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देखो बेटी, माँ-बाप भगवान होते हैं, पति परमेश्वर होता है || आचार्य प्रशांत, आर.डी.वी.वी. के साथ(2023)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: हैलो सर, सभी स्वार्थी होते हैं। हमारे सभी रिश्ते स्वार्थी होते हैं, तो सर क्या हमारे अभिभावक भी स्वार्थी होते हैं? सर अगर हाँ , तो फिर हम उनको ऐसे क्यों भगवान का दर्ज़ा दे चुके रहते हैं कि वो जो तय करेंगे वो ही बिलकुल अटल सत्य होगा, वो ही हमारे लिए बेस्ट होगा। क्या हम उन्हें सामान्य इंसान की तरह नहीं देख सकते जो ग़लतियाँ करते हैं?

आचार्य प्रशांत: अच्छा आपके ज़िंदगी में आपको लोग मिले होंगे न जो ज़बरदस्त स्वार्थी होते होंगे?

प्र: परिवार में तो नहीं मिले, लेकिन हाँ ...।

आचार्य: जहाँ भी मिले-जहाँ भी मिले।

प्र: हाँ।

आचार्य: मिले न। किसी एक का नाम बताइए चाहे काल्पनिक नाम बता दीजिये कि बहुत स्वार्थी इंसान मिला चाहे पुरुष, चाहे स्त्री। कुछ नाम बताइए।

प्र: आर्यन।

आचार्य: हूँ।

प्र: आर्यन , मेरे दोस्त।

आचार्य: आर्यन ठीक है, आर्यन ज़बरदस्त स्वार्थी आदमी है, ठीक है।

प्र: हाँ।

आचार्य: आर्यन की कुछ उम्र बता दीजिए, चाहे काल्पनिक ही सही।

प्र: छब्बीस।

आचार्य: छब्बीस, और आर्यन अभी बाप नहीं बना है, हैं न? और महास्वार्थी है।

प्र: जी।

आचार्य: सत्ताईस की उम्र में आर्यन बाप बन गया। अब वो क्या महापरमार्थी हो जायेगा?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो अब आप बताइए कि माँ-बाप स्वार्थी होते हैं कि नहीं? सब तो आर्यन ही है। बाप बनने से पहले सब महास्वार्थी हैं, तो बाप बनते ही क्या सब निःस्वार्थी हो जायेंगे? इसी तरह महिलाएँ हैं; माँ बनने से पहले घोर स्वार्थी हैं तो माँ बनते ही क्या वो करुणामूर्ति हो जायेंगी? ये कौन-सा चमत्कार है? ऐसा तो होता नहीं कोई चमत्कार। आर्यन महाअज्ञानी है, जिसको जो सलाह देता है उल्टी ही देता है। ऐसा ही है न आर्यन? आर्यन अगर किसी को दो सलाह दें तो समझ लीजिए दोनों ज़हरीली सलाह है। ऐसा है आर्यन, ठीक।

प्र: जी।

आचार्य: अब ये बाप बन गया अगले साल और अब ये अपने बेटे, बेटी को को भी सलाह देगा वो सलाह भी कैसी होगी?

प्र: जैसे खुद के लिए थी, स्वार्थी।

आचार्य: हाँ, माने ज़हरीली होगी न सलाह?

प्र: जी-जी।

आचार्य: तो इसमें ये पूछने की क्या बात हैं कि अगर व्यक्ति होशमंद है तो जब वो बाप बनेगा तब भी होश रहेगा। और अगर व्यक्ति, व्यक्ति की तरह बेहोश है तो वो एक बाप की तरह भी बेहोश ही तो है। जो इंसान अपनी ज़िंदगी भर पूरी दुनिया के प्रति बेहोश ही रहा। वो अपने बच्चों के प्रति भी तो बेहोश ही रहेगा न? ये तो बहुत सीधी बात है। जो माँ, जो माँ दुनिया के हर मसले में अज्ञानी है, वो माँ अपने बच्चों के लिए भी बेहोश ही और अज्ञानी ही तो रहेंगी। इसमें क्या बात है?

प्र: लेकिन सर, अगर कोई बच्चें प्रश्न करते हैं अपने पेरेंट्स को तो उनकों एक तथाकथित विद्रोही बच्चा कह दिया जाता है या अरे! ये बच्चा तो हाथ से निकल गया है या लड़कें हाथ से निकल गए। क्योंकि वो अपने पेरेंट्स के फ़ैसलें को प्रश्न करते हैं।

आचार्य: नहीं, तो वो कौन कह देता है और किसके हाथ से निकल गये?

प्र: मतलब सर, जैसे मुझे ही सुनने मिलता है कि हाँ ये...।

आचार्य: मेरे साथ चलिए न, रुकिए, रुकिए, रुकिए। साथ चलिए, कौन कह देता है कि ये बदतमीज़ हो गया।

प्र: रिश्तेदार।

आचार्य: रिश्तेदार या माँ-बाप ही सबसे पहले तो वही कहेंगे?

प्र: यस सर

आचार्य: किसके हाथ से निकल गया?

प्र: उन्हीं के।

आचार्य: माँ-बाप के ही तो हाथ से? तो वो तो कहेंगे ही न, इसमें क्या है? वो तो कहेंगे ही उसमें क्या है? भाई उन्हीं के तो हाथ से तो निकले हो लेकिन इससे ये थोड़ी सिद्ध हो जाता है कि वो बेहोश नहीं हैं या अज्ञानी नहीं हैं। हाँ, सतर्कता इस बात की रखनी है कि अगर बाप अज्ञानी है तो बेटा भी बराबर का अज्ञानी है। मैं जो बातें कह रहा हूँ उनको सुनकर बेटा ये न सोच ले कि बाप अज्ञानी है और हम महाज्ञानी है। माँ अगर अज्ञानी है तो बेटी भी अज्ञानी है। और ऐसी स्थिति के के लिए...।

प्र: सेम मुझ पर भी लागू होता है।

आचार्य: किस पर?

प्र: जैसे आपका कहना हैं कि ' पेरेंट्स ही अज्ञानी है तो बच्चे भी...।'

आचार्य: हाँ, अज्ञानी तो सब हैं। ऐसी स्थिति के लिए संतों ने कहा है 'अज्ञानी-अज्ञानी मिले , होवे माथा कूट।'

'ज्ञानी सो ज्ञानी मिले, रस की लूटम लूट। अज्ञानी से अज्ञानी मिले, होवे माथा कूट।।'

यही सब परिवारों का हाल हैं। माँ-बाप भी बेहोश, बच्चे भी बेहोश माथा कूट चलती रहती हैं। उसमें जीतता वो है जो ज्यादा बेहोश होता है।

प्र: तो सर, किसी, मतलब अगर इंसान को तर्क से देखना हो बिना उसको गॉड फ़िगर बनाए। कोई भी हो, तो वो नज़र हम पारखी नज़र कैसे विकास करें?

आचार्य: उसके लिए उनके बारे में पढ़ना पड़ेगा, जो सचमुच दुनिया के हीरे-मोती हैं। उनका जीवन कैसा रहा, उन्होंने सीख क्या दी है? कोई ऊँचा है या नीचा है इसका फ़ैसला तो तब होता है न, जब आपने हिमालय सी ऊँचाई देखी हो? आपने अगर ज़िंदगी में छोटे-मोटे झोपड़े ही देखे हो, तो ऊँट भी बहुत ऊँचा लगता है। लेकिन जब ऊँट पहुँचता है हिमालय के सामने तो आप बोलते हो 'अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे।' तो अगर आपको पता करना हो कि आपके आस-पास ये समाज वाले लोग कितनी ऊँचाई के है। ये चचा, ताऊ, पड़ोसी, ये सब घर-परिवार वाले इनकी कितनी ऊँचाई है ये पता करना हो तो आपको फिर किसी कृष्ण से, बुद्ध से थोड़ा परिचय करना पड़ेगा न?

जब हिमालय का पता लगता है तो पता लगती है ऊँट की ऊँचाई नहीं तो ऊँट बहुत ऊँचा है, बकरा भी बहुत ऊँचा लगेगा। इसलिए बचपन से आवश्यक है ऊँचे से ऊँचा साहित्य पढ़ना, ऊँचे वैज्ञानिकों के बारे में जानना, राजनेताओं के बारे में जानना, उनकी जीवनियाँ पढ़ना, उनकी सीख पढ़ना, आध्यात्मिक साहित्य पढ़ना।

दुनिया में जो भी लोग हुए हैं, जो दुनिया का गौरव बने हैं। उनके नज़दीक जाने की कोशिश करना इसी को सत्संग कहते हैं क्योंकि हमेशा तो कोई मिलेगा नहीं न, जिसके आप बगल में जाकर बैठ सके। तो फिर कैसे उनकी संगति करी जाती हैं? उनकी किताबें पढ़कर, उनके बारे में जानकर। अच्छा उन्होंने ये कहा, फिर ये कहा, फिर ऐसा हुआ, फिर ऐसा हुआ।

ये सब जब करा जाता है तो समझ में आता है कि हमारे आस-पास के जो लोग हैं वो कितनी ऊँचाई के हैं। और इसमें कोई आस-पास के लोगों से लड़ाई कर लेने वाली बात नहीं है। जब आप जान जाती हैं कि असली ऊँचाई कहाँ है, तभी तो आप अपने आस-पास के लोगों को भी प्रेरित कर पाएँगी न, कि तुम भी ऊँचे उठो। आप अपने घर के लोगों को भी प्रेरणा कैसे दे पाएँगी? उन बेचारों को भी तो कभी अनुभव, एक्सपोजर (खुलासा) मिला नहीं न?

प्र: सर, आपके पास वैधता है और मेरे पर प्रश्न उठ जाते हैं कि तुम क्या हो जो हम लोगों को सिखा रही हो?

आचार्य: आपके पास जो भी तरीक़ा है, उदाहरण के लिए – मेरी आवाज़ कर्कश हो सकती हैं, आपकी आवाज सुरीली हो सकती है। लोग मुझे नहीं सुनते उनको लगता है कि मैं साधारण बात भी बोल रहा हूँ तो डाँट रहा हूँ। आप उनको ज़रा प्यार से और समझा कर और सहला कर बात कर सकती हैं। जो भी आपके पास संसाधन हो, तरीकें हो उनका इस्तेमाल करिए और तो कुछ है ही नहीं। है न?

प्र: धन्यवाद आचार्य जी।

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