कब तक घिसटूँ
ढ़ोते हुए
अपने मस्तक पर
बोझ तुम्हारे पाँवों का
(तुम्हारे चरण तो मेरा उद्धार करने वाले थे, है न?)
तुमने मुझे सहारा दिया,
पर मेरे पाँव काट कर
तुमने मुझे शब्द दिए
पर उनके अर्थ छीन कर
तुमने मुझे रास्ता दिखाया
पर उस रास्ते में कांटे भी
तुम्हारे ही बिछाए हुए थे ।
शरीर तो दिया तुमने
पर मन के आत्मा से
मिलन के मार्ग में
मैं जान गया हूँ हे देव
स्वयं तुम ही बाधा थे ।
क्षोभ देव
तुम इतने ! अच्छे हुए
कि अब
तुम्हारी वो सारी अच्छाइयाँ
तुम्हारे किसी मेरे-जैसे चेहरे
के ऊपर के नकाब मालूम होती हैं ।
सारे गुण स्वयं में ही समेट लिए
कुछ छोड़े होते
तो आज तुम मुझे यूँ अजनबी न लगते ।
जाओ देवों जाओ
अपनी अलग दुनिया बसाओ
तुम पास रहते हो
तो तुम्हारी ऊँचाई
मुझे मेरी नज़र में बहुत नीचा बना देती है
और मैं ग्लानि में जीवन नहीं काटना चाहता।
मैं ठीक हूँ जैसा हूँ
मेरी अपनी दुनिया है सपने हैं
तुम मेरे सपनों के बीच क्यों घुसे आते हो ?
मैं तुम्हारे समीप आने के लिए ऊपर क्यों उठूँ ?
क्यों और छोटा अनुभव करूँ ?
तुम मेरे समीप आने के लिए नीचे नहीं गिर सकते?
पर तुम नहीं गिरोगे, तुम देव हो,
और मैं भी इसलिए नहीं उठूँगा, मैं मानव हूँ
अतः चलते बनो
और जा कर लौटा दो मुझे मेरी आवाज़
काफी दिनों से तुम्हारे यहाँ बंधक पड़ी है ।
~ प्रशान्त (१०.१०.९७, दशहरा)