देव-प्रतिमाओं का मनचाहा इस्तेमाल || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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देव-प्रतिमाओं का मनचाहा इस्तेमाल || आचार्य प्रशांत (2020)

आचार्य प्रशांत: प्रणाम आचार्य जी, पिछले कुछ दिनों में देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का फिर से अनादर हुआ। और बुद्धिजीवी और कलाकार क़िस्म के लोगों का जैसे ये पसंदीदा काम हो। वो देवियों की मूर्तियाँ लेते हैं, प्रतिमाएँ लेते हैं और फिर उनका अपने अनुसार दुरुपयोग करते हैं।

इसी तरीक़े से कई लेखक भी हैं जो पुरानी पौराणिक कथाओं इत्यादियों को लेते हैं और फिर उनका मनचाहा अर्थ करके और कई बार तो उनमें ज़बरदस्त विकृतियाँ डालकर के प्रकाशित करते हैं। पूछने पर वो कहते हैं कि ये हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और पुराने धार्मिक और ऐतिहासिक पात्र तो सार्वजनिक हैं, पब्लिक फ़िगर्स हैं। तो उनका किसी भी तरीक़े से अर्थ करना या प्रदर्शन करना सबकी अपनी निजी स्वतंत्रता की बात है।

आचार्य प्रशांत: नहीं, बात इसकी नहीं है कि अगर देवी-देवताओं की मूर्तियों का किसी ने अपने मन के हिसाब से कुछ निरूपण कर दिया, चित्रण कर दिया या वर्णन कर दिया, तो एक संप्रदाय की भावना को ठेस लगती है, इसीलिए ये काम ग़लत है। नहीं, ये बात भावना की नहीं है। ये बात बहुत व्यावहारिक है, समझनी पड़ेगी।

देखो, ये जितने भी धार्मिक पात्र हैं या पौराणिक चरित्र हैं, ये बड़ी सूक्ष्मता से, बड़े ध्यान से, एक बहुत बड़े ऊँचे उद्देश्य के लिए रचे गये। ये पात्र यूँही नहीं हैं। ये पात्र ऐसा नहीं है कि कोई ऐतिहासिक व्यक्ति ही था निश्चित रूप से, तो उसको लेकर के फिर कोई कालांतर में धार्मिक पात्र रच दिया गया। नहीं, ऐसा नहीं है।

आदमी का मन एक जटिलता है। आदमी का मन अपने में ही गुत्थम-गुत्था है। बहुत उलझा हुआ रहता है। उसको सुलझाने की विधियाँ हैं ये सब पात्र और देवियाँ और देवता और जितनी भी कहानियाँ और कथानक तुम जानते हो।

जैसे कि आदमी की चेतना एक कमरे में बंद हो और उस कमरे पर एक ताला लगा हो या कई ताले लगे हों। तो ये जितने पुराने चरित्र हैं, ये सब समझ लो कि अलग-अलग तालों की कुंजियाँ हैं। अब जो कुंजी होती है, चाबी, वो बहुत एक बारीक निर्माण होती है। उसका मनचाहा उपयोग नहीं किया जा सकता।

तुम कहो कि साहब, ये चाबी है और इस चाबी का तो मैं अपने हिसाब से इस्तेमाल करूँगा। तुम क्या कर रहे हो चाबी से — तुम चाबी से लिखने की कोशिश कर रहे हो। तुम लिख थोड़ी पाओगे। अपना ही बेवकूफ़ बनाओगे। या तुम एक ताले की चाबी ले करके उससे दूसरा ताला खोलना चाहो, खोल थोड़ी पाओगे। या तुम उस चाबी का इस्तेमाल चम्मच की तरह करना चाहो।

या तुम कहो कि मैं ये जो चाबी है, इसको सिर पर रखकर फिरूँगा बिना इसका सही इस्तेमाल किये। ताला तो मैं इससे खोलूँगा नहीं, बस मैं इस चाबी को सिर पर रखकर फिरूँगा। तो भी वो चाबी तुम्हारे काम की नहीं रह जाएगी।

तो हमें इस भ्रम से बाहर आना होगा कि राम का चरित्र है, कृष्ण का चरित्र है, या इतनी सैकड़ों-हज़ारों पौराणिक कहानियाँ हैं, इनमें जो कुछ लिखा हुआ है वो बस यूँही है, भ्रम मात्र है। नहीं! भ्रम मात्र नहीं है! समझने में कमी रह जाती है।

हम जानते ही नहीं हैं कि अगर कहीं कोई बात कही गयी है, किसी तरीक़े से कही गयी है, तो वो बात आदमी की चेतना के किस गुण की ओर इशारा कर रही है। उस बात का हमारे जीवन से सीधे-सीधे और गहरा सम्बन्ध है और वो सम्बन्ध हम समझ नहीं पाते। क्यों नहीं समझ पाते? क्योंकि वो जितनी भी बातें कही गयी हैं, उनका जो मूल आधार है वो वेदान्त है।

वेदान्त से हमारा कोई परिचय नहीं। मैं बहुत बार पहले भी कह चुका हूँ कि भारतीय दर्शन और अध्यात्म और धर्म, इनका मूल आधार उपनिषद् हैं। पर उपनिषद् हमने न पढ़े हैं और उपनिषदों से न हमारा कोई परिचय है। तो इसीलिए फिर हमें समझ में ही नहीं आता कि पुराण में कोई कहानी दी हुई है तो वो कहानी वास्तव में इशारा क्या कर रही है, क्या बोलना चाह रही है।

या किसी देवी के वर्णन के बारे में कुछ बता दिया गया है या देवी की महिमा का मान लीजिए, दुर्गा सप्तशती में पूरा बखान है, आप समझ ही नहीं पाएँगे कि देवी के ये इतने अलग-अलग नाम क्यों हैं। अगर आपको वेदान्त नहीं पता तो फिर आप देवी की महिमा को भी नहीं समझ सकते।

अब देवी की महिमा को समझ तो सकते नहीं, लेकिन नवदुर्गा आएगी तो आप भी कह देंगे कि अच्छा, चंद्रघंटा हैं और ये है सरस्वती। इस तरह से करके आप भी देवी की पूजा करने लग जाएँगे।

ये ऐसी सी बात है जैसे कोई ताले को ले ले, चाबी को ले ले और दोनों की पूजा कर रहा है और वो जानता ही नहीं है कि ताले और चाबी का जोड़ बिठाना कैसे है और किस ताले में कौनसी चाबी!

समझ में आ रही है बात?

ये जो मूल समस्या है वो वेदान्त के प्रति हमारे अज्ञान के कारण है। हमने कभी पढ़ा ही नहीं। जो वेदान्त को पढ़ लेगा, उसके सामने ये जितने भी मिथक हैं, वो बिलकुल अपना राज़ खोल देंगे। फिर कोई कहानी आपके लिए कहानी नहीं रह जाएगी। वो कहानी फिर आपके जीवन का यथार्थ बनकर चमकेगी आपके आगे। आप कहोगे, 'अरे! ये कहानी नहीं है, ये मेरी ज़िंदगी की बात है। उस बात को बस एक कहानी के रूप में इस तरीक़े से रख दिया गया है।'

आप समझ रहे हैं?

और जब वो चीज़ आपको स्पष्ट नहीं होती है, तो फिर आप इस तरह की बहकी-बहकी बातें करने लगते हैं कि मैं तो देवी-देवताओं की नग्न मूर्तियाँ या चित्र बनाऊँगा। मेरा मन है। मुझे वो ऐसे ही अच्छे लगते हैं। अरे! ये कोई बात है — तुम बोलो कि मैं चाबी को ले करके उसका केक बनाऊँगा, मुझे तो ऐसे ही अच्छा लगता है। अगर तुम्हें ऐसे ही अच्छा लगता है तो हमें तुम्हें पागलखाने में डालना अच्छा लगता है। तुम पापी नहीं हो, तुम पागल हो।

जो लोग ये हरकत कर रहे हैं, उनको ये नहीं कहना चाहिए कि अरे! इन्होंने तो ब्लास्फ़ेमी (ईश-निंदा) कर दी या इन्होंने धर्म की बड़ी हानि या धर्म का अपमान कर दिया। कौनसा पागल किसकी हानि कर सकता है! कौनसा पागल किसका बहुत बड़ा अपमान कर सकता है! पागल तुम्हारा अपमान कर भी दे तो तुम बुरा मानोगे क्या? पागल तो बस वही है, पागल! उसकी जगह पागलखाने में है। वो विक्षिप्त है। वो जान ही नहीं रहा है वो कर क्या रहा है।

ऐसे लोगों को गुस्सा नहीं करते बस उनको उठाकर के पागलखाने में डाल देते हैं। लेकिन कैसे डालोगे तुम पागलखाने में? होता क्या है? होता ये है कि कोई व्यक्ति आएगा — ये शायद अभी एक ईरानी सज्जन हैं जिन्होंने ये किया है, ईरानी कैनेडियन एक्टिविस्ट हैं उन्होंने ये सब करा है कि कुछ अभद्र टिप्पणियाँ करी हैं या कुछ चित्र बनाये हैं देवियों पर। तो जब उधर से कुछ ऐसा आता है तो जो हिंदू मानस है वो तिलमिला उठता है। कहता है, 'हमारे धर्म पर आघात हो रहा है, धर्म पर आघात हो रहा है।'

तिलमिला तुम इसलिए उठते हो क्योंकि तुम्हें ख़ुद नहीं पता है कि ये देवी के जितने नाम हैं और जितने रूप हैं उनका वास्तविक अर्थ क्या है और उनकी जीवन में उपयोगिता क्या है। नवदुर्गा का मतलब हमारे लिए क्या हो गया? हमारे लिए फलाहार, कट्टू का आटा, और क्या होता है? सिंघाड़े का सामान और ये सब तो हमारे नवदुर्गा का मतलब हैं। हम जानते भी हैं देवी का वास्तविक अर्थ?

चूँकि हमें नहीं पता, इसीलिए जब कोई उस पर कोई अभद्र टिप्पणी कर देता है, तो हमें और बुरा लगता है। हमें ख़ुद पता होता तो इन अभद्र टिप्पणियाँ करने वालों का हम कम-से-कम बुरा नहीं मानते। हम उन्हें पागल बोलते, पापी तो नहीं बोलते! और मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम पागल को पागल बोल करके छोड़ दो। पागल को वो स्थान मिलना चाहिए जिसका वो अधिकारी है। और वो स्थान पागलखाना है।

लेकिन जब तुम पागल को पागलखाने डालते हो और उस प्रक्रिया में पागल तुमको, मैंने कहा, गालियाँ वग़ैरा दे रहा होता है, तो तुम्हें तुम्हारे दिल पर चोट लग जाती है क्या?

कोई पागल तुम्हारे घर के सामने से गुज़र रहा है और मान लो उसने तुम्हारे देवी-देवताओं पर कुछ अशोभनीय बातें बोल दीं, तो तुम रोने लग जाते हो क्या? या तुम ये कहने लग जाते हो कि पागल को मार दूँगा और इसकी पूरी कौम को मार दूँगा? ये सब तो नहीं कहते न? तुम्हें पता होता है, मूर्ख है। लेकिन उसको तो मूर्ख तब बोलोगे न जब पहले तुम ख़ुद होशियार हो। तुम्हें ख़ुद ही नहीं पता। अपने धार्मिक प्रतीकों से तुम्हारा परिचय गहरा है ही नहीं।

उदाहरण के लिए, हम नहीं जानते शिवलिंग का अर्थ। हम नहीं जानते मंदिर के घंटे का अर्थ क्या है, महत्व क्या है, शिल्प कैसा और क्यों है। हमसे कोई पूछे कि गर्भग्रह की बनावट ऐसी क्यों होती है मंदिरों में, हमें नहीं पता होगा।

हमसे कोई पूछे कि किन्हीं अवतार के या देवता के या देवी के चार हाथ या आठ हाथ क्यों हैं और उनके हाथों में जो भी वस्तुएँ हैं या शस्त्र हैं या पुस्तकें हैं, उनका क्या अर्थ है, क्या महत्व है, क्या सिग्निफ़िकेंस है, तो हमें नहीं पता। कोई ब्रह्मा के सिरों के बारे में आपसे सवाल करे, आप नहीं बता पाएँगे। यही पूछ दें कि ब्रह्मा और ब्रह्म का अंतर बता दो, बहुतों को नहीं पता होगा। पूछ दिया जाए — ब्रह्मा, ब्रह्म और हिरण्यगर्भ में सम्बन्ध क्या है, बता दो? हमें नहीं पता होगा।

अब कोई पागल आकर के कुछ टिप्पणी कर देगा, आपको बुरा लग जाएगा। क्योंकि आप ख़ुद भी नहीं जानते थे। आपको पता होता तो आप यही कहते न कि ये सही बात बोल ही नहीं रहा है।

देखो, कोई मूर्खतापूर्ण बात कह गया, वो एक चीज़ होती है। और कोई सच्ची बात कह करके तुम्हारा दिल दुखा गया, बिलकुल दूसरी बात होती है। हमें चूँकि पता ही नहीं सच क्या है, इसीलिए कोई हमपर कुछ भी इल्ज़ाम लगाता है तो हमें लगता है, ‘क्या पता सच बोल रहा हो।’ हमें शक़ हो जाता है। और जब हमें शक़ हो जाता है कि क्या पता ये सच तो नहीं बोल रहा, तो फिर हमारे दिल पर चोट लगती है।

अगर तुम अपने भीतर से आश्वस्त होते कि ये जो बात कही जा रही है, ये बेवकूफ़ी की है, तो कम-से-कम तुम्हें चोट तो नहीं लगती। और चोट नहीं लगती, उसके बाद फिर तुमको जो करना होता वो तुम करते। पर चोट खायी हुई, घायल और अपमानित अवस्था से तुम जो कुछ भी करोगे वो ग़लत ही होगा। वो एक तरह की विक्षिप्त प्रतिक्रिया होगी किसी विक्षिप्त कर्म के विरुद्ध।

एक विक्षिप्त आदमी ने तुम्हें चोट दे दी और तुमने उस चोट के ख़िलाफ़ एक विक्षिप्त प्रतिक्रिया दे दी, उससे कोई लाभ नहीं है। आप एक समझदारी भरा जवाब दें। आपके प्रत्युत्तर में बोध होना चाहिए। आपके उत्तर में गहराई होनी चाहिए।

और जो लोग इस तरह की धारणा रखते हैं कि साहब हम तो किसी भी धार्मिक प्रतीक के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, उनकी अक्ल के तो कहने ही क्या! जो सोचते हैं कि जैसा कि तर्क दिया गया है यहाँ पर कि भाई, देवियों की प्रतिमाएँ है तो अब सार्वजनिक संपत्ति हैं। देवियाँ पब्लिक फ़िगर्स हैं, तो हम भी उनका अपने मन के अनुसार निरूपण कर सकते हैं। ऐसे लोगों की अक्ल का तो कहना ही क्या।

वो जिस तरीक़े से निर्मित है प्रतिमा, उसे वैसा ही रहने दो। उस प्रतिमा के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश मत करो। जैसे कि किसी चाबी के साथ अगर तुमने खिलवाड़ कर दिया, तुमने कहा, 'ये चाबी है। मैं इसको थोड़ा और घिस देता हूँ।' तो अब क्या होगा? उससे ताला नहीं खुलेगा।

ठीक वैसे ही इनोवेशन (आविष्कार) करने की कोशिश मत करो कि राम का चरित्र वैसा था लेकिन अब तो ज़माना बदल गया है, अब तो हम राम का चरित्र भी बदले देते हैं। या हम कृष्ण के मुख में आज के ज़माने के हिसाब से नये शब्द डाले देते हैं, नयी गीता डाले देते हैं। ये सब करने की कोशिश मत करो।

ताला पुराना है बिलकुल वही, क्योंकि आदमी की चेतना पुरानी है बिलकुल वही, मूल रूप से, तो चाबी तुमने कोई अगर नयी बना डाली, तो ताला खुलने की जो थोड़ी बहुत संभावना है वो भी समाप्त हो जाएगी। पुराने ताले के लिए वो पुरानी चाबी ही चलेगी।

या ये कह लो कि ताला कभी पुराना हुआ ही नहीं। ताला जितना पुराना है, उतना ही आज भी नया है, आधुनिक है। और चाबी को भी फिर इसीलिए पुराना बोलो ही मत। वो आज भी प्रासंगिक है, आज भी आधुनिक है। उसके साथ छेड़खानी मत करो।

इससे मेरा आशय ये बिलकुल नहीं है कि तुम पुरानी प्रथाओं को शुद्ध मत करो। इससे मेरा ये आशय नहीं है कि तुम पुराने रिवाज़ों को और यहाँ तक कि अंधविश्वासों को भी ढोते रहो। वो सब बिलकुल हटाओ, उसकी सफ़ाई होनी चाहिए। जो भी चीज़ किसी समय के लिए थी, समय के साथ पुरानी पड़ गयी है, उसको हटा दो। लेकिन इतना होश भी तो रखो कि कुछ चीज़ें समय के साथ पुरानी नहीं पड़ती। उनको नहीं हटाया जा सकता।

भाई, अगर उदाहरण के लिए कहा गया है कि मान लो कोई प्रथा है जिसको धार्मिक प्रथा ही माना गया कि जब आप घर से निकलेंगे तो घर से निकलते वक़्त बैलों के मुँह में थोड़ा चारा ज़रूर डाल देना है। अब ये बात मान लो प्रचलित हो गयी एक धार्मिक प्रथा की तरह, ठीक है? अब समय बदल गया। वो तो प्रथा रही होगी किसी और समय की।

आज के समय बैलगाड़ी में कोई निकलता ही नहीं है। बैलगाड़ी में निकल नहीं रहे, वो निकल रहे हैं कार में, लेकिन लाकर के कार के रेडिएटर में क्या डाल रहे हैं — भूसा! ये बेवकूफ़ी है। ये अंधविश्वास है और इसी कारण धर्म का बहुत नाम ख़राब हुआ है। कि जो चीज़ समय के साथ पीछे छूट जानी चाहिए, उसको भी लेकर के ढो रहे हो आज भी। जो चीज़ें पीछे छूटनी चाहिए उनको पीछे छोड़ो।

पता होना चाहिए समय सापेक्ष क्या है, टाइम डिपेंडेंट क्या है। साथ ही साथ ये भी पूरी तरह से पता होना चाहिए कि कौनसी चीज़ पीछे नहीं छोड़ी जा सकती। चिंता पीछे छूट गयी क्या? बैलगाड़ी तो छूट गयी पीछे, आदमी ने चिंता छोड़ दी क्या? चिंता तो नहीं छोड़ी न। आदमी ने डर छोड़ दिया क्या? डर तो नहीं छोड़ा न। लालटेन पीछे छूट गयी, दीया पीछे छूट गया।

पहले ज़्यादातर लोग खेती-बाड़ी करके ही जीवन बिताते थे। आज आप मेट्रो शहरों में रहते हो, खेती पीछे छूट गयी, लेकिन ईर्ष्या और मोह पीछे छूट गये क्या? जब आप वहाँ गाँव में रहते थे तब भी आपमें मोह था और बगल वाले की फसल देखकर ईर्ष्या होती थी आपको। आज आप यहाँ शहर में रहते हो जहाँ दो करोड़ की आबादी है और आज भी बगल वाले की नौकरी देखकर के और गाड़ी देखकर के ईर्ष्या होती है आपको।

तो ये चीज़ें फिर मत कह दो कि पुरानी पड़ गयी हैं। चिंता आज भी नयी है। भय और असुरक्षा की भावना और अहंकार, ये आज भी बराबर के नये हैं न? जब ये आज भी हैं तो इनके लिए फिर जो उपाय बताये गये थे, वो आज भी प्रासंगिक हैं। उन उपायों को पीछे मत फेंक देना कि अरे! ये तो बैलगाड़ी के ज़माने की बातें हैं धर्म वगैरह, हटाओ! वो बातें आज भी नयी हैं। आज से हज़ार साल बाद भी नयी रहेंगी।

जिस तरह का इंसान है, इंसान की चेतना है, ये कह मत देना कि श्रीमद्भगवद्गीता पुरानी पड़ गयी, अब इसकी ज़रूरत क्या। गीता हमेशा नयी रहने वाली है। क्योंकि तुम्हारे मन में मोह और संशय आज भी वैसे ही हैं जैसा आज से शायद चार हज़ार साल पहले अर्जुन के मन में थे।

बात आ रही है समझ में?

अर्जुन से बहुत अलग हो पाये हो क्या आज तक?

जब अर्जुन से तुम्हारा मन बहुत अलग नहीं हो पाया आज तक, तो तुम्हें भी फिर कृष्ण की उतनी ही ज़रूरत है जितनी कि अर्जुन को थी।

तो गीता के वक्तव्य फिर ऐसे नहीं हैं जिनको तुम समय के अनुसार बदल दो। न तुम ये कह सकते हो कि गीता के वक्तव्य तो सबके लिए हैं, मैं अपने अनुसार इनमें कुछ बना दूँगा, कुछ बदल दूँगा, इधर का लेकर उधर जोड़ दूँगा या इस पर मैं कोई गीत बना दूँगा, जो ऐसे होगा वैसे होगा।

नहीं, मत करो ये सब! ये पाप हो न हो, मैं कह रहा हूँ, पागलपन ज़रूर है। जैसे कि कोई चाबी के साथ छेड़खानी करे, रगड़ दे। कह दे, ‘मुझे चाबी में ये जो पुराना दाँत निकला हुआ है चाबी में, वो पसंद नहीं आ रहा।‌ मैं इसमें घिस-घिसकर कुछ और बनाऊँगा।’

बना लो! बना लो, अपने दिल को दे लो ठंडक इसी से। बस वो चाबी अब तुम्हारे लिए अनुपयोगी हो जाएगी। किसी काम की नहीं रहेगी। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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