डरे हुए आदमी से डरना || आचार्य प्रशांत, शेख़ फ़रीद पर (2017)

Acharya Prashant

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डरे हुए आदमी से डरना || आचार्य प्रशांत, शेख़ फ़रीद पर (2017)

प्रश्न : आचार्य जी, बाबा शेख फ़रीद, ऐसा क्यों बोल रहे हैं, कि “जो तुमसे भय मानता हो, तुम उससे भय मानो?”

आचार्य प्रशांत : तो, कहा है कि जो तुमसे भय मानता हो, तुम उससे भय मानो।बताते हैं कि बाबा फ़रीद के उपदेशों में से समझेंगे। आप यदि किसी से भय मानते हैं, तो क्यों? और आप कौन हैं अगर आप भय मानते हैं? दुनिया में एक से एक भीरु देखे होंगे आपने, वो डरते ही रहते हैं, भयाक्रांत। डरने वाला क्यों डरता है? और निडर कौन होता है? डरने वाला क्यों डरता है? और कौन है जग में जो निडर होता है?

जिसे कुछ खोने का डर है, वो डरता है। जिसे भाव है कि कुछ छिन सकता है, वो डरता है। और निडर कौन है? निडर वो है जिसने कुछ ऐसा पा लिया जो अब छिन नहीं सकता। जो खोया नहीं जा सकता। जिसके नष्ट होने की, मिट जाने की कोई संभावना नहीं। डरेगा वही जो उसमें जियेगा, जो नकली है। डर, वास्तव में, हमेशा अहंकार के चोट खाने का, अपने भ्रमों के टूटने का ही होता है, इसके अतिरिक्त और कोई डर होता नहीं। जिस चीज़ से आप जुड़े बैठे हो, अगर वो कमज़ोर है, तो डर तो सताएगा। वो चीज़ टूटी तो मैं भी टूट जाऊंगा क्योंकि मैंने उससे अब रिश्ता बाँध लिया है।

तो, कौन है जो डरता है?

जो नकली में जी रहा है, जो सपनों में जी रहा है, जो भ्रम में जी रहा है। जो सत्य के विरुद्ध खड़ा है, वही डरेगा। फ़रीद कह रहे हैं, “ऐसे से तुम डरो, ऐसे से तुम बचो।” क्यों?

क्योंकि वो डरा हुआ है। जो डरा हुआ है, वो हिंसक हो जाता है। जो डरा हुआ है, वो सच्चाई को झेल नहीं सकता। वो संख्या में आश्रय पाता है, वो अपने जैसों की तादाद बढ़ाना चाहता है। आपने देखा है ना, जब आप डर जाते हैं तो आप भीड़ की और भागते हैं। अँधेरा हो, निर्जन हो, अकेलापन, आपको बड़ा सुकून मिलता है अगर आपको पांच छह लोग कहीं दिख जाएँ, आपको उनका साथ मिल जाए। जो डरा है, वो तादाद मांगेगा, संख्या मांगेगा। कैसों की? अपने जैसों की।

डरे हुए को अगर कोई पूर्णतया निडर मिल गया, तो वो उसके लिए बड़े अपमान की बात होगी। क्योंकि निडरता की मौजूदगी ही उसके मुँह पर तमाचा होगी, क्योंकि निडरता उसको जता देगी कि तेरा डर मिथ्या था, तू बेवक़ूफ़ था जो अपना समय नष्ट कर रहा था, मन खराब कर रहा था। क्यों डरा-डरा फिरता था? देख, निडरता सजीव मौजूद है।

तो निडरता, से तो डरा हुआ व्यक्ति खार खायेगा। डरा हुआ व्यक्ति, अपने जैसों, को बढ़ाना चाहेगा। झूठ सहारा मांगता है, सत्य पर-आश्रित नहीं होता। पर झूठ को बहुत सारे अपने जैसे चाहियें। जो डरा हुआ है, वो और ऐसे पैदा करना चाहेगा जो डरे हुए ही हैं। डरा हुआ व्यक्ति अपने आसपास के पांच और लोगों को डराता है। डरा हुआ व्यक्ति उसके प्रति हिंसक हो जाता है जो न डरे। डरा हुआ व्यक्ति चूंकि संसार से डरता है, इसीलिए संसार को शत्रु मानता है, अपनी सुरक्षा के लिये वो घातक हो उठता है।

जहाँ डर है, वहाँ प्रेम नहीं। जहाँ डर है वहाँ सत्य नहीं। जहाँ डर है, वहाँ मुक्ति नहीं। कोई बहुत डरा हुआ है, वो आपसे बंध ही जाएगा, चिपक ही जाएगा। इसीलिए नहीं कि उसे प्रेम है आपसे, स्वार्थवश। किसी से प्रेम में एक हो जाना बिलकुल अलग बात है, और अपने डर की वजह से, अपने स्वार्थ की वजह से, किसी को जकड़ लेना बिलकुल दूसरी बात है। तो, फ़रीद हमें समझा रहे हैं कि जो डरा हुआ है, उससे बचो। क्योंकि वो घातक है, नुकसानदेह है।

डर अनायास नहीं होता, डर अकारण नहीं होता, डर के पीछे हमेशा एक चुनाव होता है। क्या चुनाव? कि सच्चाई नहीं चाहिए, झूठ ज़्यादा पसंद है। समर्पण नहीं चाहिए, अकड़ में जीना है। डर बीमारी है, ऐसी बीमारी जिसे हम खुद पैदा करते हैं, पोसते हैं, और सुरक्षित रखते हैं। जो सरल चित्त हैं, उन्हें डर कहाँ? डर कभी अकेला नहीं चलता। भय के साथ बीमारियों का पूरा एक कुनबा चलता है। जहाँ डर देखो, समझ लेना वहाँ भ्रम है, क्रोध है, मोह है, मद है, मात्सर्य है। तमाम तरह के झूठ हैं।

बीमारियों के इस झुंड से बचना है, कि नहीं बचना है?

यही समझा रहे हैं शेख फरीद कि डरे हुए आदमी को व्याधियों का झुण्ड जानना। सतर्क हो जाना, वो व्याधियाँ तुम्हें भी लग सकती हैं। जितनी मानसिक बीमारियाँ हैं, सब अतिसंक्रामक होती हैं। संगत असर लाती है, डरे हुए के बगल में बैठोगे, तुम भी डर जाओगे। वो तुम्हें ऐसे किससे सुनेगा, तुम्हारे मन में ऐसे-ऐसे ख़याल भर देगा जो तुम्हें अन्यथा कभी आते नहीं। तुम मौज में घूम रहे थे, वो तुम्हारे दिमाग में दस भूत नचा देगा, तुम भी डर जाओगे। संक्रामक है डर। तो फ़रीद कह रहे हैं, इस संक्रमण के विरुद्ध सतर्क रहो, अपनी रक्षा करो।

तुम अपनी रक्षा कर पाओगे, तभी तो किसी और की करोगे ना? जो खुद हार गया, वो किसी और को क्या जिताएगा? जो खुद बीमार हो गया, वो दूसरों की क्या चिकित्सा करेगा? अपने आप को बचाओ, यही दूसरे के प्रति भी करुणा है। जो मुक्त है, उसी का स्पर्श दूसरों को मुक्ति दे सकता है। जो आनंद में है, उसी का साहचर्य दूसरों को आनंदित कर सकता है।

बोलिये?

पढ़ा ना? ऐसे तो नहीं कि सो गए थे? तो क्या पढ़ा?

श्रोता : पाया है, कुछ पाया है,

सतगुरु मेरे, अलख लखाया है।

कहूं बैर पड़ा, कहूं बेली है,

कहूं मजनू है, कहूं लेली है।

कहूं आप गुरु, कहूं चेली है,

आप आपका पंथ बताया है।

वक्ता : परमात्मा की बात हो रही है, कि ये जो विभिन्नताएँ भासती हैं, ये सब कुछ जो परस्पर विरोधी लगता है, वो कुछ और नहीं है, उसी के अनेक रूप हैं। अद्वैत हज़ार तरीके के द्वैतों में प्रकट होता है। वही पुरुष है, और वही पुरुष के विपरीत स्त्री भी है, मजनू भी वही है, और? लैला भी वही है। चीज़ें अलग अलग दिखती हैं, पर वास्तव में एक ही है। कहा ये जा रहा है, कि जो कुछ तुम्हें अलग अलग दिख रहा है, उसके पीछे उनको अलग अलग देखने वाला मन बैठा हुआ है। और मन के जो तमाम रंग हैं, वो सब के सब समाहित हो जाते हैं मन की शान्ति में। सारा संसार और इसकी सारी विभिन्नताएँ और विषमताएँ, घूम फिर कर के मन में समा जाती हैं, और मन के सारे आकार प्रकार, घूम फिर के अंततः शांति में, समाधि में, आत्मा में समा जाते हैं।

जो मन को जान लेता है, वो मन की तमाम अवस्थाओं में भी एक सा रहता है। समभाव में। बाहर उसके चीज़ें बदलती रहती हैं, भीतर कुछ होता है जो नहीं बदलता। वो कहता है, “हाँ ठीक है, ठीक है, काला था, अब सफ़ेद है। अभी गर्मी है, थोड़ी देर में ठंड। पर भीतर कुछ है, जो शीत और ऊष्मा, दोनों के एहसास से अछूता है।” सारे द्वैतों के बीच में! अद्वैत।

श्रोता : कुछ कुछ स्थितप्रग्य जैसा।

वक्ता : बिलकुल, वही। बिलकुल वही।

ये तो हम लोगों ने ईतनी बार गाया है, पिछले दो साल में इसका ज़िक्र नहीं आया, नहीं तो खूब गाया है। यूट्यूब पर भी होगा। अपार तुमने भी तो गाया है शायद ये?

श्रोता : जी

वक्ता : अब गाओ।

श्रोता : (गाते हुए)

पाया है, कुछ पाया है,

सतगुरु मेरे, अलख लखाया है।

कहूं बैर पड़ा, कहूं बेली है,

कहूं मजनू है, कहूं लेली है।

कहूं आप गुरु, कहूं चेली है,

आप आपका पंथ बताया है।

पाया है, कुछ पाया है,

सतगुरु मेरे, अलख लखाया है।

कहूं मेहजत का करतारा है, कहूं बढ़िया ठाकर द्वारा है।

कहूं बैरागी जय धारा है,

सेखन बड़ी बड़ी आया है।

पाया है, कुछ पाया है,

सतगुरु मेरे, अलख लखाया है।

कहूं तुरक मुस्सला पढ़ते हो, कहूं भगत हिन्दू जप करते हो,

कहूं घोर घुन्डे में पड़ते हो, कहूं घोर घुन्डे में पड़ते हो,

घर घर लाड लड़ाया है, घर घर लाड लड़ाया है।

पाया है, कुछ पाया है,

सतगुरु मेरे, अलख लखाया है।

बुल्ला शाहू, मैं बेमुहताज़ होईया,

महाराजा मिल्या मेरा काज होईया।

दरसन पिया का इलाज होईया, दरसन पिया का इलाज होईया,

आप आप में आप समाया है।

पाया है, कुछ पाया है,

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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