन्दगी मच जाएगी, तो फिर इस तरीक़े से बोला जाता है, छद्म भाषा में, यूफ़ीमिसटिक लैंग्वेज में।

‘तो बस शादी ऐसी हो कि दोनों परिवारों की इज़्ज़त बची रहे, हमें कुछ नहीं चाहिए।’ या फिर? नहीं जी हमें कुछ मत दीजिएगा, जो दीजिएगा, अपनी लड़की को दीजिएगा, हमें कुछ नहीं चाहिए। ये शुम्भ- निशुम्भ सब उसी तरफ़ के हैं, हमें कुछ नहीं चाहिए। जैसे ऋषियों ने उसी समय पर देख लिया हो कि भविष्य में भी क्या होने वाला है।

क्योंकि ऊपर- ऊपर से चीज़ें बदलती हैं, भीतर-भीतर कहाँ कुछ बदलता है? शोषण की हमारी वृत्ति तब भी थी, आज भी है, जान रहे हो न? मूर्ख हम तब भी थे, आज भी हैं। कुल मिलाकर जो चीज़ें हमें तब आकर्षित करती थीं, वही आज भी करती हैं, बस उनका स्वरूप आकार-प्रकार, चेहरा, रंग-रोगन बदल गया है, नाम बदल गये हैं, भीतर-ही-भीतर न जगत बदला है, न जीव बदला है। संसार भी वैसा ही है और अहंकार भी वैसा ही है। तो आज जो कुछ हो रहा है, एक तरीक़े से वो पहले भी हो रहा था न, जब पुराण रचे गये थे? तो उन्होंने फिर भविष्य भी नहीं देखा होगा, उन्होंने बस वर्तमान देख लिया। जो वर्तमान को देख लेता है, वो भविष्य दृष्टा हो जाता है, मज़ेदार बात निकली! जो स्वयं को समझने लगता है, वो पूरी दुनिया को समझने लगता है और जो वर्तमान को समझ लेता है, वो भविष्य को भी जान जाता है। यही बात हम यहाँ पर पा रहे हैं।

तो धूम्रलोचन अपने मालिकों की आज्ञा पर आता है और देवी के हाथों जान गँवाता है। अब इसके बाद शुम्भ-निशुम्भ को बड़ा क्रोध, तो वो अपने चंड-मुंड नाम के दो बड़े नायक भेजते हैं और न जाने कितने अन्य प्रकार के फिर दैत्यों-असुरों के नाम आते हैं कि इस कुल के दैत्य जाऍं, उस कुल के राक्षस जाऍं, अपनी बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर के‌ जाऍं। बहुत सारे नाम आते हैं, वो आप सप्तशती पढ़ोगे, तो आपके सामने‌ आएगा।

जब हमने पिछले साल सप्तशती पर पूरे विस्तार से चर्चा करी थी और फिर उस चर्चा पर हमने पुस्तक प्रकाशित करी थी और कोर्स भी है, तो उसमें हमने फिर एक-एक श्लोक को लेकर के इन असुरों के नामों की और इनके सब विस्तारों की चर्चा करी है। अभी के लिए इतना ही पर्याप्त है कि चंड-मुंड मारे जाते हैं और चंड-मुंड को मारने के कारण ही देवी का एक नाम है, ‘चामुंडा।’ ठीक है?

इसके बाद बारी आती है रक्तबीज की, अब रक्तबीज आता है ये ज़बरदस्त लड़ाका और जब रक्तबीज आता है तो रक्तबीज का सामना करने के लिए सब देवता लोग और विष्णु भी और शिव भी मिलकर के अपनी जो शक्तियाँ हैं और अपने जो अस्त्र हैं, वो देवी को अर्पित करते हैं और देवी के शरीर से भी अन्य कई शक्तियाँ और देवियाँ प्रकट होकर के असुरों से युद्ध करना शुरू कर देती हैं और बहुत सारे गण माने सैनिक, मातृ-गण प्रकट हो जाते हैं, वो भी युद्ध करते हैं और ये सब जो शक्तियाँ प्रकट होती हैं, इनके भी सबके अलग-अलग नाम बताये गए हैं। कौमारी शक्ति, शिवा, माहेश्वरी, ऐंद्रि।

अब रक्तबीज आता है, रक्तबीज का जो किस्सा है, वो सारगर्भित है, वहाँ बात कुछ गहरी है। रक्तबीज़ के बारे में क्या है? कि उसको शक्ति प्राप्त थी या वरदान था उसको कि उसके खून की एक बूँद भी जहाँ गिरती है, वहाँ से एक नया रक्तबीज, माने एक नया राक्षस पैदा हो जाएगा। तो देवी की जो शक्तियाँ हैं ये जाकर रक्तबीज से भिड़ जाती हैं और ऐंद्रि या शिवा कोई जाकर के उस पर प्रहार करती हैं तो उसका शरीर कटता है तो खून गिरता है और उसमें से और बहुत सारे रक्तबीज खड़े हो जाते हैं।

अब जो है एक विशेष वृतान्त आता है, जिसका भारतीय लोकमानस पर बड़ा गहरा असर रहा है, छाप पड़ गयी है, बिलकुल। काली देवी अब आविर्भूत होती हैं, अम्बिका के ही शरीर से अब काली प्रकट होती हैं। और काली के जितने मन्दिर होगें, वहाँ पर आपने देखा होगा, उनके हाथ में क्या है? एक खप्पर है, ठीक? और उसमें रक्त है और वो रक्त पी रही हैं। तो वो सारी जो किंवदन्ती है वो आ रही है सप्तशती से और रक्तबीज से। तो इतने सारे जब रक्तबीज पैदा हो जाते हैं तो काली कहती हैं कि एक ही तरीक़ा है, तुम मारो इसको जहाँ इसका खून गिरेगा मैं खून पी जाऊँगी और जब मेरे मुँह में भी खून गिरेगा तो वहाँ भी रक्तबीज पैदा होंगें और मेरे मुँह के भीतर ही, उनको मैं खा जाऊँगी। तो काली जो माँस खाती हैं वो ऐसा होता है, वो रक्तबीजों का माँस होता है।

तीसरे ही चरित्र में एक जगह पर साफ़-साफ़ वर्णित है कि काली. . . , अभी कुछ ही महीने पहले एक बहस भी छिड़ी थी, बड़ा विवाद उठा था कि काली तो भाई माँस खाती हैं और शराब भी पीती हैं। काली कौनसा माँस खाती हैं? काली रक्तबीजों का माँस खाती हैं। काली के नाम पर माँसाहार को उचित ठहराना मूर्खता भी है, हिंसा भी है, कपट है। काली जो माँस खा रही हैं वो राक्षसों का माँस खा रही हैं, रक्तबीज का माँस है और काली जो मदिरा पी रही हैं, सप्तशती साफ़-साफ़ बताती है, ‘असुरों का रक्त ही मद है, असुरों का जो रक्त है वही मदिरा है।’ ये नहीं है कि वो बाज़ार से जाकर मदिरा पी रही हैं। अभी ये नौ-दुर्गा के दिनों में शराब की बिक्री बहुत बढ़ जाती है और ये जितने पीने के शौकीन हैं शायद ये अपनेआप को यही तर्क देते होगें कि जब माँ पीती हैं, काली माँ पीती हैं तो हम क्यों नहीं पी सकते, अभी तो काली माँ के दिन चल रहे हैं।

काली माँ पीती हैं असुरों का रक्त और तुम हो कायर आदमी और कायर क्या कर रहा है? वो अधर्मियों का पापियों का रक्त तो पी नहीं सकता, तो काली के नाम पर शराब पी रहा है और काली की पूजा करने वालों ने ये खूब करा है, काली के नाम पर मदिरा पी है। काली का पूजन कर रहे हो, कम-से-कम एक प्रतिशत तो काली माँ जैसे हो जाओ, तब तो पूजा की कुछ सार्थकता मानी जाए, है न? तो ये बहुत दूर तक बात जाती है, जो रक्तबीज की है, देख रहे हो कि क्या किया जाता है? आम तौर पर जो घृणित होता है, जो पापी होता है, जो शत्रु है तुम्हारा तुम मारकर उसको दूर फेंक देते हो, लेकिन भारतीय जनश्रुति में दोनों पौराणिक ही कहानियाँ हैं। दो बड़े सशक्त प्रतीक आते हैं, जिन्होंने जो घृणित था, कुत्सित था, त्याज्य था उसको मारकर फेंक नहीं दिया, उसको अपने भीतर पी लिया। एक तो ये काली का वृत्त, जो रक्तबीज का रक्त सारा पी जाती हैं और दूसरा महादेव शिव की बात, जो सागर मंथन के उपरान्त, जो हलाहल-विष निकलता है, जिसको कोई कहीं रख नहीं पा रहा होता, जो इतना तीक्ष्ण होता है कि पूरी दुनिया को नष्ट करे दे रहा होता है, उसको वो लेकर के अपने गले में बैठा लेते हैं, पी जाते हैं।

तो ये बात बड़ी दूर तक जाती है। प्रतीक कई तलों वाला है, इसमें आप उघेड़ते चलेंगे तो एक के बाद एक बात खुलेगी। ये तो कोई भी कर सकता है कि जो बुरा था उसको दूर फेंक दिया, अच्छी बात है ये! करना भी चाहिए। बुरे को अनुमति दे दो कि बुरा तुम्हारे ऊपर छा जाए, तुम्हें भी बुरा बना दे वो, इससे अच्छा ये है कि बुराई को स्वयं से दूर फेंक दो। हम कहते हैं न कि बुरी संगति से बचो, वो अच्छी बात है! लेकिन बुरी संगति से और बुराई से और पाप से निपटने का एक और बड़ा विरल, अद्भुत और सबसे ऊँचा तरीक़ा होता है जो सबके काम का नहीं होता, आम आदमी के लिए तो इतना ही पर्याप्त होता है कि वो बुराई से दूर हो जाए। जो उच्चतम है, जो श्रेष्ठतम है, जो सबसे सशक्त है, वो क्या करता है? वो बुराई को गले लगा लेता है। ये काम आम आदमी नहीं कर सकता। आम आदमी बुराई को गले लगाएगा तो बुराई आम आदमी को बुरा बना देगी। आम आदमी ज़हर पिएगा तो ज़हर उसे खा जाएगा।

शिव जब विषपान करते हैं, तो वो विष की विषता को समाप्त कर देते हैं। काली जब रक्तपान करती हैं तो नये रक्तबीज वो पैदा नहीं होने देतीं, वो पचा जाती हैं। भारत ने ये स्थिति भी जानी है कि तुम ऐसे भी हो सकते हो और ऐसा तुम क्यों नहीं हो पा रहे? होकर दिखाओ न! कि बुराई से भी तुम्हें दूर नहीं जाना पड़े तुम बुराई को पचा जाओ, ऐसे हो जाओ। लेकिन ये जो उच्चतम आदर्श है, ये सिर्फ़ विरलों के लिए है, आम आदमी ये करने लग गया कि काली ने रक्त पिया था रक्तबीज का तो हम भी रक्त पिएँगे, तो बड़ा उपद्रव हो जाएगा, ये आदर्श आम आदमी के लिए नहीं है, लेकिन फिर भी ये आदर्श महत्वपूर्ण है, अगर ये बस आपको सिद्धान्त रूप में भी पता है तो भी इसका महत्त्व और लाभ है, आपको पता तो हो न कि इस दुनिया में इतना कुछ भी घातक नहीं है कि आपको बचे-बचे घूमना पड़ेगा। एक दिन यदि आप साधना करते रहें, आप ऐसी स्थिति पर आ सकते हैं जहाँ पर बड़े-से-बड़ा विष भी आपके ऊपर प्रभावहीन हो जाएगा। जहाँ पर बड़े-से-बड़ा राक्षस भी आपके भीतर जाकर के आपको मारेगा नहीं बल्कि पच जाएगा और ऐसे क्यों नहीं हो सकते आप? तो बेवजह नहीं है ये बात कि रक्तबीज की कहानी इतनी प्रचलित हुई।

पूरी सप्तशती से जो दो-चार बातें, जो दो-चार उल्लेख सबसे ज़्यादा प्रचलित हुए हैं, उनमें एक रक्तबीज का है। कौन है रक्तबीज? रक्तबीज वो है जिसको यदि पचाया नहीं, तो वो अपनी संख्या में गुणोत्तर वृद्धि करता रहेगा। उसको मारने का एक ही तरीक़ा है, उसे पचा जाओ, उसे मारोगे तो वो बढ़ जाएगा, मारोगे तो बढ़ेगा, पचाओगे तो समाप्त हो जाएगा।

मारना भी कोई छोटी बात नहीं है, आम आदमी तो मार भी नहीं पाता, आम आदमी तो मारा जाता है। मारना कोई छोटी बात नहीं है, पहले मारना ही सीख लो, पहले जो बुरा है उसको दूर करना ही सीख लो। लेकिन जब और आगे बढ़ोगे जीवन में तो पाओगे कि दूर करने से बात बन नहीं रही है। कई बार जिसको दूर करते हो, वो दूर होकर के और शक्तिशाली हो जाता है, इसीलिए क्योंकि उसे तुमने दूर कर दिया। तुम कहते हो कि ये बुरा आदमी है, मुझे इसकी संगति नहीं करनी। तुम भले आदमी हो अपेक्षतया और तुम उस बुरे आदमी कि संगति नहीं कर रहे, तुम उसे दूर छोड़ देते हो, तुमसे दूर रहकर के वो और क्या हो जाएगा? और ज़्यादा बुरा हो जाएगा न! तो ऐसे तो संसार में बुराई बढ़ती ही चली जाएगी। तो फिर साधुता का प्रमाण ये होता है कि जिसको बुरा देखो उसे अंगीकार कर लो, जिसे बुरा देखो उसे अपना बना लो। अब ये करने मत लग जाना। ये साधु कर सकता है तो सफल हो पाएगी बात, आम आदमी करेगा तो उल्टी पड़ेगी।

आम आदमी को तो विवेक सीखना पड़ता है न? विवेक माने क्या होता है? किसको पास रखना है, किसको पास नहीं रखना है। लेकिन एक स्थिति आती है साधुता की या ऊँचाई की या शुद्धता की आन्तरिक, जब विवेक की आवश्यकता नहीं रहती। जब आप कहते हो, कम एज़ यू आर (जैसे हो वैसे आओ ) ये सुना है न? ये वैसे है सूफियों के यहाँ से कि एक होता है जिसने जीवन भर शुद्धता का बड़ा अभ्यास करा होता है, वो कहता है कि जीवन भर उसने यही कहा होता है कि जो सुपात्र होंगे और जो ऊँचे लोग होंगे मैं तो सिर्फ़ उनसे बात करूँगा, शिक्षा भी मैं उन्हीं को दूँगा। फिर उसकी मृत्यु की घड़ी आ जाती है, अब मरना है, तो मरने से बस थोड़ी देर पहले वो उठता है अपनी मृत्यु-शैय्या से और बाज़ार में आ जाता है और बोलता है, ‘जो हो, जैसा है आओ, सब आओ, सबसे बात करूँगा!’ तो एक चोर आ जाता है उसके पास, एक जुआरी आ जाता है उसके पास, क्योंकि यही लोग खाली होते हैं।

आप सड़क पर जाकर बुलाओगे कि जो जहाँ है आ जाओ, तो जो लोग काम-धन्धों में लगे होंगें, दफ़्तरों में होंगें, कुछ कर रहे होंगे, वो तो आ नहीं जाएँगे, यही आ जाएँगे जो अपना मवाली घूम रहे हैं, बेरोज़गार। यही अपना। तो इसी तरह के सब इकट्ठा हो जाते हैं और वो ऐसों को ही ज्ञान देकर के बिलकुल प्रकाशित कर देता है। ये लेकिन अन्तिम बात है, ये मौत से बिलकुल पहले की बात है माने मुक्ति की दशा की बात है ये। तो ये चीज़ मुक्त को ही शोभा देती है कि वो फिर पचा ही जाए, पचा ही जाए। वहाँ तक आना चाहिए सबको, हर आदमी अगर गन्दगी से बचता रहेगा, तो जगत बहुत गन्दा हो जाएगा।

इसी क्रम में मुझे धूमिल याद आते हैं, अभी कुछ दिन पहले मैंने उद्धृत किया था कि “जो आदमी अपना हाथ मैला होने से डरता है, वो एक नहीं ग्यारह कायरों की मौत मरता है।” काली से जैसे प्रेरणा लेकर ही धूमिल ने ये बात कही हो, अपनी ओर से वो धार्मिक आदमी नहीं थे, लेकिन ये जो बात कह रहे हैं वो, ये बात है तो बड़ी धार्मिक ही और धर्म की ऊँचाइयों की बात है ये बिलकुल। तो काली उस शुचितावादी मानसिकता के लिए नहीं हैं, जो व्यक्तिगत मुक्ति, व्यक्तिगत साफ़-सफ़ाई और व्यक्तिगत शुद्धि में विश्वास रखती है। काली तो वो हैं, शक्ति वो हैं और शिव वो हैं कि जो जग के दूषण हैं वो शिव के आभूषण हैं और शिव से ही काली आविर्भूत हैं, ठीक? तो शिवत्व किसी में आ रहा है ये तभी मानना जब वो जग के दूषण को अपना आभूषण बना ले।

दुनिया से जितने परित्यक्त हों, उनको कहे कि सब आओ और तुम. . (हाथ से घेरा बनाकर बैठने का इशारा करते हुए) कि एक साँप बुला लिया है, अब साँप कोई अपने घर में रखना चाहता है? साँप किसी के यहाँ निकले तो क्या कर जाता है? ‘अरे ! अरे ! आइए महाराज आइए, रसोई में आइए, खाइए-पीजिए, फिर बिस्तर पर विराजिए, सोऍंगे, क्या करेंगे? बताइए पंखा तेज कर दें आपके लिए। कम्बल ओढ़ेंगे।’ ऐसे होता है? साँप दिखते ही धार्मिक-से-धार्मिक आदमी क्या करेगा? भगाओ! साँप वो है जिसको सब भगाना चाहते हैं, भले ही आप उसको धार्मिक स्थान देते हों और पूजा भी कर लेते हों, लेकिन घर से तो भगा ही देते हैं।

साँप को, शिव ने यहाँ (सिर की तरफ़ इशारा करते हुए) बैठा रखा है। राख मल रखी है और महल में नहीं है वहाँ जाकर के सुनसान बियावान में बैठ गये है पहाड़ के ऊपर। और उनके साथ कौन लगे हुए हैं सब? भूत और प्रेत, ये भूत-प्रेत कौन हैं? ये सब दुनिया से निकाले हुए लोग हैं। प्रतीक समझिएगा, जिनका कोई नहीं है, शिव उनके हैं और पशु हैं कुछ शिव के पास, नन्दी है। दुनिया पशुओं के साथ भी क्या बर्ताव करती है, हम जानते ही हैं। आज भी गोवंश के साथ क्या बर्ताव हो रहा है, ये हम सड़कों पर ही देख लेते हैं। शिव ने कहा, ‘आओ बैठो, मेरे पास बैठो, दुनिया जिसके साथ भी अत्याचार करे, दुनिया से जो भी बहिष्कृत हो, वो मेरे पास आ जाए।

ये भाव समझना, ये वही भाव है जिस कारण वो नीलकंठ हैं, जैसे गले में यहाँ पर ज़हर है न वैसे ही आस-पास भूत-प्रेत हैं। न तुम ज़हर पी सकते हो, न तुम भूत-प्रेत; और भूत-प्रेत का मतलब ये नहीं है कि भूत-प्रेत होते हैं और वहाँ भूत-प्रेत बैठे हुए हैं। भूत-प्रेत भी प्रतीक हैं, किस बात के? कि जो हर जगह बुरे माने जाते हैं, जो जहाँ मिल जाऍं, उन्हें वहाँ से डंडा लेकर भगाया ही जाएगा, जिनसे पूरी दुनिया डरती है, शिव उनको अपना साथी, अनुचर, दास, गण बनाये हुए हैं, बात आ रही है समझ में न?

और दुनिया जिन चीजों को महत्व देती है, शिव के लिए वो महत्वहीन हैं। वो क्या करें, वहाँ बैठे हुए हैं। आसन तक ठीक से नहीं है, पत्थरों पर बैठे हैं और महल तो छोड़ दो, साधारण घर तक नहीं है, कपड़ों के नाम पर क्या है? छाल। ये समष्टिगत हो जाने की पराकाष्ठा है, ये वैयक्तिक सत्ता का, व्यक्तिगत अहंकार का पूर्ण लोप है। ‘मैं निर्विकल्प हो गया! जो कुछ है सब स्वीकार है। सर्वग्राह्य, सर्वस्वीकार।’ इनके प्रति मेरी करुणा ही यही है कि इनको अपने पास बैठा लूँ।

एक जगह पर सप्तशती कहती है, देवता जाकर के देवी से कह रहे हैं कि देवी हम जान गये हैं, अभी पिछले ही चरित्र में बात हुई है। देवी, हम जान गये हैं कि तुम ये जो राक्षसों को भी मारती हो, ये उनके प्रति करुणा के कारण ही मारती हो। तुम्हारे खड्ग से मारे जाकर के इनकी मृत्यु पवित्र हो जाती है और ये स्वर्ग को प्राप्त करते हैं, क्योंकि रक्तबीज को समाप्त न करो, तो वो अपने लिए और मुसीबत ही तैयार करेगा न? तो काली उसे समाप्त करती हैं, अपने ही शरीर का हिस्सा बनाकर के। ‘आ! तेरा रक्त अब मेरा रक्त हो गया, तेरा शरीर अब मेरा शरीर हो गया, आ हम एक हो गये।

इतना प्रेम होता है क्या किसी में आम तौर पर? तेरी सारी कुत्सा अब मेरी हो गयी, तू तो नख से लेकर के शिख तक विकारों से ही भरा हुआ था न? तेरे सारे ही विकार मैंने अपना लिये और मैं इतनी शुद्ध हूँ कि तेरे सब विकार अपनाकर भी, मैं निर्विकार ही रहूँगी। आ तू पूरी तरह मेरा हो जा, तेरे सारे दोष मैं अपनेआप में लिये लेती हूँ। अब दूर से देखोगे तो लगेगा कि रक्तबीज का वध किया। लेकिन जिनके पास देखने के लिए भीतरी आँखें भी हैं, उन्हें कुछ और भी दिखाई देता है, वो कहते हैं, ‘वध तो क्या ही किया, उसे पूरा स्वीकार कर लिया, उसे अपने में मिला लिया।

अब ये अपने में मिलाना वैसे ही नहीं है जैसे शेर, हिरण को अपने में मिला लेता है, तो कुतर्क मत करने लग जाना कि ऐसे तो शेर भी हिरण को इतना प्रेम करता है, तो कहता है, ‘आ! तेरा शरीर अब मेरा शरीर बन जाएगा।’ यहाँ बात बहुत अलग है, बात बिलकुल दूसरी है। शेर को अपनी भूख शान्त करनी है, काली नहीं अपनी भूख शात कर रहीं। शेर प्रकृति के कारण वध कर रहा है, काली धर्म के लिए वध कर रही हैं। शेर बेहोश है, अचेतन है वो प्रकृति द्वारा संचालित एक यन्त्र भर है, वो इसलिए हिरण के पीछे दौड़ रहा है। काली, चैतन्य हैं, वो इसलिए एक घोर युद्ध में संलग्न हैं, ठीक है? तो दोनों बातों में बड़ा अन्तर है। तो ऐसे करके फिर रक्तबीज का भी वध होता है और उसके बाद आते हैं फिर लड़ाई के लिए, कौन? स्वयं शुम्भ-निशुम्भ।

श्रोता१: आचार्य जी, इससे पहले मेरे पास एक प्रश्न था, अभी तक जो पूरी चर्चा हुई है उसमें आपने बहुत खूबसूरती से जितने भी प्रतीक हैं, वो किस तरह से हमारे जीवन में ही एक बदलाव आये उसकी ओर इशारा कर रहे हैं, पर आपने जैसे एक इसमें समुद्र मंथन की कहानी की बात करी, जहाँ पर एक प्रकरण ये भी आता है कि शिवजी हलाहल जो विष होता है उसको अपने गले में रख लेते हैं। कोई व्यक्ति यदि इसी जो थी कि अपने गले में विष रख लिया, इसको यदि सांकेतिक न समझकर इसका जीवन पर क्या प्रभाव पड़ना चाहिए उसको न देखकर, उसको इस तरह दिखाने लगे कि एज़ इफ़ (जैसे यदि) उसके शरीर ने ही ये काम कर लिया, उसने विष पी लिया है और उसके बाद भी उसे कुछ नहीं हो रहा है।

आचार्य: नहीं-नहीं, ये बात भौतिक और शारीरिक बिलकुल नहीं हैं भाई, ये सारी घटनाएँ मानस क्षेत्र में सांकेतिक हैं, इनको स्थूल मत बना दो। क्या बोलना चाह रहे हो कि शिव का शरीर विशेष है? उन्होंने कुछ साधना या योग करके अपना शरीर ऐसा बना लिया है कि उसपर विष का प्रभाव नहीं पड़ता। ये मूर्खता पूर्ण बात है, ये हमने एक बहुत ऊँचे प्रतीक को एक बहुत निचले स्थूल पार्थिव धरातल पर गिरा दिया। ये बात कोई भौतिक नहीं है कि मैं कल्पना कर पा रहा हूँ अनुमान से कि तुम क्या… कि शिव एक ऐसे प्रबल योगी हैं जिन पर विष का प्रभाव नहीं पड़ता, नहीं ये बात नहीं है। बात शारीरिक थोड़े ही है, शिव कोई शरीर हैं क्या? शिव कोई व्यक्ति हैं क्या? शिव सनातन बुद्धि का, सनातन बोध से उठा प्रबलतम प्रतीक हैं। शिव कोई जीव थोड़े ही हैं हमारी तुम्हारी तरह कि एक व्यक्ति है वो वहाँ कैलाश पर्वत पर विचरण कर रहा है। ये हम कैसी व्यर्थ की बात कर रहे हैं? ये अनादर है शिव का ऐसे बोलना। ऐसे नहीं बोलना चाहिए।

शिव बोध मात्र हैं। आचार्य शंकर ने क्या कहा था निर्वाण षटकम् में? वहाँ से तुम्हें पता चलेगा शिव कौन हैं। उन्होंने कहा था, ‘न मैं आँख हूँ, न मैं जाति हूँ, न मैं कान हूँ, न मैं बुद्धि हूँ, न मैं स्मृति हूँ”, वो एक के बाद एक जहाँ छ: वर्ग आते हैं, छहों शारीरिक भौतिक वर्गों को नकारते हैं न कि मैं ये भी नहीं हूँ, मैं ये भी नहीं हूँ सबकुछ नकारने के बाद, छहों बार अन्त में क्या बोलते हैं? “मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।”

जब आप. . . शिव कौन हैं ? जो कुछ नहीं हैं, वो शिव हैं, जिसे आँखों से देख नहीं सकते, जिसके पास शरीर नहीं है, जो मन और बुद्धि से परे है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, जो पाप-पुण्य से परे है, जो जन्म-मृत्यु से परे है, जो धर्म-अधर्म से परे है, जिसकी कोई जाति नहीं है, जिसका कोई लिंग नहीं है, वो शिव है, वो है शिव। तो शिव कोई व्यक्ति नहीं हैं।

शिवत्व का अवमूल्यन मत करिए, शिव को ऐसे मानकर के कि जैसे कोई जीव ही शिव हों, हम आप जीव होते हैं, हम आप निचले तल के प्राणी हैं, शिव नहीं जीव हैं, शिवोऽहम् बोलने का अधिकार सिर्फ़ उसको है, जो जीव से सम्बन्धित सब वस्तुओं, विषयों को मिथ्या जानकार नकारना शुरू कर दे, मात्र वो शिव हैं, तो फिर शिव क्या हैं? सत्य हैं शिव, आत्मा हैं शिव, सत्य और आत्मा के लिए एक अन्य नाम है शिव। ठीक है? जब मैं शिव कह रहा हूँ तो उससे मेरा आशय बिलकुल ऐसा नहीं है जैसे कि सचमुच कोई ऐतिहासिक चरित्र हुआ था शिव नाम का, न बिलकुल भी नहीं।

श्रोता१: इसका मतलब तो फिर ऐसा हुआ कि शिव जी को योगी बोल देना भी उनको नीचे गिर लेना है।

आचार्य: बहुत नीचे वाली बात है, बहुत नीचे वाली बात है। योग तो वो करता है न, जो वियोग में होता है। शिव योगस्थ हैं। योगस्थ बोल दो तो फिर भी ठीक है, आत्मा के लिए एक और नाम होता है योगस्थ। कि जिसके दो टुकड़े नहीं हैं, जो युक्त है, वो आत्मा है। वो तो फिर भी ठीक है पर कहो कि योगी हैं और योग कर रहे हैं, ये तो बड़ी अभद्रता हो गयी ऐसे कहना। आगे बढ़ें?

श्रोता२: जैसे कि आप बोल रहे थे, रक्तबीज के बारे में आप बता रहे थे, महाकाली के बारे में, तो जैसे हमारे रीजन (क्षेत्र) तेलंगाना में, हैदराबाद में बोनालू करके एक फेस्टिवल होती है, जिसमें माँ काली के मन्दिर के अन्दर बलि देते हैं जैसे पशु की, मुर्गा हो या बकरी हो, तो उसका जो बलि ऐसे भी देते हैं कि वो जो देवी आती हैं, उनके ऊपर देवी चढ़ती हैं और वो लोग मुँह से ही यहाँ पर गर्दन पकड़कर खींचकर और उसका रक्त पीना ऐसा कुछ करते हैं।

आचार्य: उसकी गर्दन में सीधे दाँत गड़ाकर पीते हैं?

श्रोता२: हाँ दाँत लगाकर, हाँ, मुर्गे का, डायरेक्टली (प्रत्यक्ष), तो जैसे आप बोल रहे थे कि पुराणों में. . . .

आचार्य: (सिर ना में हिलाते हुए) कुछ बातें ऐसी होती हैं न जिनके सामने मैं अवाक् रह जाता हूँ, मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। एक स्तर की बात हो तो उस पर कुछ बोला भी जाए, अब ये जो तुम बता रहे हो, इसका मैं जवाब क्या दूँ? कहाँ काली, कहाँ काली की गरिमा, काली जैसा सुन्दर और गहरा प्रतीक। और कहाँ काली के नाम पर ये वीभत्स क्रूरता। पहली बात तो ये बात कितनी क्रूर है और हिंसक है और असभ्य है और दूसरी बात इस बात से आप नाम किसका जोड़ रहे हैं? माँ काली का, ये अक्षम्य हो गया।

प्रकृति का प्रतीक हैं काली। और आप प्रकृति के ही ये नन्हे-मुन्ने बच्चों को लाकर के, ज़िन्दा जीव की गर्दन में दाँत गड़ाकर उसका खून पी रहे हो और कह रहे हो इससे काली प्रसन्न हो जाएँगी, इससे काली प्रसन्न होंगी? मैं बड़ा प्रयास किया करता हूँ कि संयत रहूँ, पर ये एक चीज़ है जिसके सामने मुझे क्रोध आ ही जाता है। आप सिर्फ़ उस पर अत्याचार इसलिए कर पा रहे हो क्योंकि वो छोटा है और कमज़ोर है ठीक? अभी दूसरे ग्रह से आप से कहीं ज़्यादा शक्ति सम्पन्न कोई एलियन आ जाए और वो भी जानवर जैसा ही दिखता हो, हमें तो अपने अलावा सब जानवर ही लगते हैं, हम ही हैं बस अकेले। वो भी जानवर जैसा ही दिखता हो, कोई एलियन आ जाए, उसमें शक्ति लेकिन बहुत ज़्यादा हो, बुद्धि बहुत ज़्यादा हो, तुम उसके साथ ये कर पाओगे?

ये सब कुछ भी नहीं है, बस यही है कि जो कमज़ोर मिला उसको खा जाओ, जो कमज़ोर मिला उसको खा जाओ। जानवरों में जो कमज़ोर मिले उसको खा जाओ, इंसानों में जो कमज़ोर मिले उसको खा जाओ। उसका माँस नहीं खा सकते कमज़ोर इंसान का, तो उसका पूरा जीवन खा जाओ, तरह-तरह से उसका शोषण करो। और कोढ़ में खाज ये कि इस सब को धार्मिकता का नाम दे दो कि ये तो जी साहब धर्म में लिखा है, इसलिए हम करते हैं।

ये भी मत बोलो कि ये तुम्हारे भीतर का जानवर तुमसे करवा रहा है, ये सब तुम्हारी पाशविकता का उपद्रव है। इसके साथ क्यों काली का नाम जोड़ रहे हो? काली तो इस पूरे जगत की माँ हैं, उनके बच्चों के साथ तुम ये दुराचार कर रहे हो, माँ प्रसन्न होंगी इससे?

श्रोता१: ऊपर से इसमें बात ये कहते हैं कि मेरे ऊपर पहले देवी उतरीं और उसके बाद…

आचार्य: देवी ने करवाया है ये। देवी ने रक्तबीज का रक्त पिया था, मुर्गे का रक्त थोड़े ही पिया था, प्रकृति को तो वो बचाना चाहती हैं, तुम प्रकृति का नाश कर रहे हो देवी के नाम पर? ये देवी के प्रति कितने अपमान की बात है! कौनसा मन्दिर बता रहे थे? बेगूसराय में न?

श्रोता१: हाँ, बिहार में, बेगूसराय में।

आचार्य: बिहार में, बेगूसराय में बहुत पुराना मन्दिर है, देवी का ही, दुर्गा मन्दिर है और उसमें पाँच-सौ, हज़ार साल पुरानी परम्परा थी कि वहाँ पर इन दिनों में जीव की बलि दी जाती थी और इस साल हुआ है कि मन्दिर के प्रबन्धन ने तय करा है कि नहीं। फल, सब्जियाँ, गन्ना इस तरह की कुछ चीज़ें हैं, ये हम अर्पित कर देंगे, ये बलि हो गयी, जीव हत्या नहीं करेंगे। और ये बात पहले भी हो चुकी है, इससे पहले भी बहुत सारे और मन्दिर रहे हैं, बड़े मन्दिर भी रहे हैं, जिन्होंने स्वीकारा है कि जीव-हत्या करना, बलि देना, पिछड़ेपन की, अज्ञान की, अहंकार की, क्रूरता की निशानी है, ऐसी कोई भी परम्परा चाहे कितनी भी प्राचीन या मान्य क्यों न हो, त्याग करने योग्य है।

तो उत्तराखंड में भी कुछ प्रमुख मन्दिर रहे हैं, जिनमें पहले बड़े जानवर भी कटते थे, उन्होंने कह दिया नहीं, यहाँ पर अब बलि नहीं चलेगी और मैं समझता हूँ आने वाले समय में लगभग सभी मन्दिरों में भारत के जहाँ अभी भी बलि जैसा दुष्कृत्य होता है, पशु-बलि जैसा, वहाँ ये सब बन्द हो जाएगा। देखो, सनातनी की एक खूबी ये होती है कि उसमें उदारता और विनम्रता होती है, तो उसको जब दिख जाता है न कि वो कुछ ग़लत कर रहा है, तो वो अड़ा नहीं रहता।

कुछ विरोध उठेगा, अहंकार तो करता ही है ऐसा, उसकी ग़लती बताओ तो वो विरोध करता है, तो कुछ विरोध करेगा, कुछ समय तक अड़ा रहेगा, लेकिन देर-सवेर वो अपनी ग़लती मान लेता है। यही वजह है कि हिन्दू धर्म में, बहुत सारे सुधार कार्यक्रम सम्भव हो पाये और हिन्दुओं ने उन सुधारों को स्वीकार भी कर लिया। भले ही वो शुरू-शुरू में बड़े कड़वे लगे, राजा राममोहन राय से शुरू करो, तो राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वयं गाँधी जी (गाँधी जयंती के उपलक्ष्य पर, कल ही थी गाँधी जयंती तो), बाबा साहब अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले सबको स्वीकार करा। विरोध किया लेकिन स्वीकार करा। ‘ठीक है, हम मानते हैं कि ग़लती है, हम स्वीकार करते हैं।’

तो मुझे आशा है कि ये जो पशु-बलि का भी कार्यक्रम है, ये वैसे तो बहुत हद तक बन्द हो चुका है।

श्रोता२: गवर्नमेंट ने भी बैन कर दिया है।

आचार्य: हाँ, गवर्नमेंट ने भी बैन कर रखा है, लेकिन फिर भी जहाँ चोरी-छिपे भी चल रहा है, वहाँ बन्द होगा। इतना ही नहीं, मैं तो ये आशा रखता हूँ, प्रार्थना करता हूँ कि सनातनी होने का एक दिन ये अर्थ ही बन जाएगा और ये प्रमाण बन जाएग कि आप किसी भी जीव को जानते-बूझते नुक़सान नहीं पहुँचाते। अज्ञान में और प्रकृतिवश, प्रारब्धवश, कोई जीव आपके हाथों मारा गया है, उसमें तो आप कुछ कर नहीं सकते क्योंकि आपने कोई चुनाव तो करा नहीं था उसे मारने का, तो वो बात अलग है कि मैं आया और मैं इस पर बैठ गया, कुर्सी पर और नन्हे यहाँ कोई जीवाणु रहे हों मेरे बैठने के कारण मर गये पिसकर, उनका तो मैं कुछ कर नहीं सकता, हालाँकि मैं कोशिश करूँगा कि वो भी न्यूनतम हो जाए, चींटी भी न मरे, लेकिन फिर भी चीटियाँ तो शायद मर ही जाएँ।

मैं ये भी चाहूँगा कि पेड़-पौधों को भी मेरे हाथों हानि न हो, पर शरीर का तकाज़ा ये है कि शायद कुछ पेड़-पौधों को मेरे हाथों हानि हो। तो ये जानूँगा मैं भलीभाँति कि किसी भी चैतन्य जीव को हानि पहुँचाना, जानते-बूझते, जहाँ विकल्प मौजूद है और आप हानि का चुनाव करते हैं, एकदम ग़लत है, अधर्म की बात है। और अगर शून्य नहीं कर सकता अपने हाथों हो रही हिंसा को, तो कम-से-कम न्यूनतम ज़रूर कर दूँगा।

ये सनातनी होने की पहचान बन जाएगी एक दिन कि जीवों को तो मारना छोड़ दो, वो पेड़-पौधों के प्रति भी करुणा का भाव रखेगा, उनको भी न्यूनतम नुक़सान पहुँचाना चाहेगा, ठीक है? बाक़ी शरीर के निर्वाह के लिए कुछ तो आपको खाना ही पड़ेगा, लेकिन उस खाने-पीने के चयन में भी सनातनी ये ध्यान रखेगा कि जो कम-से-कम हिंसा हो सकती हो, वो हो। थोड़ी भी हिंसा हो रही है तो पाप है, पाप की गठरी और बड़ी क्यों करनी? पहले ही ये पाप की गठरी मौजूद है, पहले ही जीव दुख भोग रहा है, हम प्राणी। उसको और क्यों बड़ा करना है? तो ये सब हो जाएगा धीरे-धीरे, बाक़ी तो इसमें क्या कहा जा सकता है?

श्रोता२: तो आचार्य जी बलि क्या होती है, दुर्गा सप्तशती के हिसाब से?

आचार्य: बलि की चर्चा तो खूब कर चुके हैं, कैमरे के पीछे थे तुम, तुमने सुना ही होगा। बलि माने क्या है? वो जो कुछ भी तुम्हारे भीतर है, जो रखने लायक नहीं है उसको त्याग दो, यही बलि है, यही बलि है। अब तुमने पूछ लिया तो एक ऐसी बात का उल्लेख करे देता हूँ, जो अभी आगे आती, पर अभी ही बता देता हूँ।

तो ये जो दोनों जने हैं, इनकी जिज्ञासा से इस पूरे प्रकरण का आरम्भ होता है। कौन हैं? राजा सुरथ और वैश्य है समाधि नाम से। यही दोनों आये हैं, दोनों परेशान हैं, तो इन्हीं की परेशानी दूर करने के लिए ऋषि इनको माँ के बारे में विस्तार से बता रहे हैं। तो अन्त में ये दोनों साधना करते हैं फिर, माँ की। और सप्तशती कहती है कि साधना में इन्होंने प्रोक्षित बलि में अपने रक्त का उपयोग करा। प्रोक्षितव्य वो होता है जिसकी बलि दी जाती है। तो इन दोनों ने अपने ही शरीर की बलि दी, शरीर की बलि कैसे दी? ग्रन्थ हमें बता रहा है कि दोनों ने खाना-पीना बिलकुल कम कर दिया, ये होती है बलि। ये माँस की बलि है, किसके माँस की बलि दी जा रही है? अपने ही माँस की, काटकर भी नहीं। दोनों ने अपना देहभाव कम करने के लिए अपना खाना-पीना कम कर दिया और इसी को ग्रन्थ कहता है कि दोनों ने ही अपने शरीर की बलि दे दी, दोनों ने अपने माँस की बलि दे दी।

ये होती है बलि। जो चीज़ तुम अकारण पकड़े बैठे हो, जिस चीज़ से तुमने बहुत मोह बिठा लिया है लेकिन वो जो वस्तुत: तुम्हारे काम की नहीं है, उसको त्याग दो, इसको बलि कहते हैं। जानवर तुम्हें बहुत प्यारा है क्या? तो जानवर को काटना बलि कैसे कहला सकता है? तुम्हें सबसे प्यारा क्या है? अपना अहंकार। और अहंकार को सबसे प्यारा क्या है? पहली चीज़, तुम्हारा शरीर। तुम यही तो कहते हो, ‘मैं अहंकार हूँ’ और अहंकार कहता है, मैं देह हूँ।’ तुम कहते हो, ‘मैं हूँ अहंकार मेरा, अहम्, अहम्, अहम्। अपना परिचय जब भी देते हो तो शुरूआत “अहम्” शब्द से करते हो न? कि मैं फ़लाना हूँ, तुम्हें सबसे प्यारा है? मैं। और मैं को सबसे प्यारा क्या है? देह। तो बलि देनी है, तो इन दोनों की दो न! अपनी अहंता की या अपने देहभाव की।

इसमें जानवर कहाँ से आ गया बीच में? वो भी नन्हा, बेज़ुबान, उसको पता भी नहीं है, उसकी आँखों की तड़प देखो वो अपने पर फड़फड़ा रहा है, वो जीना चाहता है उसने कुछ नहीं बिगाड़ा था। तुम उसको लाकर के मार रहे हो, उसका खून पी रहे हो, कैसे दरिंदे हो? क्या कर रहे हो?

श्रोता२: ये हमारे अन्दर की राक्षसी वृत्ति है।

आचार्य: बिल्कुल, जो चीज़ तुम्हें सबसे प्यारी हो, प्यार से यहाँ पर अर्थ है मोह का, आसक्ति का। जिससे तुमने अपनी आसक्ति बैठा ली है, जिससे लिप्त हो गये हो व्यर्थ ही, उसको त्यागना ही बलि है और ये बात ग्रन्थ बार-बार ज़ोर-ज़ोर से, दोहरा-दोहराकर, चिल्लाकर कहते हैं कि बलि की सही परिभाषा ये है। लेकिन इंसान ने बलि के नाम पर जानवरों को काटना शुरू कर दिया, हमसे ज़्यादा बड़ा जानवर कोई है क्या? चलो ठीक है।

श्रोता१: जब सबसे पहले दिन आपसे इस विषय में चर्चा शुरू हुई थी, तो मैंने आपसे एक चीज़ पूछी थी कि क्यों ऐसा हुआ कि जब ग्रन्थ इतनी साधारण बात कर रहे हैं, ऐसी बात जो हम सबके जीवन पर लागू होती है, तो लोग ग्रन्थ से दूर क्यों चले गये। तो शायद उसका एक जो वजह है वो ये भी है कि अगर ग्रन्थ ख़ुद ही बता रहा है कि बलि का ये अर्थ है कि जहाँ पर आप अपने ही शरीर को व्रत रखकर गला रहे हैं और वो एक तरह की बलि है, तो उससे आपका सामना न‌ हो।

आचार्य: जानते हो, बहुत सारे लोगों ने वैदिक ऋचाओ को उठाकर के अब ये सिद्ध करने की कोशिश करी है कि वेदों में भी तो माँसाहार का उल्लेख है। एक लगभग एक घंटे की मैंने चर्चा करी थी, अभी दो-तीन महीने पहले ही, वो रिकार्ड भी हुई थी। जिसमें मैंने जितने ग्रन्थ हैं, उनमें से चुन-चुनकर के बताया था कि कैसे स्पष्टतया, ग्रन्थों में उल्लिखित है कि पशुओं को मत मारना, इसका नाम बलि नहीं है। और वास्तविक बलि क्या है ये भी ग्रन्थों से ही उद्धृत करके समझाया था।

इस मामले में गायत्री शक्तिपीठ के श्रीराम शर्मा आचार्य जी हैं उन्होंने एक छोटी सी पुस्तिका है ‘पशुबलि’ नाम से ही, सबसे पहले मैंने वो पढ़ी थी और उससे बड़ी स्पष्टता आयी थी। इसका उल्लेख मैंने उस वीडियो में भी करा है, उसका शीर्षक है, “पशु-हत्या यदि धर्म है, तो अधर्म क्या?” इसी तरह का। ढूॅंढ़ोगे यूट्यूब पर तो मिल जाएगा। तो उस वीडियो को देख लो या ये जो पशुबलि नाम की किताब है इसको पढ़ लो, तो उस वीडियो से भी ज़्यादा उस किताब में तुमको उल्लेख मिलेंगें कि किस-किस तरीक़े से कहाँ-कहाॅं पर हमारे ग्रन्थ जीव-हत्या को निषिद्ध करते हैं और इंसान इतना नालायक हो गया है कि अपनी ज़बान के स्वाद को जायज़ ठहराने के लिए ग्रन्थों का ही सहारा ले रहा है। लोग आजकल निकले हुए हैं बताने के लिए कि देखिए, साहब आप तो ये भी खाते थे, वेदों में ये भी खाया जाता था, वेदों में गाय को खाने का उल्लेख है और ये सारी बातें। अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं, अनुवाद में विकृतियाँ कर रहे हैं, जान-बूझकर के।

तो अब आगे बढ़ते हैं तो अब ख़ुद ये दोनों आ जाते हैं, भाई! शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज़ का संहार हो गया, अब ये दोनों आ जाते हैं। और जैसा होना ही था, दोनों मारे जाते हैं, तो इस पर भी एक पूरा अध्याय ही समर्पित है कि दोनों किस प्रकार से युद्ध करते हैं, कौनसे शस्त्रों का प्रयोग करते हैं, फिर फरसा फेंकते हैं, फिर खड्ग मारते हैं, फिर ये, फिर वो, तो. . . अन्त लेकिन वही होता है, जो होना होता है, दोनों मारे गये। दोनों को मारने के बाद जो बात सप्तशती कहती है वो बड़ी उल्लेखनीय है और बड़ा सुन्दर उसमें प्रतीक है।

कहती है, ‘जैसे ही ये दोनों मरे, नदियाँ साफ़ हो गयीं, सूर्य की प्रभा निखरकर सामने आ गयी, हवा शीतल हो गयी, पहाड़ों की और वनों की जो दुर्दशा थी वो ठीक हो गयी। ये तुम देख रहे हो इशारा किधर को है? ये सीधे-सीधे जो आज जलवायु परिवर्तन है, क्लाइमेट चेंज , उसकी बात नहीं करी जा रही? वही तो है जिसका उल्लेख सप्तशती में है, आज से हज़ारों साल पहले से। कि आज जो आदमी, ये जो आज का इंसान है, जो राक्षस बना हुआ है, इसने हवा ख़राब कर दी है, नदी ख़राब कर दी है, समुद्र ख़राब कर दिया है, सारे जानवर मार दिये, सारे जंगल काट दिये। और इस राक्षस को जब तुम हटा दोगे, तो सूरज की रोशनी भी अच्छी हो जाएगी, चाँद-तारे साफ़ दिखायी देंगे, नदियाँ साफ़ हो जाएँगी, जो नदियाँ विलुप्त हो गयी हैं, वो फिर बहने लगेंगी। जो वन तुमने उजाड़ दिये हैं, वो फिर हरे हो जाएँगे। हाँ, जो प्रजातियाँ विलुप्त हीं हो गयीं जीवों की, अब वो तो वापस नहीं आने की।

लेकिन देख रहे हो कि शुम्भ-निशुम्भ क्या कर रहे थे? उनके जाने के बाद यदि प्रकृति ठीक हो गयी, तो माने वो दोनों राक्षस कर क्या रहे थे? वो प्रकृति ही तो बर्बाद कर रहे थे, तो राक्षस कौन है फिर? जो प्रकृति को बर्बाद करे। ये भी तो कह सकती थी सप्तशती कि ये दोनों मर गये तो देवता हर्षित हो गये? और दुनिया भर के जो मनुष्य थे उन्होंने बड़ा उत्सव मनाया, ये बात नहीं कहती है सप्तशती। सप्तशती कहती है, ‘ये दोनों मरे, तो जंगल ठीक हो गये, जानवर ठीक हो गये, नदियाँ ठीक हो गयीं, पहाड़ ठीक हो गये। पहाड़ों के ऊपर जो बर्फ़ थी, जो बर्बाद हो गई थी, वो बर्फ़ ठीक हो गयी, हवा ठीक हो गयी, जो गन्दगी, प्रदूषण फैला हुआ था, वो प्रदूषण मिट गया।

जैसे आज जो हम पर्यावरण की क्षति कर रहे हैं, वो ऋषियों ने बहुत पहले ही देख लिया हो और जैसे राक्षस की पहचान ही यही हो कि वो पर्यावरण को बर्बाद करेगा, जो पर्यावरण को बर्बाद करे, वही आज का राक्षस है। हम सब राक्षस हैं। फिर क्या होता है? अब ये सब बता दिया मेधा मुनि ने। तो राजा और वैश्य दोनों को बात समझ में आ गयी कि हमारी जो समस्या है, हमें जो दुख और बन्धन हैं, वो माँ के प्रति, माँ माने प्रकृति के प्रति, प्रकृति माने यही जो सबकुछ है (देह की तरफ़ इशारा करते हुए) इसके प्रति अज्ञान के कारण हैं।

तो ये दोनों जाते हैं और फिर साधना करते हैं। माँ की साधना करते हैं। माँ की साधना ही आत्मज्ञान की साधना है, क्योंकि आत्मज्ञान में किसको जाना जाता है? यही अपनी पूरी व्यवस्था को। आत्मज्ञान में आत्मा नहीं जानी जाती, आत्मा तो अज्ञेय होती है, तो माँ की साधना करते हैं, तो तीन वर्ष तक उनकी साधना चलती है, फिर उनसे कहा जाता है, ‘बताओ क्या चाहिए?’ माता कहती हैं। राजा को बात अभी पूरी समझ में आयी नहीं है, वो बोलते हैं, ‘मेरा राज्य छिन गया है, राज्य दिला दो वापस।’ ‘जो चाहोगे मिलेगा, जो मुझसे जो माँगेगा, मैं उसको वो दे देती हूँ।’ ये बात और किसने कही है?

श्रोता१: श्रीकृष्ण ने।

आचार्य: श्रीकृष्ण ने कही है। तो माँ भी यही कहती हैं, ‘तुम जो माँग रहे हो, मैं दे दूँगी।’ राजा को राज्य चाहिए, मिलेगा। वैश्य चतुर खिलाड़ी है, वैश्य को दुनियादारी ज़्यादा पता है। लेन-देन में माहिर हैं न! कौनसी ऊँची चीज़ है, किसका कितना दाम लगाना चाहिए, जानते हैं। दुनियादारी में राजा से आगे हैं। वैश्य बोलते हैं, ‘नहीं भाई, दोबारा उसी दुनिया में दिल नहीं लगाना है, मैं अनासक्त हुआ! मुझे मुक्ति दो माँ, मुझे मुक्ति दो!’ अब माँ यहाँ क्या बोल रही हैं फिर समझना! जैसे एक के बाद एक हीरे-मोती निकलते ही जा रहे हों। खान है बहुमूल्य प्रतीकों की दुर्गा सप्तशती। देवी कहती हैं, ‘ठीक है, तुम्हें मुक्ति चाहिए, तो मैं तुम्हें ज्ञान देती हूँ।’ देवी भी ये नहीं कहती हैं कि तुम्हें मुक्ति चाहिए तो मैं तुम्हें तत्काल मुक्ति दे सकती हूँ वरदान में, देवी भी कहती हैं कि मुक्ति चाहिए तो पहले ज्ञान चाहिए होगा। ‘मैं तुम्हें वो ज्ञान देती हूँ, उससे तुम्हें मुक्ति मिलेगी।’ और फिर वैश्य मुक्ति को प्राप्त होते हैं।

जो लोग सोचते हैं कि ज्ञान के अतिरिक्त, किसी भी मार्ग से मुक्ति मिल सकती है उनके लिए अन्त में सबक है। आप अपनेआप को मत बोलिए, ज्ञानमार्गी। आप कहिए, ‘मैं तो शाक्त-पंथी हूँ, या मैं तो भक्त हूँ, देवी की भक्ति करता हूँ, ज्ञान का मेरा क्या है?’ देवी भी यही कहेंगी कि मुक्ति तो ज्ञान से ही मिलेगी। मेरे पास भी आओगे तो मुक्ति के लिए तो मैं तुम्हें कहूँगी ज्ञान लो! ज्ञान के अतिरिक्त नहीं मुक्ति। आत्मा का स्वभाव बोध है और जीव का मूलबन्ध झूठा ज्ञान है। जब हमारी मूल पीड़ा ही यही है कि हमने झूठा ज्ञान पकड़ रखा है, तो सच्चे ज्ञान के अतिरिक्त मुक्ति आपको कहाँ से मिल जानी है?

तो इस तरह से करके दुर्गा सप्तशती की समाप्त होती है। आप सबको सच्ची नवदुर्गा की शुभकामनाऍं।

श्रोता१: प्रणाम आचार्य जी।

आचार्य: प्रणाम।

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